आज से २६०० वर्ष पूर्व भारत की धरती पर तीर्थंकर भगवान महावीर ने जन्म लेकर संसार को अिंहसा का ब्रह्मास्त्र देकर विश्वकल्याण के साथ-साथ अपनी आत्मा को सम्पूर्ण कर्मों से रहित करके निर्वाण धाम को प्राप्त कर लिया और अनन्त-अनन्त काल के लिए सर्वसुख सम्पन्न सिद्धपद को प्राप्त हो गये। इतिहास के अनुसार उन्हें मोक्ष प्राप्त हुए भी २५२७ वर्ष व्यतीत हो चुके हैं उनकी कृतकृत्यता तो किसी के द्वारा भी खंडित नहीं की जा सकती है किन्तु यह समाज का दुर्भाग्य ही कहना होगा कि वर्तमान में उनके जीवन से सम्बान्धत अनेक पहलुओं को आधुनिक इतिहासकारों द्वारा किस प्रकार से विकृत करके प्रस्तुत किया जा रहा है यह एक अत्यन्त चिन्तनीय स्थिति बन गई है। सर्वप्रथम हम उनके जन्मस्थान को ही लेते हैं कि यह तो निःसंदेह कहा जा सकता है कि महावीर का जन्म तो एक ही स्थान पर हुआ था और जहां उनका जन्म हुआ था वहीं पर उनकी माता के आंगन में पंद्रह महीनों तक रत्नों की वृष्टि भी हुई थी, किन्तु आज उनकी जन्मभूमि के नाम पर तीन-तीन नाम समाज के समक्ष आ रहे हैं १. कुण्डलपुर (बिहार) २. वैशाली-वासोकुंड (बिहार) ३. लिछवाड़ (बिहार)। अब प्रश्न यह उठता है कि कब से कौन-सी जन्मभूमि को किनके द्वारा मानने की परम्परा प्रारम्भ हुई है। सर्वप्रथम पाठकों का ध्यान प्रथम जन्मभूमि कुण्डलपुर की ओर आर्किषत किया जा रहा है। सर्वप्राचीन ग्रन्थ (लगभग २००० वर्ष पूर्व प्राचीन आचार्यों द्वारा लिखित तिलोयपण्णत्ति, धवला-जयधवला, उत्तरपुराण, हरिवंशपुराण, वीरजिणदचरिउ, महावीरपुराण, वर्धमानचरित आदि अनेकानेक ग्रन्थों में स्पष्ट रूप से विदेहदेश अर्थात् वर्तमान बिहार प्रांत की कुंडलपुर नगरी में महावीर स्वामी का जन्म राजा सिद्धार्थ की महारानी त्रिशला के पवित्र गर्भ से चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को हुआ था यही बात र्विणत है। लगभग ५० वर्ष पूर्व से महावीर की जन्मभूमि पर प्रश्न चिन्ह किसने लगाया? अगली खोज क्यों प्रारम्भ हुई? यह किसी न किसी षड्यंत्र का ही दुष्परिणाम दिख रहा है। हमारे जिन प्राचीन ग्रन्थों की उपेक्षा करके आधुनिकता की होड़ में आगे बढ़ रहे लोग केवल ‘‘मेरा सो खरा’’ वाली नीति अपनाते हुए भगवान महावीर की वास्तविक जन्मभूमि ‘‘कुण्डलपुर’’ पर प्रश्नचिन्ह लगाकर अन्य नूतन स्थान को जन्मभूमि बनाने का प्रयास कर रहे हैं, उन्हें निम्न ठोस आगम प्रमाणों की ओर भी अवश्य ध्यान देना चाहिए
१. देखें कषायपाहुड ग्रन्थ की जयधवला टीका – (पृष्ठ ७६-७७) ‘‘आसाढजोण्हपक्खछट्ठीए कुंडलपुरणगराहिव-णाहवंस सिद्धत्थणिंरदस्स तिसिलादेवीए गब्भमागंतूण तत्थअट्ठदिवसाहिय णवमासे आचिछ्य चइत्त-सुक्कपक्ख- तेरसीए रत्तीए उत्तरफग्गुणीणक्खत्ते गब्भादो णिक्खंतो वड्ढमाण जिणदो।’’ अर्थात् आषाढ़ महीना के शुक्लपक्ष की षष्ठी के दिन कुण्डलपुर नगर के स्वामी नाथवंशी सिद्धार्थ नरेन्द्र की त्रिशला देवी के गर्भ में आकर और वहाँ नौ माह आठ दिन रहकर चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन रात्रि में उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के रहते हुए भगवान महावीर गर्भ से बाहर आये। इसी जयधवला में श्री वीरसेनाचार्य आगे कहते हैं-पृ.७८
कुंडपुरपुरवरिस्सर सिद्धत्थक्खत्तियस णाहकुले। तिसिलाए देवीए देवीसदसेवमाणाए।।२३।।
आच्छत्ता णवमासे अट्ठ य दिवसे चइत्त-सियपक्खे। तेरसिए रत्तीए जादुत्तरफग्गुणीए दु।।२४।।
अर्थात् कुण्डपुर नगर के सिद्धार्थ क्षत्रिय के घर, नाथकुल में, सैकड़ों देवियों से सेवमान त्रिशला देवी के गर्भ में महावीर का जीव आया और वहाँ नौ माह आठ दिन रहकर चैत्र शुक्ला त्रयोदशी की रात्रि में उत्तरफाल्गुनी नक्षत्र के रहते हुए भगवान का जन्म हुआ।
२. षट्खंडागम के चतुर्थ-खंड एवं नवमी पुस्तक की धवला टीका में पृ. १२१ पर भी यह कथन कुण्डलपुर के सम्बन्ध में आया है।
३. तिलोयपण्णत्ती (श्री यतिवृषभाचार्य रचित) चतुर्थ महाधिकार पृ. २१०- सिद्धत्थरायपियकारिणीिंह, णयराqम्म कुंडले वीरो। उत्तरफग्गुणिरिक्खे, चित्तसियातेरसीए उप्पण्णो।।५४९।।
४. श्रीजिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण के द्वितीय सर्ग में महावीर स्वामी के गर्भकल्याणक प्रकरण में कुण्डलपुर नगरी का विस्तृत वर्णन आया है-
तत्राखण्डलनेत्राली, पद्मनीखण्डमण्डलम्। सुखाम्भः कुण्डमाभाति, नाम्ना कुण्डपुरं पुरम्।।५।।
अर्थात् उस विदेह देश में कुण्डपुर नाम का एक ऐसा सुन्दर नगर है जो इन्द्र के नेत्रों की पांक्तरूपी कमलिनियों के समूह से सुशोभित है तथा सुखरूपी जल का मानो कुण्ड ही है।
५. श्रीगुणभद्राचार्य रचित उत्तरपुराण ग्रन्थ में पर्व ७४ पर- राज्ञः कुण्डपुरेशस्य, वसुधाराप तत्पृथु। सप्तकोटीमणीः साद्र्धाः, सिद्धार्थस्य दिनं प्रति।।२५२।। अर्थात् ‘‘कुण्डलपुर’’ नगर के राजा सिद्धार्थ के घर प्रतिदिन साढ़े सात करोड़ मणियों की भारी वर्षा होने लगी।
६. महाकवि श्री पुष्पदन्त विरचित ‘‘वीर जिणिन्दचरिउ’’ में पृष्ठ ११ एवं १५ पर कुण्डलपुर नगरी की शोभा का वर्णन है-
इह जंबुदीवि भरहंतरालि। रमणीय-विसइ सोहा- विसालि।।
कुंडउरि राउ सिद्धत्थु सहिउ। जो सिरिहरु मग्गण-वेस रहिउ।।
इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में विशाल शोभाधारी विदेह प्रदेश में ‘‘कुण्डपुर’’ नगर के राजा सिद्धार्थ राज्य करते हैं। आगे इसी में सौधर्म इन्द्र के शब्दों में धनकुबेर को दिये गये आदेशानुसार नगरी सजाने का वर्णन भी आया है।
ता कयउ कुंडपुरु तेण चारु। सव्वत्थ रयण-पायार -भारु।।
सव्वत्थ रइय णाणा दुवारु। सव्वत्थ परिह परिरूद्ध चारु।।
इन्द्र की आज्ञानुसार कुबेर ने ‘‘कुण्डपुर’’ को ऐसा ही सुन्दर बना दिया। उसके चारों तरफ रत्नमयी प्रकार बन गया जिसके सब ओर नाना प्रकार के द्वार थे और उसके चारों ओर ऐसी परिखा थी जिससे वहाँ शत्रुओं का संचार अवरुद्ध हो जाये।
७. श्रीमहावीरपुराण (आचार्य श्री सकलर्कीित विरचित) के पृष्ठ ४३ पर- भरतक्षेत्र के इसी विदेहदेश के ठीक मध्य में “कुण्डपुर’’ एक अत्यन्त रमणीक नगर है। यहाँ पर धर्मात्माओं का विशेष रूप से निवास है। यहाँ के कोट, द्वार एवं अलंघ्य खाइयों को देखकर अपराजिता-अयोध्या नगरी का भान होता है।……..यहाँ के ऊँचे-ऊँचे एवं स्वर्ण रत्नों से निर्मित जैन मान्दरों को देखकर लोगों को कुण्डलपुर के प्रति अपार श्रद्धा जागृत होती थी। वह नगर धर्म का समुद्र जैसा प्रतीत होता था।………उस नगर के राजा का नाम “सिद्धार्थ’’ था। इसी कुण्डलपुर नगरी में भगवान महावीर के जन्मवर्णन के साथ सौधर्मेन्द्र द्वारा सुमेरुपर्वत पर जन्माभिषेक करके वापस वर्धमान शिशु को लाकर माता-पिता की गोद में सौंपने का बड़ा रोमांचक वर्णन विशेष पठनीय है। ‘‘इस प्रकार भगवान का नामकरण कर इन्द्र ने देवों के साथ उनको ऐरावत गजराज पर बिठाकर ‘‘कुण्डलपुर’’ की ओर प्रस्थान कर दिया। देवों की सारी मंडली बड़े उत्सव के साथ कुण्डलपुर में आ पहुँची।……….वहाँ जाकर इन्द्राणी ने मायामयी निद्रा में लीन महारानी को जगाया। उन्होंने बड़े प्रेम से आभूषणों से युक्त अपूर्व काान्तवाले पुत्र को देखा।
८. श्री पुष्पदन्त कवि रचित महापुराण (भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित) में पृष्ठ ३१०-३१२-३१३ पर भी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में कुण्डलपुर नगरी के राजा सिद्धार्थ का वर्णन, देवों द्वारा कुण्डलपुर की सजावट एवं वहीं पर सिद्धार्थराजा के महल में रत्नवृष्टि का कथन दृष्टव्य है- घरपंगणि तासु रायहु सुहपब्भारिंह। वुट्ठउ धणणाहु अविहंडियधणधारिंह।।८।। (पृ.३१३) अर्थात् उस राजा के आंगन में सुख के प्रभारों से युक्त अखाण्डत धन-धाराओं के द्वारा कुबेर स्वयं बरस रहा है। आगे इसी प्रकरण में कुण्डलपुर में ही महावीर स्वामी का जन्म होना बतलाया है। यह तो मात्र आठ प्रमुख प्राचीन दिगम्बर जैन ग्रन्थों के अनुसार मैंने महावीर स्वामी की जन्मभूमि कुण्डलपुर नगरी का आस्तित्व पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है और इनमें सब जगह महावीर के ननिहाल राजा चेटक की राजधानी के रूप में ‘‘वैशाली’’ का वर्णन आता है। इन पूर्वाचार्यों की वाणी के आधार पर ही दिगम्बर जैन परम्परा के समस्त विद्वान, लेखक और कवि अपनी रचनाओं में कुण्डलपुर का वर्णन करते नहीं थकते थे। जैसे ‘महावीर पूजा’ में ही पढ़ा जाता है-
९. ‘‘जनम चैतसित तेरस के दिन, कुण्डलपुर कन वरना।।’’ सुरगिरि सुरगुरु पूज कियो नित, मैं पूजों भव हरना।। नाथ मोहि राखो हो शरणा… श्री वर्धमान जिनरायजी, मोिंह राखो हो शरणा।।’’
१०. कविवर हरिप्रसाद जी द्वारा रचित ‘महावीर आरती’ में भी भक्तगण श्रद्धापूर्वक पढ़ते हैं- ‘‘जय महावीर प्रभो, स्वामी जय महावीर प्रभो। कुण्डलपुर अवतारी, त्रिशलानन्द विभो।।जय..।।’’ आगम एवं परम्परा का अनुकरण करते हुए सैकड़ों कवियों ने वर्धमान महावीर के चरणों में श्रद्धासुमन सर्मिपत करते हुए उनकी पावन जन्मभूमि ‘‘कुण्डलपुर’’ को अपनी कृतियों में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है, उनमें से कतिपय अर्वाचीन कृतियाँ (२०वीं शताब्दी में लिखी गईं) भी मेरे देखने में आई हैं।
११. सन् १९४१ में श्री १००८ महावीर जैन कीर्तन मण्डल, धर्मपुरा-दिल्ली से प्रकाशित ‘‘महावीर जन्मोत्सव की कथा’’ में कवि ने लिखा है-
तर्ज-राधेश्याम……………………………
छः माह पेशतर रतनों की कुण्डलपुर में वर्षा होती।
प्रतीत हुआ विद्वानों को अब जागेगी कोई ज्योती।।
आषाढ़ सुदी छठ जब आई और समय रात्रि का आया था।
त्रिशला देवी को गर्भ रहा यह ग्रन्थों में बतलाया था।।
१२. ‘‘तीर्थंकर महावीर भाक्त गंगा’’ नामक संकलन कृति में ‘‘धर्मविलास’’ के पृ. ५१ की कविता भी दृष्टव्य है-
वर्धमान! जस वर्धमान अच्युत विमान गति। नगर कुण्डपुर धार सार सिद्धारथ भूपति।।
रानी प्रियकारनी बनी कंचन छवि काया। आयु बहत्तर बरस, जोग खरगासन ध्याया।।
तुम सात हाथ मृगनाथ पति तेमनै अब लों धरम जर सिर नाय नमौ जुग जोरि कर।।
धर्म विलास पृ. ५१
अर्थ-हे वर्धमान प्रभो! आपका यश निरन्तर वर्धमान है। आप अच्युत विमान को त्याग कर कुण्डलपुर नगर में पधारे। उस नगर के राजा सिद्धार्थ आपके पिता थे और रानी प्रियकारिणी (त्रिशला) आपकी माता थी। आपके शरीर की आभा स्वर्ण जैसी थी। आपकी आयु बहत्तर वर्ष की थी। आपने दीक्षा लेकर खड़्गासन से ध्यान लगाया था। आपकी अवगाहना सात हाथ की थी, सिंह आपका लांछन (चिन्ह) है। आप के द्वारा प्ररूपित धर्म ही अबतक जगत में परमधर्म का मूल है। प्रभो! बद्धांजलि होकर मैं आपके चरणों में सिर झुकाता हूँ।
१३. उपर्युक्त कृति की ही एक कविता और भी (कविवर श्री ‘‘बुधमहाचन्द्र’’ द्वारा रचित) यहाँ प्रस्तुत है-
सिद्धारथ राजा दरबारे बटत बधाई रंग भरो हो।। टेक।।
त्रिसला देवी ने सुतजायो वद्र्धमान जिनराज बरी हो,
कुंडलपुर में घर घर द्वारे होय रही आनंद घरी हो।।१।।
रत्नन की वर्षा को होते पंद्रह मास भये सगरी हो,
आज गगन दिश निरमल दीखत पुष्प वृष्टि गंधोद झरी हो।।२।।
जन्मन जिनके जग सुख पाया दूरि गये सब दुक्ख टरी हो,
अन्तर मुहूर्त नारकी सुखिया ऐसो अतिशय जन्म धरी हो।।३।।
दान देय नृपने बहुतेरो जाचिक जन मन हर्ष करी हो,
ऐसे बीर जिनेश्वर चरणों ‘बुध महाचन्द्र’ जु सीस धरी हो।।४।।
अर्थ-महाराज सिद्धार्थ के दरबार में आज रंगभरी बधाई बट रही हैं। देवी त्रिशला ने पुत्र प्रसव किया है। वह पुत्र (आन्तम तीर्थंकर) जिनराज वर्धमान हैं। कुण्डलपुर में घर-घर और द्वार-द्वार आनन्द की यह शुभ घड़ी व्याप्त हो रही है। अहो! रत्नों की वर्षा होते पन्द्रह मास हो गये। आज आकाश, दिशाएं, निर्मल प्रतीत हो रही हैं और पुष्प वृष्टि हो रही है, गन्धोदक की झड़ी ‘वर्षा’ लगी हुई है। भगवान के जन्म ग्रहण करते समय संसार ने सुख पाया और सब दुःख दूर हो गये, टल गये। भगवान का अतिशय युक्त जन्म वर्णन कैसे किया जाए, उस समय अन्तर्मुहूर्त के लिए नारकियों को भी सुख प्राप्ति हुई। राजा ने बहुत सा दान देकर याचकों तथा जनमानस को प्रर्हिषत कर दिया। ऐसे वीर जिनेश्वर के चरणों में ‘बुध महाचन्द्र’ मस्तक नमाते हुए विनय भक्ति करते हैं।
१४. श्री ताराचन्द जैन शास्त्री द्वारा लिखित सन् १९७७ में प्रकाशित ‘‘जीवन झांकी तीर्थंकर महावीर’’ के प्रथम पद्य में- आओ दिखाएं जीवन-झांकी, महावीर भगवान की। सिद्धारथ के राजदुलारे, त्रिशला मां के प्राण की।। क्षत्रिय नाथ वंश प्राची के, दिनकर श्री महावीर थे। कुंडलपुर में जन्म लिया था, जन्मजात अति वीर थे। चैत्र शुक्ल तेरस के दिन की शोभासीम निराली थी। राजमहल, पुरजन, परिजन के मुख पर छाई लाली थी।। रत्नों, पुष्पों की वर्षा हुई, वृद्धि हुई धन-धान की।। आओ दिखाएं, जीवन-झांकी महावीर भगवान की। सिद्धारथ के राजदुलारे, त्रिशला मां के प्राण की।।
१५. श्रीकृष्ण जैन द्वारा लिखित ‘‘भगवान महावीर और उनका दिव्य सन्देश’’ (अप्रैल १९७६ में प्रकाशित) में भगवान महावीर के जन्म समय का सुन्दर प्रकरण है- अज्ञानमय इस लोक में, आलोक सा छाने लगा। होकर मुदित सुरपति नगर में रत्न बरसाने लगा।। उदित बालक की प्रभा, ज्ञान ज्योति प्रगट होने लगी। नभ की निशा की कालिमा अभिनव उषा धोने लगी।। द्वार-द्वार पर सज उठे, तोरण बन्दनवार। कुण्डलपुर नगरी में हुआ, वीर प्रभु अवतार।। प्राची दिशा के अंक में नूतन दिवाकर आ गया। सत्य अिंहसा का आलोक पुनः जग में छा गया।। प्रसंगोपात्त कुछ ग्रंथ एवं पुस्तकों के नाम मात्र यहाँ प्रस्तुत किये जा रहे हैं, जिनमें कुण्डलपुरी का वर्णन लेखकों ने किया है, पाठकगण यथासंभव स्वाध्याय के द्वारा इनका अवलोकन करें-
१६. ‘‘अहिंसा के अवतार भगवान महावीर’’, लेखक-पूज्य आचार्यरत्न श्री देशभूषण महाराज (प्रकाशक जैनमित्र मण्डल देहली, अप्रैल सन् १९५६)
१७. ‘‘जैनतीर्थ और उनकी यात्रा’’, लेखक-श्री कामता प्रसाद जैन, प्रकाशक भारतीय दिगम्बर जैन परिषद्, मार्च १९६९
१८. ‘‘भगवान महावीर और उनका समय’’ लेखक पंडित जुगलकिशोर मुख्तार, प्रकाशक हीरालाल पन्नालाल जैन देहली, मार्च १९३४
१९. ‘‘महाश्रमण महावीर’’ लेखक पं. सुमेरुचन्द्र दिवाकर प्रकाशित सन् १९६८
२०. ‘‘भगवान महावीर’’ (जीवन दर्शन) लेखक पं. सुमेरुचन्द्र दिवाकर प्रकाशित सन् १९७०
२१. ‘‘भगवान महावीर और उनका सन्देश’’, लेखक पं. परमेष्ठी दास जैन, प्रकाशित सन् १९७५
२२. ‘‘तीर्थंकर महावीर’’ लेखक अनूप चन्द्र जैन, प्रकाशित अप्रैल सन् १९९३
२३. ‘‘वृहद् महावीर कीर्तन’’ प्रकाशित दिसम्बर सन् १९६२, श्री दिगम्बर जैन वीर पुस्तकालय, महावीरजी (राजस्थान)
२४. ‘‘महावीर चालीसा’’ जनम लिया कुण्डलपुर नगरी, हुई सुखी तब प्रजा सगरी। सिद्धारथ जी पिता तुम्हारे, त्रिशला की आँखों के तारे।।
२५. ‘‘भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ’’ (सन् १९७५ में हीराबाग-मुम्बई से प्रकाशित) नामक ग्रन्थ में बिहार प्रान्त के तीर्थों का वर्णन करते हुए पं.श्री बलभद्र जैन ने कुण्डलपुर तीर्थ के विषय में लिखा है- ‘‘कुंडलपुर बिहार प्रान्त के पटना जिले में स्थित है। यहाँ का पोस्ट ऑफिस नालन्दा है और निकट का रेलवे स्टेशन भी नालन्दा है। यहाँ भगवान महावीर के गर्भ, जन्म और तपकल्याणक हुए थे, इस प्रकार की मान्यता कई शतााqब्दयों से चली आ रही है। यहाँ पर एक शिखरबन्द माqन्दर है जिसमें भगवान महावीर की श्वेतवर्णी साढ़े चार फुट अवगाहना वाली भव्य पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। वहाँ र्वािषक मेला चैत्र सुदी द्वादशी से चतुर्दशी तक महावीर के जन्मकल्याणक को मनाने के लिए होता है।’’
२६. पाण्डत श्री वैलाशचन्द्र जैन सिद्धांत शास्त्री द्वारा लिखित ‘‘जैनधर्म’’ नामक पुस्तक (सन् १९४८ में भारतवर्षीय दिगम्बर जैन संघ, मथुरा चौरासी से प्रकाशित) में पृ. १८ पर भगवान महावीर के बारे में स्पष्ट वर्णन है- ‘‘भगवान महावीर आन्तम तीर्थंकर थे। लगभग ६००ई. पूर्व बिहार प्रान्त के ‘‘कुण्डलपुर’’ नगर के राजा सिद्धार्थ के घर में उनका जन्म हुआ। उनकी माता त्रिशला वैशाली नरेश राजा चेटक की पुत्री थी। महावीर का जन्म चैत्रशुक्ला त्रयोदशी को हुआ था। इस दिन भारतवर्ष में महावीर की जयन्ती बड़े धूमधाम से मनाई जाती है।’’
२७. भारतगौरव पूज्य आचार्य श्री देशभूषण महाराज द्वारा रचित ‘‘भगवान महावीर और उनका तत्त्वदर्शन’’ (सन् १९७४ में श्री जैनसाहित्य समिति, कूचा बुलाकी बेगम, ऐस्प्लेनेड रोड-देहली) में भी जगह-जगह भगवान महावीर का कुण्डलपुर नगरी में जन्म लेना, बालक्रीड़ा करना आदि जीवन को दर्शाया है। विषय की अधिकता के कारण यहाँ अत्यधिक प्रमाणों का उल्लेख नहीं किया जा रहा है किन्तु यहाँ इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि सम्पूर्ण दिगम्बर जैन आगम ग्रन्थ इसी सत्य को स्वीकार करते हैं कि भगवान महावीर ने बिहार प्रान्त के कुण्डलपुर नगर में जन्म लेकर सम्पूर्ण विश्व को अिंहसा के अमर सिद्धांत से प्रभावित किया था। उनके इस व्यापक प्रभाव के कारण ही कुछ इतिहासकारों ने उन्हें जैनधर्म का संस्थापक कह दिया जबकि पाण्डत श्री सुमेरुचन्द्र दिवाकर के शब्दों में महावीर को जैनधर्म का संस्थापक न कहकर पुनरुद्धारक कहना चाहिए। अब प्रश्न उठता है कि वैशाली को महावीर जन्मभूमि के रूप में किसने और कब प्रस्थापित करने का प्रयास किया? इस विषय में डॉ. हीरालाल जैन एवं ए.एन. उपाध्ये ने सन् १९७४ में लिखित अपनी पुस्तक ‘महावीर युग और जीवन दर्शन’ में अनेक युाक्तयोंपूर्वक वैशाली के उपनगर जिला मुजफ्फरपुर में (दो किमी. दूर-वासुकुण्ड) को भगवान महावीर की जन्मभूमि के रूप में बताने का प्रयास करते हुए स्वयं लिखा है। अनेक प्राचीन नगरों के साथ इस वैशाली का दीर्घकालीन इतिहासज्ञों को अता-पता नहीं था किन्तु विगत एक शताब्दी में जो पुरातत्त्व सम्बन्धी खोज-शोध हुई है, उससे प्राचीन भग््नाावशेषों, मुद्राओं व शिलालेखों आदि के आधार से प्राचीन वैशाली की ठीक स्थिति अवगत हो गयी है और निःसंदेह रूप से प्रमाणित हो गया है कि बिहार राज्य में गंगा के उत्तर में मुजफ्फरपुर जिले के अन्तर्गत बसाढ़ नामक ग्राम ही प्राचीन वैशाली है। स्थानीय खोज-शोध से यह भी माना गया है कि वर्तमान बसाढ़ के समीप ही जो वासुकुण्ड नामक ग्राम है, वहीं प्राचीन कुण्डपुर होना चाहिए। वहां एक प्राचीन कुण्ड में चिन्ह पाये जाते हैं जो क्षत्रियकुण्ड कहलाता रहा होगा’’ अर्थात् लेखक स्वयं यह स्वीकार कर रहे हैं कि सौ वर्ष पूर्व वैशाली नाम का इस भारत देश में कोई नगर ही नहीं था और उसे बसाढ़ नामक ग्राम को वैशाली नाम देकर स्थापित कर दिया गया है अतः कटु सत्य तो यह है कि यह वैशाली नगरी भी केवल इतिहासकारों के द्वारा बनाई गयी वैशाली है न कि २६०० साल पहले से चली आयी वास्तविक वैशाली है। मैंने तो अभी तक वैशाली या कुण्डग्राम के विषय में जो भी प्रमाण पढ़े हैं वे श्वेताम्बर ग्रन्थ जैसे भगवतीसूत्र, आचारांग, कल्पसूत्र, उपासकदशांग सूत्र, सूत्रकृतांग आदि ग्रन्थ हैं। महानुभावों! यदि श्वेताम्बर ग्रन्थों की मान्यताओं के आधार पर हम भगवान महावीर को वैशालिक कहकर उनका जन्म वैशाली में अथवा उसके निकट वासुकुण्ड में मानने लगे तब तो श्वेताम्बर ग्रन्थों में र्विणत स्त्रीमुक्त, सवस्त्र मुक्त, महावीर की माता का चौदह स्वप्नों का देखना, देवानन्दा नामक ब्राह्मणी के गर्भ से त्रिशला के गर्भ में महावीर का परिवर्तन किया जाना, महावीर का विवाह तथा उनके पुत्री होना, दीक्षा से पूर्व ही उनके माता-पिता का स्वर्गस्थ हो जाना आदि अनेक बातें भी उनकी हमें माननी पड़ेंगी किन्तु दिगम्बर सम्प्रदाय के लिए ऐसा तीन काल में भी संभव नहीं है। आश्चर्य तो यह है कि इधर श्वेताम्बर ग्रन्थों के अनुसार दिगम्बर जैन समाज के कुछ गिने चुने लोग व्याqक्तगत मान्यताओं के आधार पर वैशाली को जन्मभूमि कहने का दुष्प्रयास कर रहे हैं और स्वयं श्वेताम्बर सम्प्रदाय वालों ने उसे जन्मभूमि न मानकर मुंगेड़ जिले के एक ग्राम लिछवाड़ को जन्मभूमि माना है…….अस्तु! इस बात पर दिगम्बर जैन समाज को अति सूक्ष्मता से विचार करने की आवश्यकता है। दूसरी बात, महावीर जन्मभूमि के रूप में वैशाली को बौद्ध ग्रन्थों (मज्झिमनिकाय, महावस्तु) के अनुसार भी कुछ लोग स्वीकार कर लेते हैं तब तो बौद्धमत के क्षणिकवाद आदि उनके एकान्त सिद्धांतों को भी हमें मानने के लिए बाध्य होना पड़ेगा क्योंकि किसी मत की एक बात मानने पर उनकी अनेक बात मानने का भी प्रसंग आता है। बौद्ध और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों में बिहार प्रांत के अन्दर लिच्छवी वंश, गणराज्य पद्धति आदि को स्वीकार किया गया है और इन्हीं ग्रन्थों के आधार पर लगभग ५० वर्ष पूर्व कवि रामधारी सिंह दिनकर ने ‘‘वैशाली जन का प्रतिपादक गण का आदि विधाता’’ इत्यादि कविता लिख दी है। हमारे प्राचीन दिगम्बर जैन ग्रन्थों को विद्वानों ने सार्वजनिक रूप में प्रसिद्ध नहीं किया कि आधुनिक इतिहासकार, कवि और लेखक उससे भी कुछ ले सकते जबकि श्वेताम्बर और बौद्ध साहित्य प्रचुर मात्रा में लोगों के हाथों में दो हजार सालों से पहुँचता रहा है। तीसरी बात, इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में भी कहीं-कहीं वैशाली को ही सीधे महावीर की जन्मभूमि लिख दिया गया है और कहीं वैशाली के उपनगर कुण्डग्राम को महावीर की जन्मभूमि के रूप में लेखकों ने प्रस्तुत किया है। बन्धुओं! इन इतिहासकारों के बारे में तो क्या कहा जाए, आप लोग आजकल सुन ही रहे हैं कि इन लोगों ने इतिहास के नाम पर जैनधर्म एवं अन्य दूसरे धर्मों पर भी कितना कुठाराघात किया है और जब पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने दश वर्ष के पुरुषार्थ के पश्चात् सरकार एवं शिक्षा विभाग तक पुरजोर बात पहुँचायी तब सरकार को उन पाठ्यपुस्तकों में संशोधन करने के लिए बाध्य होना पड़ा। हमारे संशोधनों के साथ अन्य धर्मावलाqम्बयों के भ्रान्त विषयों का भी संशोधन हो रहा है जिससे प्रायः लोग प्रसन्नता का अनुभव कर रहे हैं किन्तु इतिहास में किया गया छोटा सा संशोधन अभी पर्याप्त नहीं है क्योंकि बहुत सारे भ्रान्त विषयों में से केवल कुछ लाइनों का संशोधन मात्र हो रहा है, उसमें अभी और अधिक संशोधन की आवश्यकता है जिसके लिए हमें बराबर पुरुषार्थ करते रहना है। अब आप स्वयं सोचिये कि जिन इतिहासकारों पर हम पचासों वर्षों से विश्वास करते आए, उन्होंने हमारे साथ कितना विश्वासघात किया कि हमारे ही धर्म और तीर्थंकर महापुरुषों को विकृत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी तो भला उनकी निराधार खोजों के आधार पर हम वैशाली या वासुकुण्ड को महावीर की जन्मभूमि मानकर यदि उसे प्रचारित कर देंगे तो आगे इसका नतीजा अगली पीढ़ी को तो भुगतना पड़ेगा ही, साथ ही असली जन्मभूमि को अपने ही हाथों से गंवाकर हमें क्या हासिल होगा? आर.एस. शर्मा, रोमीला थापर आदि इतिहास लेखकों के समान क्या हम स्वयं एक नई गलती और नहीं करने जा रहे हैं? यह अपने हाथ से अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा ही दुष्प्रयास है। ऐसी शोध और खोज करके तो कुछ विद्वान् मानने लगे हैं कि शाश्वत तीर्थ अयोध्या भारत में न होकर थाइलैंड में है, वर्तमान में जिस शाश्वत निर्वाणभूमि सम्मेदशिखर को सभी श्रद्धा से पूजते हैं वह भी खोजकर्ताओं ने गलत बता दिया है। इतना ही नहीं, लगभग समस्त तीर्थंकरों की जन्मभूमि को दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों में बताते हुए एक लेखक ने (डा. जिनेश्वरदास जैन ने ‘‘अंगकोर के पंचमेरु मंदिर-इतिहास के नवीन परिप्रेक्ष्य में’’) नामक पुस्तक में अयोध्या को थाईलैंड में, हास्तनापुर को बर्मा में, चम्पापुर को दक्षिण वियतनाम में, विदेह को दक्षिण चीन में, रतनपुरी को कम्बोडिया में और कुण्डलपुर को विदेह का १०वाँ नगर के रूप में लिखा है। तो क्या वर्तमान भारत में स्थत सभी तीर्थ छोड़कर आप विदेश की नगरियों का उद्धार करने जाएंगे? भ्रांति के इस परिप्रेक्ष्य में हमें तो भारत में ही स्थत अपने प्राचीन तीर्थों का संरक्षण करना चाहिए, शेष स्थानों पर मिले अवशेषों को जैन संस्कृति का गौरव मानना चाहिए। चौथी बात आती है कि सन् १९६० के दशक में तत्कालीन बिहार सरकार ने वैशाली को महावीर जन्मभूमि स्वीकार कर लिया। भाइयों! जिसे जैन समाज के कुछ कार्यकर्ताओं तथा शोधकर्ताओं ने समाज से शास्त्रोक्त निर्णय लिए बिना ही सरकार को बता दिया, इसमें सरकार का क्या दोष है? उसी के अनुसार उन्होंने उद्घाटन कर दिया। आगम से आप सोचिए कि अपने भगवान की जन्मभूमि का निर्णय हमें करना है या सरकार से कराना है यह एक विचारणीय विषय है। यदि सरकार की ही सारी बातें मानी जाएं तो सरकार के द्वारा तो मांस का निर्यात भी किया जा रहा है, शराब के ठेके धड़ल्ले से चलाए जा रहे हैं, अण्डे को शाकाहार प्रचारित किया जा रहा है, बूचड़खानों को नये-नये लाइसेन्स प्रदान किये जा रहे हैं……इत्यादि सभी बातें क्या सरकार की हम लोग मान्य करेंगे? यदि नहीं, तो फिर केवल उसकी मान्यता के आधार पर महावीर जन्मभूमि का ही परिवर्तन क्यों? दिगम्बर जैन समाज सोचे और विवेक का परिचय दे। कुछ लोग इसमें भूगोल की दृष्टि लगाते हुए कहते हैं कि कुण्डलपुर तो मगधदेश के राजगृही नगरी से केवल १६ किमी. दूर है इसलिए हम कुण्डलपुर को मगधदेश में कैसे मानें? इस विषय में हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि काल परिवर्तन के साथ-साथ देश और प्रदेशों की दूरियां काफी विषम परिस्थितियों को प्राप्त हो चुकी हैं जो नगरियां तीर्थंकरों के समय में ९६ मील की हुआ करती थीं वह आज की स्थति में केवल एक-दो किमी. की ही परिधि में सिमटकर रह गई हैं और उनके आस-पास ही तमाम दूसरी नगरियों का आस्तित्व मान लिया गया है। इस प्रकार फिर जो वैशाली नगरी राजा चेटक की राजधानी बताई गई थी उसके उपनगर वासुकुण्ड या कुण्डग्राम को राजा सिद्धार्थ की राजधानी कहने में तो बहुत ही अधिक विकृति उत्पन्न हो जाएगी क्योंकि वह स्थान तो वैशाली से दो-तीन किमी. ही दूर है इस अल्प दूरी में दो राजाओं की रियासत कभी भी स्वीकार नहीं की जा सकती है अन्यथा राजा सिद्धार्थ को राजा चेटक का ही घरजमाई-जैसा स्वीकार करना पड़ेगा और फिर महावीर यदि वैशाली के युवराज कहे जाएंगे तो आगम में र्विणत राजा चेटक के दस पुत्र किसकी सत्ता के स्वामी कहलायेंगे? एक वास्तविक कुण्डलपुर को छोड़ने से इस प्रकार के अनेक विचारणीय प्रश्न सहज ही उभर जाते हैं अत: भलाई इसी में है कि हम सभी मिलकर प्राचीन कुण्डलपुर नगरी को ही अपने आराध्य महावीर की जन्मभूमि मानें, उसी का विकास करें और वैशाली को भी महावीर के स्मारक के रूप में यदि सरकार विकसित करना चाहती है तो वहां स्मारक बनाएं, शैक्षणिक संस्थान आदि चलाएं, इसमें कोई आपत्ति नहीं है।
वैशाली या वासुकुण्ड (कुण्डग्राम) को महावीर की जन्मभूमि मानने वाले लोग तो आधुनिक शोध और खोज के अनुसार बिहार शरीफ के निकट वाली पावापुरी नगरी को भी उनकी निर्वाणभूमि नहीं मानते हैं। डॉ. हीरालाल जी ने तो ‘महावीर युग और जीवनदर्शन’ के पृष्ठ ३० पर स्पष्ट लिखा है कि इन सब बातों पर विचार कर इतिहासकार इस निर्णय पर पहुँचे हैं कि ‘‘जिस पावापुरी के समीप भगवान का निर्वाण हुआ था, वह यथार्थतः उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले में व कुशीनगर के समीप वह पावा नामक ग्राम है जो आजकल सठियाँव (फाजिलनगर) कहलाता है और जहाँ बहुत से प्राचीन खण्डहर व भगवशेष पाये जाते हैं। अतएव ऐतिहासिक दृष्टि से इस स्थान को स्वीकार कर उसे भगवान महावीर की निर्वाणभूमि के योग्य तीर्थक्षेत्र बनाना चाहिए।’’ किन्तु इनकी बात न मानकर दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदाय के लोग सरकार के साथ मिलकर बिहार शरीफ के निकट वाली पावापुरी का ही उद्धार कर रहे हैं, यह बात कहां तक उचित है? यदि उन लेखकों के आधार पर आप कुण्डलपुरी को छोड़ना चाहते हैं तो निःसंदेह ही आप इस पावापुरी का विकास न करके फाजि़लनगर के पास वाले पावाग्राम का विकास करें और वहीं प्रतिवर्ष दीपावली मनाकर महावीर निर्वाणोत्सव का कार्यक्रम करें। इन दोनों प्राचीन भूमियों का हम सभी दिगम्बर जैन समाज के लोग मिलकर सरकार की बिना मान्यता एवं सहयोग के भी विकास कर लेंगे लेकिन इन भूमियों को हम इनके सौभाग्य से वंचित नहीं होने देंगे और यदि पावापुरी को मानते हैं तो निाqश्चत रूप से प्राचीन कुण्डलपुर को भी जन्मभूमि मानें और शत प्रतिशत दिगम्बर जैन समाज की श्रद्धा के साथ खिलवाड़ न करें, अन्यथा पापबन्ध के साथ-साथ भावी इतिहास कभी आपको माफ नहीं कर पाएगा।