पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी के चरणों में शतश: नमन
प्रतिभा, श्रम और संगठन-शक्ति, ये तीनों गुण जिस एक व्यक्तित्व में साकार हुए हैं, उसका नाम है गणिनी र्आियका ज्ञानमती माताजी। जिस देश में लोग पुत्र के जन्म पर खुशियाँ और कन्या के जन्म पर मातम मनाते रहे हों, उसी देश में जन्मी एक बालिका ने अपने अनथक पुरुषार्थ से मातम मनाने वालों को ठेंगा दिखाने का काम किया है। कोई ऐसा पुरुष या माई का लाल, जो कृतित्व, कर्तृत्व और व्यक्तित्व में उसका सामना कर सके। उन्होंने अपने छोटे से जीवन में इतना कुछ किया है कि सदियों तक मातृशक्ति उससे महिमा-मण्डित होती रहेगी।
माताजी बीसवीं सदी का आश्चर्य हैं। पिछले दो हजार वर्षों में प्रथम बार किसी महिला ने अपने कोमल करों में सुई-धागा या सलाइयाँ न पकड़कर कलम पकड़ी और ग्रंथ-लेखन के क्षेत्र में एक कीर्तिमान स्थापित किया। जैन इतिहास में इन्हें प्रथम महिला ग्रंथकार के रूप में सदा श्रद्धा सहित स्मरण किया जाएगा। पांच दशक के अपने साधना-काल में उन्होंने जितना लिखा है, उसकी प्रतिलिपि करने में भी हमें इससे दूना समय लगेगा।
जिन्होंने कभी ढाई सौ पंक्तियाँ भी नहीं लिखी हों, ढाई सौ ग्रंथ लिखने वाली इस अद्भुत सर्जिका का मूल्यांकन करना उनके बस की बात नहीं है। लेखन-कर्म अपने आप में एक कठोर तपस्या है। उसका मर्म और महत्त्व वही जान सकता है, जो स्वयं इस राह का राही रहा हो। कहा भी गया है-
विद्वानेव हि जानाति विद्वज्जन-परिश्रमम् ।
न हि वन्ध्या विजानाति गुर्वी प्रसववेदनाम् ।।
माताजी की प्रतिमा बहुमुखी है।
दर्शनशास्त्र
धर्म
अध्यात्म
गणित
भूगोल
खगोल
नीति
इतिहास
कर्मकाण्ड आदि
विषयों पर उनका समान अधिकार है तथा साहित्य की विविध शैलियों जैसे-
गद्य
पद्य
नाटक
कहानी
संस्मरण
आत्मकथा
पूजा-विधान आदि
में उन्हें महारत हासिल है। इन सभी विधाओं पर और इन सभी विधाओं में उन्होंने ग्रंथ लिखे हैं। बालकों को संस्कारित करने और उनकी कोमल चित्त-भूमि में सदाचार के बीज बोने के लिए सरल भाषा में अनेक पाठ्य पुस्तकें भी लिखी हैं।
अब तक हजारों पाठकों ने उनकी रचनाओं का रसास्वाद कर मन:शान्ति और आत्मलाभ प्राप्त किया है। प्रकाशन के क्षेत्र में उनकी प्रशस्त प्रेरणा से स्थापित संस्था ‘‘दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान’’ की कीर्ति-कौमुदी भारत से बाहर भी फैल चुकी है। पाश्चात्य विद्वानों ने भी उसकी सराहना की है। हस्तिनापुर की पावन भूमि में निर्मित ‘‘जम्बूद्वीप’’ भारत में अपने तरह की पहली रचना है। अब तक इसका वर्णन केवल शास्त्रों में पढ़ने को मिलता था।
सुमेरु पर्वत को हम केवल तस्वीरों या रेखाचित्रों में देखते थे। अब इनकी हूबहू भव्य और आकर्षक रचना है कि दृष्टि उस पर से हटती नहीं और कई-कई बार और कई-कई घण्टों तक देखते रहने पर भी मन कभी भरता नहीं। यह अनुभव की बात है कि पढ़कर उतना समझ में नहीं आता, जितना देखकर समझ में आता है। फिर भूगोल तो वैसे भी एक कठिन विषय है। जम्बूद्वीप-रचना ने भूगोल को हृदयंगम करना आसान कर दिया है। पूजा में हम पढ़ते थे-
तीर्थंकरों के न्हवन जल से, भए तीरथ शर्मदा।
ताते प्रदिच्छन देव सुरगन, पंचमेरुन की सदा।।
जिनाभिषेक से पवित्र वे अर्धचन्द्राकार शिलाएं सुमेरु पर्वत की चारों दिशाओं में स्थित वे सोलह चैत्यालय या भद्रशाल, नन्दन, सौमनस और पाण्डुक जैसे सुहावने नाम वाले वे वन-प्रदेश कहाँ हैं और कैसे हैं, अब यह कल्पनातीत विषय नहीं रह गया है।
हम उन्हें प्रत्यक्ष देख सकते हैं। कुलाचल, गजदन्त, वक्षार, विजयार्ध, जम्बू, शाल्मलि आदि भौगोलिक शब्दावली का अर्थ अब हमारी समझ में आने लगा है। पुराणवर्णित कुल ७८ अकृत्रिम चैत्यालयों की मंत्र-विशुद्ध प्रतिकृतियों की वन्दना करने से हमारा कर्म-भार भी हल्का हो रहा है। यों तो जम्बूद्वीप का निर्माण राज-मजदूरों ने ही किया है किन्तु उसकी असली शिल्पकार तो माताजी ही हैं।
उन्होंने त्रिलोकसार, तिलोयपण्णत्ति आदि ग्रंथों को पढ़कर उसका एक नक्शा ध्यान के अवलंबन से पहले अपने मन में बनाया, फिर उसे कागज पर उतारा या उतरवाया और तब राज-मजदूरों को समझाया गया। इतना ही नहीं, पूरे छह वर्षों तक उसका निरीक्षण-परीक्षण, अनुसंधान, संवर्धन-परिवद्र्धन-संशोधन और निर्देशन किया। तब जाकर कहीं यह शास्त्रोक्त कल्पना साकार हुई। इसके पीछे उनकी प्रतिभा, कल्पना और श्रम की त्रिवेणी बह रही है। इस जम्बूद्वीप के निर्माण का कुछ लोगों ने जमकर विरोध भी किया, किन्तु माताजी को उनके फौलादी संकल्प से वे डिगा न सके।
आज उनकी उस अटूट लगन का ही परिणाम है लाखों दर्शकों को चुम्बक की तरह खींचने वाला यह जम्बूद्वीप। अब तो सरोवर युक्त कमल-मंदिर, त्रिमूर्ति मंदिर, ध्यान मंदिर तथा अन्य अनेक निर्माणों की वजह से यह स्थान स्वयं में एक अनोखा तीर्थ ही बन चुका है। सन् १९८२ से ८५ के मध्य माताजी की प्रेरणा से ही सम्पूर्ण भारत में ‘‘जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति’’ का प्रवर्तन हुआ। हजारों जैनाजैन लोगों को उसने व्यसनमुक्त जीवन जीने की प्रेरणा दी।
आचार्य श्री वीरसागर संस्कृत विद्यापीठ, ‘‘सम्यग्ज्ञान’’ हिन्दी मासिक तथा समय-समय पर आयोजित शिक्षण-शिविरों के माध्यम से आज भी अहर्निश ज्ञान का अलख जगाया जा रहा है। उनकी शिष्याएं पूज्य आर्यिका आदिमती, जिनमती, अभयमती, चंदनामती सरीखी सिद्धान्तवेत्ता आर्यिकाएं उनसे ही शिक्षण प्राप्त कर व्युत्पन्न बनी हैं। उनके ऐसे अन्य शिष्यों की संख्या भी अपरिमित है। प्रभावना के क्षेत्र मेंं उन्होंने आचार्य समन्तभद्रस्वामी की इस कथनी को सार्थक किया है-
अज्ञानतिमिरव्याप्तिमपाकृत्य यथायथम्।
जिनशासनमाहात्म्यप्रकाश: स्यात्प्रभावना।।
जम्बूद्वीप के अतिरिक्त त्रिकालवर्ती तीर्थंकरों की जन्मभूमि अयोध्या, सिद्धक्षेत्र मांगीतुंगी तथा युग की प्रथम दीक्षा भूमि प्रयागराज के विस्मृत वैभव की स्मृति को जागृत करने की भावना से इन क्षेत्रों के विकास की ओर उनका ध्यान गया है। यहाँ के कायाकल्प को देखकर सभी विस्मय विमुग्ध हो उठते हैं। भगवान महावीर २६००वाँ जन्मकल्याणक महोत्सव वर्ष में उन्होंने भगवान महावीर की जन्मभूमि कुण्डलपुर (नालंदा) के पुनरुद्धार का बीड़ा उठाया, जो अब पूरा हो चुका है।
पूज्य माताजी के और भी उपकार हैं। वह पूरे देश में घूम-घूमकर लोगों को व्यसन मुक्त जीवन जीने की प्रेरणा दे रही हैं। शिक्षण शिविरों के माध्यम से नई पीढ़ी को धर्मशास्त्र का ज्ञान कराती हैं। उनका सानिध्य पाने के लिए पूरे देश के लोग बेताब रहते हैं। विदुषी, युग-नायिका माताजी के इन प्रयासों का लाभ जन-जन को मिले, यही शुभ भावना है। पूज्य माताजी के उपकार अनन्त हैं, उनसे उऋण होना संभव नहीं। माताजी के सम्मान मेें वस्तुत: हम सबका सम्मान सुरक्षित है। उनके चरणों में शतश: नमन्।