दिगम्बर जैन संस्कृति की अमूल्य विरासत अतिशय क्षेत्र श्री महावीर जी तीर्थ वर्तमान में जैनसमाज के लिए सम्पूर्ण भारत का गौरव स्थल है। यह राजस्थान प्रान्त के करौली जिले के हिण्डौन उपखण्ड में गंभीर नदी के पश्चिमी तट पर चांदन गाँव में स्थित है। भगवान महावीर की अतिशययुक्त प्रतिमा के कारण यह स्थान ‘‘श्री महावीर जी’’ के नाम से सुविख्यात है। चांदनपुर के महावीर की शान्त, मनोज्ञ, तेजोमूर्ति, अतिशयकारी दिगम्बर प्रतिमा के दर्शन ही भक्त के मन को बांध लेती है और वह टकटकी लगाए उस आनन्द में खो जाता है, बरबस आँखों से आनन्दाश्रु बहने लगते हैं। अंग-अंग रोमांचित हो उठता है, समर्पण, श्रद्धा और विश्वास के फूल खिल उठते हैं। वात्सल्यमयी मूर्ति से अनबोला संवाद होता है। भक्त को ऐसा आभास होता है कि समवसरण में विद्यमान तीर्थंकर के सारे अतिशय उसे अनुभूत हो रहे हैं और उसके मन में दिव्यध्वनि का प्रसार हो रहा है। आध्यात्मिक जन यहाँ से अध्यात्म को परिपुष्ट करते हैं तथा लौकिक जन अपनी लौकिक इच्छाओं की पूर्ति करते हैं। सर्वधर्म समभाव का प्रतीक यह सर्वोदय तीर्थ, तीर्थंकरों की परम्परा में २४वें तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी की प्रतिमा का उद्भव स्थल है। बिहार प्रान्त के नालंदा जिले में स्थित कुण्डलपुर में आज से २६०२ वर्ष पूर्व चैत्र शुक्ला त्रयोदशी तिथि में माता त्रिशला की पवित्र कुक्षि से जन्मे महावीर ने जनमानस में अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकांत के मूल्यों की प्रतिष्ठा कर प्राणीमात्र के कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया है। इस तीर्थक्षेत्र के प्रादुर्भाव के बारे में ऐसा बताया जाता है कि लगभग ४०० वर्ष पूर्व चांदन गांव में विचरण करने वाली एक गाय का दूध गंभीर नदी के पास एक टीले पर स्वत: ही झर जाता था। गाय जब कई दिनों तक बिना दूध के घर पहुँचती रही तो ग्वाले ने कारण जानने के लिए गाय का पीछा किया। जब ग्वाले ने यह चमत्कार देखा तो उत्सुकतावश उसने टीले की खुदाई की। वहीं भगवान महावीर की यह दिगम्बर प्रतिमा प्रगट हुई। मूर्ति के चमत्कार और अतिशय की महिमा तेजी से सम्पूर्ण क्षेत्र में फैल गई। सभी धर्म, जाति और सम्प्रदाय के लोग भारी संख्या में दूर-दूर से दर्शनार्थ आने लगे, उनकी मनोकामनाएं पूर्ण होने लगीं, क्षेत्र मंगलमय हो उठा। समय के प्रवाह में विकसित होता यह तीर्थ आज सम्पूर्ण भारत का गौरवस्थल बन गया है। अतिशयकारी भगवान महावीर की प्रतिमा से प्रभावित होकर बसवा निवासी श्री अमरचंद बिलाला ने यहाँ एक मंदिर का निर्माण करवाया। इस मंदिर के चारों ओर दर्शनार्थियों के ठहरने के लिए कमरों का निर्माण भक्तजनों के सहयोग से कराया गया जिसे ‘‘कटला’’ कहा जाता है। कटले के मध्य में स्थित है मुख्य मंदिर। इस विशाल जिनालय के गगनचुम्बी धवल शिखर एवं स्वर्ण कलशों पर फहराती जैनधर्म की ध्वजाएँ रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्र) का संदेश देती प्रतीत होती हैं। मंदिर की पाश्र्ववेदी में मूलनायक के रूप में भूगर्भ से प्राप्त भगवान महावीर की प्रतिमा विराजित है तथा दायीं ओर तीर्थंकर पुष्पदंत एवं बायीं ओर तीर्थंकर आदिनाथ की प्रतिमाएं विराजमान की गई हैं। मंदिर के भीतरी एवं बाहरी प्रकोष्ठों में संगमरमरी दीवारों पर बारीक खुदाई से तथा स्वर्णिम चित्रांकन कराकर मंदिर की छटा को आकर्षक व प्रभावशाली बनाया गया है। मंदिर की बाह्य परिक्रमा में कलात्मक भाव उत्कीर्ण किये गए हैं। मंदिर के मुख्य प्रवेश द्वार की सीढ़ियों को सुविधाजनक एवं आकर्षक स्वरूप दिया गया है। श्री महावीर जी में मुख्य मंदिर के अलावा गत वर्षों में अन्य और भी मंदिरों का निर्माण हुआ है ।- १. शांतिवीर नगर में भगवान शान्तिनाथ की विशाल खड्गासन प्रतिमा एवं अन्य तीर्थंकर प्रतिमाएँ २.कीर्ति आश्रम चैत्यालय ३.सन्मति धर्मशाला के सामने ब्र. कमलाबाई द्वारा भगवान पार्श्वनाथ जिनालय (काँच का मंदिर) ४.ब्र. कृष्णाबाई द्वारा संचालित मुमुक्षु महिलाश्रम का जिनमंदिर। ५.महावीरधाम में पंचबालयति जिनालय वर्तमान में मुख्य मंदिर में जहाँ भगवान महावीर की मूलनायक प्रतिमा विराजमान है, उसके नीचे की मंजिल में ही प्राचीन लाल पाषाण से निर्मित कलात्मक मंदिर विद्यमान है जिसे ‘ध्यान केन्द्र’ के रूप में विकसित किया गया है। यहाँ भगवान महावीर का एक विशाल चित्र शोभायमान है। भक्तजन निर्विकार, एकाग्रता से मूलनायक भगवान महावीर के चित्र के समक्ष बैठकर ध्यानमग्न हो सवेंâ इस भावना के साथ ध्यान केन्द्र को तैयार किया गया है। भगवान महावीर की प्रतिमा के उद्भव स्थल पर एक कलात्मक छत्री में भगवान के चरण चिन्ह प्रतिष्ठित हैं। आज भी यहाँ दुग्धाभिषेक करने की होड़ सी लगी रहती है। यहाँ चढ़ने वाली सामग्री और राशि आज भी उसी ग्वाले के वंशज को प्राप्त होती है, जिसने प्रतिमाजी को भूमि से निकालने का सौभाग्य प्राप्त किया था। इस छत्री के चारों ओर आकर्षक उद्यान विकसित किया गया है। इस उद्यान में चरणचिन्ह छत्री के सामने वाले भाग में २९ फीट ऊँचा ‘महावीर स्तूप’ है जिसके फलकों पर भगवान महावीर के उपदेश अंकित हैं। यह स्तूप भगवान महावीर के २५००वें निर्वाणोत्सव के पावन उपलक्ष्य में निर्मित किया गया था। चरणचिन्ह छत्री के पीछे वाले भाग को आधुनिक ‘‘बालवाटिका’’का स्वरूप दिया गया है, इसमें एक आकर्षक ‘बारहदरी’ भी बनाई गई है। दूर-दूर से आए भक्तजन चरणचिन्ह छत्री के बाहर ही बालकों का पारम्परिक मुण्डन संस्कार आदि करवाकर अपनी आस्था और विश्वास प्रगट करते हैं। मंदिर के मुख्य द्वार के सम्मुख ५२ फुट ऊँचा संगमरमर से निर्मित कलात्मक मानस्तंभ है जिसके शीर्ष पर चार तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ हैं। यह भव्य मानस्तंभ यात्रियों को दूर से ही आकर्षित करता है। क्षेत्र पर विभिन्न नामों की ७ धर्मशालाएँ अवस्थित हैं।
क्षेत्र पर अन्य कई सेवाभावी संस्थाएँ हैं-
१. मंदिर के पश्चिम की ओर लगभग एक फर्लांग की दूरी पर कृष्णाबाई जी द्वारा संचालित महिला विद्यालय है जिसमें एक विशाल मंदिर है।
२.मंदिर से पूर्व की ओर नदी की तरफ आदर्श महिला विद्यालय है। इसमें हाईस्कूल तक की शिक्षा दी जाती है, वर्तमान में क्षेत्र और समाज के सहयोग से आश्रम का विशाल भवन निर्मित हो चुका है। इसकी संचालिका ब्र. कमलाबाई जी थीं , जिनका अब स्वर्गवास हो चुका है ।
३.शान्तिवीरनगर-यह नदी के दूसरी ओर पूर्वी किनारे पर स्थित है। इसकी स्थापना चारित्र चक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर महाराज के द्वितीय पट्टाचार्य स्व. आचार्यश्री शिवसागर जी महाराज की प्रेरणा से आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज और आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज के नाम पर ब्रम्हचारी श्री लाड़ली एवं ब्र० श्री सूरजमल जैन के द्वारा की गई है। यहाँ २८ फीट ऊँची शांतिनाथ भगवान की विशाल मूर्ति के अतिरिक्त २४ तीर्थंकरों और उनके शासन देवी-देवताओं की मूर्तियाँ विराजमान हैं। मंदिर के समक्ष मानस्तंभ बना हुआ है। मंदिर के एक ओर शान्तिवीर दिगम्बर जैन गुरुकुल है। इसके सामने ही क्षेत्र से संबंधित कीर्ति आश्रम है जहाँ एक चैत्यालय है जिसकी स्थापना ब्र. कीर्तिलाल जी ने कराई थी। यहाँ के वार्षिक मेला की विशेष प्रसिद्धि है। महावीर जयंती के अवसर पर यहाँ प्रतिवर्ष चैत्र शुक्ला तेरस से वैशाख कृष्णा द्वितीया तक ५ दिवसीय लक्खी मेला लगता है। इस मेले में साम्प्रदायिक, राष्ट्रीय एवं भावनात्मक एकता के प्रत्यक्ष दर्शन होते हैं। भारत में यह दिगम्बर जैन तीर्थ ऐसा धार्मिक स्थल है जहाँ जैन ही नहीं अपितु सभी वर्ग के लोग सम्मिलित होकर भगवान का दर्शन-वन्दन-जयकार कर मनौतियाँ मानते हैं। वार्षिक मेले का मुख्य आकर्षण वैशाख कृष्णा प्रतिपदा को निकलने वाली आकर्षक एवं भव्य रथयात्रा होती है। रथ का संचालन परम्परानुसार हिण्डौन के उपजिला कलेक्टर राज्यसरकार के प्रतिनिधि के रूप में सारथी बनकर करते हैं। इस प्रकार धार्मिक भावनाओं से ओत-प्रोत इस मेले को राजकीय प्रतिष्ठा एवं मान्यता प्राप्त होती है। जिला कलेक्टर द्वारा मेले के दिन सम्पूर्ण जिले में राजकीय अवकाश घोषित किया जाता है। यहाँ चलती ट्रेन से भगवान के दर्शन होते हैं अर्थात् दिल्ली, मुम्बई ब्रॉडगेज लाइन पर स्थित श्री महावीर जी रेलवे स्टेशन पर चलती ट्रेन से भगवान के दर्शन की व्यवस्था है। स्टेशन के प्लेटफार्म पर १५ फीट ऊँचे विशाल चित्र स्तंभ का निर्माण किया गया है। इस स्तंभ में स्थाई रूप से भगवान महावीर के ४ ² ६ फीट साइज के बड़े चित्र, तीर्थ क्षेत्र के विहंगम चित्रों के साथ लगाए गए हैं। स्तंभ के दोनों ओर चित्र हैं और यात्री बिना प्लेटफार्म पर उतरे बैठे-बैठे ही ट्रेन से भगवान महावीर के दर्शन कर अपने आपको सौभाग्यशाली समझते हैं। राजस्थान के कत्थई रंग के ग्रेनाइट पत्थर से बने इस स्तंभ के बीच िंकक्रल ग्लास में जड़ित बड़े चित्र लगाए गए हैं। रात्रि में इसे स्पष्ट देखने हेतु रोशनी का आवश्यक प्रबंध भी है। श्री महावीर जी मंदिर और क्षेत्र का प्रबंध प्रारंभ से ही जयपुर के दिगम्बर जैनियों की पंचायत की ओर से मूलसंघ आम्नाय के आमेर गद्दी के दिगम्बर जैन भट्टारकों द्वारा होता था। इन भट्टारकों की नियुक्ति दिगम्बर जैन पंचायत करती थी और जयपुर राज्य की सरकार मान्यता देती थी। सन् १९९८ में भट्टारक श्री महेन्द्रकीर्ति जी के निधन के बाद जयपुर की दिगम्बर जैन पंचायत ने परम्परानुसार भट्टारक श्री चन्द्रकीर्ति जी को पदस्थापित किया। सन् १९२३ में जब गांव के जमींदार हासिल देने में आनाकानी करने लगे तो जयपुर की दि. जैन पंचायतों के आग्रह पर जयपुर राज्य के कोर्ट ऑफ वार्ड्स द्वारा प्रबंध किया गया तथा दिगम्बर जैन पंचायतों की ओर से क्षेत्र पर एक मोतमिद निरन्तर मनोनीत रहा। सन् १९२३ से १९३० तक क्षेत्र का प्रबंध कोर्ट ऑफ वार्ड्स ने किया। सन् १९३० में दिगम्बर जैन पंचायतों को उनके आवेदन पर प्रबंध वापिस संभला दिया गया। तभी से निरन्तर राज्य की मान्यता प्राप्त दिगम्बर जैन पंचों की कमेटी क्षेत्र का सम्पूर्ण प्रबंध कर रही है। दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीर जी, राजस्थान सार्वजनिक प्रन्यास अधिनियम के अंतर्गत रजिस्टर्ड प्रन्यास है और इसकी प्रबंधकर्ता ‘‘प्रबंधकारिणी कमेटी, दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीर जी’’ सोसाइटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट के अंतर्गत रजिस्टर्ड संस्था है। सम्पूर्ण दिगम्बर जैन समाज एवं भक्तजनों के सहयोग से यह क्षेत्र निरन्तर प्रगति पथ की ओर अग्रसर है।
विशेष-इस अतिशयक्षेत्र पर सन् १९५३ में बीसवीं सदी की प्रथम बालब्रम्हचारिणी कु० मैना ने आचार्यश्री देशभूषण महाराज के करकमलों से क्षुल्लिका दीक्षा धारण करके वीरमती नाम प्राप्त किया, जो आगे सन् १९५६ में प्रथमाचार्य श्री शान्तिसागर महाराज के प्रथम पट्टाधीश आचार्य श्री वीरसागर महाराज से आर्यिका दीक्षा लेकर ज्ञानमती नाम प्राप्त कर वर्तमान की सबसे प्राचीन साध्वी के रूप में गणिनीप्रमुख ज्ञानमती माताजी कही जाती हैं ।