ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी, जो कि सम्पूर्ण जैन समाज में ‘‘श्रुतपंचमी’’ पर्व के नाम से विख्यात है। इस दिन द्वादशांगमयी सरस्वती देवी की पूजा की जाती है। उस श्रुतपंचमी पर्व के महत्त्व को यहाँ दर्शाया जा रहा है— सौराष्ट देश में ऊर्जयंतगिरि की चंद्रगुफा में निवास करने वाले अष्टांगमहानिमित्तधारी श्री धरसेनाचार्य के मन में विचार आया कि ‘‘आगे अंगश्रुतज्ञान का विच्छेद हो जाएगा अतः जैसे भी हो उस अंगश्रुतज्ञान को सुरक्षित करने का प्रयास करना चाहिए। उसी समय उन्होंने ‘‘पंचवर्षीय साधु सम्मेलन’’ में पधारे दक्षिण देशवासी साधुओं के पास एक पत्र भेजा। उस पत्र को पढ़कर उन आचार्यों ने दो योग्य मुनि उस आन्ध्रप्रदेश से सौराष्ट्र देश में भेजे। इन दोनों मुनियों के पहुँचने से पहले ही आचार्यप्रवर श्री धरसेनजी को पिछली रात्रि में स्वप्न हुआ कि ‘‘दो शुभ्र वृषभ मेरी तीन प्रदक्षिणा देकर मेरे चरणों में नमन कर रहे हैं।’’
यद्यपि उस स्वप्न का फल वे योग्य शिष्यों का मिलना समझ चुके थे फिर भी उन दोनों के आने पर उनकी परीक्षा के लिए गुरुदेव ने उन दोनों को एक-एक विद्या देकर भगवान नेमिनाथ की सिद्धभूमि में बैठकर विद्या सिद्ध करने का आदेश दिया। गुरु की आज्ञा से वे दोनों विद्या सिद्ध करने हेतु मंत्र जाप करने लगे। जब विद्या सिद्ध हो गई तो उनके सामने दो देवियाँ प्रगट हुर्इं, उनमें से एक देवी एक आँख वाली थी और दूसरी के दाँत बड़े-बड़े थे। उन दोनों मुनियों ने समझ लिया कि हमारे मंत्रों में कहीं न कहीं दोष है। चिन्तन करके मंत्र के व्याकरणशास्त्र से दोनों ने मंत्र शुद्ध किए। एक मुनि के मंत्र में एक अक्षर कम था और दूसरे मुनि के मंत्र में एक अक्षर अधिक था। शुद्ध मंत्र जपने पर सुन्दर वेशभूषा में दो देवियाँ अपने सुन्दर रूप में प्रगट हुईं और बोलीं—हे देव ! आज्ञा दीजिए! क्या करना है ? दोनों मुनि बोले—हमें आपसे कोई कार्य नहीं है, केवल गुरु की आज्ञा से हमने ये मंत्र जपे हैं। ऐसा सुनकर देवियाँ वापस चली गईं ।
दोनों मुनियों ने जाकर गुरुवर श्री धरसेनाचार्य को सारा वृत्तान्त सुनाया। आचार्यश्री ने प्रसन्न होकर शुभ मुहूर्त में दोनों को श्रुतविद्या का अध्ययन कराना प्रारम्भ किया। इन्होंने विनयपूर्वक गुरु से विद्या प्राप्त की पुनः गुरू ने जानकर इन दोनों का विहार करा दिया। दोनों मुनियों ने ‘‘अंकलेश्वर’’ ग्राम में जाकर चातुर्मास स्थापित किया। तदनंतर बड़े मुनि श्री पुष्पदंताचार्य अपने भांजे जिनपालित को साथ लेकर उसे मुनि बनाकर बनवास नामक देश को चले गए और भूतबलि आचार्य तमिलदेश को चले गए। श्रीपुष्पदंताचार्य ने जिनपालित मुनि को सत्प्ररूपणा के १७७ सूत्रों को लिखकर पढ़ाया और उसे देकर भूतबलि आचार्य के पास भेज दिया। इन्होंने भी अपने सहपाठी गुुरुभाई पुष्पदंताचार्य के अभिप्राय को जानकर और उनकी आयु अल्प जानकर ‘‘द्रव्यप्रमाणानुगम’’ को आदि लेकर षट्खण्डागम ग्रन्थ की रचना पूर्ण की और ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी के दिन इस ग्रन्थ की चर्तुिवध संघ ने पूजा की तभी से श्रुतपंचमी पर्व चला आ रहा है। ये दोनों आचार्य षट्खण्डागम ग्रन्थ के कर्ता माने गए हैं।
उस षट्खण्डागम ग्रन्थ की छह टीकाओं में से आचार्य श्री वीरसेन स्वामी रचित वर्तमान में उपलब्ध ‘‘धवला’’ टीका पर इस बीसवीं सदी की प्रथम बालसती, युगप्रर्वितका, चारित्रचन्द्रिका गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की लेखनी ने ‘‘सिद्धान्तचिन्तामणि टीका’’ नाम की मौलिक संस्कृत टीका लिखकर समस्त जैन समाज को आश्चर्यचकित कर दिया है। आश्विन शु. १५ दिनाँक ८-१०-९५ से प्रारम्भ कर फाल्गुन शुक्ला १३, वी. नि. सं. २५२३ दिनाँक ७-२-९७ को माधोराजपुरा में प्रथम खण्ड की छह पुस्तकें लगभग ९०० पेज की संस्कृत टीका को अठारह मास में पूर्ण किया। इस महान सूत्रराज का हिन्दी अनुवाद करने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ। पूज्य माताजी द्वारा सोलहों पुस्तकों का लेखन कार्य ४ अप्रैल सन् २००७ में वैशाख कृष्णा दूज को पूज्य माताजी के ५२वें आर्यिका दीक्षा दिवस पर पूर्ण हो चुका है । कुल ३१०७ पृष्ठों में लिखी गई यह हस्तलिखित टीका जम्बूद्वीप – हस्तिनापुर में सुरक्षित है । इस श्रुतपंचमी के दिन श्रावक एवं श्राविकाएँ श्रुत की बड़े समारोह से पूजन करके श्रुतस्कन्ध विधान करें प्राचीन ग्रन्थों को सुरक्षित नए वेष्टन में बाँधकर आचार्यों द्वारा प्रणीत ग्रन्थों को मंगाकर मंदिरों में विराजमान करें तथा सिद्ध, श्रुत, आचार्य आदि भक्ति करके केवलज्ञान में सहायक ऐसा असीम पुण्य संचित करें।