मूल में पूजा दो प्रकार की है—द्रव्य पूजा एवं भाव पूजा। वचनों के द्वारा जिनदेव का स्तवन करना, नमस्कार करना, तीन प्रदक्षिणा देना, अंजुलि बांधकर मस्तक पर चढ़ाना द्रव्य पूजा है। आचार्य अमित देव ने कहा है कि वचन और मन की क्रियाओं को रोक कर जिनेन्द्र देव के सन्मुख भाव प्रकट करना द्रव्य पूजा है और विकल्प रहित होना भाव पूजा है। यथार्थ में जिनेन्द्र देव तो चैतन्य देव है। उनका प्रक्षालन तो स्वभाव—सन्मुख होकर सम्यक् ज्ञान की धारा से हो सकता है। निज स्वभावरूप होना ही चन्दन चढ़ाना है। अनन्त गुणों का चिन्तन करना ही अक्षत क्षेपण है। मन को चरणों में लगाना पुष्प चढ़ाना, अपने ध्यान को अपने में लगाना नैवेद्य चढ़ाना, आत्मावलोकन करना दीप से पूजन, ध्यान रूप अग्नि में कर्मों का क्षेपण धूप खेना, निजानन्द को उपलब्ध होना फल चढ़ाना, गुणों का विकास करना अघ्र्य है। बाद में द्रव्य पूजा को अत्यधिक महत्व मिल गया। अष्ट द्रव्य से पूजा का प्रचलन कब और कैसे प्रारम्भ हो गया यह एक आश्चर्य ही है। मन्दिरों में विपुल मात्रा में अष्ट द्रद्रव्यढ़ाए जाते हैं औसतन बीस से तीस किलो चावल तथा मूल्यवान बादाम, लवंग, खोपरा गिरि आदि। इनका मूल्य तीस चालीस हजार मासिक से कम नहीं होगा। इतनी मात्रा और इतने मूल्य की सामग्री पर विधर्मी मालियों द्वारा कब और किस प्रकार नैतिक, अनैतिक तरीकों से अधिकार जमा लिया यह जैनाचार्यों जैन विद्वानों एवं जैन समाज के कर्णधारों के लिए गम्भीरता से विचारणीय है। सर्वाधिक दु:खद आश्चर्य तो यह है कि यह समस्त सामग्री मन्दिर में सफाई आदि के लिए नियुक्त माली को अच्छे मासिक वेतन के अतिरिक्त दी जाती है और मन्दिर में नियुक्त जैन धर्मावलम्बली पुजारी को मात्र ८-१० हजार। माली अजैन विधर्मी होते हैं उनके लड़के तो शराबी और चोर भी हैं। कई माली तो धर्मान्धता में जैन धर्म की घोर अवमानना भी करते हैं। मेरे निवास नगर कोटा के नसियाँ मन्दिर में माली ने मूर्ति चुराकर खण्डित कर दी थी। मुझे स्मरण है कि मैं एक समय जब उदयपुर से डूँगर पुर जा रहा था तब सड़क से नीचे तलहटी में मुझे जैन मन्दिर दिखा। वहाँ दर्शन करते समय मुझे बताया गया कि वहाँ नियुक्त माली ने की मूर्ति पर पद्मावती को रगड़कर/घिसकर शिविंलग बना दिया था और शिव मंदिर घोषित कर दिया था। जैन समाज को लम्बी न्यायिक प्रक्रिया के पश्चात् ही पुन: अधिकार मिल सका।
किसी भी धर्म में अन्य धर्मावलम्बियों को परिचर्या हेतु नियुक्त नहीं किया जाता। शैव एवं वैष्णव मन्दिरों में भी नहीं, सिख, इस्लाम और ईसाई धर्म में तो कदापि नहीं। जैन मंदिरों में एक नियमावली मिलती है जिसके नियम ४४ में स्पष्ट उल्लेख है कि जैन श्रावकों को नियम से मंदिर में सफाई आदि कार्य अवश्यमेव प्रतिदिन करने चाहिए। किसी भी प्रामाणिक ग्रंथ में यह उल्लेख नहीं है कि पूजा का द्रद्रव्यअजैन, विधर्मी, व्यसनी, माली को दिया जावे। अत: विधर्मी मालियों को तो नियुक्त करने का कोई औचित्य ही नहीं है। उदयपुर के निकट ऋषभदेव केसरियाजी में श्वेताम्बर—दिगम्बर विवाद सहिष्णुता पूर्वक सुलझ गया किन्तु वहाँ नियुक्त ब्राह्मण पुजारियों ने यह प्रचारित कर कि आदिवासी प्रतिमा की कालाबाबा के रूप में आराधना करते हैं यह वैष्णव मन्दिर है। आचार्य विद्यानन्द जी ने बद्रीविशाल की मूर्ति को प्रात: स्नान (अभिषेक) के समय देखकर यह निश्चित बताया है कि वहाँ मूर्ति ऋषभदेव की है। निरुपति, मदुराई आदि भी जैन मंदिर ही हैं। यह समझ में नहीं आता कि आचार्य विद्यानन्दि जी ने वहाँ मूर्ति जैन प्रमाणित होने पर भी उसे विधिवत अिंहसक तरीके से जैन समाज को कानूनी प्रक्रिया करने से मना क्यों किया? अब लड़कर ही अपना उचित अधिकार लेना आआवश्यकनहीं है उसे विधिवत् भी लिया जा सकता है। और इसके लिए प्रयास करना श्रावकों को कत्र्तव्य है। वैसे जैन श्रावक बड़े योद्धा भी हुए हैं। बुन्देलखण्ड के विस्तृत क्षेत्र में सर्मिपत जैन धर्मावलम्बी रहते हैं जिनकी र्आिथक स्थिति ठीक नहीं है और वे माली को दिए गए सभी कार्य सहर्ष कर लेंगे। वस्तु: जैन समाज को इस पर गम्भीरता से विचार करना चाहिए और विधर्मी मालियों को यथाशीघ्र हटाकर उनके स्थान पर विपन्न जैन बन्धुओं को ही लगाना चाहिए। मालियों को जो अकूत राशि दी जा रही है वह कुपात्र को देकर पापार्जन ही है जिसे तुरन्त प्रभाव से रोका जाना चाहिए। चूँकिद्रव्य पूजा की जड़े अब गहरी जम गई हैं और इसे रोक पाना सहज नहीं है। यदि समाज के कर्णधर निरन्तर प्रयास करें तब भी इसके उन्मूलन में वर्षों लग जावेंगे। अत: जब तक इसका उन्मूलन नहीं हो जाता द्रव्य पूजा के द्रव्य को मूक वन्य पशु—पक्षियों के लिए, जल स्रोतों या गोशलाओं में डालकर इसका सदुपयोग किया जावे। विधर्मी मालियों को तो तत्काल जैन मंदिरों से निष्कासित किया जाना ही चाहिए। वेतन की एवज में निर्माल्य द्रव्य देना भी पाप है।