(तीर्थंकर ऋषभदेव तपस्थली तीर्थ प्रयाग-इलाहाबाद में आयोजित
कुण्डलपुर राष्ट्रीय महासम्मेलन के अवसर पर २० अक्टूबर २००२ को प्रस्तुत)
मेरी यह मान्यता है कि हर क्षेत्र का विकास होना चाहिए। वैशाली का भी विकास हो और कुण्डलपुर का भी विकास हो, इसमें हमारी कोई असहमति नहीं है। लेकिन वैशाली का विकास महावीर स्मारक के रूप में हो और कुण्डलपुर का विकास महावीर की जन्मभूमि के रूप में हो। मैं समझता हूँ पचास साल पहले जब वैशाली में भगवान महावीर की जन्मजयंती सरकार की सहायता से मनाना शुरू हुआ था उसके बाद ५४-५५ साल बीत गए पर इन ५५ सालों में वैशाली का विकास नहीं हुआ। उसका कारण मैं यह सोचता हूँ चूंकि वैशाली के आस-पास कोई धार्मिक क्षेत्र विकसित नहीं हुए और वो बिल्कुल एक कोने में पड़ गया। भगवान महावीर से जुड़ी हुई घटनाएं और भगवान महावीर से जुड़ा हुआ कोई भी पवित्र क्षेत्र उसके आस-पास नहीं रहने से लोग वैशाली नहीं गए और चूँकि कुण्डलपुर (नालंदा) के पास पावापुरी, गुणावा, नवादा, सम्मेदशिखर ये सारे के सारे क्षेत्र बसे हुए हैं, इसलिए जो भी शिखर जी की वंदना को जाता रहा है वह इन सारे क्षेत्रों की वन्दना को भी जाता रहा है। इन्द्रभूति गौतम यहीं हुए, महावीर से संबंधित अन्य सारी घटनाएं इसी परिक्षेत्र में हुर्इं, इसलिए इस क्षेत्र को जनता की श्रद्धा में जन्मभूमि के रूप में मान्यता मिल गई और सैकड़ों वर्षों से जो चीज लोगों की श्रद्धा में रम जाती है उसके विरुद्ध अगर कोई नया क्षेत्र जन्मभूमि के नाम से हम विकसित करना चाहते हैं तो जनता का टोकना, विद्वानों का टोकना स्वाभाविक है। इस बीच में अगर कोई आपत्ति का स्वर नहीं उठा तो उसका एक ही कारण है कि वहाँ पर प्राकृत इन्स्टीट्यूूट खुली और वह महावीर स्मारक के रूप में खुली इसलिए सबका ध्यान यह रहा कि यह तो स्मारक बन रहा है और स्मारक तो महावीर का कहीं भी बन सकता है ननिहाल में भी बन सकता है इसलिए लोगोें ने उस पर विशेष ध्यान नहीं दिया। दूसरी एक भूल मेरी दृष्टि में तो बड़ी भूल है वो यह है कि हमारे उस समय के जो तीर्थक्षेत्र कमेटी के पदाधिकारी थे उनसे जाने या अनजाने हुई है। मैं नहीं मानता कि सर्वथा अनजाने ही हुई होगी कुछ न कुछ उनका मनोभाव वैशाली को जन्मभूमि के रूप में स्थापित करने का जरूर रहा होगा, अन्यथा तीर्थक्षेत्र कमेटी की यह जिम्मेदारी थी कि वैशाली को जन्मभूमि के रूप में मान्यता देने से पहले साधु संगीति बुलाई जाती, सब साधुओं का अभिमत जाना जाता, विद्वानों का सम्मेलन बुलाकर इस पर उचित बहस कराई जाती और उसके बाद कोई निर्णय होता तो मैं समझता हूँ कि आज जो थोड़ी सी विवाद की स्थिति उत्पन्न हो गई है वह नहीं होती। यह चूक हुई है हमारे उन पदाधिकारियों से, जिनके ऊपर वैशाली को जन्मभूमि के रूप में विकसित और स्थापित करने का अपने सपने को पूरा करने का दायित्व था। इस दायित्व को उन्होंने नहीं निभाया और चुपके-चुपके किताबें लिखीं गर्इं, लेख लिखे गए और अचानक वैशाली को जन्मभूमि के रूप में विकसित करने का नारा अब ५६ साल के बाद दिया गया। एक बात मैं दावे के साथ कहता हूँ और ये बात अपने अनुभव की कसौटी पर कसकर जब मैं उसको सही पाता हूँ तो आज आपके सामने रखना चाहता हूँ कि वैशाली में दस करोड़ लगाकर अगर कोई स्मारक बनेगा और उसकी तुलना में कुण्डलपुर में दस लाख लगाकर अगर जन्मभूमि को विकसित किया जायेगा तो आम जनता की सहानुभूति और आम जनता की श्रद्धा कुण्डलपुर में होगी वैशाली में नहीं होगी क्योंकि वातावरण का बड़ा प्रभाव पड़ता है। वैशाली के आस-पास वैसा वातावरण नहीं है। अब तक केवल तीन प्रयास ऐसे हुए हैं, जिन्होंने इसको विवादास्पद बनाया है। पहला प्रयास वैशाली समिति ने ‘‘जन्मभूमि वैशाली’’ के नाम से स्मारिका का प्रकाशन किया और उसमें जैनेतर विद्वानों के एवं कुछ जैन विद्वानों के लेख छपे और उन लेखों में जैन आगम की, जैन शास्त्रों की, जैनपुराणों की जितनी उपेक्षा हो सकती थी उतनी उपेक्षा की गई और बौद्ध समाज, श्वेताम्बर समाज और भूगोल के आधार पर वैशाली को जन्मभूमि सिद्ध करने की कोशिश की गई और भूगोल के आधार पर जब हम जन्मभूमि सिद्ध करेंगे तो हम महावीर के सिद्धांतों से दस कदम पीछे हटेंगे, क्योंकि भूगोल में तो जो लिखा है वही हमें स्वीकार होगा। दिगम्बरेतर साहित्य में त्रिशला के बाप का नाम नहीं लिखा है तो मैं पूछना चाहता हॅूँ महाराजा सिद्धार्थ क्या इतने गए बीते राजा थे कि जिस पत्नी को वे ब्याहकर लाए उसका कोई पिता ही नहीं रहा होगा, केवल भाई रहा होगा? आज हम चेटक की बहन के रूप में त्रिशला की चर्चा करते हैं जबकि हमारे पुराणों में उसे चेटक की पुत्री बताया गया है। इस विसंगति को जन्म क्यों दिया गया? हमने अपने आगमों का ये अवर्णवाद क्यों किया? और अगर अवर्णवाद किया तो मेरे प्रश्न का उत्तर क्यों नही दे रहे हैं? मैं यह प्रश्न दो महीने से उठा रहा हूँ कि त्रिशला के पिता का नाम बताइये। ऐसा नहीं हो सकता कि भगवान महावीर की माँ और राजा सिद्धार्थ की पत्नी अनामबाप की बेटी हो ऐसा कभी तीन काल में नहीं हो सकता और यह अवर्णवाद हो रहा है, क्योंकि हम वैशाली को जन्मभूमि भूगोल के आधार पर, बौद्ध ग्रंथों के आधार पर सिद्ध करने की कोशिश कर रहे हैं। जब भी हम उस भूगोल के आधार पर वैशाली की बात को बढ़ाएंगे तो उसमें सवस्त्र मुक्ति का प्रकरण आएगा, उसे हम रोक नहीं सकते, चाहे उसे मैं उठाऊँ और चाहे दूसरे विद्वान् उठाएं। भूगोल में जब महावीर आगे बढ़ते गए और कोल्लाग सन्निवेश के निकट पहुँचे और आनन्द नामक गृहस्थ ने उन्हें देखा तो उसे केवलज्ञान हो गया और हमारी वैशाली समिति जो दिगम्बरों की समिति है उसने इस घटना को बिना टिप्पणी के छाप दिया तो क्या हम भगवान महावीर का चरित्र भानुमती के कुनबे की तरह एकदम लस्त-पस्त एवं अस्त-व्यस्त चरित्र बनाना चाहते हैें? क्या अपने पुराणों में महावीर के बारे में जो लिखा है उस पर हम विश्वास करने को तैयार नहीं है? महावीर का वंश लिच्छिवि हमारे शास्त्रों में कहीं नहीं है भूगोल में, बौद्ध ग्रंथों में है। लेकिन अब बौद्ध ग्रन्थों में उन्हें कुछ भी लिख दिया जाये और हमारे ग्रन्थों में उस नाम से उसका सम्बोधन नहीं हो तो हम उसे कभी तीन काल में स्वीकार नहीं कर सकते। तो उसमें बहुत सी विसंगतियाँ हैं, उस पर माता चन्दनामती जी ने भी आगम की दृष्टि से लेख लिखा है उसे इस अपेक्षा से नहीं देखना चाहिए कि चन्दनामती माताजी, जो ज्ञानमती माताजी की गृहस्थावस्था की छोटी बहन है, उनके द्वारा दीक्षित हैं, इसलिए माताजी ने जो कहा उन्हें तो उसकी पुष्टि करनी ही करनी है, इस दृष्टि से उसे आप क्यों देखते हैं? सैकड़ों विसंगतियाँ हो गर्इं वैशाली को जन्मभूमि सिद्ध करने के चक्कर में उस स्मारिका में और उसमें उनका पक्ष कमजोर हुआ मैं यह जानता हूँ क्योंकि जैन आगम के एक भी प्रमाण नहीं दे सके वो उसमेें? दूसरा प्रयास हुआ दिल्ली से प्रकाशित होने वाली ‘प्राकृत विद्या’ के एक विशेषांक में और इस विशेषांक में उससे भी तीन गुनी भूलें हो गर्इं। तो उन भूलों के बारे में आप पढ़ते रहें। हमारे पं. शिवचरण लाल जी ने लिखा है पर किसी के लिखने से आप उसे मत मानिये। आप तो दि. जैन आगम ग्रंथों को सामने रखकर उस लिखावट को उनसे मिलाइये और अगर वह लिखावट सही हो तो आगम की रक्षा के दायित्व का निर्वाह करने के लिए और fिजनवाणी का बेटा होने का अधिकार प्राप्त करने के लिए आपको वह बात कहनी चाहिए और कहनी होगी जो हमारे जैनाचार्यों ने जिनवाणी में लिखी है, उससे परे की कोई भी बात हमें तीन काल में स्वीकार नहीं है। जो पर्चे मिले हैं, कुण्डपुर का जो नक्शा छपा है नया नहीं है। साहू जी ने मुझे पत्र लिखा कि सन् १९७५ में बिहार तीर्थ क्षेत्र कमेटी की तरफ से जैन तीर्थों का इतिहास छपा, तो उसके दूसरे खंड में वह नक्शा दिया गया है और उस नक्शे में पावापुरी है, गुणावा है, नवादा है, नालंदा है, नहीं है तो केवल कुण्डलपुर नहीं है। तो मैं नहीं मानता कि ये बिना प्रयोजन के हुआ होगा। मुझे जो सूचना मिली है वह यही है कि जब वैशाली को जन्मभूमि के रूप में स्थापित करने की चर्चा एक गोष्ठी में आई तो कुछ विद्वानों ने खड़े होकर उसका विरोध कर दिया और उस विरोध को देखकर उन्हें लगा कि अगर हम जनचर्चा में इस विषय को लाएंगे, सबके सामने इसको परोसेेंगे, विद्वानों एवं साधुओं की संगीति इस पर बिठाएंगे तो हमारी दाल गलने वाली नहीं है क्योंकि जिनवाणी में एक भी प्रमाण नहीं है जो वैशाली को जन्मभूमि सिद्ध कर दे। इसलिए उन्होंने गोष्ठी बुलाने का विचार त्याग दिया, साधुओं से परामर्श करने का विचार त्याग दिया और चुपके-चुपके उस नक्शे के आधार पर वैशाली को जन्मभूमि कहना शुरू कर दिया। ये सबसे बड़ा घातक है। मैं किसी भय से, किसी स्नेह से, किसी लोभ-लालच से कुण्डलपुर का समर्थन नहीं कर रहा हूँ। जन्मभूमि कुण्डलपुर में बने या वैशाली में बने मेरी दृष्टि से इस पर कोई फर्वâ नहींं पड़ता। ये तो जमीन का टुकड़ा है, जिस जमीन के टुकड़े को हम जन्मभूमि मान लें, जिसमें अपनी श्रद्धा जमा लें, उसको हम प्रणाम करेंगे, जहाँ भी मंदिर बनेगा वहाँ जाकर चावल चढ़ाएंगे और माथा झुकाएंगे इससे कोई फर्वâ नहीं पड़ता। लेकिन अगर कहीं गलत जगह पर हमने जन्मभूमि बना ली और उससे महावीर के सिद्धान्तों का लोप होने लगा तो हमारे लिए सबसे ज्यादा चिंता की बात होगी। चिंता हमें जमीन के टुकड़े की नहीं है, चिंता हमें भगवान महावीर के सिद्धांतों को सुरक्षित रखने की है और इस सुरक्षा में अगर कोई बाधा पड़ती है, तो हमें कभी स्वीकार नहीं होगी। इसलिए बन्धुओें! मैं निवेदन करना चाहता हूँ जिनवाणी के मंथनों को किसी पार्टी बंदी के आधार पर हमें नहीं कहना चाहिए, किसी गु्रप के आधार पर नहीं कहना चाहिए, किसी संघ या संगठन के कहने से हमें उसे नहीं मानना चाहिए। हमें तो अपनी आंखों के सामने आगम रखना चाहिए, जिनेन्द्र भगवान की वाणी रखनी चाहिए और मैं चुनौती पूर्वक आप सबसे ये निवेदन करना चाहता हूँ जितने भी भाई यहाँ बैठे हैं जिनवाणी की एक पंक्ति में जन्मभूमि के रूप में अगर वह वैशाली का वर्णन दिखावें तो माताजी का साथ आज छोड़ दूंगा और उनके साथ मिल जाऊँगा मेरी चुनौती स्वीकार करें। कोई चुनौती स्वीकार करने को तैयार नहीं है और जो जिनवाणी में नहीं लिखी, जो बौद्ध ग्रंथों में लिखा है, श्वेताम्बर ग्रंथों में लिखा है, भूगोल में लिखा है उसको जो आचार्य पूज्यपाद और आ. वीरसेन की वाणी कहकर प्रचारित किया जा रहा है यह तो और ज्यादा खतरनाक बात है। जो हमारे आचार्य ने कहा ही नहीं उसका उल्टा करके अपनी तरफ से उसमें वैशाली जोड़कर उसे आचार्यों की वाणी कहना मेरी दृष्टि में अपराध है, जिनवाणी का अवर्णवाद है और ये अवर्णवाद हम विद्वान कभी करना नहीं चाहेंगे। इतनी सी भूमिका के बाद मैं सोचता हूँ कि पूरे देश में कुण्डलपुर के प्रति जो श्रद्धा है, वैशाली में दस करोड़ लगाकर भी उस श्रद्धा से भक्तों को विचलित नहीं किया जा सकेगा। सदियाँ बीत जायेंगी लेकिन कुण्डलपुर जिसको हजार साल से हम वन्दते रहे हैं, सौ साल से अगर किसी जंगल में पड़ी हुई किसी अप्रतिष्ठित प्रतिमा को लोग चावल चढ़ाते रहें भक्ती से, तो उसकी पंचकल्याणक करने की जरूरत नहीं होती और जहाँ नौ सौ साल से लोग भगवान महावीर की जन्मभूमि मानकर वहाँ उनकी कल्याणक तिथि मनाते रहे हों वह स्थान भले ही भूगोल की दृष्टि से जन्मभूमि नहीं भी हो, तो भी नौ सौ साल की पूजा-प्रतिष्ठा के बाद स्थापना निक्षेप से वह जन्मभूमि बन चुकी है। एक छोटा सा सवाल पूछना चाहता हूँ सच्चा-सच्चा बोल दें कि ५० साल के कुण्डलपुर में जो भक्तों का दान आता रहा, वह कुण्डलपुर में नहीं लगकर कहाँ लग गया? क्यों नहीं इसका विकास हुआ? बस इतनी सी जिज्ञासा के साथ कहना चाहता हूँ कि माताजी ने तो एक आगमनिष्ठ सवाल उठाया है उसके लिए माताजी के प्रति मैं नत हूँ क्योंकि कोई छोटा-मोटा आदमी यदि इस सवाल को उठाता तो उसे चुटकियों में हवा में उड़ा दिया जाता। अब माताजी जैसा शक्तिशाली और आगमनिष्ठ व्यक्तित्व जब इस सवाल को उठाता है तो हिन्दुस्तान उनके पीछे चल पड़ता है। माताजी ने यह सवाल उठाया इसलिए हम इनके साथ हैं और यदि हमारे श्रीमान् साहू रमेशचन्द्र जी तीर्थ क्षेत्र कमेटी के द्वारा ये घोषणा कर दें कि कुण्डलपुर का विकास महावीर जन्मभूमि के रूप में वो करायेंगे तो माताजी से सबसे पहला निवेदन करने वाला नरेन्द्रप्रकाश होगा कि आप अब हट जाइये इन्होंने दायित्व ले लिया है इनको इसका विकास करने दीजिये इसमें कोई बाधा नहीं है, लेकिन वो विकास करते नहीं ओर दूसरा करे तो वैशाली की टांग बीच में अड़ाकर उसको गिराने की कोशिश करते हैं, यह दो काम अब चलने वाले नहीं है। कुण्डलपुर का सवाल उठ चुका है, पूरी सिद्दत से उठ चुका है, पूरी ताकत से उठ चुका है और दुनिया की बड़ी से बड़ी हस्ती कुण्डलपुर को जन्मभूमि की मान्यता और श्रद्धा से पृथव्â नहीं कर सकती। मैं सच्चे दावे के साथ, अपनी पूरी अन्तर्कामना के साथ ऐलान करना चाहता हूँ कि माताजी ने और जितने तीर्थ बनाए अच्छा किया। साधुओं का ये काम ही नहीं है कि साधु इन चक्करों में पड़ें लेकिन जब श्रावक लुंज-पुंज हो जाये, श्रावक अपने कर्तव्य को भूल जायें, अपने दायित्व को भूल जायें तो फिर साधु चुप भी तो नहीं बैठ सकता क्योंकि समाज की, धर्म की, मर्यादा की रक्षा का प्रश्न उनके सामने है। जितने भी तीर्थ विकसित किये माताजी ने, वे तराजु के एक पलड़े में और यह कुण्डलपुर तराजू के दूसरे पलड़े में। और यह इनका सबसे भारी काम होगा, यह भी मैं कहना चाहता हूँ, धन्यवाद।