अर्थ :- विदेह क्षेत्रों में स्थित विद्यमान तीर्थंकरो को, उन (अर्हन्तों) की प्रतिमाओं को तथा पञ्चपरमेष्ठियों को नमस्कार करके मैं उत्तम विदेह क्षेत्र को कहूँगा अर्थात् विदेहक्षेत्र का विस्तारपूर्वक वर्णन करूंगा।।१।।
विदेहक्षेत्रस्थ सुदर्शन मेरु का सविस्तार वर्णन
अर्थ :— विदेह के मध्य में सुदर्शन नाम का एक श्रेष्ठ महामेरु है, जो ९९००० योजन ऊँचा, १००० योजन की जड़ वाला, अनादिनिधन, श्रेष्ठ, सुन्दर और नाना प्रकार के आकारों से युक्त तथा जम्बूद्वीप की नाभि के सदृश शोभायमान होता है। यह सुमेरु पर्वत चित्रा पृथ्वी के अन्त पर्यन्त अर्थात् मूल में एक हजार योजन प्रमाण वङ्कामय, मध्य में इकसठ हजार योजन पर्यन्त अनेकों रत्नमय और अग्रभाग में ३८००० योजन पर्यन्त देदीप्यमान स्वर्णमय एवं अकृत्रिम है।। २-५।। अब मन्दुबुद्धिजनों को समझाने के लिए इस सुमेरु पर्वत का निरूपण विस्तारपूर्वक किया जा रहा है :— सुदर्शन मेरु की जड़ चित्रा पृथ्वी को भेद कर एक हजार योजन नीचे तक गई है। जड़-नींव के नीचे मेरु का व्यास १००९०-१०/११ योजन और उसकी परिधि का प्रमाण ३१९१०-२/११ योजन (कुछ अधिक) है। इसके बाद क्रम से हीन होता हुआ (एक हजार की ऊँचाई पर) पृथ्वीतल पर मेरु की चौड़ाई १०००० योजन और परिधि का प्रमाण कुछ कम ३१६२३ योजन है। इसके बाद क्रमशः हानि होते हुए मेरु के दोनों पाश्र्वभागों में ५०० योजन ऊपर जाकर ५०० योजन विस्तार वाला नाना प्रकर के वृक्षों से व्याप्त एक सुन्दर नन्दन नाम का वन विद्यमान है। वहाँ नन्दनवन सहित मेरु का बाह्य विष्कम्भ ९९५४-६/११ योजन है। जिसकी परिधि ३१४७९ योजन प्रमाण है। नन्दनवन के बिना मेरु पर्वत का अभ्यन्तर व्यास ८९५४-१/११ योजन और परिधि २८३१६-६/११ योजन है। इसके बाद मेरु पर्वत पर ६२५०० योजन ऊपर जाकर तृतीय सौमनस नाम का सुन्दर वन है। उन ६२५०० योजन के मध्य अर्थात् नन्दनवन के मध्य से मेरु की चौड़ाई ११००० योजन ऊपर तक दोनों पाश्र्वभागों में समान रूप से जाती है। इसके बाद ५१५०० योजन की ऊँचाई पर्यन्त मेरु की चौड़ाई में क्रमशः हानि होती जाती है। इसके बाद वहाँ मेरु की चौड़ाई को युगपत ५०० योजन अर्थात् दोनों पाश्र्वभागों में १००० योजन कम हो जाने से वहाँ मेरु के अभ्यन्तर विष्कम्भ का प्रमाण ३२७२-८/११ योजन और वहीं की परिधि का प्रमाण ९९९४-६/११ योजन प्रमाण है। इस सौमनस वन से ३६००० योजन ऊपर जाकर ४९४ योजन व्यास वाले चतुर्थ पाण्डुकवन की प्राप्ति होती है। उन ३६००० योजनों के मध्य अर्थात् सौमनस वन के मध्य से ११००० योजन की ऊँचाई पर्यन्त मेरु का व्यास हानिवृद्धि से रहित सर्वत्र सदृश ही है। इसके बाद अर्थात् समरुन्द्र (समान चौड़ाई) के ऊपरी भाग से २५००० योजन की ऊँचाई पर्यन्त क्रमिक हानि द्वारा ह्रस्व होता जाता है। वहाँ पर अर्थात् (सौमनसवन से ३६००० योजन ऊपर) मेरु के मस्तक पर पाण्डुकवन सहित मेरु का विस्तार १००० योजन और उसकी परिधि कुछ अधिक ३१६२ योजन प्रमाण प्राप्त होती है। मेरु के इस १००० योजन विस्तार वाले पाण्डुक वन के अर्थात् मेरु के शिखर के मध्य भाग में ४० योजन ऊँची, मूल में १२ योजन चौड़ी, मध्य में ८ योजन चौड़ी और शिखर पर ४ योजन चौड़ी, वैडूर्यरत्नमयी तथा उत्तरकुरु भोगभूमिज आर्य के एक बाल के अन्तराल से स्थित सौधर्म स्वर्ग के प्रथम पटलस्थ ऋजुविमान को स्पर्श नहीं करने वाली चूलिका है। सुमेरु पर्वत की मूल पृथ्वी (भूमि) पर भद्रसाल नाम का एक अत्यन्त रमणीय वन है। जो अनेक प्रकार के वृक्षों से व्याप्त है तथा जिसकी पूर्व दिशागत चौड़ाई २२००० योजन, पश्चिम दिशागत चौड़ाई २२००० योजन, उत्तर दिशागत चौड़ाई २५० योजन और दक्षिण दिशागत चौड़ाई भी २५० योजन प्रमाण है। (इस वन का आयाम विदेह क्षेत्र के विस्तार बराबर है। ज० द्वी० प० ४/४३) वहाँ भद्रशालवन की चारों दिशाओं में अनेक प्रकार की विभूतियों से युक्त चार जिनालय हैं। इसी प्रकार नन्दन, सौमनस और पाण्डुक इन प्रत्येक वनों में चार-चार चैत्यालय हैं। इन चैत्यालयों के व्यास आदि का विवेचन मैं (आचार्य) आगे करूँगा। नन्दनवन की ऐशान दिशा में सौ योजन ऊँचा, मूल में सौ योजन चौड़ा और शिखर पर ५० योजन चौड़ा अनेक रत्नमय बलभद्र नाम का एक कूट है। उस कूट के ऊपर अनेक प्रकार के कोट, प्रतोलिका, गोपुरद्वार एवं वन आदि से वेष्टित नगर हैं। जिनका अधिपति बलभद्र नाम का व्यन्तरदेव है, जो वहीं रहता है। नन्दनवन में मेरु की पूर्वादि चारों दिशाओं में मानी, चारण, गन्धर्व और चित्र नाम के भवन हैं। जो ५० योजन ऊँचे और ३० योजन चौड़े तथा नाना प्रकार की मणियों से खचित हैं। इन भवनों के स्वामी क्रमशः रक्त, कृष्ण, स्वर्ण और श्वेत वर्ण के आभूषणों से अलंकृत तथा देव समूह से समन्वित सोम, यम, वरुण और कुबेर हैं। इन प्रत्येक लोकपालों की रूप लावण्य आदि से विभूषित साढ़े तीन करोड़ व्यन्तर जाति की दिक्कन्याएँ हैं।
विशेषार्थ :— नन्दनवन में मेरु की पूर्व दिशा में मानी नाम का भवन है, जिसमें रक्तवर्ण के अलज्ररों से अलंकृत सोम लोकपाल साढ़े तीन करोड़ दिक्कुमारियों के साथ रहता है। दक्षिण के चारण भवन में कृष्णवर्ण के अलज्ररों से सुशोभित यम लोकपाल अपनी साढ़े तीन करोड़ दिक्कुमारियों के साथ रहता है। पश्चिम दिशा सम्बन्धी गन्धर्व नामक भवन में स्वर्णाभा सदृश आभूषणों से विभूषित वरुण लोकपाल अपनी साढ़े तीन करोड़ दिक्कुमारियों के साथ और उत्तर दिशा सम्बन्धी चित्र नामक भवन में श्वेतवर्ण के आभूषणों से युक्त कुबेर नाम का लोकपाल अपनी साढ़े तीन करोड़ दिक्कन्याओं के साथ निवास करता है। सौमनसवन में मेरु की चारों दिशाओं में क्रमशः वङ्का, वङ्काप्रभ, सुवर्ण और सुवर्णप्रभ नाम के चार भवन हैं। जो पच्चीस योजन ऊँचे और पन्द्रह योजन चौड़े हैं। पाण्डुकवन में मेरु की चारों दिशाओं में उत्कृष्ट सिंहासन एवं पल्यज्र् आदि से सहित पंचवर्ण के रत्नमय क्रमशः लोहित, अंजन, हारित और पाण्डु नाम के चार भवन हैं। जो १२-१/२ योजन ऊँचे और ७-१/२ योजन चौड़े हैं। इन उपर्युक्त आठों भवनों में से प्रत्येक में साढ़े तीन करोड़ दिक्कुमारियाँ निवास करती हैं। इन आठों गृहों के स्वामी जिनबिम्ब के चिह्न से चिह्नित मुकुट वाले देव समूह से वेष्टित तथा क्रमशः रक्त, कृष्ण, स्वर्ण और श्वेत वस्त्र एवं अलज्ररों से अलंकृत, क्रमानुसार स्वयंप्रभ, अरिष्ट, जलप्रभ और वर्गप्रभ (कल्प) विमानों में निवास करने वाले तथा सौधर्मैशान इन्द्रों के सम्बन्ध को प्राप्त सोम, यम, वरुण और कुबेर नाम के लोकप्रसिद्ध चार लोकपाल हैं। इनमें सोम और यम लोकपालों की आयु २-१/२ पल्य तथा वरुण और कुबेर की आयु पौने तीन (२-३/४) पल्य प्रमाण है। वहाँ नन्दनवन में पूर्वदिशा स्थित चैत्यालय के दोनों पाश्र्व भागों में नन्दन और मन्दर नाम के दो कूट हैं। दक्षिण दिशा स्थित चैत्यालय के दोनों पाश्र्व भागों में निषध और हिमवत् नाम के दो कूट हैं। पश्चिम दिशा सम्बन्धी चैत्यालय के दोनों पाश्र्व भागों में रजत और रुचक नाम के दो कूट हैं तथा उत्तर दिशा सम्बन्धी जिनालय के दोनों पाश्र्व भागों में सागर और वङ्का नाम के दो कूट हैं। इन आठों कूट की ऊँचाई ५०० योजन, भूव्यास ५०० योजन, मध्य व्यास ३७५ योजन और मुख व्यास २५० योजन प्रमाण है। इन वूकूट के शिखरों पर दिक्कुमारियों के एक कोस लम्बे, अर्धकोस चौड़े और पौन कोस ऊँचे तथा नाना प्रकार के रत्नमय भवन बने हैं। इन आठों भवनों में क्रमशः मेघज्र्रा, मेघवती, सुमेघा, मेघमालिनी, तोयन्धरा, विचित्रा, पुष्पमालिनी और अनन्दिता नाम की दिक्कुमारियाँ निवास करती हैं। इस प्रकार नन्दनवन के समान सर्ववूकूटदिक्कुमारियों के भवन आदि सौमनस वन में भी हैं। (नन्दनवन में) मेरु पर्वत की आग्नेय दिशा में उत्पला, कुमुदा, नलिनी और उत्पलोज्ज्वला नाम की चार वापिकाएँ हैं। नैऋत्य दिशा में भृङ्गा, भृङ्गनिभा, कज्जला और कज्जलप्रभा नाम की चार वापिकाएँ हैं। वायव्य दिशा में श्रीभद्रा, श्रीकान्ता, श्रीमहिता और श्रीनिलया नाम की चार वापिकाएँ हैं तथा ऐशान दिशा में नलिनी, नलिनी ऊर्मि, कुमुद और कुमुदप्रभा नाम की चार वापिकाएँ हैं। ये सोलह वापिकाएँ मणियों के तोरणों एवं वेदिका आदि से मण्डित, नाना प्रकार के रत्नों की सीढ़ियों से युक्त, पचास योजन लम्बी, पच्चीस योजन चौड़ी और दस योजन गहरी हैं। ये सभी वापिकाएँ चतुष्कोण हैं तथा हंस, सारस और चक्रवाक आदि पक्षियों के शब्दों से अत्यन्त शोभायमान हैं। इन सभी वापियों के मध्य भाग से ६२-१/२ योजन ऊँचे, ३१-१/४ योजन चौड़े, अर्ध (१/२) योजन गहरी नींव से संयुक्त, सिंहासन एवं सभास्थान आदि से अलंकृत रत्नमय भवन हैं। इन आग्नेय और नैऋत्य दिशा सम्बन्धी वापिकाओं में स्थित भवनों में सौधर्म इन्द्र अपने लोकपाल आदि देव और शचि आदि देवाङ्गनाओं के साथ नाना प्रकार की क्रीडा करता है तथा वायव्य और ईशान दिशा स्थित वापिकाओं के भवनों में ऐशान इन्द्र अपने परिवार देवों एवं देवाङ्गनाओं के साथ प्रसन्नतापूर्वक क्रीडा करता है। जिस प्रकार नन्दनवन में सौधर्मैशान सम्बन्धी वापी एवं प्रासाद आदि का वर्णन किया है उसी प्रकार क्रम से वापी, प्रासाद आदि का सभी वर्णन सौमनसवन में जानना चाहिये क्योंकि नन्दनवन से यहाँ कोई विशेषता नहीं है। मेरु पर्वत के ऊपर पाण्डुकवन में चूलिका की प्रदक्षिणा रूप से ऐशान आदि विदिशाओं में सौ योजन लम्बी, पचास योजन चौड़ी और आठ योजन ऊँची, अर्धचन्द्र की उपमा को धारण करने वाली, रत्नमय तोरण एवं वेदिका आदि से अलंकृत, अपने-अपने क्षेत्रों के सम्मुख, स्पुâरायमान तेजमय पाण्डुक आदि चार दिव्य शिलाएँ हैं। इन चारों शिलाओं में प्रथम पाण्डुक नाम की शिला ऐशान दिशा में है। जो स्वर्ण सदृश वर्ण से युक्त, पूर्व-पश्चिम लम्बी तथा भरतक्षेत्र में उत्पन्न होने वाले तीर्थंकरों के जन्म स्नान की पीठिका सदृश है। द्वितीय पाण्डुकम्बला नाम की शिला आग्नेय दिशा में है, जो अर्जुन (चाँदी) सदृश वर्ण से युक्त, दक्षिणोत्तर लम्बी और पश्चिम विदेह क्षेत्र में उत्पन्न होने वाले जिनेन्द्रों के जन्माभिषेक की पीठिका सदृश है। तृतीय रक्ता नाम की शिला नैऋत्य दिशा में है, जो तपाए हुए स्वर्ण के सदृश वर्ण से युक्त, ऐरावत क्षेत्र में उत्पन्न तीर्थज्र्रों के जन्माभिषेक से निबद्ध तथा पूर्व-पश्चिम लम्बी है। इसी प्रकार रक्तकम्बला नाम की चतुर्थ शिला वायव्यदिशा में दक्षिण-उत्तर लम्बी, आरक्त वर्ण से युक्त और पूर्व विदेह में उत्पन्न होने वाले तीर्थज्र्र देवों के जन्माभिषेक से सम्बद्ध है। इन चारों शिलाओं में से प्रत्येक शिला के ऊपर देदीप्यमान रत्नमय तीन-तीन िंसहासन हैं। उन िंसहासनों में से बीच का िंसहासन पाँच सौ धनुष ऊँचा, भूमि पर पाँच सौ धनुष चौड़ा, अग्रभाग पर दो सौ पचास धनुष चौड़ा तथा जिनेन्द्रदेव सम्बन्धी अर्थात् तीर्थज्र्रों के जन्माभिषेक की स्थिति के लिए है। दक्षिण दिशा में स्थित िंसहासन जिनेन्द्र भगवान के जन्माभिषेक के समय सौधर्म इन्द्र के बैठने के लिए होते हैं और उत्तर दिशा स्थित सिंहासन तीर्थज्र्रों के जन्माभिषेक के समय ऐशानेन्द्र की संस्थिति अर्थात् बैठने के लिए हैं।
पाण्डुक आदि चारों शिलाओं एवं सिंहासन आदि का चित्रण
कल्पवासी, ज्योतिष्क, भवनवासी और व्यन्तरवासी देवों के इन्द्र क्रमशः घण्टा, सिंहनाद, शङ्ख एवं उत्तम भेरी के शब्दों तथा आसन आदि कम्पित होने रूप चिह्नों द्वारा जिनेन्द्र भगवान् की उत्पत्ति को जानकर परम विभूति एवं छत्र, ध्वजा आदि से युक्त विमानों द्वारा आकाशरूपी प्रांगण को आच्छादित करते हुए तथा अनेक प्रकार के पटह आदि के शब्दों द्वारा दसों दिशाओं को बहरी करते हुए जिनेन्द्र भगवान् के जन्माभिषेक का उत्सव मनाने के लिए अपूर्व आनन्द एवं धर्मरागरूपीरस से उत्कट अपने-अपने स्थानों से सुमेरु पर्वत की ओर आते हैं। इस जन्माभिषेक के समय इन्द्रों का प्रमुख देव सौधर्मेन्द्र ऐरावत हाथी पर चढ़कर अपनी तीन परिषदों एवं सात अनीकों से अलंकृत होता हुआ स्वर्ग से मध्यलोक में आता है। इस सौधर्मेन्द्र की प्रथम अभ्यन्तर परिषद में दिव्यरूप और दिव्य मुख वाले, आयुध एवं अलंकारों से अलंकृत बारह लाख देव होते हैं। मध्यम परिषद में चौदह लाख देव और बाह्य परिषद में सोलह लाख देव होते हैं। अभ्यन्तर, मध्य और बाह्य परिषदों के क्रम से रवि, शशि और यदुप नाम के महत्तर (प्रधान) देव हैं। वृषभ, रथ, तुरंग, गज, नर्तक, गन्धर्व और भृत्य हैं नाम जिनके, ऐसे सात-सात कक्षाओं से युक्त सात अनीक सेनाएँ सौधर्मेन्द्र के आगे जन्माभिषेक के समय में महान् आडम्बर से युक्त होती हुई चलती हैं। प्रथम कक्षा में शंख एवं कुन्दपुष्प के सदृश धवल चौरासी लाख वृषभ चलते हैं। द्वितीय कक्षा में जपापुष्प के सदृश वर्ण वाले एक करोड़ अड़सठ लाख वृषभ चलते हैं। तृतीय कक्षा में नीलकमल के सदृश वर्ण वाले तीन करोड़ छत्तीस लाख वृषभ हैं। चतुर्थ कक्षा में मरकत (नील) मणि की कान्ति सदृश वर्ण वाले छह करोड़ बहत्तर लाख वृषभ हैं। पंचम कक्षा में स्वर्ण सदृश वर्ण वाले तेरह करोड़ चवालीस लाख वृषभ हैं। षष्ठ कक्षा में अञ्जन सदृश वर्ण वाले छब्बीस करोड़ अट्ठासी लाख वृषभ हैं और सप्तम अनीक में िंकशुक (केसु) पुष्प की प्रभा सदृश वर्ण वाले त्रेपन करोड़ छियत्तर लाख वृषभ आगे-आगे चलते हैं। शब्द करते हुए नाना प्रकर के पटह आदि एवं तूर्य आदि से अन्तरित अर्थात् इन सेनाओं के मध्य-मध्य में इन बाजों से युक्त, घण्टा, किंकणी, उत्तम चँवर एवं मणिमय कुसुममालाओं से अलंकृत, रत्नमय कोमल आसन (पलान) से युक्त, देवकुमारों द्वारा चलाए जाने वाले और दिव्य रूप को धारण करने वाले सप्तकक्षाओं से समन्वित समस्त वृषभ अनीकों की संख्या एक सौ छह करोड़ अड़सठ लाख है जो इस जन्माभिषेक महोत्सव में जाती है। जिस प्रकार इन सात वृषभ अनीकों की दूनी-दूनी संख्या का वर्णन किया गया है उसी प्रकार शेष रथ आदि छह अनीकों की संख्या जानना चाहिये। प्रथम कक्षा में हिम की आभा के सदृश धवल छत्रों से विभूषित धवल रथ चलते हैं। द्वितीय कक्षा में वैडूर्यमणि से निर्मित, चार चाकों से विराजमान और मन्दार पुष्पों के सदृश वर्ण वाले महारथ गमन करते हैं। तृतीय कक्षा में स्वर्णमय छत्र, चामर और ध्वज समूहों से समन्वित तथा तपाये हुए स्वर्ण से निर्मित रथ जाते हैं। चतुर्थ कक्षा में मरकत मणियों से निर्मित बहुत चाकों से उत्पन्न हुए शब्दों से गम्भीर और दूर्वांकुर वर्ण सदृश रथ होते हैं। पञ्चम कक्षा में कर्वेतन मणियों से निर्मित बहुत चाकों से उत्पन्न शब्दों से युक्त तथा नीलोत्पल पत्रों के सदृश रथ हैं। षष्ठम कक्षा में पद्मराग मणियों से निर्मित, सुन्दर चाकों को धारण करने वाले तथा कमल के सदृश वर्ण वाले रथ हैं और सप्तम कक्षा में मयूर कण्ठ सदृश वर्ण वाले, मणियों के समूह से उत्पन्न किरणों से देदीप्यमान इन्द्र नीलमणि की प्रभा के सदृश वर्ण वाले महारथ जाते हैं। इन सप्त सेनाओं से समन्वित, बहुत से देव-देवियों से परिपूर्ण, उत्तम चमर, छत्र, ध्वजाएँ एवं पुष्पों की मालाओं से प्रकाशमान, सब रथ कक्षाओं के मध्य में शब्द करते हुए देव वादित्रों से युक्त और आकाश को आच्छादित करते हुए ऊँचे एवं विस्तृत रथ जिनेन्द्र भगवान् के जन्माभिषेक महोत्सव में इन्द्र के महान् पुण्योदय से आगे-आगे जाते हैं। अश्वों की प्रथम कक्षा में क्षीरसमुद्र की तरङ्गों के सदृश तथा श्वेत चामरों से अलंकृत धवल अश्व जाते हैं। द्वितीय कक्षा में उदित होते हुए सूर्य के वर्ण सदृश एवं चलते हुए उत्तम चामरों से युक्त (रक्त वर्ण के) तुरङ्ग होते हैं। तृतीय कक्षा में तपाए हुए स्वर्ण के सदृश खुरों से उत्पन्न धूलि से पिञ्जरित अश्व गोरोचन (पीत) वर्ण वाले होते हैं। चतुर्थ कक्षा में मरकत मणि के सदृश वर्ण वाले एवं शीघ्रगामी अश्व चलते हैं। पञ्चम कक्षा में रत्नों के आभूषणों से विभूषित तथा नीलोत्पल पत्र सदृश वर्ण वाले घोड़े चलते हैं। षष्ठम कक्षा में जपापुष्प सदृश (रक्त) वर्ण वाले और सप्तम कक्षा में इन्द्रनीलमणि की प्रभा वाले घोड़े होते हैं। इस प्रकार ये सात कक्षाओं से युक्त, अनेक प्रकार के आभरणों से विभूषित, अपनी-अपनी सेनाओं के आगे उत्पन्न होने वाले वादित्रों के शब्दों से अन्तरित, उत्तम रत्नों के आसनों (पलानों) से युक्त, देवकुमारों द्वारा चलाए जाने वाले दिव्य और उत्तुङ्गकाय घोड़े भगवान् के जन्माभिषेक के महोत्सव में जाते हैं। प्रथम कक्षा की गज सेना में गोक्षीर (धवल) वर्ण सदृश और पर्वत के समान उन्नत एवं विस्तृत देह वाले चौरासी लाख हाथी होते हैं। द्वितीय कक्षा में सूर्य (बाल सूर्य) के तेज सदृश कान्ति वाले हाथी दुगुने (एक करोड़ अड़सठ लाख) होते हैं। तृतीय कक्षा में दूसरी कक्षा से दुगुने और तपाए हुए स्वर्णाभा सदृश हाथी जाते हैं। चतुर्थ कक्षा में इससे भी दुगुने और तपाए हुए स्वर्ण की कान्ति सदृश हाथी होते हैं। पञ्चम कक्षा में चतुर्थ कक्षा से दुगुने और नीलोत्पल आभायुक्त हाथी षष्ठम कक्षा में पञ्चम कक्षा से दुगुने तथा जपापुष्प सदृश हाथी और सप्तम कक्षा में अञ्जनगिरि के सदृश कान्ति वाले त्रेपन करोड़ छियत्तर लाख हाथी जाते हैं। इन सातों कक्षाओं के हाथियों की संख्या का योग एक सौ छह करोड़ अड़सठ लाख है। इन सात सेनाओं से युक्त, उन्नत दाँतरूपी मूसलों से सहित, गुड-गुड गरजने वाले, गलते हुए मद से हैं लिप्त अङ्ग जिनके, लटकते हुए रत्नमय घण्टा, किंकिणी एवं पुष्पमालाओं से सुशोभित, अनेक प्रकार की ध्वजाओं, छत्र, चमर एवं मणि और स्वर्ण की रस्सियों से अलंकृत, प्रत्येक कक्षा के अन्तरालों में बजने वाले वादित्रों के शब्दों से युक्त, उत्तम देव-देवियों की सवारियों से सहित, चलते-फिरते पर्वत के समान उन्नत एवं महादिव्य देह को धारण करने वाले हाथी इन जिनेन्द्र भगवान् के जन्म महोत्सव में सौधर्म इन्द्र के श्रेष्ठ पुण्य के फल को लोगों को दिखाते हुए ही मानो स्वर्ग से मेरु पर्वत की ओर आते हैं। नर्तक अनीक देव प्रथम कक्षा में विद्याधर, कामदेव, राजा और अधिराजाओं के चरित्रों द्वारा अभिनय करते हुए नर्तकी देव जाते हैं। द्वितीय कक्षा के नर्तक देव समस्त अर्धमण्डलीक एवं महामंडलीकों के उत्तम चरित्र का अभिनय करते हैं। तृतीय कक्षा के नर्तक देव बलभद्र, वासुदेव और प्रतिवासुदेवों (प्रतिनारायणों) के वीर्यादि गुणों से सम्बद्ध चारित्र द्वारा महानर्तन करते हुए जाते हैं। चतुर्थ कक्षा के नर्तक देव चक्रवर्तियों की विभूति एवं वीर्यादि गुणों से निबद्ध चारित्र के द्वारा महाअभिनय करते हुए जाते हैं। पञ्चम कक्षा के नर्तक देव चरमशरीरी यतिगण, लोकपाल और इन्द्रों के गुणों से रचित उनके चरित्र द्वारा अभिनय करते हैं। षष्ठम कक्षा के नर्तक देव विशुद्ध ऋद्धियों एवं ज्ञान आदि गुणों से उत्पन्न उत्तम चारित्र द्वारा उनके गुणरूपी रागरस से उत्कट होते हुए श्रेष्ठ नृत्य करते हुए जाते हैं और सप्तम कक्षा के नर्तक देव चौंतीस अतिशय, अष्ट प्रातिहार्य और अनन्तज्ञान आदि गुणों से सम्बद्ध चारित्र द्वारा उनके गुणरूपी रागरस में डूबे हुए तथा सर्वोत्कृष्ट नर्तन करते हुए जाते हैं। ये सात अनीकों के आश्रित, उत्तम नृत्य करने में चतुर, आनन्द से युक्त, दिव्य वस्त्र और दिव्य अलज्ररों से विभूषित तथा महाविक्रियारूप नृत्य करते हुए मेरु पर्वत की ओर जाते हैं। संगीत के सात स्वरों द्वारा जिनेन्द्र भगवान् के और गणधरादि देवों के गुणों से सम्बद्ध अनेक प्रकार के मनोहर गीत गाते हुए, दिव्य कण्ठ, दिव्य वस्त्र एवं आभरणों से मण्डित गन्धर्व देव जिनेन्द्र के जन्माभिषेक महोत्सव में सात अनीकों से समन्वित होते हुए जाते हैं। प्रथम कक्ष में षड्ज स्वरों से जिनेन्द्र के गुण गाते हैं। द्वितीय कक्ष में ऋषभ स्वर से गुणगान करते हैं। तृतीय कक्ष में गान्धार स्वर से गाते हुए जाते हैं। चतुर्थ कक्ष में मध्यम स्वर से जिनाभिषेक सम्बन्धी गीतों को गाते हैं। पञ्चम कक्ष में पञ्चम स्वर से गान करते हैं। षष्ठम कक्ष में धैवत स्वर से गाते हैं और सप्तम कक्ष में निषात स्वर से युक्त गान करते हुए गन्धर्व देव जाते हैं। इस प्रकार अपनी-अपनी देवियों से संयुक्त, सप्त अनीकों के आश्रित, किन्नर और किन्नरियों के साथ वीणा, मृदङ्ग, झल्लरी और ताल आदि के द्वारा जिनाभिषेक महोत्सव के गुणसमूह से रचित, बहुत मधुर, शुभ और मन को हरण करने वाले गीत गाते हुए, धर्मराग रूपी रस से उद्धत होते हुए गन्धर्व देव उस महामहोत्सव में जाते हैं। सात प्रकार की सेनाओं से युक्त, दिव्य आभूषणों से अलंकृत, अनेक वर्णों की ध्वजाएँ एवं छत्रों से सहित हैं हाथ जिनके, ऐसे भृत्यदेव जाते हैं। प्रथम कक्ष में अञ्जन सदृश प्रभा वाली ध्वजाएँ हाथ में लेकर भृत्यदेव जाते हैं। द्वितीय कक्ष के भृत्यदेव अपने हाथों में मणि एवं स्वर्णदण्ड के शिखर पर स्थित चलते (ढुलते) हुए चामरों से संयुक्त नीली ध्वजाएँ लेकर चलते हैं। तृतीय कक्ष के भृत्यदेव अपने हाथों में वैडूर्य मणिमय दण्डों के अग्रभाग पर स्थित धवल ध्वजाएँ लेकर चलते हैं। चतुर्थ कक्षा के भृत्यदेव अपने हाथों में हाथी, िंसह, वृषभ, दर्पण, मयूर, सारस, गरुड़, चक्र, रवि एवं चन्द्राकार कनक (पीली) ध्वजाओं के आश्रयभूत मरकत मणिमय दण्ड लेकर चलते हैं। पञ्चम कक्षा के भृत्यदेव अपने हाथों में विकसित कमल की कान्ति वाली पद्मध्वजाओं से आरोपित विद्रुम मणि (मूँगे) के ऊँचे-ऊँचे दण्ड लेकर चलते हैं। षष्ठम कक्ष के भृत्यदेव अपने हाथों में गोक्षीर वर्ण सदृश धवल ध्वजाओं से युक्त स्वर्णदण्ड लेकर तथा सप्तम कक्षा के भृत्यदेव अपने हाथों में देदीप्यमान मणिसमूह से रचित दण्ड के अग्रभाग पर स्थित, मोतियों की मालाओं से अलंकृत धवल छत्रों को लेकर जाते हैं। इस प्रकार सात अनीकों से युक्त, जिनभक्ति में तत्पर भृत्यदेव उत्साह और अपूर्व उद्यम- पूर्वक उस महोत्सव में जाते हैं। इन भृत्यदेवों की सात अनीक कक्षाओं में से छह कक्षा के भृत्यदेव मात्र ध्वजाएँ लेकर चलते हैं जिनका सर्वयोग बावन करोड़ बान्नवे लाख (५२,९२०००००) प्रमाण है, जो इस जन्ममहोत्सव में चलती हुई पवन के वश से हिलने वाली दिव्य ध्वजाओं से अत्यन्त शोभायमान होते हैं। सप्तम कक्षा के भृत्य श्वेत छत्र लेकर चलते हैं, जिनका प्रमाण त्रेपन करोड़ छियत्तर लाख (५३,७६०००००) है। इस प्रकार वृषभ से भृत्यदेव पर्यन्त (४९) उनंचास अनीक कक्षाओं का एकत्र योग करने पर सात सौ छत्तीस करोड़ छियत्तर लाख प्रमाण है। यथा :— सात अनीक सम्बन्धी ४९ कक्षाओं का एकत्रित प्रमाण 1- कक्षा वृषभ रथ घोड़े हाथी नर्तक गन्धर्व भृत्यवर्ग –
योग. १०६६८००००० + १०६६८००००० + १०६६८००००० + १०६६८००००० + १०६६८००००० + १०६६८०००००१० + ६६८००००० – ७४६७६००००० कुल प्रमाण हुआ।
सौधर्मेन्द्र जिस प्रकार सात अनीकों के ७४६ करोड़ ७६ लाख सेना के साथ यहाँ जिनेन्द्र के जन्ममहोत्सव में आता है, उसी प्रकार समस्त इन्द्रों में से प्रत्येक इन्द्र की सेना का प्रमाण अपने-अपने सामानिक देवों की सेना से दूना-दूना होता है, जिसे लेकर वे सब आते हैं। इस तरह उपर्युक्त समस्त सेना और तीनों पारिषद देवों से वेष्टित सौधर्म इन्द्र शचि के साथ ऐरावत हाथी पर चढ़कर महामहोत्सव के साथ स्वर्ग से जिनेन्द्र के जन्मकल्याणक की निष्पत्ति के समय निकलता है। अनेक आयुधों से अलंकृत अङ्गरक्षक देव इन्द्र को वेष्टित किए हुए निकलते हैं। प्रतीन्द्र, सामानिक देव, त्रायस्ंित्रश देव एवं लोकपाल आदि अवशेष देव इन्द्र के साथ स्वर्ग से मेरु पर्वत की ओर आते हैं।
इन्द्र के ऐरावत हाथी का संक्षिप्त वर्णन :— आभियोग्य देवों का अधिपति नागदत्त नामक वाहन जाति का देव जम्बूद्वीप प्रमाण अर्थात् एक लाख योजन प्रमाण गोल देह की विक्रिया करके इन्द्र का ऐरावत हाथी बनता है। जो शङ्ख, चन्द्र और कुन्दपुष्प के समान धवल अलज्ररों, घण्टा, किंकणी, तारिकाओं (धवल बिन्दुओं) एवं स्वर्ण कक्षा अर्थात् हाथी के पेट पर बाँधने की रस्सी आदि से विभूषित, अत्यन्त सुन्दर, विक्रियारूप को धारण करने वाला तथा महा उन्नत होता है। उस हाथी के अनेक वर्णों से युक्त रमणीक बत्तीस मुख होते हैं। एक-एक मुख में कोमल, मोटे और लम्बे आठ-आठ दाँत होते हैं। (३२ मुख ² ८ = २५६ दाँत हुए)। एक-एक दाँत पर उठती हुई कल्लोलों से रमणीक एक-एक सरोवर होता है। (२५६ सरोवर हुए)। एक-एक सरोवर में एक-एक कमलिनी होती है। एक-एक कमलिनी पर एक-एक दिशा में मणियों की वेदिकाओं से अलंकृत एक-एक तोरण होता है, प्रत्येक कमलिनी के साथ प्रफुल्लित रहने वाले बत्तीस-बत्तीस कमल होते हैं (२५६ ² ३२ = ८१९२) कमल होंगे)। एक-एक कमल में एक-एक योजन पर्यन्त सुगन्ध फैलाने वाले बत्तीस-बत्तीस पत्र होते हैं—(८१९२ कमल ² ३२ =२६२१४४ पत्र हुए)। एक-एक पत्र पर दिव्य रूप को धारण करने वाले अतिमनोज्ञ बत्तीस नाटक (नाट्यशाला) होते हैं (२६२१४४ ² ३२ = ८३८८६०८) और एक-एक नाट्यशालाओं में दिव्यरूप को धारण करने वाली बत्तीस-बत्तीस अप्सराएँ नृत्य करती हैं (८३८८६०८ ² ३२ = २६८४३५४५६) अप्सराएँ)। जो अनेक प्रकार की विक्रिया धारण करके मृदङ्ग आदि वादित्रों द्वारा, नाना प्रकार के चरणविन्यास द्वारा, हाथरूपी पल्लवों द्वारा और कटितट आदि की लय के द्वारा आनन्दपूर्वक नृत्य करती हैं। ये समस्त सत्ताईस करोड़ अप्सराएँ, आठ महादेवियाँ और एक लाख वल्लभिकाएँ उस ऐरावत हाथी की पीठ पर चढ़कर उस जन्ममहोत्सव में जाते हैं।
विशेषार्थ :—वक्रिया धारण करने वाले ऐरावत हाथी के ३२ मुख और प्रत्येक मुख में आठ-आठ दाँत इत्यादि उपर्युक्त क्रम से मानने पर अप्सराओं की कुल संख्या छब्बीस करोड़ चौरासी लाख पैंतीस हजार चार सौ छप्पन (२६८४३५४५६) होती है किन्तु आचार्य इनकी संख्या सत्ताईस करोड़ लिख रहे हैं तथा अन्य आचार्यों के मतानुसार भी अप्सराओं की संख्या २७ करोड़ ही है। यथा :— इस ऐरावत हाथी के सौ मुख होते हैं। प्रत्येक मुख में आठ-आठ दाँत (१००²८=८००) होते हैं। प्रत्येक दाँत पर जल से भरे हुए सरोवर (८००) होते हैं। प्रत्येक सरोवरों में पच्चीस-पच्चीस नलिनी (८०० ² २५ = २०००) होती हैं। प्रत्येक नलिनी पर एक सौ पच्चीस कमल (२०००० ² १२५ = २५०००००) होते हैं। प्रत्येक कमल में एक सौ आठ, एक सौ आठ पत्र (२५००००० ² १०८ = २७०००००००) होते हैं और प्रत्येक पत्र पर एक-एक अप्सरा नृत्य करती है अतः कुल अप्सराओं की संख्या सत्ताईस करोड़ हैं। नोट—पृष्ठ २१५ श्लोक ५-७ के अनुसार :—४ मुख ² २ दन्त · ८ दन्त, प्रत्येक दाँत पर १०० सरोवर, ८ ² १०० · ८०० सरोवर, प्रत्येक सरोवर में २५ नलिनी, ८०० ² २५ = २०००० नलिनी, प्रत्येक नलिनी पर १२५ कमल, २०००० ² १२५ = २५००००० कमल, प्रत्येक कमल पर १०८ पत्र २५००००० ² १०८ = २७००००००० पत्र, प्रत्येक पत्र पर एक-एक अप्सरा अर्थात् कुल अप्सराएँ २७ करोड़ हैं।
ऐशान आदि अन्य इन्द्रों और अहमिन्द्रों आदि की स्थिति
अर्थ :— जिस प्रकार दक्षिणेन्द्र के सात अनीकों की संख्या का वर्णन किया है उसी प्रकार की संख्या आदि उत्तरेन्द्र के भी होती है। ऐशान इन्द्र भी दिव्य अश्वों पर चढ़कर अपने परिवार से अलंकृत होता हुआ, महाविभूति के साथ जन्माभिषेक में आता है। शेष सनत्कुमार इन्द्र आदि को लेकर अच्युत इन्द्र पर्यन्त के सभी देवेन्द्र सात अनीकों एवं तीन पारिषदों से वेष्टित, अपने-अपने वाहनरूपी विभूति का आश्रय लेकर समस्त देवों के साथ यहाँ आते हैं। भवनवासी, व्यंतरवासी और ज्योतिष्क देवों के इन्द्र भी सात अनीकों एवं तीन पारिषदों से वेष्टित होते हुए, अपने-अपने वाहन एवं विमान आदि पर चढ़कर महाविभूति से युक्त होते हुए अपनी-अपनी देवियों के साथ यहाँ आते हैं। समस्त अहमिन्द्र आसन कम्पायमान होने से जिनेन्द्र के जन्म उत्सव को जानकर और सात पैर आगे जाकर मस्तक से अपने स्थान पर स्थित होकर ही जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार करते हैं। इस प्रकार परम विभूति से युक्त होते हुए चतुर्निकाय के इन्द्र अपने समस्त देवों के साथ नाना प्रकार के देववादित्रों के शब्दों द्वारा दिशाओं को बहरी करते हुए तथा ध्वजा, छत्र, चामर और विमान आदि के साथ आकाशतल को व्याप्त करते हुए स्वर्ग से उस नगर में आते हैं, जहाँ तीर्थज्र्र की उत्पत्ति होती है।
बालतीर्थंकर के जन्माभिषेक आदि की प्रक्रिया वर्णन
अर्थ :— प्रभु के जन्म नगर में आकर इन्द्राणी प्रसूतिगृह में प्रवेश करके माता के समीप जाकर सर्वप्रथम बाल तीर्थज्र्र को प्रणाम करती है और उसी समय माता के समीप मायामयी बालक रखकर भगवान को उठाकर तथा गूढ़वृत्ति से लाकर सौधर्म इन्द्र के हाथों में दे देती है। वह इन्द्र भी उन तीर्थज्र्र प्रभु को प्रसन्नतापूर्वक प्रणाम करके एवं स्तुति करके महामहोत्सव के साथ मेरु पर्वत पर लाकर और मेरु की तीन प्रदक्षिणा देकर पाण्डुकशिला पर स्थित मध्य के सिंहासन पर प्रभु को विराजमान कर देता है। इसके बाद क्षीरसागर के क्षीर सदृश जल से भरे हुए आठ योजन (६४ मील) गहरे, एक योजन (८ मील) मुख विस्तार वाले, मोतियों की माला, कमल एवं चन्दन आदि से अलंकृत, अत्यन्त शोभायमान स्वर्ण के एक हजार आठ कलशों के द्वारा गीत, नृत्य एवं भ्रू उपक्षेपण (भ्रू उत्क्षेपण) आदि सैकड़ों महाउत्सवों के साथ उत्कृष्ट भक्ति एवं परम विभूति से सभी इन्द्र एकत्रित होकर जिनेन्द्र भगवान् को स्नान कराते हैं। भगवान् के ऊपर गिरने वाली वह महान् जल की धारा यदि कहीं उस पर्वत के ऊपर गिर जाय तो उस पर्वत के उसी क्षण सौ खण्ड हो जांय किन्तु अपरिमित महावीर्य को धारण करने वाले बाल जिनेन्द्र उन धाराओं के पतन को जलबिन्दु के समान मानते हैं। इस प्रकार शब्द करते हुए सैकड़ों वादित्रों और जय-जय आदि शब्दों के द्वारा शुद्ध जल का अभिषेक समाप्त करके अन्त में इन्द्र सुगन्धित द्रव्यों से मिश्रित, सुगन्धित जल से भरे हुए घड़ों के द्वारा सुगन्धित जल से अभिषेक करता है। पश्चात् उस गन्धोदक की अभिवन्दना करके महापूजा के लिए स्वर्ग से लाए हुए दिव्य गन्ध आदि द्रव्यों के द्वारा बाल जिनेन्द्र की पूजा करके इन्द्र अपनी इन्द्राणी एवं अन्य देवों के साथ उत्साहपूर्वक प्रणाम करते हैं। इसके बाद शची अनेक प्रकार के सुगन्धित द्रव्यों से, दिव्य वस्त्रों से और मणियों के आभूषणों से तीर्थेश का महान् शृङ्गार करती है। उस समय सौधर्म इन्द्र जगद्गुरु की महारूपस्वरूप सम्पदा को देखकर तृप्त नहीं होता और पुनः-पुनः देखने के लिए एक हजार नेत्र बनाता है। ततः उत्कृष्ट आनन्द से युक्त होता हुआ भगवान् की सैकड़ों स्तुतियाँ करता है अर्थात् सहस्रों प्रकार से भगवान् की स्तुति करता है। इसके बाद नगर में लाकर पिता को सौंप देता है, पश्चात् पितृगृह के प्राङ्गण में आनन्द नाम का नाटक करके तथा उत्कृष्ट पुण्य का उपार्जन करके इन्द्र एवं चतुर्निकाय के देव अपने-अपने स्थानों को वापिस चले जाते हैं।