[[श्रेणी:भगवान_महावीर_एवं_जन्मभूमि_कुण्डलपुर_से_संबंधित_भजन]] ==मनुज प्रकृति से शाकाहारी== ”(अंग्रेजी पद्यानुवाद सहित)” मनुज प्रकृति से शाकाहारी, मांस उसे अनुकूल नहीं है। पशु भी मानव जैसे प्राणी, वे मेवा फल-फूल नहीं हैं।। Vegetarian is by nature man, No flesh can ever him suit. Like men, are animals blessed with life, Don’t use as flowers & fruit. (१) वे जीते हैं अपने श्रम पर, होती उनके नहीं दुकानें। मोती देते उन्हें न सागर, हीरे देतीं उन्हें न खानें।। नहीं उन्हें है आय कहीं से, और न उनके कोष कहीं हैं। नहीं कहीं के ‘बैंकर’ बकरे, नहीं ‘क्लर्क’ खरगोश कहीं हैं।। स्वर्णाभरण ने मिलते उनको, मिलते उन्हें दुकूल नहीं हैं। अतः दुखी को और सताना, मानव के अनुकूल नहीं हैं।। They live by dint of labour hard, On markets have no hold. Nor oceans ever give them pearls, Nor mines give them gold. They have no mines, they have no mills, They have no post or rank. No goat clerk, no sheep is Judge, No rabbit owns a bank. They neither have any ornament, Nor garment any to wear. They always keep aloof from us, Then why to interfere? (२) कभी ‘दिवाली’ ‘होली’ में भी, मिलती उनको खीर नहीं है। कभी ‘ईद’ औ ‘क्रिसमस’ में भी, मिलता उन्हें पनीर नहीं है।। फिर भी तृण से क्षुधा शांत कर, वे संतोषी खेल रहे हैं। नङ्गे तन पर धूप जेठ की, ठंड पूस की झेल रहे हैं।। इतने पर भी चले कभी वे, मानव के प्रतिकूल नहीं हैं। अतः स्वाद हित उन्हें निगलना, मानव के अनुकूल नहीं है।। On festivities and ceremonies, They have no delicious food, On holy christmas, happy Id, They have no jolly mood. They always play and jump with joy, Have what but grass to eat. They on their bare bodies bear, Cold’s winter, summer’s heat. Their life is hard, but what of that, They on their ways, their wills. It’s selfishness of man, it them, For sake of taste, he kills. (३) नदियों का मल खाकर, खारा-पानी पी जी रहीं मछलियाँ। कभी मनुज के खेतों में घुस, चरतीं वे न मटर की फलियाँ।। अतः निहत्थी जल कुमारियों-के घर जाकर जाल बिछाना। छल से उन्हें बलात् पकड़ना, नङ्गे तन पर छुरी चलाना।। दुराचार है, अनाचार है; यह छोटी सी भूल नहीं है। अबलाओं पर दृष्टिपात भी, सज्जन के अनुकूल नहीं है।। They live on dirt of lake & seas, And drink their salty water. They never harm a farmers crops, Nor break the pots of potter. Men spread fatal nets for them, And catch these poor fishes. They cut and boil and cook their flesh, And fill their empty dishes. This violent view, this treacherous job, This dirty trick and tact. Is greatest quilt, hugest sin, Is most inhuman act. (४) भोले मृग ये कभी स्वप्न में-भी न मनुज को देते गाली। पहुँच मनुज की भोजन शाला-में न छीनते व्यंजन-थाली।। किंतु मनुज घुस उनके घर में, सहसा गोली मार गिराता। खा जाता है भून कलेवर, आंगन में मृग चर्म बिछाता।। यह अपराध मेरु सा गुरुतर, बन सकता यह तूल नहीं है। पशु भी मानव जैसे प्राणी, वे मेवा फल-फूल नहीं हैं।। These simple deers abuse a man, Not even in their dreams. Nor reaching in their dining rooms, They snatch their eating creams. But a savage hunter shoots them down, And breaks their breasts with bullets. He boils and cooks and eats their flesh, Takes skins for carpets. This sin is big as mountain, Can never be passed over. Like men, are animals full of life, Don’t use as fruit & flower. (५) कभी प्रसव के लिए न चिड़ियाँ, खोजा करती हैं सतखण्डे। किसी वृक्ष पर बना घोंसला, से लेती हैं अपने अण्डे।। धूल भरे उन हीरों को नर, देता तो सौगात नहीं है। और उन्हें कर लेता भक्षण, क्या यह अनुचित बात नहीं है? अण्डे, उनके नन्हें मुन्ने, वंश-वृक्ष के मूल वही हैं। वे ही उनके राजा बेटा, वे मेवा फल-फूल नहीं हैं।। Birds don’t require big mansions, for their delivery’s sake. To hatch their eggs at lonely place, Their little nets they make. They themselves are the livings gems, Need not the human wealth? It’s most unkind to eat them up, In greed or gaining helth. Their eggs are for their family’s growth, Are neither fruits, nor honey. Then why to snatch & sell them off, To earn the blackish money. (६) मनुजों को भी कभी पकड़ने-को फिरते लंगूर नहीं हैं। पाकर पास मनुज की आहट, भग जाते वे दूर कहीं हैं।। पर अब इन्हें पकड़ने को भी, मानव वन वन घूम रहा है। इन्हें तड़पते मरते लखकर, वह ‘अमेरिका’ झूम रहा है।। वानर नर से कहीं बड़ा है, वह संजीवनि-मूल नहीं है। अतः मारकर मर्वâट जीना-मानव के अनुकूल नहीं है।। Entraping & misusing man, Monkeys are never found. They fear him much & flee away, On hearing human sound. But man is going on catching them, In forests and in towns. He cuts and tears and tortures them, For earning shillings & crowns? More human are than man himself, Must not be killed for food. Their lives are for their lives sake. Not for your livelihood. (७) क्योंकि मनुज को खेत लुटाते-गेहूँ, मक्का, धान, चने हैं। औ फल देने हेतु किमिच्छक-दानी से उद्यान तने हैं।। अत: बना पकवान चखो तुम, फल खाकर सानन्द जियो तुम। मेवों से लो सभी विटामिन, बलवद्र्धक घी-दूध पियो तुम।। तुम्हें पालने में असमर्था, धरती माँ की धूल नहीं है। अत: अन्न-फल-मेवे रहते, मांस तुम्हें अनुकूल नहीं है।। These lavishing lands & flurishing farms, Unfold the welth unseen. These nourtshing fruits & smilling flowers, Give gardens ever green. Are not their grains & fruits & milk, Is not there water & air. Why live a life on foul means, When there are so many fair. With all its good vegetarian gifts, Can not your mother land feed. Then why to dip your hands in blood, Then why the flesh you need. (८) मित्र! मांस को तजकर उसका-उत्पादन तुम आज घटाओ। बनो निरामिष, अन्न उगाने-में तुम अपना हाथ बँटाओ।। तजो शिकारी! ये बंदूके, नदियों में अब जाल न डालो। और चला हल खेतों में तुम, अब गेहूँ की बाल निकालो।। शाकाहारी और अहिंसक-बनो, धर्म का मूल यही है। पशु भी मानव जैसे प्राणी, वे मेवा फल-फूल नहीं हैं।। Control your tounges, divert your tastes, And throw your fatal knives. Eatables eat, leave noneatables, Don’t play with others lives. O honters! throw your savage guns, These snares do not spread. Grow more food grains by ploughing fields, Honestly earn your bread. Be true vegetarian, non-violent, For this is religious route. Like men are animals full of life, Dont use as flowers & fruit.
कवि-‘सुधेश’ जैन, नागौद अंग्रेजी अनुवादक-रामखेलावन वर्मा (एम.ए.)