भारतीय संस्कृति में तीर्थों का बड़ा महत्व है। प्रत्येक धर्म के अनुयायी अपने तीर्थों की वंदना यात्रा के लिए भक्तिभाव से जाते हैं। जैनधर्म में तीर्थों का विशेष महत्व रहा है। तीर्थ स्थान पवित्रता, शान्ति और कल्याण के धाम माने जाते हैं। जैन धर्मावलम्बी प्रतिवर्ष श्रद्धाभाव से तीर्थों की यात्रा करते हैं एवं पुण्य संचय तथा आत्मशान्ति का अनुभव करते हैं सम्मेदशिखर के बारे में पूजा में कहा है-
‘‘एक बार वन्दे जो कोई, ताहि नरक पशुगति नहिं होई’’
आचार्य कुन्दकुन्द की प्राकृत निर्वाणकाण्ड भक्ति में तीर्थ भूमियों की भेद कल्पना से दिगम्बर समाज में तीन प्रकार के तीर्थ प्रचलित हैं-सिद्धक्षेत्र, अतिशय क्षेत्र, कल्याणक क्षेत्र। तीर्थंकर भगवान जिस नगर में जन्म लेते हैं वह नगर उनकी चरण रज से पवित्र हो जाता है। आचार्य वसुनंदि ने कहा कि तीर्थक्षेत्र के मार्ग की धूल इतनी पवित्र हो जाती है कि इसके संसर्ग से भक्त जन कर्ममल रहित हो जाते हैं, तीर्थयात्रा करने से भवभ्रमण समाप्त हो जाता है, तीर्थक्षेत्र पर द्रव्य लगाने से अक्षय सम्पदा प्राप्त होती है और वहाँ जाकर भगवान की शरण लेने से व्यक्ति जगत पूज्य बन जाता है। दिगम्बर जैन वाङ्मय में सर्वत्र भगवान महावीर की जन्मस्थली कुण्डलपुर, कुण्डपुर, कुण्डलपुर को ही वर्णित किया गया है। लगभग २ हजार वर्ष पूर्व श्री यतिवृषभाचार्य द्वारा रचित ‘तिलोयपण्णत्ति’श्री यतिवृषभाचार्य, तिलोयपण्णत्ति, चउत्थो महाधियारो, पृ. २१०। आचार्य पूज्यपाद स्वामी रचित निर्वाणभक्ति भारतवास्ये विदेहकुण्डपुरे, पूज्यपाद, निर्वाणभक्ति।(५वीं शती ई.) आचार्य जिनसेन कृत हरिवंशपुराणआचार्य जिनसेन, हरिवंशपुराण, द्वितीय सर्ग, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली (८वीं शती ई.) आचार्य वीरसेन कृत षट्खण्डागम की धवला टीकाषट्खण्डागम, नवमी पुस्तक, श्रीवीरसेनकृत धवला टीका सहित, चतुर्थखण्ड, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर (८वीं शती ई.) आचार्य गुणभद्र कृत उत्तरपुराणआचार्य गुणभद्र, उत्तरपुराण, पर्व नवम् (९वीं शती ई.) महाकवि पुष्पदंत विरचित वीरजिणंद चरिऊमहाकवि पुष्पदंत, वीरजिणिंद चरिउ, अपभ्रंश भाषा, पांचवीं संधि, भारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली १९७४ (९वीं शती ई.) भट्टारक सकल कीर्ति कृत वर्धमान चरितभट्टारक सकलकीर्ति, महावीर पुराण, पृ. ७३ (१५ वीं शती ई.) आदि ने कुण्डलपुर को ही जन्मस्थली के रूप में प्रतिपादित किया है। वर्तमान में भगवान महावीर की जन्मनगरी के रूप में विख्यात नालंदा जिलान्तर्गत श्री दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कुण्डलपुर ही विख्यात है।भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ, खंड-बंगाल, बिहार, उड़ीसा के तीर्थ, पं. बलभद्र जैन, हीराबाग, मुम्बई १९७५ २३ अप्रैल १९५६ से पूर्व तक भगवान महावीर की जन्मस्थली कुण्डलपुर ही सर्वमान्य थी। यही स्थान लोगों की आस्था, श्रद्धा एवं भक्ति का केन्द्र था। लाखों की संख्या में भक्तों ने इसी भूमि को जन्मभूमि के रूप में नमन कर अपने को कृतकृत्य किया है। लेकिन २३ अप्रैल १९५६ में कुछ विद्वानों की शोध के आधार पर वैशाली को जन्मभूमि मानने के लिए सरकारी मुहर लगा दी गई एवं सरकार से आर्थिक अनुदान प्राप्त कर वैशाली को जन्मभूमि के रूप में विकसित करने की योजना तैयार हुई। लगभग ५० वर्ष का समय बीत जाने पर भी वैशाली को जन्मभूमि का गौरव प्राप्त नहीं हो सका है। किसी भी स्थान पर स्मारक बना देने से ही वह स्थान पूज्य नहीं हो जाता है। उसके साथ जनमानस की चेतना, उसका हृदय एवं उसके प्राणों का जुड़ना भी अत्यावश्यक है।बिहार प्रांत में कुण्डलपुर और वैशाली दोनों अलग-अलग राजाओं के अलग-अलग नगर थे। वैशाली के राजा चेटक ने कुण्डलपुर के राजा सिद्धार्थ के साथ अपनी बेटी त्रिशला का विवाह किया था। अतः महावीर की पहचान ननिहाल वैशाली एवं नाना चेटक से नहीं वरन् पिता की नगरी कुण्डलपुर एवं पिता सिद्धार्थ से मानना ही उचित है। प्रत्येक मनुष्य का जन्म एक ही स्थान पर होता है किन्तु भगवान महावीर जैसे महापुरुष के जन्मस्थान के बारे में तीन मत हमारे सामने हैं। चिंतनीय यह है कि क्या किसी एक महापुरुष की तीन-तीन जन्मभूमियाँ हो सकती हैं। तीर्थंकर की जन्मभूमि पर तो १५ माह रत्नों की वर्षा होती है, अष्टकुमारियाँ गर्भ में माता की सेवा करती है, सौधर्म इन्द्र आकर जन्मकल्याणक मनाता है, उस स्थान का कण-कण पवित्र हो जाता है। ऐसे महापुरुष की जन्मभूमि पर हजारों वर्षों बाद उंगली उठाना उचित नहीं जान पड़ता है। भगवान महावीर की जन्मभूमि कुण्डलपुर (नालंदा) के संबंध में अनेक आलेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में आ रहे हैं जिसमें विभिन्न ग्रंथों के उद्धरणों को हिन्दी अनुवाद सहित प्रमाण के रूप में उद्धृत किया गया है। विस्तार भय से उन्हीं का समर्थन करते हुए सिर्फ अपनी बात कहने का उपक्रम कर रही हूँ। जन्मभूमि के निर्धारण के लिए हमें निम्न बिन्दुओं पर विचार करना अत्यावश्यक है-
(अ) वैशाली के पक्ष में प्रस्तुत साक्ष्यों के आधार पर सरकार के द्वारा वैशाली को जन्मभूमि घोषित कर दिया गया एवं आर्थिक सहायता भी उपलब्ध करा दी गई। किन्तु सिर्पâ पैसे से भक्तों की श्रद्धा एवं आस्था नहीं खरीदी जा सकती है। भक्तों के मन मंदिर में तो कुण्डलपुर के महावीर की ही छवि विराजमान हैं। एक नहीं कई-कई बार भक्तों ने कुण्डलपुर के महावीर को जाकर नमन किया है एवं वहाँ की रज को अपने मस्तक पर धारण किया है। स्मारक बनाना एवं उजाड़ना तो बहुत आसान है लेकिन भक्तों के हृदय की आस्था एवं श्रद्धा को किसी दूसरे से जोड़ना अत्यन्त कठिन है। यही कारण है कि विद्वानों एवं शोधकर्ताओं के बीच तो कुण्डलपुर एवं वैशाली का विवाद अनवरत रूप से चल रहा है यह तो बुद्धिजीवियों का बुद्धिविलास है सामान्य भक्त तो अपने मन मंदिर में विराजमान कुण्डलपुर के महावीर को ही नमन एवं स्मरण करता है।
(ब) जैन समाज के प्रत्येक भक्त की जिह्वा पर प्रतिदिन कुण्डलपुर के महावीर का ही स्तवन आता है। महावीर पूजन में सुबह-सुबह वह स्मरण करता है-
जनम चैतसित तेरस के दिन, कुण्डलपुर कन वरना।
सुरगिरि सुरगुरु पूज कियो नित, मैं पूजों भव हरना।
नाथ मोहि राखो हो शरणा श्री वद्र्धमान जिनराय जी, मोहि राखों हो सरना।।
सायंकालीन आरती के वक्त वह पुन: गाता है- ॐ जय महावीर प्रभो, स्वामी जय महावीर प्रभो कुण्डलपुर अवतारी-कुण्डलपुर अवतारी, त्रिशलानंद विभो।।ॐ जय.।।
सुबह, शाम कुण्डलपुर के महावीर का स्मरण करने वाला भक्त कैसे वैशाली को जन्मभूमि स्वीकार करेगा? यह शोचनीय विषय है।
(स) वैशाली में उत्खनन के दौरान प्राप्त मूर्ति एवं स्वर्णमुद्रा की प्रबल साक्ष्य नहीं हो सकती है क्योंकि भगवान महावीर की ननिहाल थी। वैशाली के नागरिकों ने भी महावीर को उतनी ही श्रद्धा एवं आस्था का केन्द्र माना होगा जितना कि कुण्डलपुर के निवासियों ने। हो सकता है स्मृति स्वरूप कोई स्मारक भी बनाया हो जो आज उपलब्ध नहीं है। अतः मूर्ति एवं स्वर्णमुद्रा प्राप्त होना स्वाभाविक है।
(द) यह तर्क भी अत्यन्त सटीक है कि वैशाली के निकट ही दो तीन किमी.की दूरी पर सिद्धार्थ की राजधानी सिद्ध करने में, बहुत अधिक विकृति उत्पन्न हो जायेगी। इस अल्प दूरी में दो राजाओं की रियासत कभी भी स्वीकार नहीं की जा सकती, नहीं तो राजा सिद्धार्थ को राजा चेटक का घर जँवाई जैसा ही स्वीकार करना पड़ेगा। यदि महावीर को वैशाली का युवराज मानेंगे तो राजा चेटक के १० पुत्र कहाँ के युवराज होंगे? यह विचारणीय है।
(इ) यह तर्क भी दिया जा रहा है कि भगवान महावीर का एक भी चातुर्मास कुण्डलपुर में नहीं हुआ। ठीक ही है क्योंकि एक बार गृह त्याग देने पर पुनः लौटकर आना संभव नहीं हुआ, कभी मुड़कर देखा ही नहीं। यदि चातुर्मास के लिए महावीर कुण्डलपुर लौटकर नहीं आये तो इसमें आश्चर्य कैसा? आज भी ऐसे साधु संत है जिनका अपनी जन्मभूमि पर एक भी चातुर्मास नहीं हुआ है तो क्या उनकी भी जन्मभूमि पर शंका करना उचित होगा। वैसे दिगम्बर परम्परा के अनुसार तो तीर्थंकरों के चातुर्मास होते ही नहीं है।
(ई) अच्छा तो यही होगा कि हठाग्रह को छोड़ते हुए हमें आगम के दिशा संकेतों को समझने का प्रयास करना चाहिए।
(क) सभी विद्वानों एवं चतुर्विध संघ के सानिध्य में एक खुली बहस का आयोजन हो जिससे सर्वसम्मति से निर्णय हो सके और वह सभी को मान्य हो।
(ख) वैशाली का उत्खनन तीन बार हुआ, कुण्डलपुर का उत्खनन हम ६ बार करायें एवं पुन: शोध संदर्भोें, पुरातात्विक उत्खननों एवं ऐतिहासिक साक्ष्यों का अध्ययन कर जन्मभूमि का निर्धारण करे। हमारा यही परम कर्तव्य है कि काल के तीव्र झंझावात में कुण्डलपुर नगरी का अस्तित्व एवं सीमाएं काफी छोटी हो गई हैं, उसका जीर्णोद्धार कर उसको पुनः विकसित करने का प्रयास करें। भगवान महावीर की स्मृतियों को सुरक्षित कर ऐसा केन्द्र विकसित करे कि युगों-युगों तक भगवान महावीर की देशना कुण्डलपुर से विश्वभर में अनुगुंजित होती रहे। पूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिका रत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने कुण्डलपुर के जीर्णोद्धार का संकल्प लिया है एवं जनमानस की आस्था तथा श्रद्धा को मूर्तरूप देने की प्रेरणा लगातार प्रदान कर रही हैं। सभी आस्थावान दिगम्बर समाज से यह आग्रह है कि वह स्वविवेक का परिचय देते हुए जन्मभूमि कुण्डलपुर के विकास में पूर्ण सहयोग प्रदान करे।