कल्याणपरंपरं देवं। प्रणिपत्य वद्र्धमानं श्रुतस्य वक्ष्येऽहमवतारम् ।।१।।
यद्यप्यनाद्यनिधनं श्रुतं तथाप्यत्र तन्निभेदेन मया। कालाश्रयेण तस्योत्पत्तिविनाशौ प्रवक्ष्येते।।२।।
भरतेऽस्मिन्नवसर्पिण्युत्सर्पिण्याह्व्यौ प्रवर्तेते। कालौ सदापि जीवोत्सेधायुह्र्रासवृद्धिकरौ।।३।।
एवैकस्य पृथग्दशकोटीकोट्य: प्रमाणमुद्दिष्टं। वाध्र्युपमानावेतौ समाश्रितौ भवति कल्प इति।।४।।
अथ श्रुतावतारकथा लिख्यते
सभी स्वर्ग आदि के इन्द्रों से वंदित सर्वकल्याण की परम्परा के स्थान ऐसे वर्धमान देव-अंतिम तीर्थंकर महावीर स्वामी को नमस्कार करके मैं श्रुत के अवतार को कहूँगा।।१।। यद्यपि श्रुत अनादिनिधन है अर्थात् अनादिकाल से है और अनंतकाल तक रहेगा परन्तु यहाँ पर काल के आश्रय से जो उसका अनेक बार उत्पाद और विनाश हुआ है, उसका वर्णन करते हैं।।२।। इस भरतक्षेत्र में अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी नाम के दो काल प्रवर्तते रहते हैं जिनमें कि निरंतर जीवों के शरीर की ऊँचाई और आयु में न्यूनाधिकता हुआ करती है।।३।। अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल की स्थिति पृथक्-पृथक् दश कोड़ाकोड़ी सागर की है। दोनों की स्थिति के काल को कल्पकाल कहते हैं।।४।।
तत्रावसर्पिणीयं प्रवर्तमाना भवेत्समाऽस्याश्च। कालविभागा: प्रोक्ता: षडेव कालप्रभेदज्ञै:।।५।।
सुषमसुषमाह्व्याद्या सुषमान्या सुषमदु:षमेत्यपरा। दुष्षमसुषमान्या दुष्षमाऽतिपूर्वा पराऽस्यैव।।६।।
तत्र क्रमाच्चतस्रस्तिस्रो द्वे सागरोपमाख्यानाम्। कोटीकोट्यस्तिस¸णामाद्यानां भवति परिमाणम्।।७।।
कोटीकोटीवर्षसहस्रैरेतैश्चतुर्दशभिरूना। त्रिगुणैरंभोधीनां परिमाणं भवति तुर्याया:।।८।।
एकोत्तरविंशत्यां वर्षसहस्रैर्मिता समोपान्त्या। तावद्भिरेव कलिता वर्षसहस्रै: समा षष्ठी।।९।।
धनुषां षट्चत्वारि द्वे च सहस्रे शतानि पंचैव। हस्ता: सप्तारत्नि: षट्कालिकमानतोत्सेध:।।१०।।
पल्यानि त्रीणि द्वे तथैककं वर्षपूर्वकोटी च। विंशच्छतं च विंशतिरब्दानां तन्नृणामायु:।।११।।
तत्राद्ययोव्र्यतीते समये संपूर्णयोस्तृतीयाया:। पल्योपमाष्टमांशन्यूनाया: कुलधरा ये स्यु:।।१२।।
इस समय अवसर्पिणी काल प्रवर्तमान हो रहा है। काल के भेद जानने वाले गणधरदेव ने इसके छह भेद बतलाये हैं, सुषमासुषमा, सुषमा, सुषमादु:षमा, दु:षमा और दु:षमादु:षमा। इनमें से पहला चार कोड़ाकोड़ी सागर का, दूसरा तीन कोड़ाकोड़ी सागर का, तीसरा दो कोड़ाकोड़ी सागर का, चौथा ब्यालीस हजार वर्ष न्यून एक कोड़ाकोड़ी सागर का, पाँचवाँ इक्कीस हजार वर्ष का और छट्ठा इक्कीस हजार वर्ष का।।५-६-७-८-९।। पहले काल में मनुष्यों की ऊँचाई छह हजार धनुष, दूसरे में चार हजार धनुष, तीसरे में दो हजार धनुष, चौथे में पाँच सौ धनुष, पाँचवें में सात हाथ और छठे में १अरत्निप्रमाण होती है और उन मनुष्यों की आयु पहले काल में तीन पल्य, दूसरे में दो पल्य, तीसरे में एक पल्य, चौथे में एक करोड़ वर्ष पूर्व, पाँचवें में एक सौ बीस वर्ष, छठे में बीस वर्ष होती है।१०-११।। पहले दो काल बीत जाने पर और तीसरे काल में पल्य का आठवाँ भाग
तेषामाद्यो नाम्ना प्रतिश्रुति: सन्मतिद्र्वितीय स्यात्। क्षेमंकरस्तृतीय: क्षेमंधरसंज्ञकस्तुर्य:।।१३।।
सीमंकरस्तथान्य: सीमंधरसाह्व्यो विमलवाह:। चक्षुष्माँश्च यशस्वानभिचंद्रश्चन्द्राभनामा च।।१४।।
मरूदेवनामधेय: प्रसेनजिन्नाभिराजनामान्त्य:। हामाधिक्काराननुशासति निजतेजस: स्खलितान्।।१५।।
हाकारं पंच ततो हामाकारं च पंच पंचान्ये। हामाधिक्कारान् कथयंति तनोर्दण्डनं भरत:।।१६।।
रवितारालोकेभ्यस्त्रयो नृणामपनयन्ति भयमाढ्या:। दीपविचोदनमर्यादाऽऽवृतिवाहादिरोहमत:।।१७।।
कथयन्ति तु चत्वार: सुतेक्षणाद्भीतिमपहरन्त्यन्य:। नामकृतिं शशधरमभि शिशुकेलिं प्रकुरूतेऽन्य:।।१८।।
शेष रह जाने पर प्रतिश्रुति, सन्मति, क्षेमंकर, क्षेमंधर, सीमंकर, सीमंधर, विमलवाहन, चक्षुष्मान्, यशस्वान, अभिचंद्र, चन्द्राभ, मरूदेव, प्रसेनजित् और नाभिराज इन चौदह कुलकरों की उत्पत्ति हुई। इन्होेंंने अपने प्रताप से हा ।मा। धिक्। इन शब्दों से ही पृथ्वी का शासन किया अर्थात् उन्हें यदि कभी दंड देने की आवश्यकता होती थी तो इन शब्दों का व्यवहार करते थे। पहले पाँच कुलकरों ने ‘हा’’ शब्द से, दूसरे पाँच ने हा ।मा। और अन्त के पाँच१ कुलकरों ने हा ।मा। और धिक शब्दों से राज्यशासन किया था।।१२-१३-१४-१५-१६।। पहले कुलकर ने सूर्य, चन्द्रमा के प्रकाश से जो लोग भयभीत हुए थे उनका भय निवारण किया। दूसरे ने तारागण के प्रकाश से भयभीत लोगों का भय निवारण किया। तीसरे ने सिंह, सर्पादि से जो लोग भयभीत हुए थे उनका भय निवारण किया। चौथे ने अन्धकार के भय को दीपक जलाने की शिक्षा से दूर किया। पाँचवें ने कल्पवृक्षों के स्वत्व की मर्यादा बाँधी। छठे ने अपनी नियमित सीमा में शासन करना सिखलाया। सातवें ने घोड़े, रथ, हाथी आदि सवारियों पर चढ़ना सिखलाया। आठवें कुलकर ने जो लोग अपने पुत्र का मुख देखने से भयभीत हुए थे उनका भय निवारण किया। नौवें कुलकर ने पुत्र-पुत्रियों के
जीवति सुतै: सहान्यो जलतरणं गर्भमलविशुद्धिं च। नालनिकर्तनमपि च त्रयोऽपि परे व्यपदिशंति नृणां।।१९।।
अथ नाभिराजनृपतेर्मरूदेव्यां व्यजनि नंदनो वृषभ:। तीर्थकृतामाद्योऽसौ प्रवत्र्य भरते भृशं तीर्थम्।।२०।।
निर्वाणमवाप तत: पंचाशल्लक्षकोटिमितिवाद्र्धि:। यावदविच्छिन्नतया समागतं तत् श्रुतं सकलं।।२१।।
जातस्ततोऽजितजिन: शिष्येभ्य: सोऽपि सम्यगुपदिश्य। तत् श्रुतमखिलं प्रापन्निर्वाणमनुत्तरं तद्वत्।।२२।।
एवमजितादिचन्द्रप्रभान्ततीर्र्थेशिनामतिक्रांता। सागरकोटीनां त्रिंशक्रमाद्दशभिरथ नवभि:।।२३।।
लक्षैस्तथा नवत्या नवभिश्च सहस्रवैक: शतै: नवभि:। शंभवमुख्यात् श्रुतमापन्नमत्या च पुष्पदंतान्तात्।।२४।।
नामकरण की विधि बताई। दशवें ने चन्द्रमा को दिखलाकर बच्चों को क्रीड़ा करना सिखलाया। ग्यारहवें ने पिता पुत्र के व्यवहार का प्रचार किया अर्थात् लोगों को सिखलाया कि यह तुम्हारा पुत्र है तुम इसके पिता हो। बारहवें ने नदी समुद्रादि में नाव, जहाज आदि के द्वारा पार जाना, तैरना आदि सिखलाया। तेरहवें ने गर्भ, मल के शुद्ध करने का अर्थात् स्नानादि कर्म का उपदेश दिया। चौदहवें ने नाल काटने की विधि बतलाई।।१७-१८-१९।। पश्चात् चौदहवें कुलकर श्री नाभिराय की मरुदेवी महारानी के गर्भ से आदि तीर्थंकर श्री वृषभनाथ भगवान उत्पन्न हुए और भरतक्षेत्र में उन्होेंने अपने तीर्थ की प्रवृत्ति की। उनके निर्वाण होने पर पचास लाख कोटिसागर वर्ष तक सम्पूर्ण श्रुतज्ञान अविच्छिन्न रूप से प्रकाशित रहा।।२०-२१।। अनंतर दूसरे तीर्र्थंकर श्री अजितनाथ भगवान ने अवतार लिया और वे भी अपने शिष्यों को भलीभाँति उपदेश करते हुए मोक्ष पधारे। उनके पश्चात् भी श्रुतज्ञान अस्खलित गति से चलता रहा। श्री अजितनाथ के निर्वाण हो जाने के तीस लाखकोटि सागर पीछे सम्भवनाथ जी, उनसे दश लाखकोटि सागर पीछे श्री अभिनंदन, उनसे नौ लाख कोटिसागर पीछे श्री सुमतिनाथ, उनसे नब्बे हजार कोटिसागर पीछे पद्मनाथ, नौ हजार कोटिसागर पीछे श्री सुपाश्र्वनाथ, नौ सौ कोटिसागर पीछे श्री चंद्रप्रभ और
अथ पुष्पदंततीर्थे नववारिधिकोटिगणनया कलिते। पल्योपमतुर्यांशे शेषे तत् श्रुतमवाप विच्छेदम्।।२५।।
पल्यचतुर्भागमिते काले तीर्थे तत: समुत्पन्न:। शीतलजिन: स पुनराविष्कृतवांस्तत् श्रुतविशेषम्।।२६।।
शीतलतीर्थे सागरशतेन षट्षष्ठिलक्षमितवर्षै:। षड्विंशत्या वर्षसहस्रैन्र्यूनैकवाद्र्धिकोटिमिते।।२७।।
पल्यार्धमात्रकाले शेषे तत्पुनरजन्य विच्छिन्नम्। मितवति गतिवति काले ततोऽभवत्तीर्थकृच्छ्रेयान्।।२८।।
श्रेयस्तीर्थमपि चतुष्पंचाशत्सागरोपम प्रमिते। पल्यत्रिचतुर्भागे शेषे तत्पुनरवापान्तम्।।२९।।
पल्यत्रिचतुर्भाग प्रमिते काले गते ततो जात:। श्रीवासुपूज्यभगवान् सोऽप्याविष्कृत्य तन्मुक्त:।।३०।।
एवं वसुपूज्यात्मजविमलजिनानंतधर्मतीर्थेषु। त्रिंशत्नवकचतुष्कं त्रिपल्यपादोनितत्रिवैर्वाद्र्धीनां।।३१।।
चंद्रप्रभ से नब्बेकोटिसागर पीछे श्री पुष्पदंतनाथ भगवान हुए। यहाँ तक समस्त श्रुत अव्यवहित प्रकाशित रहा।।२२-२३-२४।। और इसके आगे श्री पुष्पदंत के तीर्थ के नौ कोटिसागर पूर्ण होने में जब चौथाई पल्य शेष रहा था, तब तक श्रुत का प्रकाश रहा। इसके पश्चात् चौथाई पल्य तक श्रुत का विच्छेद रहा। अनंतर श्री शीतलनाथ अवतरित हुए, इन्होेंने फिर श्रुत का प्रकाश किया और वह ६६२६००० वर्ष कम ९९९९९०० सागर में आधापल्य शेष रहा था तब तक रहा, इसके पश्चात् आधा पल्य तक विच्छेद रहा। अनंतर श्रेयान् तीर्थंकर ने फिर श्रुत का प्रकाश किया। इनके निर्वाण के पश्चात् ५४ सागर में पौन पल्य शेष रहा था तब फिर श्रुत का विच्छेद हुआ और वह पौन पल्य तक रहा। तदनंतर श्री वासुपूज्य तीर्थंकर हुए। इन्होंने फिर श्रुत का प्रकाश किया। इनके निर्वाणानंतर ३० सागर में जब एक पल्य रह गया तब फिर श्रुत विच्छेद हुआ और वह एक पल्य तक रहा। अनंतर श्री विमलनाथ हुए, इन्होेंने फिर श्रुत का प्रकाश किया। इनके तीर्थ के ९ सागर में जब एक पल्य रहा तब फिर श्रुत का विच्छेद हुआ और वह एक पल्य तक रहा। तत्पश्चात् श्री अनंतनाथ भगवान ने फिर श्रुत का प्रकाश किया।।२५ से ३०।। इनके निर्वाण के पश्चात् चार
प्रमितेषु पल्यपल्य त्रिपादपल्यार्धपल्य पल्यांशे। शेषे शेषं तत् श्रुतमनुक्रमादाप विच्छेदम्।।३२।।
अथ धर्मतीर्थसंतानान्तरकालस्य सत्यपर्यन्ते। उत्पद्य शांतिनाथस्तत्प्रकटीकृत्य मुक्तिमगात्।।३३।।
शांत्यादिपाश्र्वपश्चिम तीर्थकराणां च तीर्थसंताने। पल्यार्धवर्षकोटीसहस्रोनितपल्यपादाभ्याम्।।३४।।
कोटिसहस्रेण चतु:पंचाशद्गुणितशतसहस्रेण। षड्भिश्च शतसहस्रैर्लक्षाभि: पंचभिश्च तथा।।३५।।
त्र्यधिकाशीतिसहस्रैर्युतार्धाष्टमशतैश्च पंचाशत्। सहितशतद्वितयेन च वर्षाणां सम्मिते क्रमश:।।३६।।
चतुरमलबोधसंपत्प्रगल्भमतियतिजनैरविच्छिन्नै:। न क्वचिदप्यवच्छेदमापत्तत् श्रुतमुदात्तार्थम्।।३७।।
अजिताद्यास्तीर्थकरा वृषभादिजिनेन्द्रतीर्थकालस्य। अंतर्वत्र्यायुष्का जाता इत्यत्र विज्ञेया:।।३८।।
अथ पाश्र्वनाथतीर्थस्यान्ते श्रीवद्र्धमाननामाऽभूत्। प्रियकारिण्यां सिद्धार्थभूपतेरन्त्यतीर्थकर:।।३९।।
सागर में पौन पल्य शेष रहने पर पौन पल्य तक फिर श्रुत का विच्छेद रहा। अनंतर श्री धर्मनाथ ने फिर श्रुत का प्रकाश किया। इनके निर्वाण के पश्चात् पौन पल्य कम तीन सागर में जब आधा पल्य शेष रह गया तब फिर श्रुत का विच्छेद हुआ और वह आधा पल्य पर्यन्त रहा। अनंतर श्री शांतिनाथ तीर्थंकर हुए। इन्होेंने फिर श्रुत का प्रकाश किया। इनके पश्चात् आधा पल्य बीतने पर श्री कुन्थुनाथ, हजारकोेटि वर्ष कम पाव पल्य बीतने पर श्री अरनाथ, हजारकोटि वर्ष बीतने पर श्री मल्लिनाथ, ५४ लाख वर्ष बीतने पर श्री मुनिसुव्रत, छह लाख वर्ष बीतने पर श्री नमिनाथ, पाँच लाख वर्ष बीतने पर श्री नेमिनाथ, पौने चौरासी हजार वर्ष बीतने पर श्री पाश्र्वनाथ तीर्थंकर और २५० वर्ष बीतने पर श्री वद्र्धमान तीर्थंकर पर्यन्त श्रुत का विच्छेद नहीं हुआ। कुशाग्रबुद्धि यतिवरों द्वारा ज्यों का त्यों प्रकाशित रहा।।३१ से ३८।। श्री पाश्र्वनाथ भगवान के तीर्थ के अंत में कुण्डलपुर के राजा सिद्धार्थ की प्रियकारिणी (त्रिशला) रानी के गर्भ से अंतिम तीर्थंकर श्री महावीर का जन्म
त्रिंशद्वर्षेषु कुमार एव विगतेष्वसौ प्रवव्राज। द्वादशभिर्वर्षाभि: प्रापद्वै केवलं तप: कुर्वन्।।४०।।
उदिते केवलबोधे धनद: शक्राज्ञया चकार सभाम्। समवसृतिनामधेयां तस्य स्यादखिललोक गुरो:।।४१।।
सुरनरमुनिवृन्दारकवृन्देष्वपि समुदितेषु तीर्थकृत:। षट्षष्टिरहानि न निर्जगाम दिव्यध्वनिस्तस्य।।४२।।
दिव्यध्वनेरनिर्गमकारणमवगम्य गणधराभावम्। आनेतुमगात्तमत: सुत्रामा गौतमग्रामम्।।४३।।
तत्र स गत्वा ब्राह्मणशालायामिन्द्रभूतिनामानम्। छात्रशतपंचकेभ्यो व्याख्यानं विदधतं विप्रम्।।४४।।
गौतमगोत्रं विद्यामदगर्वितमखिलवेद वेदांग- प्रतिबुद्धतत्वमवलोक्य कवलिकाछात्रवेषेण।।४५।।
तद्व्याख्यानं श्रृण्वन्नेकोद्देशे द्विजन्मशालाया:। स्थित्वा ततो भवद्भि: प्रतिबुद्धं तत्त्वमिति तस्य।।४६।।
छात्रेभ्य: प्रतिपादनसमयेऽसौ नासिकाग्रभंगेन। मुहुरत्यरूचिं प्रकटीकुर्वन्नुपलक्षितश्छात्रै:।।४७।।
हुआ। उन्होेंने तीस वर्ष की आयु में कुमारावस्था में ही जिनदीक्षा ले ली और घोर तपस्या करके बारह वर्ष में केवलज्ञान लक्ष्मी प्राप्त कर ली। उनके केवलज्ञान सूर्य के उदय होने पर इंद्र की आज्ञा से कुबेर ने समवसरण नामक सभा की रचना की। उस महासभा में देव, मनुष्य, मुनि आदि सबका समूह एकत्रित था तो भी त्रिजगद्गुरु भगवान की दिव्यध्वनि ६६ दिन तक नि:सृत नहीं हुई। यह देखकर इंद्र ने जब विचार किया, तो उसे विदित हुआ कि, गणधरदेव का अभाव ही दिव्यध्वनि न होने का कारण है। अतएव गणधर की खोज करने के लिये वह इंद्र गौतम ग्राम को गया। वहाँ एक ब्राह्मणशाला में इंद्रभूति नाम का पंडित अपने पाँच सौ शिष्यों के सन्मुख व्याख्यान दे रहा था।।३९ से ४४।। इंद्रभूति अखिल वेद वेदांग शास्त्रों का विद्वान् था और विद्या के मद में चूर हो रहा था। इंद्र छात्र का वेष धारण करके उस पाठशाला में एक ओर जाकर खड़े हो गये और उसके व्याख्यान को सुनने लगे। इंद्रभूति ने थोड़ी देर में विराम लेते हुए जब कहा कि, ‘‘क्यों तुम्हारी समझ में आया ?’’ और छात्रवृन्द जब कहने लगे कि ‘‘हाँ आया’’
तेपि ततस्तच्चेष्टितमीदृशमावेदयन् स्वकीयगुरो:। सोऽपि ततो द्विजमुख्यस्तमपूर्वं छात्रमित्यवदत्।।४८।।
शास्त्राणि करतलामलकायन्तेऽस्माकमिह समस्तानि। अपरेऽपि वादिनोऽस्माज्जायंते नष्टदुष्टमदा:।।४९।।
तत्केन हेतुना तद्व्याख्यानं नैव रोचते तुभ्यम्। कथयेति ततस्तस्मै प्रतिवचनमुवाच सोऽपीत्थम्।।५०।।
यदि सर्वशास्त्रतत्त्वं जानन्ति भवन्त एव तदमुष्या:। आर्याया: कथयन्त्वर्थमिति पठति तत्काव्यं।।५१।।
‘‘षड्द्रव्यनवपदार्थत्रिकालपंचास्तिकायषट्कायान्। विदुषां वर: स एव हि यो जानाति प्रमाण नयै:।।५२।।
श्रुत्वा तेनेत्युदितामश्रुतपूर्वामतीव विषमार्थाम्। आर्यामिमां ततोऽस्या: सोऽर्थमजानन्निति तमूचे।।५३।।
कस्यच्छात्रस्तावत्त्वं कथयेत्याह सोऽपि भट्टार्हत्। श्री वद्र्धमानभट्टारकस्य जगतीगुरोश्छात्र:।।५४।।
तब इंद्र ने नासिका का अग्रभाग सिकोड़कर इस प्रकार से अरूचि प्रकट की कि, वह छात्रों की दृष्टि में आ गई। उन्होेंने तत्काल ही उस भाव का गुरु महाराज से निवेदन कर दिया। तब इंद्रभूति ब्राह्मण इस अपूर्व छात्र से बोला कि, ‘‘समस्त शास्त्रों को मैं हथेली पर रक्खे हुए आंवले के समान देखता हूँ और अन्यान्यवादी गुणों का दुष्ट मद मेरे सन्मुख आते ही नष्ट हो जाता है। फिर कहो, किस कारण से मेरा व्याख्यान तुम्हें रूचिकर नहीं हुआ’’।।४५ से ५०।। इंद्र ने उत्तर दिया, ‘‘यदि आप सम्पूर्ण शास्त्रों का तत्त्व जानते हैं, तो मेरी इस आर्या का अर्थ लगा दीजिये’’ और यह आर्या उसी समय पढ़कर सुनाई— षड्द्रव्यनवपदार्थत्रिकालपंचास्तिकायषट्कायान्। विदुषां वर: स एव हि यो जानाति प्रमाणनयै:।।१।। इस अश्रुतपूर्व और अत्यंत विषम अर्थ वाली आर्या को सुनकर इंद्रभूति कुछ भी नहीं समझा। इसलिये वह बोला-तुम किसके विद्यार्थी हो ? इंद्र ने उत्तर दिया ‘‘मैं जगद्गुरु श्री वर्धमान भट्टारक का छात्र हूँ।’’
सिद्धार्थनन्दस्य छात्रस्त्वं चेन्महेन्द्रजालविद:। देवागमं जनस्य प्रतिदर्शयतो वियन्मार्गे।।५५।।
तत्तेनैव विवादं सार्धं प्रकरोमि किं त्वया कार्यं। त्वत्तो जयापजययोर्ममैव विद्वत्सु लघुता स्यात्।।५६।।
एहि व्रजाव इत्यभिधाय पुरोधाय गौतम: शक्रम्। समवसृतिं भ्रातृभ्यामायाद्वायुवन्हिभूतिभ्याम्।।५७।।
दृष्ट्वा मानस्तम्भं विगलितमानोदयो द्विजन्माऽसीत्। भ्रातृभ्यां सह जिनपतिमवलोक्य परीत्य तं भक्त्या।।५८।।
नत्वा नुत्वा त्यक्त्वाऽऽशेषपरिग्रहमनाग्रहो दीक्षां। आदायाग्रिमगणभृद्बभूव सप्तद्र्धिसंपन्न:।।५९।।
अथ भगवान् किं जीवोऽस्ति नास्ति वा कि गुण: कियान्- कीदृक। इत्यादिषडयुतप्रमितं तद्गणेट् प्रश्नपर्यंते।।६०।।
तब इंद्रभूति ने कहा-‘‘ओह! क्या तुम उसी सिद्धार्थनंदन के छात्र हो, जो महा इंद्रजाल विद्या का जानने वाला है, और जो लोगों को आकाशमार्ग में देवों को आते हुए दिखलाता है? अच्छा, तो मैं उसी के साथ शास्त्रार्थ करूँगा। तेरे साथ क्या करूँ ? तुम्हारे जैसे छात्रों के साथ विवाद करने से गौरव की हानि होती है। चलो चलें, उससे शास्त्रार्थ करने के लिये।’’ ऐसा कहकर इंद्रभूति इंद्र को आगे करके अपने भाई अग्निभूति और वायुभूति के साथ समवसरण की ओर चला।।५० से ५७।। वहाँ पहुँचने पर ज्यों ही मानस्तम्भ के दर्शन हुए त्यों ही उन तीनों का गर्व गलित हो गया। पश्चात् जिनेन्द्र भगवान को देखकर इनके हृदय में भक्ति का संचार हुआ इसलिये उन्होंने तीन प्रदक्षिणा देकर नमस्कार किया, स्तुति पाठ पढ़ा और उसी समय समस्त परिग्रह का त्याग करके जिनदीक्षा ले ली। इंद्रभूति को तत्काल ही सप्त ऋद्धियाँ प्राप्त हो गर्इं और आखिर में वे भगवान के चार ज्ञान के धारी प्रथम गणधर हो गये। समवसरण में उन इंद्रभूति गणधर ने भगवान से ‘‘जीव अस्तिरूप है, अथवा नास्तिरूप है? उसके क्या-क्या लक्षण हैंं, वह कैसा है,’’ इत्यादि साठ हजार प्रश्न किये।।५८ से ६०।। उत्तर में ‘‘जीव अस्तिरूप है, अनादिनिधन है,
जीवोऽस्त्यनादिनिधन: शुभाशुभविभेदकर्मणां कर्ता। सदसत्कर्मफलानां भोक्ता स्वोपात्ततनुमात्र:।।६१।।
उपसंहरणविसर्पणधर्मज्ञानादिभिर्गुणैर्युक्त:। ध्रौव्योत्पत्तिव्ययलक्षण: स्वसंवेदनग्राह्य:।।६२।।
नोकर्मकर्मपुद्गलमनादिरूपात्तकर्मसंबंधात्। गृण्हन् मुंचन् भ्राम्यन् भवे भवे तत्क्षयान्मुक्त:।।६३।।
इत्याद्यनेकभेदैस्तथा स जीवादिवस्तुसद्भावम्। दिव्यध्वनिना स्पुटमिन्द्रभूतये सन्मतिरवोचत्।।६४।।
श्रावणबहुलप्रतिपद्युदितेऽर्वे रौद्रनामनि मुहूर्र्ते। अभिजिद्गते शशांके तीर्थोत्पत्तिर्बभूव गुरो:।।६५।।
तेनेन्द्र भूतिगणिना तद्दिव्यवचोऽवबुध्य तत्त्वेन। ग्रन्थोऽङ्गपूर्वनाम्ना प्रतिरचितो युगपदपराण्हे।।६६।।
प्रतिपादितं ततस्तत् श्रुतं समस्तं महात्मना तेन। प्रथितात्मीयसधर्मणे सुधर्माभिधानाय।।६७।।
सोपि प्रतिपादितवान् जम्बूनाम्ने सधर्मणे स्वस्य। तेभ्यस्ततो गणिभ्योऽन्यैरपि तदधीतं मुनिवृषभै:।।६८।।
शुभाशुभरूप कर्मों का कर्ता भोक्ता है, प्राप्त हुए शरीर के आकार है, उपसंहरण विसर्पण धर्मवाला और ज्ञानादि गुणों करके युक्त है, उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य लक्षणविशिष्ट है, स्वसंवेदन ग्राह्य है, अनादि प्राप्त कर्मों के संबंध से नोकर्म-कर्मरूप पुद्गलों को ग्रहण करता हुआ, छोड़ता हुआ, भव भव में भ्रमण करने वाला और उक्त कर्मों के क्षय होने से मुक्त होने वाला है’’ इस प्रकार से अनेक भेदों से जीवादि वस्तुओं का सद्भाव भगवान ने दिव्यध्वनि के द्वारा प्रस्फुटित किया।।६१ से ६४।। पश्चात् श्रावण मास की प्रतिपदा को सूर्योदय के समय रौद्र मुहूर्त में जबकि चंद्रमा अभिजित नक्षत्र पर था, गुरु के तीर्थ की (दिव्यध्वनि की अथवा दिव्यध्वनि द्वारा संसार समुद्र से तिरने में कारणभूत यथार्थ मोक्षमार्ग के उपदेश की) उत्पत्ति हुई। श्री इंद्रभूति गणधर ने भगवान की वाणी को तत्त्वपूर्वक जानकर उसी दिन सायंकाल को अंग और पूर्वों की रचना युगपत् की और फिर उसे अपने सहधर्मी सुधर्मास्वामी को पढ़ाया। इसके अनंतर सुधर्माचार्य ने अपने साधर्मी जम्बूस्वामी को और उन्होंने अन्य मुनिवरों को वह श्रुत पढ़ाया।।६४ से ६८।।
सन्मतिजिनस्ततोऽसावासन्नविमुक्ति भव्यसस्यानाम्। परमानंदं जनयन् धर्मामृतवृष्टिसेकेन।।६९।।
त्रिंशतमिह वर्षाणां विहृत्य बहुजनपदान् जगत्पूज्य:। सरसिजवनपरिकलिते पावापुरबहिरुद्याने।।७०।।
वत्सरचतुष्टयेऽद्र्वं त्रिमासहीने चतुर्थकालस्य। शेषे कार्तिकवृृष्ण चतुर्दश्यां निर्वृतिमवाप।।७१।।
भगवत्परिनिर्वाणक्षण एवावाप केवलं गणभृत्। गौतमनामा सोऽपि द्वादशभिर्वत्सरैर्मुक्त:।।७२।।
निर्वाणक्षण एवासावापत्केवलं सुधर्ममुनि:। द्वादशवर्षाणि विहृत्य सोऽपि मुत्तिंकं परामाप।।७३।।
जम्बूनामाऽपि ततस्तन्निर्वृतिसमय एव वैवल्यम्। प्राप्याष्टत्रिंशतमिह समा विहृत्याप निर्वाणम्।।७४।।
एते त्रयोऽपि मुनयोऽनुबद्धकेवलिविभूतयोऽमीषाम्। केवलदिवाकरोऽस्मिन्नस्तमवाप व्यतिक्रान्ते।।७५।।
पश्चात् जगत्पूज्य श्रीसन्मतिनाथ अनेक निकट भव्यरूपी सस्यों को (धान्य को) धर्मामृतरूपी वर्षा के सिंचन से परमानन्दित करते हुए तीस वर्ष तक अनेक देशों में विहार करते हुए कमलों के वन से अतिशय शोभायमान पावापुर के उद्यान में पहँुचे और वहाँ से जब तीन वर्ष साढ़े आठ महीने चतुर्थकाल के शेष रह गये, तब कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी१ को मोक्ष पधारे।।६९ से ७१।। भगवान के निर्वाण होने के साथ ही श्री इंद्रभूति गणधर को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ और वे बारह वर्ष विहार करके मोक्ष को प्राप्त हुए। उनके निर्वाण होते ही सुधर्माचार्य को केवलज्ञान का उदय हुआ सो उन्होंने भी बारह वर्ष विहार करके अन्तिम गति पाई और तत्काल ही जम्बूस्वामी को केवलज्ञान हुआ। उन्होंने ३८ वर्ष विहार करके भव्य जीवों को धर्मोपदेश दिया और अंत में मोक्षमहल को प्रयाण किया। इन तीनों मुनियों ने परम केवल विभूति को पाई तब तक केवल दिवाकर का उदय निरंतर बना रहा परन्तु उनके पश्चात् ही उसका अस्त हो गया२।।७२ से ७५।।
जम्बूनामा मुत्तिंकं प्राप यदासौ तथैव विष्णुमुनि:। पूर्वांग भेदभिन्नाशेषश्रुतपारगो जात:।।७६।।
एवमनुबद्धसकलश्रुतसागरपारगामिनोऽत्रासन्। नन्द्यपराजित गोवर्धनाह्वया भद्रबाहुश्च।।७७।।
एषां पंचानामपि काले वर्षशतसम्मितेऽतीते। दशपूर्वविदोऽभूवंस्तत एकादश महात्मान:।।७८।।
तेषामाद्यो नाम्ना विशाखदत्तस्तत: क्रमेणासन्। प्रोष्ठिलनामा क्षत्रियसंज्ञो जयनागसेनसिद्धार्था:।।७९।।
धृतिषेणविजयसेनौ च बुद्धिमान्गङ्गधर्मनामानौ। एतेषां वर्षशतं त्र्यशीतियुतमजनि युगसंख्या।।८०।।
नक्षत्रो जयपाल: पांडुद्र्रुमसेनकंसनामानौ। एते पंचापि ततो बभूवुरेकादशांगधरा:।।८१।।
विंशत्यधिकं वर्षशतद्वयमेषां बभूव युगसंख्या। आचारांगधराश्चत्वारस्तत उद्भवन् क्रमश:।।८२।।
जम्बूस्वामी की मुक्ति के पीछे श्री विष्णुुमुनि सम्पूर्ण श्रुतज्ञान के पारगामी श्रुत केवली (द्वादशांग के धारक) हुए और इसी प्रकार से नन्दिमित्र, अपराजित, गोवद्र्धन और भद्रबाहु१ ये चार महामुनि भी अशेषश्रुतसागर के पारगामी हुए। उक्त पाँचों श्रुतकेवली १०० वर्ष के अंतराल में हुए अर्थात् भगवान की मुक्ति के पश्चात् ६२ वर्ष में ३ केवली हुए और फिर १०० वर्ष में ५ श्रुतकेवली हुए देखते-देखते श्रुतकेवली सूर्य भी अस्त हो गये, तब ग्यारह अंग और दश पूर्व के धारण करने वाले ग्यारह महात्मा हुए। विशाखदत्त२, प्रौष्ठिल, क्षत्रिय, जयसेन, नागसेन, सिद्धार्थ, धृतिषेण, विजयसेन, बुद्धिमान, गंगदेव और धर्मसेन३। इतने में १८३ वर्ष का समय व्यतीत हो गया।।७६ से ८०।। पश्चात् दो सौ बीस वर्ष में नक्षत्र, जयपाल, पाण्डु, द्रुमसेन४ और कंसाचार्य ये पाँच मुनि ग्यारह अंग के ज्ञाता हुए। पश्चात् एक सौ अठारह वर्ष में सुभद्र, अभयभद्र, जयबाहु५ और लोहाचार्य ये चार मुनीश्वर आचारांग शास्त्र के
प्रथमस्तेषु सुभद्रोऽभयभद्रोऽन्यापरोऽपि जयबाहु:। लोहार्योऽन्त्यश्चैतेऽष्टादशवर्ष युगसंख्या।।८३।।
विनयधर: श्रीदत्त: शिवदत्तोऽन्योऽर्हद्दत्तनामैते। आरातीया यतयस्ततोऽभवन्नंगपूर्वदेशधरा:।।८४।।
सर्वांग पूर्वदेशैकदेशवित्पूर्वदेशमध्यगते। श्रीपुण्ड्रवर्धनपुरे मुनिरजनि ततोऽर्हद्बल्याख्य:।।८५।।
स च तत्प्रसारणाधारणा विशुद्धातिसत्क्रियोद्युक्त:। अष्टांगनिमित्तज्ञ: संघानुग्रहनिग्रहसमर्थ:।।८६।।
आस्ते संवत्सरपंचकावसाने युगप्रतिक्रमणम्। कुर्वन्योजनशतमात्रवर्तिमुनिजन समाजस्य।।८७।।
अथ सोऽन्यदा युगांते कुर्वन् भगवान् युगप्रतिक्रमणम्। मुनिजनवृन्दमपृच्छत्वकं सर्वेऽप्यागता यतय:।।८८।।
तेऽप्यूचुर्भगवन वयमात्मात्मीयेन सकलसंघेन। सममागतास्ततस्तद्वच: समाकण्र्य सोऽपि गणी।।८९।।
काले कलावमुष्मिन्नित: प्रभृत्यत्र जैनधर्मोऽयम्। गणपक्षपातभेदै: स्थास्यति नोदासभावेन।।९०।।
परम विद्वान् हुए। यहाँ तक अर्थात् श्री वीरनिर्वाण के ६८३ वर्ष पीछे तक अंगज्ञान की प्रवृत्ति रही, अनंतर कालदोष से वह भी लुप्त हो गयी।।८१ से ८३।। लोहाचार्य के पश्चात् विनयधर, श्रीदत्त, शिवदत्त और अर्हद्दत्त ये चार आरातीय मुनि अंगपूर्वदेश के अर्थात् अंगपूर्व ज्ञान के कुछ भाग के ज्ञाता हुए। और फिर पूर्वदेश के पुण्ड्रवद्र्धनपुर में श्री अर्हद्बलि मुनि अवर्तीण हुए। जो अंगपूर्वदेश के भी एकदेश (भाग) के जानने वाले थे, प्रसारणा, धारणा, विशुद्धि आदि उत्तम क्रियाओं में निरंतर तत्पर थे, अष्टांगनिमित्त ज्ञान के ज्ञाता थे और मुनिसंघ का निग्रह अनुग्रहपूर्वक शासन करने में समर्थ थे।।८४ से ८६।। इसके सिवाय वे प्रत्येक पांच वर्ष के अंत में सौ योजन क्षेत्र में निवास करने वाले मुनियों के समूह को एकत्र करके युगप्रतिक्रमण कराते थे। एक बार उक्त भगवान अर्हद्बलि आचार्य ने युगप्रतिक्रमण के समय मुनिजनों के समूह से पूछा कि ‘‘सब यति आ गये?’’ उत्तर में उन मुनियों ने कहा कि-‘‘भगवन्! हम सब अपने-अपने संघ सहित आ गये।’’ इस वाक्य में अपने-अपने संघ के प्रति मुनियों की निजत्व बुद्धि (पक्षबुद्धि) प्रगट होती थी इसलिये तत्काल ही आचार्य भगवान ने निश्चय कर लिया कि इस कलिकाल में अब आगे यह जैनधर्म भिन्न-भिन्न गणों के पक्षपात से ठहर सकेगा, उदासीन भाव से नहीं अर्थात् आगे के मुनि अपने-अपने संघ का-गण का, गच्छ का पक्ष धारण करेंगे, सबको एकरूप समझकर मार्ग की प्रवृत्ति नहीं कर सकेगे।।८७ से ९०।।
इति संचिंत्य गुहाया: समागता ये यतीश्वरास्तेषु। कांश्चिन्नंद्यभिधानान् कांश्चि ‘‘द्वीरा’’ ह्व्यानकरोत्।।९१।।
प्रथितादशोक वाटात्समागता ये मुनीश्वरास्तेषु। काँश्चि ‘‘दपराजिता’’ ख्यान् काँश्चिद् ‘‘देवा’’ ह्वयानकरोत्।।९२।।
पंचस्तूप्यनिवासादुपागता येऽनगरिणस्तेषु। काँश्चित्‘‘सेना’’ भिख्यान्काँश्चिद्‘‘भद्रा’’भिधानकरोत्।।९३।।
ये शाल्मली महाद्रुम मूलाद्यतयोऽभ्युपागतास्तेषु। काँश्चिद् ‘‘गुणधर’’ संज्ञान् काँश्चिद् ‘‘गुप्तांह्व्यानकरोत्।।९४।।
ये खण्डकेसरद्रुममूलान्मुनय: समागतास्तेषु। काँश्चित्‘‘सिंहा’’भिख्यान् कांश्चिच् ‘‘चन्द्रा’’ ह्व्यानकरोत्।।९५।।
उक्तं च— आयातौ नन्दिवीरौ प्रकटगिरिगुहावासतोऽशोकवाटा— द्देवाश्चान्योऽपरादिर्जित इति यतिपौ सेनभद्राह्व्यौ च।।
इस प्रकार विचार करके उन्होेंने जो मुनिगण गुफा में से आये थे, उनमें से किसी-किसी की नंदि और किसी-किसी की वीर संज्ञा रखी। जो अशोकवाट से आये थे उनमें से किसी की अपराजित और किसी की देव संज्ञा रखी। जो पंचस्तूपों का निवास छोड़कर आये थे, उनमें से किसी को सेन और किसी को भद्र बना दिया। जो महाशाल्मली (सेंवर) वृक्षों के नीचे से आये थे, उनमें से किसी की गुणधर और किसी की गुप्त संज्ञा रखी और जो खंडकेसर (बकुल) वृक्षों के नीचे से आये थे उनमें से किसी की सिंह और किसी की चंद्र संज्ञा रखी१।।९१ से ९५।।
पंचस्तूप्यात्सगुप्तौ गुणधरवृषभ: शाल्मलीवृक्ष मूलात्— निर्यातौ सिंहचंद्रौ प्रथितगुणगणौ केसरात्खण्डपूर्वात्।।९६।।
अन्ये जगुर्गुहाया विनिर्गता ‘‘नंदिनो’’ महात्मान:। ‘‘देवाश्चाशोकवनात्पंचस्तूप्यास्तत: ‘‘सेन:’’।।९७।।
विपुलतरशाल्मलीद्रुममूलगतावासवासिनो ‘‘वीरा:’’। ‘‘भद्रा’’ श्च खण्डकेसरतरूमूलनिवासिनो जाता:।।९८।।
गुहायां वासितो ज्येष्ठो द्वितीयोऽशोकवाटिकात्। निर्यातौ ‘‘नंदि ‘‘देवा’’ भिधानावाद्यावनुक्रमात्।।९९।।
पंचस्तूप्यास्तु ‘‘सेना’’ नां ‘‘वीरा’’ णां शाल्मलीदु्रम:। खण्डकेसरनामा च ‘‘भद्र:’’ ‘‘सिंहो’’ऽस्य सम्मत:।।१००।।
एवं तस्यार्हद्बलेर्मुनिजनसंघप्रवर्तकस्यासन्। विनययजना मुनीन्द्रा: पंचकुलाचारतोपास्या:।।१०१।।
तस्यानंतरमनगारपुंगवो माघनन्दिनामाऽभूत्। सोऽप्यंगपूर्वदेशं प्रकाश्य समाधिना दिवं यात:।।१०२।।
देशे तत: सुराष्ट्रे गिरिनगरपुरान्तिकोर्जयंतगिरौ। चंद्रगुहाविनिवासी महातपा: परममुनिमुख्य:।।१०३।।
अनेक आचार्यों का ऐसा मत है कि गुहा से निकलने वाले नंदि, अशोक वन से निकलने वाले देव, पंचस्तूपों से आने वाले सेन बने, भारी शाल्मलिवृक्ष के नीचे निवास करने वाले वीर और खंडकेसर वृक्ष के नीचे रहने वाले भद्र संज्ञा से प्रसिद्ध किये गये थे१।।९६ से १००।। इस प्रकार से मुनिजनों के संघ प्रवर्तन करने वाले उक्त श्री अर्हद्बलि आचार्य के वे सब मुनीन्द्र शिष्य कहलाये। उनके पश्चात् एक श्री माघनंदि नामक मुनिपुंगव हुए और वे भी अंगपूर्व-देश का भलीभाँति प्रकाश करके स्वर्गलोक को पधारे। तदनंतर सुराष्ट्र (सोरठ) देश के गिरिनगर के समीप ऊर्जयन्तगिरि (गिरनार) की चंद्रगुफा में निवास करने वाले महातपस्वी श्रीधरसेन आचार्य हुए।
अग्रायणीयपूर्वस्थितपंचमवस्तुगतचतुर्थमहा- कर्मप्राभृतकज्ञ: सूरिर्धरसेननामाऽभूत्।।१०४।।
सोऽपि निजायुष्यांतं विज्ञायास्माभिरलमधीतमिदं। शास्त्रं व्युच्छेदमवाप्स्यतीति संचिन्त्य निपुणमति:।।१०५।।
देशेन्द्रदेशनामनि वेणाकतटीपुरे महामहिमा। समुदितमुनीन् प्रति ब्रह्मचारिणा प्रापयल्लेखं।।१०६।।
आदाय लेखपत्रं तेप्यथ तद्ब्रह्मचारिणो हस्तात्। प्रविमुच्य बंधनं वाचयाम्बभूवुस्तदा महात्मान:।।१०७।।
‘‘स्वस्ति श्रीमत इत्यूर्जयंततटनिकट चंद्रगुहा- वासाद्धरसेनगणी वेणाकतटसमुदितयतीन्।।१०८।।
अभिवंद्य कार्यमेवं निगदत्यस्माकमायुरवशिष्टम्। स्वल्पं तस्मादस्मच्छ्रुतस्य शास्त्रस्य व्युच्छित्ति:।।१०९।।
न स्याद्यथा तथा द्वौ यतीश्वरौ ग्रहणधारणसमर्थौ। निशितप्रज्ञौ यूयं प्रस्थापयतेति लेखार्थम्।।११०।।
इन्हें अग्रायणीय पूर्व के अंतर्गत पंचमवस्तु के चतुर्थ महाकर्मप्राभृत का ज्ञान था। अपने निर्मल ज्ञान में जब उन्हें यह भासमान हुआ कि, अब मेरी आयु थोड़ी शेष रह गई है और अब मुझे जो शास्त्र का ज्ञान है, वही संसार में अलम् होगा अर्थात् इससे अधिक शास्त्रज्ञ आगे कोई नहीं होगा और यदि कोई प्रयत्न नहीं किया जावेगा तो श्रुत का विच्छेद हो जावेगा।।१०० से १०५।। ऐसा विचार कर निपुणमति श्रीधरसेन महर्षि ने देशेन्द्रदेश के बेणातटाकपुर में निवास करने वाले महामहिमाशाली मुनियों के निकट एक ब्रह्मचारी के द्वारा पत्र भेजा। ब्रह्मचारी ने पत्र ले जाकर उक्त मुनियों के हाथ में दिया। उन्होेंने बंधन खोलकर बाँचा। उसमें लिखा हुआ था कि-‘‘स्वस्ति श्री बेणाकतटवासी यतिवरों को ऊर्जयन्ततट निकटस्थ चंद्रगुहानिवासी धरसेनगणि अभिवंदना करके यह कार्य सूचित करते हैं कि मेरी आयु अत्यंत स्वल्प रह गई है। जिससे मेरे हृदयस्थ शास्त्र की व्युच्छित्ति हो जाने की संभावना है अतएव उसकी रक्षा करने के लिये आप लोग दो ऐसे यतीश्वरों को भेज दीजिये जो शास्त्रज्ञान के ग्रहण-धारण करने में समर्थ और तीक्ष्ण बुद्धि हों।’’ इन समाचारों का आशय भलीभाँति समझकर उन मुनियों ने भी दो बुद्धिशाली मुनियों को अन्वेषण करके तत्काल ही भेज दिया।।१०६ से ११०।।
सम्यगवधार्य तैरपि तथाविधौ द्वौ मुनी समन्विष्य। प्रहितौ तावपि गत्वा चापतुररमूर्जयंतगिरिं।।१११।।
आगमनदिने च तयो: पुरैव धरसेन सूरिरपि रात्रौ। निजपादयो: पतन्तौ धवलवृषावैक्षत स्वप्ने।।११२।।
तत्स्वप्नेक्षण मात्राज्जयतु श्रीदेवतेति समुपलपन्। उदतिष्ठदत: प्रात: समागतावैक्षत मुनी द्वौ।।११३।।
प्राघूर्णिकोचितविधिं तयोर्विधायादरात्ततस्ताभ्यां। विश्राम्य त्रीन्दिवसान् निवेदितागमनहेतुभ्याम्।।११४।।
सुपरीक्षा हृन्निर्वर्तिकरीति संचिन्त्य दत्तवान् सूरि:। साधयितुं विद्ये द्वे हीनाधिकवर्णसंयुत्ते।।११५।।
श्रीमन्नेमिजिनेश्वर सिद्धिशिलायां विधानतो विद्या- संसाधनं विदधतोस्तयोश्च पुरत: स्थिते देव्यौ।।११६।।
हीनाक्षरविद्यासाधकस्य देव्येकलोचनाग्रेऽस्थात्। अधिकाक्षरविद्यासाधकस्य सा दंतुरा तस्थौ।।११७।।
जिस दिन वे मुनि ऊर्जयन्तगिरि पर पहुँचे उसकी पहली रात्रि को श्री धरसेन मुनि ने स्वप्न में दो श्वेत बैलों को अपने चरणों में पड़ते हुए देखा। स्वप्न के पश्चात् ज्यों ही वे ‘‘जयतु श्री देवता’’ ऐसा कहते हुए जाग के खड़े हुए त्यों ही उन्होंने देखा कि, वेणातटाकपुर१ से आये हुए दो मुनि सन्मुख खड़े हैं और अपने आगमन का कारण निवेदन कर रहे हैं।।१११ से ११३।। श्री धरसेनाचार्य ने आदरपूर्वक उनका अतिथि-सत्कार (प्राघूर्णिक विधान) किया और फिर मार्गपरिश्रम शमन करने के लिये तीन दिन तक विश्राम करने दिया। तत्पश्चात् यह सोचकर कि ‘‘सुपरीक्षा चित्त को शांति देने वाली होती है’’ अर्थात् जिस विषय की भलीभाँति परीक्षा कर ली जाती है, उसमें फिर किसी प्रकार की शंका नहीं रहती है, उन्होंने उन दोनों को दो विद्याएँ साधन करने के लिये दीं, जिनमें से एक विद्या में अक्षर कम थे और दूसरी में अधिक थे। उक्त मुनियों ने श्रीनेमिनाथ तीर्थंकर की सिद्धशिला पर (निर्वाणभूमि पर) जाकर विधिपूर्वक विद्याओं का साधन किया। परन्तु जो अक्षरहीन विद्या साध रहा था, उसके आगे एक आँख वाली देवी और अधिक अक्षर साधने वाले के
दृष्ट्वा ताविति देव्यौ न देवतानां स्वभाव एष इति। प्रविचिन्त्य ततो विद्यामंत्रव्याकरणविधिनैव।।।११८।।
प्रस्तार्य न्यूनाधिकवर्णक्षेपापचविधानेन। पुनरपि पुरतश्च तयोर्देव्यौ ते दिव्यरूपेण।।११९।।
केयूरहारनूपुरकटककटीसूत्रभासुरशरीरे। अग्रे स्थित्वा वदतां किं करणीयं प्रवदतेति।।१२०।।
तावप्यूचतुरेतन्नास्माकं कार्यमस्ति तत्किमपि। ऐहिकपारत्रिकयोर्भवतीभ्यां सिद्धयति यदत्र परम्।।१२१।।
किन्तु गुरूनियोगादावाभ्यां विहितमेतदिती वचनम्। श्रुत्वा तयोरभीष्टं ते जग्मतु: स्वास्पदं देव्यौ।।१२२।।
विद्यासाधनमेवं विधाय तोषा त्ततो गुरो: पाश्र्वम्। गत्वा तौ निजवृत्तान्तमवदतां तद्यथावृत्तम्।।१२३।।
सम्मुख बड़े दाँत वाली देवी आकर खड़ी हो गई।।११४ से ११७।। यह देखकर मुनियों ने सोचा कि देवताओं का यह स्वभाव नहीं है-यह असली स्वरूप नहीं है। अवश्य ही हमारी साधना में कोई भूल हुई है। तब उन्होंने मंत्र व्याकरण की विधि से न्यूनाधिक वर्णों के क्षेपने और अपचय करने के विधान से मंत्रों को शुद्ध करके फिर चिन्तवन किया। जिससे कि उन देवियों ने केयूर (भुजा पर पहनने का आभरण) हार, नूूपुर (बिछुए), कटक (कंकण) और कटिसूत्र (करधनी) से सुसज्जित दिव्यरूप धारण करके दर्शन दिया और समक्ष उपस्थित होकर कहा कि ‘‘कहिये-किस कार्य के लिये हमको आज्ञा होती है?’’ यह सुनकर मुनियों ने कहा कि हमारा ऐहिक पारलौकिक ऐसा कोई भी कार्य नहीं है जिसे तुम सिद्ध कर सको। हमने तो केवल गुरूदेव की आज्ञा से मंत्रों की सिद्धि की है। मुनियों का अभीष्ट सुनकर वे देवियाँ उसी समय अपने स्थान को चली गर्इं।।११८ से १२२।। इस प्रकार से विद्यासाधन करके संतुष्ट होकर उन दोनों मुनियों ने गुरुदेव के समीप जाकर अपना सारा वृत्तान्त निवेदन किया, उसे सुनकर श्री धरसेनाचार्य ने उन्हें अतिशय योग्य समझकर शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र और शुभ समय में ग्रंथ का व्याख्यान करना प्रारंभ कर दिया और वे मुनि भी आलस्य छोड़कर गुरूविनय तथा ज्ञानविनय का पालन करते हुए अध्ययन करने लगे।।१२३ से १२५।।
सोऽप्यतियोग्याविति संचिन्त्य तत: सुप्रशस्ततिथिवेला। नक्षत्रेषु तयोव्र्याख्यातुं प्रारब्धवान् ग्रंथम्।।१२४।।
ताभ्यामप्यध्ययनं कुर्वाणाभ्यामपास्ततन्द्राभ्याम्। परममविलंघयद्भ्यां गुरुविनयं ज्ञानविनयं च।।१२५।।
दिवसेषु कियत्स्वपिगतेष्वथाषाढमासि सितपक्षे। एकादश्यां च तिथौ ग्रंथसमाप्ति: कृता विधिना।।१२६।।
तद्दिन एवैकस्य द्विजपत्तिं विषमितामपास्य सुरै:। कृत्वा कुंदोपमितां नाम कृतं ‘‘पुष्पदंत’’ इति।।१२७।।
अपरोऽपि तुर्यनादैर्जयघोषैर्गंधमाल्यधूपाद्यै:। ‘‘भूतपति’’रेष इत्याहूतो भूतैर्महं कृत्वा।।१२८।।
स्वासन्नमृतिं ज्ञात्वा माभूत्संक्लेशमेतयोरस्मिन्। इति गुरुणा संचिन्त्य द्वितीयदिवसे ततस्तेन।।१२९।।
प्रियहितवचनैरमुष्य ताबुभौ एव कुरीश्वरं प्रहितौ। तावपि नवभिदिवसैर्गत्वा तत्पत्तनमवाप्य।।१३०।।
योगं प्रगृह्य तत्राषाढे मास्यसितपक्षपंचम्याम्। वर्षाकालं कृत्वा विहरन्तौ दक्षिणाभिमुखं।।१३१।।
जग्मतुरथ करहाटे तयो: स य: पुष्पदंतनाममुनि:। जिनपालिताभिधानं दृष्ट्वासौ भागिनेयं स्वम्।।१३२।।
कुछ दिन के पश्चात् आषाढ शुक्ला ११ को विधिपूर्वक ग्रंथ समाप्त हुआ। उस दिन देवों ने प्रसन्न होकर प्रथम मुनि की दंतपंक्ति को-जो कि विषमरूप थी, कुंद के पुष्पों सरीखी कर दी और उनका पुष्पदंत ऐसा सार्थक नाम रख दिया। इसी प्रकार से भूत जाति के देवों ने द्वितीय मुनि की तूर्यनाद-जयघोष तथा गंध माल्य धूपादिक से पूजा करके उनका भी सार्थक नाम भूतबलि रख दिया।।१२६ से १२८।। दूसरे दिन गुरू ने यह सोचकर कि मेरी मृत्यु सन्निकट है, यदि ये समीप रहेंगे तो दु:खी होंगे, उन दोनों को कुरीश्वर भेज दिया। तब वे ९ दिन चलकर उस नगर में पहँुच गये। वहाँ आषाढ़ कृष्ण ५ को योग ग्रहण करके उन्होंने वर्षाकाल समाप्त किया और पश्चात् दक्षिण की ओर विहार किया।।१२९ से १३१।। कुछ दिन के
दत्वा दीक्षां तस्मै तेन समं देशमेत्य वनवासम्। तस्थौ भूतबलिरपि मथुरायां द्रविडदेशेऽस्थात्।।१३३।।
अथ पुष्पदंतमुनिरप्यध्यापयितुं स्वभागिनेयं तम्। कर्मप्रकृतिप्राभृतमुपसंहार्यैव षड्भिरिह खण्डै:।।१३४।।
वांच्छन् गुणजीवादिकविंशतिविधसूत्रसत्प्ररूपणया। युत्तं जीवस्थानाद्यधिकारं व्यरचयत्सम्यक्।।१३५।।
सूत्राणि तानि शतमध्याप्य ततो भूतिबलि गुरो:पाश्र्वं। तदभिप्रायं ज्ञातुं प्रस्थापयदगमदेषोऽपि।।१३६।।
तेन तत: परिपठितां भूतबलि: सत्प्ररूपणां श्रुत्वा। षट्खण्डागमरचनाभिप्रायं पुष्पदंत गुरो:।।१३७।।
विज्ञायाल्पायुष्यानल्पमतीन्मानवान् प्रतीत्य तत:। द्रव्य प्ररूपणाद्यधिकार: खण्डपंचकस्यान्वक्।।१३८।।
पश्चात् वे दोनों महात्मा करहाट नगर में पहुँचे। वहाँ श्री पुष्पदंत मुनि ने अपने जिनपालित नामक भान्जे को देखा और उसे जिनदीक्षा देकर वे अपने साथ ले वनवासदेश में जा पहुँचे। इधर भूतबलि द्रविड देश के मथुरानगर में पहँुचकर ठहर गये। करहाट नगर से उक्त दोनों मुनियों का साथ छूट गया। श्री पुष्पदंत मुनि ने जिनपालित को पढ़ाने के लिये विचार किया कि कर्मप्रकृति प्राभृत का छह खंडों में उपसंहार करके ग्रंथरूप रचना करनी चाहिए और इसलिये उन्होंने प्रथम ही जीवस्थानाधिकार की जिसमें कि गुणस्थान, जीवसमासादि बीस प्ररूपणाओं का वर्णन है, बहुत उत्तमता के साथ रचना की।।१३२ से १३५।। फिर उस शिष्य को सौ सूत्र पढ़ाकर श्री भूतबलिमुनि के पास उनका अभिप्राय ज्ञात करने के लिये अर्थात् यह जानने के लिये कि वे इस कार्य के करने में सहमत हैं अथवा नहीं हैं, और हैं तो जिस रूप में रचना हुई है, उसके विषय में क्या सम्मति देते हैं, भेज दिया। उसने भूतबलि महर्षि के समीप जाकर के प्ररूपणासूत्र सुना दिये। जिन्हें सुनकर उन्होेंने श्री पुष्पदंत मुनि की षट्खंडरूप आगमरचना का अभिप्राय जान लिया और अब लोग दिन पर दिन अल्पायु और अल्पमति होते जाते हैं, ऐसा विचार करके उन्होंने स्वयं पाँच खंडों में पूर्व सूत्रों के सहित छह हजार श्लोकाविशिष्ट द्रव्यप्ररूपणाधिकार की रचना
सूत्राणि षट्सहस्रगं थान्यथ पूर्वसूत्रसहितानि। प्रविरच्य महाबन्धाह्व्यं तत: षष्ठ खण्डं।।१३९।।
त्रिंशत्सहस्रसूत्रग्रंथं व्यरचयदसौ महात्मा। तेषां पंचानामपि खण्डानां श्रृणुत नामानि।।१४०।।
आद्यं जीवस्थानं क्षुल्लकबन्धाह्व्यं द्वितीयमत:। बंधस्वामित्वं भाववेदनावर्गणाखण्डे।।१४१।।
एवं षट्खण्डागमरचनां प्रविधाय भूतबल्यार्य:। आरोप्यासद्भावस्थापनया पुस्तकेषु तत:।।१४२।।
ज्येष्ठसितपक्षपंचम्यां चातुर्वण्र्यसंघसमवेत:। तत्पुस्तकोपकरणैव्र्यधात्क्रियापूर्वकं पूजाम्।।१४३।।
श्रुतपंचमीति तेन प्रख्यातिं तिथिरियं परामाप। अद्यापि येन तस्यां श्रुतपूजां कुर्वते जैना:।।१४४।।
जिनपालितं ततस्तं भूतबलि: पुष्पदंतगुरूपाश्र्वम्। षट्खण्डान्यप्यध्यगमयत्तत्पुस्तकसमेतम्।।१४५।।
और उसके पश्चात् महाबंध नामक छठे खंड को तीस हजार सूत्रों में समाप्त किया।।१३६ से १४०।। पहले पाँच खंडोें के नाम ये हैं-जीवस्थान, क्षुल्लकबंध, बंधस्वामित्व, भाववेदना और वर्गणा। श्री भूतबलि मुनि ने इस प्रकार षट्खण्डागम की रचना करके उसे असद्भाव स्थापना के द्वारा पुस्तकों में आरोपण किया अर्थात् लिपिबद्ध किया१ और उसकी ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को चतुर्विध संघ के सहित वेष्टनादि उपकरणों के द्वारा क्रियापूर्वक पूजा की। उसी दिन से यह ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी संसार में ‘‘श्रुतपंचमी’’ के नाम से प्रख्यात हो गई। इस दिन श्रुत का अवतार हुआ है, इसलिये आज पर्यन्त समस्त जैनी उक्त तिथि को श्रुतपूजा करते हैं।।१४१ से १४४।। कुछ दिन के पश्चात् भूतबलि आचार्य ने षट्खण्ड आगम का अध्ययन करके जिनपालित शिष्य को उक्त पुस्तक देकर श्री पुष्पदंत गुरु के समीप भेज दिया। जिनपालित के हाथ में षट्खंड आगम देखकर और अपना चिन्तवन किया
अथ पुष्पदंतगुरुरपि जिनपालितहस्तसंस्थितमुदीक्ष्य। षट्खण्डागमपुस्तकमहो मया चिंतितं कार्यं।।१४६।।
संपन्नमिति समस्तांगोत्पन्नमहाश्रुतानुरागभर:। चातुर्वण्र्यसुसंघान्वितो विहितवान् क्रियाकर्म।।१४७।।
गंधाक्षतमाल्यांबरवितानघण्टाध्वजादिभि:प्राग्वत्। श्रुतपंचम्यामकरोत्सिद्धांतसुपुस्तकमहेज्याम्।।१४८।।
एवं षट्खण्डागमसूत्रोत्पत्तिं प्ररूप्य पुनरधुना। कथयामि कषायप्राभृतस्य सत्सूत्रसंभूतिम्।।१४९।।
ज्ञानप्रवादसंज्ञकपंचमपूर्वस्थदशमवस्तुतृतीय। प्रायोदोषप्राभृतज्ञोऽ१भूद् गुणधरमुनीन्द्र:।।१५०।।
गुणधरधरसेनान्वयगुर्वो: पूर्वापरक्रमोऽस्माभि:। न ज्ञायते तदन्वयकथकागममुनिजनाभावात्।।१५१।।
हुआ कार्य पूर्ण हो गया जानकर श्री पुष्पदंताचार्य का समस्त शरीर प्रगाढ़ श्रुतानुराग में तन्मय हो गया और तब अतिशय आनंदित होकर उन्होेंने भी चतुर्विध संघ के साथ श्रुतपंचमी२ को गन्ध, अक्षत, माल्य, वस्त्र, वितान, घंटा, ध्वजादि द्रव्यों से पूर्ववत् सिद्धांतग्रंथ की महापूजा की।।१४५ से १४८।। इस प्रकार षट्खंड आगम की उत्पत्ति का वर्णन करके अब कषायप्राभृत सूत्रों की उत्पत्ति का कथन करते हैं। (बहुत करके श्री धरसेनाचार्य के समय में) एक श्री गुणधर नाम के आचार्य हुए। उन्हें पाँचवें ज्ञानप्रवाद पूर्व के दशमवस्तु के तृतीय कषायप्राभृत का ज्ञान था। श्री गुणधर और श्रीधरसेनाचार्य की पूर्वापर गुरू परम्परा का क्रम हमको ज्ञात नहीं है क्योंकि उनकी परिपाटी के बतलाने वाले ग्रंथों और मुनिजनों का अभाव है। इसलिये इस विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता।।१४९ से १५१।। अस्तु श्री गुणधर मुनि ने भी वर्तमान पुरुषों की शक्ति का विचार करके कषायप्राभृत आगम को जिसे कि दोषप्राभृत भी कहते हैं, एक सौ तिरासी १८३ मूल गाथा और (५३) तिरेपन विवरण रूप गाथाओं में बनाया। फिर १५ महाधिकारों में विभाजित
अथ गुणधरमुनिनाथ: सकषायप्राभृतान्वयं तत्प्रायो- दोषप्राभृतकापरसंज्ञां साम्प्रतिकशक्तिमपेक्ष्य।।१५२।।
त्र्यधिकाशीत्या युत्तं शतं च मूलसूत्रगाथानाम्। विवरणगाथानां च त्र्यधिकं पंचाशतमकार्षीत्।।१५३।।
एवं गाथासूत्राणि पंचदशमहाधिकाराणि। प्रविरच्य व्याचख्यौ१ स नागहस्त्यार्यमंक्षुभ्याम्।।१५४।।
पार्श्व तयोद्र्वयोरपि अधीत्य सूत्राणि तानि यतिवृषभ:। यतिवृषभनामधेयो बभूव शास्त्रार्थ निपुणमति:।।१५५।।
तेन ततो यतिपतिना तद्गाथावृत्तिसूत्ररूपेण। रचितानि षट्सहस्रग्रंथान्यथ चूर्णिसूत्राणि।।१५६।।
तस्यान्ते पुनरूच्चारणादिकाचार्यसंज्ञकेन तत:। सूत्राणि तानि सम्यगधीत्य ग्रंथार्थरूपेण।।१५७।।
श्री नागहस्ति और आर्यमंक्षु मुनियों के लिये उसका व्याख्यान किया। पश्चात् उक्त दोनों मुनियों के समीप शास्त्रनिपुण श्रीयतिवृषभ नामक मुनि ने दोषप्राभृत के उक्त सूत्रों का अध्ययन करके पीछे उनकी सूत्ररूप चूर्णिवृत्ति छह हजार श्लोकप्रमाण बनाई। अनंतर उन सूत्रों का भलीभाँति अध्ययन करके श्री उच्चारणाचार्य ने १२००० श्लोक प्रमाण उच्चारणवृत्ति नाम की टीका बनाई। इस प्रकार से गुणधर, यतिवृषभ और उच्चारणाचार्य ने कषायप्राभृत का गाथा-चूर्णि और उच्चारण वृत्ति में उपसंहार किया।।१५२ से १५९।। इस प्रकार से उक्त दोनों कर्मप्राभृत और कषायप्राभृत सिद्धांतों का ज्ञान द्रव्यभावरूप पुस्तकों से और गुरुपरंपरा से कुण्डकुन्दपुर में ग्रंथपरिकर्म (चूलिका सूत्र) के कत्र्ता श्री पद्ममुनि को प्राप्त हुआ सो उन्होंने भी छह खण्डों में से पहले तीन खण्डों की बारह हजार श्लोक प्रमाण टीका रची। कुछ काल बीतने पर श्री श्यामकुण्ड आचार्य ने सम्पूर्ण दोनों आगमों को पढ़कर केवल एक छठे महाबंध खंड को छोड़कर शेष दोनों ही प्राभृतों की बारह हजार श्लोेक प्रमाण टीका बनाई। इन्हीं आचार्य ने प्राकृत, संस्कृत और कर्णाटक
द्वादशगुणितसहस्रग्रंथान्युच्चारणाख्यसूत्राणि। रचितानि वृत्तिरूपेण तेन तच्चूर्णिसूत्राणां।।१५८।।
गाथाचूण्र्युच्चारणसूत्रैरूपसंहृतं कषायाख्य। प्राभृतमेवं गुणधरयतिवृषभोच्चारणाचार्यै:।।१५९।।
एवं द्विविधो द्रव्यभावपुस्तकगत: समागच्छन्। गुरुपरिपाट्या ज्ञात: सिद्धांत: कुण्डकुंदपुरे।।१६०।।
श्रीपद्मनंदिमुनिना सोऽपि द्वादशसहस्रपरिणाम:। ग्रंथपरिकर्म कर्ता षट्खण्डाद्यत्रिखण्डस्य।।१६१।।
काले तत: कियत्यपि गते पुन: शामकुण्डसंज्ञेन। आचार्येण ज्ञात्वा द्विभेदमप्यागम: कात्स्न्र्यात्।।१६२।।
द्वादशगुणितसहस्रं ग्रंथं सिद्धांतयोरुभयो:। षष्ठेन विना खण्डेन पृथुमहाबंधसंज्ञेन।।१६३।।
प्राकृतसंस्कृतकर्णाटभाषया पद्धति: परा रचिता। तस्मादारात्पुनरपि काले गतवति कियत्यपि च।।१६४।।
अथ तुंबुलूरनामाऽचार्योऽभूत्तुंबुलूरसदग्रामे। षष्ठेन विना खण्डेन सोऽपि सिद्धांतयोरुभयो:।।१६५।।
भाषा की उत्कृष्ट पद्धति१ (ग्रंथ परिशिष्ट) की रचना की।।१६० से १६४।। इसके कुछ समय पश्चात् तुम्बुलूर ग्राम में एक तुम्बुलूर नाम के आचार्य हुए और उन्होंने भी छठे महाबंध खंड को छोड़कर शेष दोनों आगमों की कर्णाटकीय भाषा में ८४ हजार श्लोक प्रमित चूड़ामणि नाम की व्याख्या रची। पश्चात् उन्हीं ने छठे खंड पर भी सात हजार श्लोक प्रमाण पंजिका टीका की रचना की। कालान्तर में तार्विकसूर्य श्रीसमंतभद्र स्वामी का उदय हुआ। तब उन्होंने भी दोनों प्राभृतों का अध्ययन करके प्रथम पाँच खण्डों की अड़तालिस हजार
चतुरधिकाशीतिसहस्रग्रंथरचनया युक्ताम्। कर्णाटभाषयाकृतमहतीं चूड़ामणिं व्याख्यां।।१६६।।
सप्तसहस्रग्रंथां षष्ठस्य च पंचिकां पुनरकार्षीत्। कालान्तरे तत: पुनरासन्ध्यां १पलरि तार्विकार्कोऽ भूत्।१६७।।
श्रीमान् समंतभद्रस्वामीत्यथ सोऽप्यधीत्य तं द्विविधम्। सिद्धांतमत: षट्खण्डागमगतखण्डपंचकस्य पुन:।।१६८।।
अष्टौचत्वारिंशत्सहस्रसद्ग्रंथरचनया युक्तां। विरचितवानतिसुंदरमृदुसंस्कृत भाषया टीकाम्।।१६९।।
विलिखन् द्वितीयसिद्धांतस्य व्याख्यां सधर्मणा स्वेन। द्रव्यादिशुद्धिकरणप्रयत्नविरहात्प्रतिनिषिद्धम्।।१७०।।
एवं व्याख्यानक्रममवाप्तवान् परमगुरुपरंपरया। आगच्छन् सिद्धांतो द्विविधोऽप्यतिनिशितबुद्धिभ्याम्।।१७१।।
शुभरविनंदिमुनिभ्यां भीमरथिकृष्णमेखयो: सरितो:। मध्यमविषये रमणीयोत्कलिकाग्रामसामीप्यम्।।१७२।।
विख्यातमगणवल्लीग्रामेऽथ विशेषरूपेण। श्रुत्वा तयोश्च पाश्र्वे तमशेषं बप्पदेवगुरू:।।१७३।।
अपनीय महाबंधं षट्खण्डाच्छेषपंचखण्डे तु। व्याख्याप्रज्ञप्तिं च षष्ठं खण्डं च तत् संक्षिप्य।।१७४।।
श्लोक परिमित टीका अतिशय सुंदर, सुकोमल संस्कृत भाषा में बनाई। पीछे से उन्होेंने द्वितीय सिद्धांत की व्याख्या लिखनी भी प्रारंभ की थी परन्तु द्रव्यादि शुद्धिकरण प्रयत्नों के अभाव से उनके एक साधर्मी (मुनि) ने निषेध कर दिया। जिससे वह नहीं लिखी गई।।१६५ से १७०।। इस प्रकार व्याख्यानक्रम (टीकादि) से तथा गुरु परम्परा से उक्त दोनों सिद्धांतों का बोध अतिशय तीक्ष्ण बुद्धिशाली श्री शुभनंदि और रविनंदि मुनि को प्राप्त हुआ। ये दोनों महामुनि भीमरथि और कृष्णमेणा नदियों के मध्य में बसे हुए रमणीय-उत्कलिका ग्राम के समीप सुप्रसिद्ध अगणबल्ली ग्राम में स्थित थे। उनके समीप रहकर श्री वप्पदेवगुरु ने दोनों सिद्धातों का श्रवण किया और फिर
षण्णां खण्डानामिति निष्पन्नानां तथा कषायाख्य- प्राभृतकस्य च षष्ठिसहस्रग्रंथप्रमाण युताम्।।१७५।।
व्यलिखत्प्राकृतभाषारूपां सम्यक्पुरातनव्याख्यां। अष्टसहस्रग्रन्थां व्याख्यां पंचाधिकां महाबन्धे।।१७६।।
काले गते कियत्यपि तत: पुनश्चित्रकूटपुरवासी। श्रीमानेलाचार्यो बभूव सिद्धांत तत्त्वज्ञ:।।१७७।।
तस्य समीपे सकलं सिद्धांतमधीत्य वीरसेनगुरू:। उपरितमनिबंधनाद्यधिकारानष्ट च लिलेख।।१७८।।
आगत्य चित्रकूटात्तत: स भगवान्गुरोरनुज्ञानात्। वाटग्रामे चात्राऽऽनतेन्द्रकृतजिनगृहे स्थित्वा।।१७९।।
व्याख्याप्रज्ञप्तिमवाप्य पूर्वषट्खण्डतस्ततस्तस्मिन्। उपरितमबंधनाद्यधिकारैरष्टादशविकल्पै:।।१८०।।
सत्कर्मनामधेयं षष्ठं खण्डं विधाय संक्षिप्य। इति षण्णां खण्डानां ग्रंथसहस्रैद्र्विसप्तत्या।।१८१।।
तज्जन्यज्ञान से उन्होंने महाबंध खंड को छोड़कर शेष पाँच खंडों पर व्याख्या प्रज्ञप्ति नाम की व्याख्या बनाई। उसमें महाबंध का संक्षेप भी सम्मिलित कर दिया। पश्चात् कषायप्राभृत पर प्राकृत भाषा में साठ हजार और केवल महाबंध खण्ड पर आठ हजार पाँच श्लोक प्रमाण, दो व्याख्याएँ रचीं।।१७१ से १७६।। कुछ समय पीछे चित्रकूटपुर निवासी श्रीमान् एलाचार्र्य१ सिद्धांत तत्त्वों के ज्ञाता हुए। उनके समीप वीरसेनाचार्य ने समस्त सिद्धांत का अध्ययन किया और उपरितम (प्रथम के) निबंधनादि आठ अधिकारों को लिखा। पश्चात् गुरु भगवान की आज्ञा से चित्रकूट छोड़कर वे वाट ग्राम में पहुँचे। वहाँ आनतेन्द्र के बनाये हुए जिनमंदिर में बैठकर उन्होेंने व्याख्याप्रज्ञप्ति देखकर पूर्व के छह खंडों में से उपरिम बंधनादिक अठारह अधिकारों में सत्कर्म नाम का ग्रंथ बनाया।।१७७ से १८०।। और फिर छहों खंडोें पर ७२००० श्लोकों में संस्कृत प्राकृत भाषा मिश्र धवल नाम की टीका बनाई और फिर कषायप्राभृत की चारों विभक्तियों (भेदों) पर जयधवल नाम की २० हजार
प्राकृतसंस्कृतभाषामिश्रां टीकां विलिख्य धवलाख्यां। जयधवलां च कषायप्राभृतके चतृसृणां विभक्तीनां।।१८२।।
विंशति सहस्रसद्ग्रन्थरचनया संयुतां विरच्य दिवम्। यातस्तत: पुनस्तच्छिष्यो जयसेनगुरुनामा।।१८३।।
तच्छेषं चत्वारिंशता सहस्रै: समापितवान्। जयधवलैवं षष्ठिसहस्रग्रंथोऽभवट्टीका।।१८४।।
एवं श्रुतावतारो निरूपित: श्रीन्द्रनन्दियतिपतिना। श्रुतपंचम्यामृषिभिव्र्याख्येयो भव्यलोकेभ्य:।।१८५।।
यत्वकंचिदत्र लिखितं समयविरूद्धं मयाऽल्पबोधेन। अपनीय तदागमतत्त्ववेदिन: शोधयन्तूच्चै:।।१८६।।
श्लोकद्वयेन वृत्तेनैकेनाशीतिशतमितार्याभि:। सप्तोत्तरद्विशत्यां ग्रंथेनायं परिसमाप्त:।।१८७।।
श्लोकद्वयेन वृत्तेनैवैन चतुराशीतिशत मितार्याभि:। (सप्ताशीति च शतेन ग्रन्थेनायं परिसमाप्तो।।१८७।।)
।।इति श्री इन्द्रनन्दि आचार्यकृत: श्रुतावतार:।।
श्लोक प्रमाण टीका लिखकर स्वर्गलोक को पधारे। उनके पश्चात् उनके प्रिय शिष्य श्री जयसेन गुरू ने चालीस हजार श्लोक और बनाकर जयधवल टीका को पूर्ण किया, जयधवल टीका सब मिलकर ६० हजार श्लोकों में पूर्ण हुई। इस प्रकार से श्री इंद्रनन्दि यतिपति ने भव्यजनों के लिये श्रुतपंचमी के दिन ऋषियों द्वारा व्याख्यान करने योग्य इस श्रुतावतार का निरूपण किया। इसमें यदि मुझ अल्पबुद्धि ने आगम के विरूद्ध कुछ लिखा हो तो उसे आगम तत्त्व जानने वाले पुरुषों को संशोधन कर लेना चाहिए। इस प्रकार दो अनुष्टुप्, एक शार्दूलवृत्त और १८० आर्यावृत्तों के द्वारा २०७ श्लोक संख्या से यह ग्रंथ पूर्ण किया है।।१८१ से १८७।।
भावार्थ-३२ अक्षर के श्लोक प्रमाण इस श्रुतावतार के १८७ आर्याछंदों में २०७ श्लोक प्रमाण हो जावेंगे, ऐसा समझना चाहिए। अर्थ-दो श्लोक, एक शृग्धरा वृत्त एवं एक सौ चौरासी आर्याछंदों द्वारा इस तरह कुल १८७ गाथा (पद) प्रमाण यह ग्रंथ समाप्त हुआ। नोट-ऊपर लिखित गणना के अनुसार कोष्ठक गत गाथा होनी चाहिए। ।।
इति श्रुतावतार कथा समाप्ता।।