भगवान महावीर की उपसर्ग विजयभूमि ऐतिहासिक तीर्थ उज्जैन
-उमेश जैन, फिरोजाबाद
भारतीय भूभाग के वर्तमान में मध्य प्रदेश में क्षिप्रा नदी के तट पर बसी उज्जैन नगरी भरत क्षेत्र के इस आर्यावत्र्त की अतिप्राचीन नगरियों में से एक है। इसके अतीत की प्रमाणिकता पौराणिक ग्रंथों और इतिहास मेें वर्णित कथानकों, घटनाओं से प्रमाणित है। जैन, शैव, वैष्णव पुराणों में इसका और इससे जुड़े घटनाक्रमों का प्रचुरता से वर्णन है। आचार्य जिनसेन कृत आदिपुराण, आचार्य गुणभद्र कृत उत्तरपुराण, हरिषेण कथाकोष आदि जैन ग्रंथों में इसका वर्णन अनेक बार आया है। आदिब्रह्मा भगवान ऋषभदेव ने जब पूरे आर्यावत्र्त की प्रशासनिक व्यवस्था की तब उन्होंने ५२ जनपदों में इस देश की सीमाओं का विभाजन किया। ऐसा कथन आचार्य जिनसेन कृत आदिपुराण में पर्व १६-काव्य गाथा १५२ से १५६ में वर्णित है। इन्हीं जनपदों में अवन्ती नाम से जिस जनपद का गठन हुआ, उसमें मालवा से लेकर सिंध तक का भूभाग सम्मलित था। अवन्ती की राजधानी अवन्तिका थी जो बाद में उज्जयिनी या उज्जैन कहलाई। उज्जैन का भारतीय इतिहास में अतिमहत्वपूर्ण स्थान रहा है।
उज्जैन की राजनीतिक पृष्ठभूमि- भगवान महावीर के समय में उज्जैन एक विशाल और वैभवशाली साम्राज्य की राजधानी था। इस विषय पर दिगम्बर-श्वेताम्बर ग्रंथों से लेकर अनेक ग्रंथों में इस विषय में प्रचुर मात्रा में लिखा गया है। इनमें प्रमुख है आदिपुराण, उत्तरपुराण, सुकुमाल चरित्र, महाकवि पुष्पदन्त कृत जसहरचरिउ, करकण्डचरिउ तमिलरचना सिल्प्यादिकारम्, कल्पसूत्र भाष्य, समयसुन्दर कृत कलिकाचार्य कथा, मौर्यकाल का भारतीय इतिहास आदि अनेकानेक ग्रंथों में उज्जैन का कथन बार-बार आया है। ईसा से लगभग साढ़े तीन सदी पूर्व मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्त के द्वारा एक विशाल साम्राज्य की रचना भारतीय भूभाग में हुई जिसमें वर्तमान सम्पूर्ण भारत से लेकर काबुल कंधार तक का भूभाग सम्मिलित था। मौर्य साम्राज्य की राजधानी पाटिलीपुत्र वर्तमान में पटना थी। मौर्य शासकों को इस विशाल साम्राज्य को संचालित करने के लिए उज्जैन और तक्षशिला दो उपराजधानियों की स्थापना की। उज्जैन में उपशासक के रूप में युवराज (साम्राज्य का भावी शासक) प्रमुख शासक के रूप से स्थाई रूप से रहते थे। यह व्यवस्था चन्द्रगुप्त से लेकर विन्दुसार, अशोक, कुनाल व सम्प्रति तक नियमित चलती रही। समय-समय पर सम्राट् उज्जैन आकर भी कुछ समय तक निवास करते थे। सम्राट् चन्द्रगुप्त के समय अनेक ऐतिहासिक घटनाएं घटी यह समय अन्तिम श्रुत केवली आचार्य भद्रबाहु स्वामी का था। सम्राट् चन्द्रगुप्त ऐसे अंतिम मुकुटधारी शासक थे जिन्होंने दिगम्बर दीक्षा धारण की। इसके बाद गर्दमिल्ल वंश का शासन उज्जैन में रहा। उस समय श्वेताम्बर आचार्य कालकाचार्य से कुछ इस प्रकार का घटनाक्रम घटा कि उन्होंने गर्दमिल्ल के विरुद्ध शकों को उज्जैन पर आक्रमण करने के लिए कहा और उज्जैन पर शकों का अधिकार हो गया। गर्दमिल्ल के पुत्र विक्रमादित्य ने शकों को परास्त करके पुन: उज्जैन पर अधिकार किया तथा इस विजय के रूप में विक्रम सम्वत् का प्रचलन किया यह समय ईसा से पूर्व पहली सदी के मध्यकाल का था। इसके करीब १३५ वर्ष बाद शकों ने पुन: उज्जैन पर अधिकार करके शक सम्वत् प्रारंभ किया। इस प्रकार विक्रम सम्वत् तथा शक सम्वत् की जन्मभूमि उज्जैन नगरी ही है। सातवीं सदी में उज्जैन के शासकों पर शंकराचार्य का भरपूर प्रभाव रहा। उज्जैन नरेश सुघन्व ्नो तक बौद्धों को अपने राज्य से पूर्णरूपेण भगा दिया था। परमार वंश के शासकों में मुंज एवं भोज का शासनकाल इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में अंकित है। मुंज के समय राजधानी धारा नगरी में स्थापित की गई थी। सम्राट् भोज ने उसे पुन: उज्जैन में स्थापित किया। भोज के समय में भी जैनधर्म का यहाँ पूर्ण प्रभाव था अनेक ऐतिहासिक घटनाओं और अनेक जैन विद्वानों, श्रमणजनों की चर्चा इस इस काल में इतिहास प्रसिद्ध है तथा वह अनेक ग्रंथों में वर्णित है। स्थानाभाव से इन सबकी चर्चा यहाँ करना संभव नहीं है। यहाँ हम भगवान महावीर से संबंधित व एक दो प्रमुख घटनाओं की ही चर्चा करेंगे।
भगवान महावीर और उज्जैन- आचार्य भगवन्त गुणभद्र कृत उत्तरपुराण के पर्व ७४ में काव्यगाथा ३३१ से ३३७ में वर्णित घटना क्रम इस प्रकार है। वैवल्य प्राप्ति से पूर्व एक बार भगवान वद्र्धमान बिहार करते हुए उज्जैन आए और वह उज्जैन के अतिमुक्तक श्मशान में प्रतिमायोग में ध्यानस्थ होकर तप करने लगे। उसी समय वहाँ एक रूद्र ने उन्हें देखकर उनका ध्यान भंग करने के लिए अनेक प्रकार से उपद्रव करना प्रारंभ किया। भयंकर मुखाकृति करके एवं भयभीत करने वाली आवाजों व चीत्कार द्वारा उसने घोर उपद्रव किया। अग्नि की भयंकर ज्वालाओं के साथ तेज हवाओं आदि भयभीत करने वाली क्रियाओं से जब भगवान का ध्यान भंग नहीं हुआ तब वह अपने मात्सर्य भाव से हटकर उनके चरणों में नतमस्तक हो गया। भगवान की दृढ़ता, गंभीरता देख उसने उन्हें महतिमहावीर कहकर उनकी अर्चना की और अपने स्थान को वापस चला गया। वर्तमान में उज्जैन का वह स्थान ‘‘जयसिंहपुरा’’ तीर्थ के नाम से जाना जाता है। मार्च सन् १९९६ में पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी का उज्जैन में पदार्पण हुआ तब उन्होंने भगवान महावीर की इस उपसर्ग विजयभूमि पर प्राचीन इतिहास को साकार करने की अनेकानेक प्रेरणाएं प्रदान की थीं, जो वहाँ यथाक्रम साकार हो रही हैं। उनमें से भगवान महावीर तपस्यारत खड्गासन प्रतिमा शीघ्र ही विराजमान होने वाली हैं।
संघ विच्छेद की पृष्ठभूमि और अंतिम सम्राट् की दीक्षा की साक्षी उज्जैन- ईसा से लगभग ३५० वर्ष पूर्व जब मौर्य साम्राज्य की उपराजधानी उज्जैन थी। सम्राट् चन्द्रगुप्त उन दिनों उज्जयिनी प्रवास पर थे। सम्राट् के गुरु तथा अंतिम श्रुत केवली आचार्य भगवन्त भी अपने विशाल संघ के साथ उज्जैन क्षेत्र में ही थे। उस काल में दो प्रमुख घटनाएं एक साथ में घटी, एक घटना में एक दिन रात्रि के अंतिम प्रहर में सम्राट् चन्द्रगुप्त ने १६ स्वप्न देखे जिनमें उन्हें अनेक घटनाएँ संकेत रूप घटित दिखाई दीं। दूसरी घटना स्वयं आचार्य भगवन्त के साथ घटित हुई। वह आचार्यचर्या के लिए नगर में आये और पड़गाहन के समय दाता के घर में प्रवेश कर रहे थे तब वहाँ पालने में लेटे एक नवजात शिशु के मुँह से जाओ जाओ के शब्द सुनाई पड़े। आचार्यश्री बिना आहार किये वापस अपने स्थान लौट गए। वहाँ उन्होंने इस घटना पर विचार किया और अपने निमित्त ज्ञान से जाना कि उत्तर भारत में आगे आने वाले समय में घोर दुर्भिक्ष पड़ेगा और यह १२ वर्ष तक प्रभावी रहेगा। उधर सम्राट् भी अपने स्वप्न का प्रतिफल ज्ञात करने उनके चरणों में पहुँचे। सम्राट् के स्वप्न सुनकर आगे भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं के संकेत में स्वप्नों का भवितव्य उन्होंने सम्राट् को बताया। सम्राट् को उन्होंने आने वाले दुर्भिक्ष के बारे में बताकर समस्त संघ को दक्षिण की तरफ विहार करने की बात कही। आचार्य की बात सुनकर सम्राट् ने अपना राजभार अपने पुत्र को सौंप कर स्वयं भवतारणी जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण करने की घोषणा की और अंतिम श्रुत केवली आचार्य भद्रबाहु स्वामी से दीक्षा धारण कर ली। आचार्यश्री ने समस्त दिगम्बर श्रमणों से दक्षिण की तरफ विहार करने की सूचना भेजी और स्वयं नवदीक्षित अपने शिष्य सम्राट् चन्द्रगुप्त (मुनि प्रभाचन्द्र) व बारह हजार श्रमणों को साथ लेकर दक्षिण की ओर विहार किया। इस पर भी अनेक दिगम्बर श्रमण उत्तर में रह गए। दुर्भिक्ष की भयंकरता के चलते वह अपनी चर्या परिशुद्ध नहीं रख सके। श्वेत वस्त्र, दंड आदि धारण करके वह अपना कार्य चलाने लगे। दुर्भिक्ष समाप्त होने के बाद भी वह शिथलाचार से मुक्त होने का मानस नहीं बना सके और इस प्रकार भगवान महावीर के संघ में यह संघभेद हुआ। इस घटना का अनेक ग्रंथों में विस्तार से कथन है। इस प्रकार उज्जयिनी अंतिम मुकुटधारी सम्राट् की दीक्षा व संघ भेद का साक्षी बना। विशाखाचार्य के मध्यदेश में आने और उनके द्वारा उन्हें पुन: निर्दोष दिगम्बरचर्या में स्थापित करने के प्रयास भी सुविधामार्ग अपनाये इन साधुओं को सन्मार्ग में लाने के लिए समर्थ नहीं हो सका।
अकम्पनाचार्य के संघ पर उपसर्ग की पृष्ठभूमि उज्जैन- हस्तिनापुर में मुनि विष्णुकुमार द्वारा निवारित अकम्पनाचार्य के संघ के उस घोर उपसर्ग की जन्मभूमि उज्जैननगरी ही है। उनका संघ जब उज्जैन में विराजमान था तब उज्जैन नरेश श्री धर्मा के वह चार मंत्री बलि, बृहस्पति, प्रहलाद और नमुचि ने प्रयास कर राजा को मुनि दर्शन से रोकने पर भी न रुकने पर उनके साथ जाना पड़ा। उधर आचार्य श्री ने आगत घटना को जानकर सम्पूर्ण संघ को मौन रहने का आदेश किया, श्रुतसागर नामक मुनिराज आहार के लिए नगर में थे अत: उन्हें इस आज्ञा की जानकारी नहीं थी। राजा और मंत्रियों के वापस आते समय उनसे उनका साक्षात्कार हो गया। मुनिराज ने मंत्रियों की व्यंग बातों का युक्तिपूर्वक उत्तर देकर उसे निरुत्तर कर दिया। आचार्य श्री को जब यह घटना ज्ञात हुई तब उन्होंने मुनि श्रुतसागर जी को उसी स्थान पर कायोत्सर्ग ध्यान का आदेश दिया। गुरु आज्ञा स्वीकार कर वह उसी स्थान पर कायोत्सर्ग ध्यानस्थ हुए। चारों अपमानित मंत्रियों ने रात में वहाँ आकर उन पर तलवार से वार करने की चेष्टा की। दैवयोग से वन देवी ने उन्हें उसी मुद्रा में कीलित कर दिया। प्रात: यह घटना सभी को ज्ञात हुई। तब उज्जैन नरेश ने आकर वनदेवी से प्रार्थना करने पर वह मंत्री मुक्त हुए। राजा ने उन्हें उसी समय अपमानित कर देश से निकल जाने की आज्ञा दी। चारों अपमानित मंत्री हस्तिनापुर नरेश की शरण में आकर वहाँ मंत्री बन गए। उन्होंने किस प्रकार हस्तिनापुर नरेश पर अपना प्रभाव बनाकर अकम्पनाचार्य के संघ को वहाँ आने पर अपने अपमान का बदला लेने के लिए उपसर्ग किया, यह सर्वविदित है। उज्जयिनी से प्रारंभ इस घटना ने हस्तिनापुर में विष्णु कुमार मुनि द्वारा उपसर्ग निवारण के कारण ही रक्षाबंधन पर्व का जन्म हुआ।
महाकाल वन और सुकुमाल- पुराण प्रसिद्ध सुकुमाल मुनि का तीन दिन तक श्रगालिनी का अपने बच्चों सहित शरीर भक्षण के महाघोर उपसर्ग की घटना का संबंध इसी उज्जयिनी नगरी से है। सुकुमाल चरित्र में इसका विस्तार से वर्णन है। सुकुमाल उज्जैन नगर के श्रेष्ठी सुरेन्द्रदत्त व यशोभद्रा के पुत्र थे। पुत्र जन्म के बाद पिता जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर चले गये। मोह ग्रस्त माँ को जब यह ज्ञात हुआ कि पुत्र दिगम्बर श्रमण के दर्शन होते ही गृहत्याग देगा तब उसने अपने महल के द्वार दिगम्बर श्रमणों के लिए सदैव के लिए बंद करा दिए। सुकुमाल का लालन पालन राजसी वैभव से भी अधिक उत्तम विधि से किया गया। बत्तीस सुन्दर कन्याओं से उनका विवाह कराके उन्हें संसार जाल में फसाये रखने का उपक्रम माँ ने किया, किन्तु भवितव्यता के आगे सब व्यर्थ रहा। घटित घटनाक्रम में वह अपने महल के पीछे वर्षायोग कर रहे मुनि संघ के द्वारा प्रज्ञप्तिका पाठ के स्वर सुनकर अपने कक्ष की खिड़की से उतर कर मुनिचरणों में जा पहुँचे। अपनी आयु के तीन दिन शेष जानकर मुनिराज से दीक्षा ग्रहण कर सभी प्रकार के आहार का त्याग कर वन में ध्यानस्थ हुए। पुत्रमोह के आर्तध्यान से मरकर हुई श्रगालिनी द्वारा शरीर भक्षण का घोर उपसर्ग सहन कर सुकुमाल मुनि ने शरीर त्याग किया और अच्युत स्वर्ग में महद्र्धिक देव हुए।
उज्जैन व अन्य पौराणिक कथानक- चण्डप्रज्ञ, कालसन्दीव, दृढसूर्य चोर, गुणपाल श्रेष्ठी व सोमदत्त मणिपति नामक राजा की मुनि अवस्था व जिनदत्त सेठ आदि अनेक कथानक उज्जैन के विषय में प्राप्त होते हैं। यहाँ के महाकाल वन में अनेक मुनिराजों ने तप करके केवलज्ञान प्राप्त किया है। इस स्थान को सर्वाधिक प्रसिद्धि भगवान महावीर पर हुए उपसर्ग से प्राप्त हुई। उज्जैन का इतिहास आज भी अपने अन्दर अनेकानेक घटनाओं को सजोएं हुए हैं। यह स्थान जैनधर्म की अनेक घटनाओं का साक्षी है और इनके कारण इस स्थान का महत्व एक तीर्थ की तरह है। भगवान महावीर से संबंधित उन सभी स्थानों पर जहाँ उनका बिहार हुआ या उनके मोक्ष जाने के बाद जहाँ-जहाँ उनके अतिशय प्रगट हुए उन सभी स्थानों में उज्जैन के अतिमुक्तक श्मशान के उपसर्ग की घटना अतिमहत्वपूर्ण है। इस उपसर्ग के बाद यह स्थान दिगम्बर साधकों को अपनी आत्म साधना के लिए सबसे पंसदीदा स्थान बन गया था।