(जिनागम का प्राण उसकी स्याद्वाद दृष्टि है, जिसके द्वारा सत्यामुत की उपलब्धि होती है। पुण्य कर्म और पाप कर्म दोनों आत्मा के मोक्ष गमन में बाधक हैं। सिद्ध भगवान दोनों का नाश करते हैं। दूसरी अपेक्षा से पुण्य और पाप में कथंचित् भिन्नता है। पाप कर्म जीव के गुण का घात करने से घातिया कहा गया है। पुण्य कर्म अधातिया है। सयोगीजन अरहंत भगवान घातिया कर्म का क्षय करते हैं। जब वे अयोग केवली नाम चौदहवें गुणस्थान को प्राप्त करते हैं, तब वे अघातिया का क्षय करते हैं। आत्मा के विकास के घातक प्रथम शत्रु पाप कर्म है। अत: आगम में पापक्षय को प्राथमिकता दी गई है। कानजी पंथ में पुण्य—सय की ही चर्चा होती है और पापक्षय के विषय में मौनवृत्ति रहती है। गृहस्थावस्था में निरन्तर कर्मों का आश्रव होता है। पुण्य का आस्रव होगा अथवा पाप का आस्रव हुए बिना न रहेगा।। कुन्दकुन्द स्वामी ने पाप के आस्रव निवारणार्थ अशुभ—भाव त्याग को अत्यन्त आवश्यक कहा है। अशुभभाव सर्वथा हेय हैं। पुण्यभाव कथंचित ्उपादेय है। पंचमकाल में शुभभाव का आलंबन लेना हितकारी कहा है। उससे पुण्य का आस्रव होता है। सम्यक्त्वी सातिशय पुण्य का ऐश्वर्य अभ्युदय का स्वामी हो अन्त में रत्न—त्रय पथ पर चलकर मोक्ष पाता है। हमारा कत्र्तव्य है कि घातिया कर्मरूप पाप के बंध से बचने का प्रयत्न करें। तीर्थंकर केवल भगवान के समवशरण की रचना, दिव्यध्वनि आदि सामग्री तीर्थंकर प्रकृति नाम के पुण्य कर्म के उदय का कार्य है अमृतचंद्र स्वामी ने पुण्र्य को कल्पवृक्ष कहा है। पुण्य का स्वरूप अनेकान्त के प्रकाश में अवगत करना चाहिये।) सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए नव पदार्थों का श्रद्धान आवश्यक कहा गया है। सप्त तत्त्वों में पुण्य तथा पाप को जोड़ देने पर नव पदार्थों हो जाते हैं। आठ कर्मों के घातिया तथा अघातिया रूप से दो भेद कहे गए हैं। घातिया शब्द सार्थक है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय तथा अंतराय इन चार धातिया कर्मों के द्वार जीव के अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख तथा अनंतवीर्यरूप अनंतचतुष्टय का घात होता है। अघातिया कर्मों के द्वारा आत्मगुणों का घात न होने से उन्हें अघातिय कहा जाता है। वेदनीय, आयु, नाम और गौत्र ये अघातिया कर्म हैं। सातावेदनीय, शुभ आयु, शुभनाम तथा उच्चगोत्र रूप कर्मों को पुण्य रूप अघातिया कहा जाता है। पुण्यकर्म घातिया नहीं है।चार घातिया तथा असाता वेदनीय, अशुभ आयु अशुभनाम तथा नीच गोत्र ये अघातिया पापकर्म हैं। अघातिया चतुष्टय की शुभ प्रकृतियाँ पुण्य हैं तथा सम्पूर्ण घातिया और अशुभ रूप अघातिया पापकर्म हैं। वास्तव में कर्म चाहे घातिया हो, चाहे अघातिया हो पुण्य हो अथवा पाप हो, जीव को सिद्धावस्था पाने में बाधक हैं। सिद्धचक्र को प्रणांमाजलि अर्पित हुए उन्हें कर्माष्टक रहित कहा है:—
पंचनमस्कार मंत्र में ‘‘णमो सिद्धाणं’’ पाठ पढ़ते समय साधक पुण्य—पाप रूप कर्मराशि विमुक्त सिद्धों को प्रणाम करता है। शुद्धात्मा की अवस्था प्राप्ति के लिए सभी बन्धनों का क्षय आवश्यक है। कुन्दकुन्द स्वामी ने समयसार में कहा है—
सौवण्णियं पि णियलं, बंधदि कालायसं वि जह पुरिसं। बंधदि एवं जीवं, सुहमसुहं वा कदं कम्मं।।१४६।।
जैसे सोने की तथा लोहे की बेडियाँ पुरुष को बाँधती हैं, उस प्रकार शुभ तथा अशुभ कर्म जीव को बंधन प्रदान करते हैं। जिन शासन में कर्मपने की अपेक्षा अघातिया, घातिया अथवा पुण्य पाप में समानता होते हुए भी उनमें कथंचित् भिन्नता, असमानता भी है। बगुला और हँस दोनों का रंग शुभ्र हैं, दोनों पर्याय पर्याय वाले हैं किन्तु उनमें उनके गुणों की अपेक्षा भिन्नता भी है। कहावत है—
आचार्य अकलंक ने एकांतवादी को ओर से कही गई शंका का निराकरण राजवर्तिक में किया है, कि आत्मा को परतन्त्र बनाने से पुण्य पाप में सर्वथाय अभेद है। ‘‘इष्टानिष्ट निमित्त भेदात्तत्सिद्धे:। यदिष्ट—गति—जाति—शरीरेन्द्रिय विषयादि निवर्तकं तत्पुण्यं। अनिएट—गति—जाति—शरीरेन्द्रिय विएयादि निवर्तक यत्तत्पाप मित्यनयोरयं भेद: (सूत्र ३ अध्याय ६) इष्ट तथा अनिष्ट रूप निमित्त की भिन्नता की अपेक्षा पुण्य तथा पाप में भेद सिद्ध होता है। जो इष्ट गति, जाति, शरीर, इन्द्रिय विषयादि का कारण है, वह पाप है; इस प्रकार इन दोनों में भेद है। इस प्रकार एक दृष्टि से पुण्य—पाप समान हैं, दूसरी दृष्टि से उनमें भिन्नता है। अमृतचन्द्र सूरि ने तत्त्वार्थसार में आस्रवतत्त्व वर्णन अधिकार में कहा है—
हेतु तथा कार्य की भिन्नता होने से पुण्य तथा पापं भिन्नता है। शुभभाव कारण तथा सुखरूप फल एवं अशुभाभावरूप कारण तथा दु:ख रूप फल पुण्य पाप में भिन्नता को बताते हैं। जीव के मुख्य शत्रु घातिया कर्म हैं, उनमें मुख्य मोहनीयकर्म है। णमो अहिरंताणं पाठ में जिन अरहंत भगवान को नमस्कार किया गया है, उन्होंने चार घातिया कर्मों का नाश कर अरहंत पद प्राप्त किया है। नियमसार में कुन्द स्वामी ने कहा है—
घणघादि—कम्म रहिया केवल णाणाइ परमगुण सहिया।
चौत्तिस आदिसय जुत्ता अरिहंत एरिसा होंति।।७१।।
जिन्होंने अत्यन्त सघन रूप ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय तथा अंतराय रूप घातिया का नाश किया है, तथा जो केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलसुख, केवलशक्ति युक्त हैं और जिनके ३४ अतिशय पाये जाते हैं, उनको अरहंत कहते हैं। आठों कर्म आत्मा की स्वात्मोपलब्धि रूप सिद्धावस्था के बाधक होने से शत्रु हैं; किन्तु उनमें सर्वप्रथम शत्रु (Eहास्ब् हल्स्ंी दहा) घातिया कर्म है। इसी कारण आचार्य समन्तभद्र ने गृहस्थों को मार्गदर्शन करते हुए अपने रत्नकरण्डक श्रावकाचार में कहा है, ‘‘पापं अराति:।’’ १४८। पापकर्म शत्रु हैं। शुक्लध्यानी शुद्धोपयोग केवलज्ञानी अरहंत भगवान त्रेयठ कर्म प्रकृतियों का नाश करते हैं। उनमें सैतालीस पाप प्रकृति घातिया कर्म सम्बन्धी रहती हैंं। तद्भाव मोक्षगामी होने से मनुष्य आयु को छोड़ कर शेष तीन आयु का अयत्न साध्य अभाव होता है। अघातिया कर्म की शेष त्रयोदश प्रकृतियों का क्षय होता है, उनमें नरकद्धिक् तिर्यंचद्विव्, एकेन्द्री आदि चतुष्टय, साधारण, सूक्ष्म स्थावर ये ग्यारह पाप प्रकृतियाँ हैं। इनका क्षय होने पर केवली होते हैं। अयोग केवली अवस्था प्राप्त होने पर मोक्ष प्राप्ति के उपान्त्य समय बहत्तर प्रकृतियों का तथा अन्त समय त्रयोदश प्रकृतियों का इस प्रकार ८५ प्रकृतियों का क्षय होता है। इसमें तीर्थंकर प्रकृति सदृश पुण्य प्रकृति का भी नाश होता है।
महत्व की बात
सयोग केवली का उत्कृष्ट काल देशोन एक कोटि पूर्व वर्ष कहा है। उतने काल तक भी जब सर्वज्ञ, अनन्त शक्ति सम्पन्न केवली तीर्थंकर उच्चगोत्रादि पुण्य प्रकृतियों का क्षय नहीं कर पाते, तब गृहस्थ के द्वारा वह महान कार्य सम्पन्न होना सर्वथा असम्भव है। जैसे सातवें नरक का नारकी वहाँ से कर्म क्षयकर सिद्ध होने में असमर्थ, उसी प्रकार गृहस्थावस्था वाला व्यक्ति अयोग केवली नामक चौंदहवें गुणस्थान वाली आत्मा की बराबरी करने में असमर्थ है। जिस जीव के बंध के कारण मिथ्यात्व रागादि भाव होंगे, उसके बन्ध अवश्य होगा। समयसार में बन्ध के कारणों को इस प्रकार बताया है—
सामण्ण पच्चया खलु चउरो भण्णंति बंधकत्तारो।
मिच्छत्तं अविरमणं कसायजोगा या बोद्धव्वा।।१०९।।
सामान्य रूप से मिथ्यात्व, अविरति, कषाय तथा योग में चार बन्ध के कारण कहे गये हैं जिसके मिथ्यात्व दूर हो गया है, ऐसा चतुर्थ गुण स्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि अविरति, द्वादश कषाय तथ योग के कारण निरन्तर बन्ध को प्राप्त करता है। किन्हीं की ऐसी समझ है, कि सम्यग्दर्शन होते ही बन्ध नहीं होता; किन्तु यह धारणा साधारण सर्वज्ञ प्रणीत आगस के विरुद्ध है। जो सम्यग्दृष्टि राग, द्वेष मोह रहित ही सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान से आगे जाकरउपरांत मोह या क्षीणमोह अवस्था के ग्याहरवें या बारहवें गुणस्थान को प्राप्त करता है, उसके बन्ध का अभाव आगम में माना जाता है।
स्मरणीय बात है
आगम का पूर्णरूप परिशीलन किए बिना जो निर्णय किया जाता है, वह मिथ्या रहता है। कोई कोई समयसार की इस गाथा को पढ़कर कहते हैं, सम्यक्त्वी के बन्य नहीं होता—
णत्थि दु आसव बन्धो सम्मादिट्ठिस्स आसवणिरोहो।।१६६।।
सम्यकत्वी के आश्रव बन्ध नहीं होते। उसके आस्रव का निरोध होता है। यहाँ यह प्रश्न उत्पन्न होता है। चौथे गुणस्थान वाला भी सम्यक्त्वी है, अन्तरात्मा है,और क्षीण कषाय वाल भी सम्यक्त्वी है, अन्तरात्मा है। सम्यक्त्वी दोनों हैं। सरागी होने से चौथे से लेकर दशम गुण स्थान पर्यंत सम्यक्त्वी के बन्ध होता है। क्षीणकषाय वाला वीतराग होने से बन्ध रहित माना गया है। इस बात का स्पष्ट अवबोध इस गाथा द्वारा होता है।
रागो दोसो मोहो य आसवा णत्थि सभ्मादिट्ठिस्स।
तह्मा आसवभावेण विणा हेदू ण पच्चया होंति।।१७७।।
सम्यग्दृष्टि के राग, द्वेष, मोहरूप आस्रव नहीं है, अत: उसके आस्रव का अभाव हो जाने से कारण का अभाव हाने से कार्यरूप बन्ध नहीं होता है। समयसार में कहा है कि ऐसा एकान्त नहीं है, कि सम्यक्त्वी के सर्वथा बन्ध नहीं होता। ‘‘यथाख्यात चारित्रावस्थया अध स्तादवश्यं—भावि राग सद्भावात् बन्ध हेतु रेव स्यात्’’ (गाथा १७१ की टीका)—यथाख्यात चारित्र रूप अवस्था से नीचे अर्थात् दशम गुण स्थान पर्यंत नियम से राग भाव का सद्भाव होने से सम्यक्त्वी का जघन्य ज्ञान गुण बन्ध का हेतु कहा गया है। आगे की गाथा में कुन्दकुन्द स्वामी विशेष रूप से स्पष्टीकरण करते हैं—
दंसण—णाण—चरित्तं जं परिणमदे जहण्णभावेण।।
णाणीतेण दु बज्झदि पुग्गलकम्मेण विविहेण।।१७२।।
ज्ञान, दर्शन चारित्र का जघन्य रूप से परिणमन होने पर ज्ञानी के विविध प्रकार का पुद्गल कर्म के साथ बन्ध होता है। षट्खंडागम सूत्र के खुद्दाबन्ध खण्ड में कहा है, ‘‘सम्मादिट्ठि बन्धावि अत्थि अबंघा वि अत्थि’’ (२/१/३६)—सयोग केवली पर्यत बन्ध होता है। आयोगी जिनकी आपेक्षा सम्यक्दृष्टि अवन्धक है। जहाँ लोग अविरत सम्यक्त्वी के बन्ध का अभाव सिद्ध करते हैं, वहाँ भूतबलि स्वामी खुद्दाबंध में लिखते हैं, ‘‘केवलीणाणी बन्धावि अत्थि, अबन्धावि अत्थि’ (२/१/२३)—सयोग केवली रूप केवल ज्ञानी बन्धक हैं, अयोग केवली रूप केवल ज्ञानी अबन्धक है। इस विवेचन से यह बात स्पष्ट होती है, कि जैन शास्त्रों के रहस्य को समझने के लिए स्याद्वाद दृष्टि को नहीं भुलाना चाहिए, अन्यथा मुसीबत में फंसना पड़ता है। यह कथन ध्यान देने योग्य है कि पंचमकाल में धर्म ध्यान रूप शुभभाव होता है, शुक्लध्यान रूप शुद्ध भाव की सामग्री का अभाव है। धर्म ध्यान रूप शुद्ध की सामग्री का अभाव है। धर्म ध्यान रूप शुभभाव होने पर पुण्य का बन्ध होता है। गेहूँ का बीज बोने वाला यह कहे कि हम इक्षु रूप फल चाहते हैं, तो ऐसी इच्छा होने मात्र से गेंहूँ का बीज इक्षुरूप में नहीं बदल जाएगा। इसी प्रकार यदि शुभभाव रूप बीज है, तो पुण्य रूप फल प्राप्त हुए बिना नहीं रहेगा। इच्छानुसार परिवर्तन नहीं होगा। कदाचित् पुण्य बन्ध से बचने के लिये शुभभाव का परित्याग किया, तो अशुभ भाव अर्थात आर्तध्यान, रौद्रध्यान रूप संक्लेश परिणामों के कारण पाप का बन्ध ही होगा। प्रवचनसार में कहा है—
सुहपरिणामो पुण्णं असुहो पावत्ति भणिमण्णेसु।
परिणामों णण्णगदो दुक्कखक्खय कारणं समये।।१८१।।
शुभ परिणाम के शुभबन्ध होता है, अशुभ भाव से पाप का बन्ध होता है। अनन्यगत (शुद्ध) परिणाम द्वारा दु:ख क्षय होता है, ऐसा आगम में कहा है। टीकाकार अमृतचन्द्र सूरि कहते है ‘‘तत्र पुण्य पुद्गल बंध कारणत्वात् शुभ परिणाम:पुण्य्।पाप पुद्गल बंध कारणत्वाद—शुभ परिणाम: पापम्’’—पुण्यरूप पुद्गल बन्ध का कारण होने से अशुभ भाव को पाप कहा गया है। गृहस्थ के शुक्ल ध्यान का रूप शुद्ध भव असम्भाव है। उसके शुभभाव हो सकता है, नही तो अशुभभाव अनादि अविद्याभ्यास के कारण हुआ ही करता है। जिस गृहस्थ ने परमागम के रहस्य का सम्यक बोध प्राप्त न कर वीतराग श्रेष्ठ मुनियों के द्वारा त्यागने योग्य पुण्यं छोड़ने का पथ पकड़ लिया, वह व्यक्ति अशुभ भाव के फलस्वरूप अपार कष्ट जाल में फसे बिना नहीं रहेगा। स्पष्टीकरण— पंचास्तिकाय की गाथा १०८ की टीका में जयसेनाचार्य ने पुण्य—पाप के विषय को इस प्रकार स्पष्ट किया है, ‘‘दान पूजा षडावश्यकादि रूपी जीवस्य परिणामो भावपुण्य नितित्तेनोत्पन: सद्वेद्यादि शुभ प्रकृति रूप: पुद् गल परमाणु पिंडो द्रव्य पुण्यं। मिथ्यात्व—रागादिरूपो जीवस्या शुभ परिणामो भाव पापं; तन्निमित्तेन असद्वेद्याद्य शुभप्रकृति रूप पुद् गल पिंडो द्रव्य पापं’’—दानं, पूजा, स्वाध्याय, संयम , गुरुपासना तथ तप रूप छह आवश्यक रूपी जीव के परिणाम भाव पुण्य है के निमित्त से उत्पन्न जीव के साता वेदनीय, शुभ आयु शुभनाम शुभगोत्र रूप शुभप्रकृति रूप पुद् गल परमाणु पिंड द्रव्य पुण्य है। मिथ्यात्व रागद्वेष आदि रूप जीव के अशुभ परिणाम भाव पाप हैं भाव पाप है। भाव पाप के निमित्त से असातावेदनीय, नींच—गोत्र, नरकायु, अशुभनाम प्रकृति रूप पुद्गल पिड़ द्रव्य पाप है’’जिस गृहस्थ ने पुण्य के कारण का परित्याग कर दिया, उसका क्या परिणाम होगा, मार्मिक बात:— इस विषय में श्री वामदेव रचित भावसंग्रह में इस प्रकार कथन आया है।
षट्कर्मभि: किस्माकं पुण्य साधन कारणैं:।
पुण्यात्प्रजायते बंधो बंधात्संसारता यत:।।६०३।।
एकान्तवादी कहता है, हमें ‘‘हमें पुण्य साधक देवपूजा गुरुपास्ति (गुरुभक्ति) संयम, तप, दान स्वाघ्याय रूप षट् कर्मों से लाभ है? पुण्यासाधक सामग्री से पुण्य का बन्ध होने से संसारता होती है और बन्ध होने से संसारता होती है।
अवलम्बन रहित ध्यान के योग से हम अपनी आत्मा का चिंतन करेंगे, जिससे बन्ध का क्षय कर मोक्ष पावेंगे। निरालंबन शुद्ध आत्मा का ध्यान इस काल में मुनियों को भी सम्भव नहीं है। गृहस्थ मूर्ति आदि के समक्ष ध्यान करता है, तो मन बाहर चक्कर लगाता है। कवि की वाणी सत्य है—
माला तो कर में फिरै जीभ फिरै मुँह माहि। मनुआ फिरै बजार में कैसे सुमरन पाँहि।
गृहस्थी के कार्यों में लगा व्यक् ित जब शृद्ध आत्मा का चिंतवन करने को उद्यत होता है, तब सदा भावना किए गए लौकिक कार्य कलाप चित्त के समक्ष आ जाया करते हैं। चेतावती—दान, पूजा, व्रत आदि पुण्य सम्पादक सामग्री का त्याग करने वाला पापप्रद कार्यों में उलझा रहता है; उससे वह आत्मपतन की सामग्री का संचय करता है।
त्यक्त पुण्यस्य जीवस्य पापास्रवो भवेद् ध्रुवम्।
पापबंधों भवेत्तस्मात् पापबंधाच्च दुर्गति:।।६११।।
पुण्य सम्पादक सामग्री का परित्याग करने वाले जीव के निरन्तर पाप का आस्रव होगा। आस्रव रहित अवस्था आयोग केवली भगवान के होती है। पापास्रव से पापकर्म का बन्ध होता है। पापबन्ध के कारण कुगति प्राप्त होती है। कुन्दकुन्द स्वामी ने प्रवचनसार में कहा है कि धर्म से परिणत आत्मा का जब शुभोपयोग रूप परिणमन होता है, तब पुण्य बन्ध के फलस्वरूप जलव स्वर्ग गमन करता है तथा श ुद्धोपयोगी श्रमण मोक्ष करता है। शुभापयोगी को धर्म परिणत आत्मा माना गया है। कहा भी है—
धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धकसंपओगजुदो।
पावदि णित्वाणसुहं सुहोवजुत्तो य सग्गसुहं।।११।।
चारित्र रूप धर्म परिणत आत्मा जब शुद्धोपयोगी होता है, तब निर्वाण सुख प्राप्त होता है। जब धर्म परिणत आत्मा शुभोपयोग परिणत होता है, तब स्वर्ग सुख पाता है।
पुण्य बंध के कारण
रागो जस्स पसत्थो अणुकंपा संसिदो य परिणामो।
चित्ते णत्थि कलुस्सं प ण्णं जीवस्य आसवदि।।१३५।।
धर्म परिणत सम्यक्त्वी जीव किन कार्यों से पुण्य को बाँधता है, इस विषय में पंचास्तिकाय में कहा है— जसके अर्हंत, सिद्ध, साधु में भक्तिरूप प्रशस्तराग है, जिसके परिणामों में दीन, दु:खी जीवों के प्रति करुणा अनुकम्पा है, तथा क्रोध, मान, माया, लोभ द्वारा जिसकी आत्मा में होने वाली कलुषता दूर हो गई है, ऐसे जीव के पुण्य का आस्रव होता है।
पाप के कारण
पापास्रव के कारणभूत अशुभ परिणामों का स्वरूप कुन्दकुन्द स्वामी ने इस प्रकार स्पष्ट किया है—
सण्णाओ य तिलेस्सा इंदियवसदा च अट्टरद्दाणि। णाणं च दुप्पउत्तं मोहो पावप्पदा होंति।।१४०।।
तीव्र मोहोदय जनित आहार, भय, मैथुन तथा परिग्रह रूप संज्ञा (विषयाभिलाषा) कृष्ण, नील, कापोत लेश्या, कषाय, की वृद्धि होने से इंदियों की दास वृत्ति, आर्तध्यान, रौद्रध्यान; दुष्ट कार्यों में ज्ञान की प्रवृत्ति होना तथा अविवेकपना रूप मोह से पाप का आस्रव होता है। अशुभोपयोग में धर्म का लेश भी नहीं पाया जाता है। धर्म विमुख तथा सत्कार्यों से दूर होकर हीन आचार तथा विचार वाला मरकर कहाँ जाता है, इस विषय में प्रवचनसार में कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं—
असुहोदयेण आदा कुणरो तिरियो भवीय णेरइयो।
दु:ख सहस्सेहिं सदा अभिंधुदो भमदि अच्चंतं।।
अशुभोपयोग के फलस्वरूप जीव कुमनुष्य, पशु नारकी होकर हजारों व्यथाओं से पीड़ित होता हुआ संसार में निरन्तर भ्रमण करता है। विशेष कथन:—भाव संग्रह में देवसेन आचार्य ने एक विशेष बात लिखी है——
परमागम में पूर्वोचार्यो ने दो प्रकार का पुण्य कहा है; एक मिथ्यात्वी द्वारा संचित, दूसरा सम्यक् त्वी द्वारा संचित, पुण्य दूसरा सम्यक्त्वी द्वारा संचित पुण्य। मिथ्यादृष्टि का पुण्य संसार परिभ्रमण का हेतु है कहा भी है—
कुच्छिमभोए दाउं पुणरवि पाडेई संसारे।।४०२।।
पुण्य मिथ्यात्वी को कुत्सित भोग प्रदान कर पुन: संसार में गिरा देता है। सम्यक्त्वी का पुण्य:— सम्यक्त्वी जी का पुण्य कैसा होता है, इसे कहते हैं—
सम्मादिट्ठी पुण्णं ण होई संसारकारणं णियमा।
मोक्खस्स होई हेउं जइवि णियाणं ण सो कुणई।।४०४।।
सम्यक् त्वी का पुण्य संसार का कारण नहीं होता है। यदिवह दिना नहीं करता है, तो वह पुण्य परम्परा से मोक्ष का हेतु होता है। तीर्थंकर भगवान को सर्वप्रथम आहार देने वाला ऐसी अलौकिक पुण्य सम्पत्ति का स्वामी होता है, कि वह उस भव में अथवा तीसरे भव में मोक्ष प्राप्त करता है। जहाँ मिथ्यात्वी जीव संचित पुण के फल से वैभव धनादि को पाकर मान कषाय के आधीन हो अनर्थ पूर्ण कार्यों को करने तथा अनय पाप सम्पादक प्रवृत्तियों में लगकर आगे कुगति में जाता है, वहाँ सम्यग्दृष्टि जीव समृद्धि वैभव को पाकर उसका उपयोग रत्नत्रय पोषक कार्यों में लगाता हुआ अभ्यदयों को प्राप्त करता हुआ साक्षात तीर्थंकर आदि समागम पाकर भोगों से विरक्त हो चक्रवर्ती भरत महाराज के समान मुनि अवस्था को प्राप्त करता है तथा साम्यभाव के प्रसाद से मुक्ति श्री का स्वामी बनता है। शंका— पुण्य कर्म का भेद है। कर्म आत्मा का शत्रु अत: मोक्ष—मार्ग में पुण्य का कोई भी उपयोग नहीं हो सकता। आत्म पौरुष के द्वारा जीव मोक्ष की स्थिति को प्राप्त करता है। समाधान— पुण्य के विषय में अनेकांत दृष्टि से काम लेना होगा। पुण्य अनात्म वस्तु है, उसमें आत्महित नहीं हो सकता यह बात एक अपेक्षा से ठीक है। दूसरी दृष्टि से मोक्ष के लिए पुण्य की भी आवश्यकता है। एक उदाहरण है——एक लकड़हारे को जंगल काटना था। कुल्हाड़ी उसने प्राप्त कर ली, किन्तु कुल्हाड़ी के बैंट के लिए लकड़ी आवश्यक थी। उसने जंगल के वृक्षों से कहा, आपके पास काष्ठ का अक्षय भंडार है। मुझ गरीब को एक छोटी सी लकड़ी देने की कृपा करें। उसकी प्रार्थना पर एक वृक्ष ने लकड़ी का टुकड़ा दे दिया। उस काष्ठ का संयोग पाकर लकड़हारे ने सारा जंगल समाप्त कर दिया। इसी प्रकार मोक्ष हेतु मनुष्यायु, उच्चगोत्र, वङ्का बृषभनाराच संहनन युक्त शरीर तथा सातावेदनीय रूप पुण्य कर्म जरूरी है। आज पंचमकाल में यदि वङ्का वृषभनाराच संहनन रूप सामग्री मिल जाती, तो पुरुषार्थी वीतराग मुनिराज शुक्लध्यान तथा शुद्धोपयोग द्वारा कर्मों का नाशकर मोक्ष गए बिना न रहते। इससे पुण्य कर्म को कथंचित् उपादेय, कथंचित् अनुपादेय मानना उचित है। मुनिराज सब परिग्रह का त्यागकर तथा पुण्योदय से प्रदत्त सामग्री त्यागकर रत्नत्रय धर्म की साधना करते हैं। गृहस्थ की स्थिति दूसरी है। उसका मन भोगों तथा विषय वासना में फसा है; उसका सारा सामय प्राय: धन संचय तथा इंद्रियों की तृप्ति करने के कार्यों में लगता है। यदि उसके पास पूर्व संचित पुण्य का भण्डार है, तो अल्प प्रयत्न द्वारा उसको काम्य सामग्री प्राप्त हो जाया करती है। कदाचित पुण्य की सामग्री नहीं है, तो दिन रात श्रम करने पर भी वह आवश्यक सामग्री नहीं नहीं है, जिसके पास पुण्य है, वह सर्वत्र सुरक्षित रहा करता है। आचार्य करते हैं—
वने रणे शत्रु जलाग्नि मध्ये महार्णवे पर्वत मस्तके वा।
सुप्तं प्रमत्तं विषमस्थितं वा रक्षयन्ति पुण्यानि पुरा कृतानि।।
वन में युद्ध में शत्रु, जल, अग्नि, से धिर जाने पर, महासमुद्र में पर्वत के शिखर पर, सोते हुये, प्रमत्त दशा में, विकट परिस्थिति में पूर्व संचित पुण्य राशि रक्षा करती है। चारित्र मोहोदय से महाव्रती बनने में असमर्थ गृहस्थ को आगम में ऐसा मार्ग बताया है कि उसका आश्रय लेने से वह अम्युदयों का स्वामी होते हुए क्रमश: आत्मविकास की साधना सामग्री भी प्राप्त कर लेता है; तथा अनुकूल सामग्री पाकर वह वीतराग मुनि होकर शुक्लध्यान रूपी प्रचण्ड अग्नि में पुण्य—पाप सभी कर्मों को भस्म कर मोक्ष प्राप्त करता है। कर्मों के विनाश का यथार्थ मार्ग ध्यान है। उस ध्यान की उज्ज्वलता पर आत्मा का विकास निर्भर है। जयधवला टीका में वीरसेन स्वामी ने कुन्दकुन्द स्वामी की यह गाथा रयणसार से उद् धृत की है—
णाणेण झाणसिद्धी झाणादो सव्वकम्मणिज्जरणं।
णिज्जर फलं च मोक्खं णाणाब्भा सं तदो कुज्जा।।१५७।।
ज्ञान द्वारा ध्यान की सिद्ध होती है; ध्यान से सम्पूर्ण कर्मों की निर्जरा होती है, निर्जरा का फल मोक्ष है, अत: ज्ञानाभ्यास करना चाहिए। जिस आत्मा को पुण्य का नाश करना है उसे शुक्ल ध्यान रूपी अग्नि प्रज्वलित करनी होगी। पंचास्किाय में कहा है।—
जस्स ण विज्जदि रागो दोसो मोहो व जोग परिकम्मो।
तस्स सुहासुह डह्णो झाणमओ जायए अगणी।।१४६।।
जिसके राग, द्वेष, मोह का अभाव हो गया है; जिसके योगों का निरोध हो चुका है, उसके शुभ तथा अशुभ एवं पाप का नाश करने वाली ध्यानमयी अग्नि प्रदीप्त होती है। ऐसी अग्नि चौदहवें गुण स्थान में प्राप्त होती है। ऐसी अग्नि चौदहवें गुणस्थान में प्राप्त होती है।
पाप परित्याग की आवश्यकता— चोरी, जुआ, सुरापान, वेश्यासेवन, परस्त्री सेवन, शिकार खेलना तथा मांस भक्षण रूप सप्तव्यसन रत व्यक्ति का मलिन मन, आत्मा का ध्यान तो दूर की बात है, सामायिक करने की भी सामथ्र्य रहित हो जाता है। एकान्तवादी जिन पद्मनंदि आचार्य की सिद्ध पूजा को बड़े प्रेम और आदरभाव से पढ़ता है, उन महर्षि ने पद्मनंदि पंच विंशतिका में कहा है—
सामायि न जायेत् व्यसन म्लानचेतस:। श्रावकेण तत: साक्षात्त्याज्य: व्यसन सप्तकम्।।
व्यसनों से मलिन चित्त व्यद्भि के सामाजिक (आत्मचिंयन) नहीं होता है; अत: श्रावक को सप्त व्यसनों का त्याग करना चाहिए। सूक्ष्मता से विचार किया जाय, तो कहना होगा जैनधर्म की आचार शुद्धि का मूल लक्ष्य मनोशुक्ति के लिए सामग्री प्रस्तुत करना है। कुन्दकुन्द स्वामी ने प्रवचन सार में कहा है
किदिगम्बर श्रमण हुए बिना सम्पूर्ण दु:खों का क्षय नहीं होता।
पडिवज्जदु सामण्णं यदि इच्छदि दुक्ख परिमोक्खं।।२०१।।
यदि दु:ख से पूर्णतया छुटकारा पाना चाहते हो तो श्रमणा पद (मुनिपना) को स्वीकार करो। गृहस्थ जीवन का ईमानदारी तथा बारीकी के साथ अन्त: परीक्षण किया जाय, तो कहना होगा, कि वहाँ यर्थाथ हित सम्पादन सम्भव नहीं है। शास्त्र में कहा है—
प्रतिक्षणं द्वद्वशर्ता चेतसां तथा दुराशाग्रह पीडितात्मनाम्।
गृहस्थ की अवस्था में मानव सच्चा आत्महित सम्पादन नहीं पाता है। प्रतिक्षण हजारों प्रकार की चिन्तायें पीड़ा देती रहती हैं, दुराशारूप कुग्रह व्यथा दिया करता है। स्त्री के नयन मोह वर्धक सामग्री गृहस्थ को घेरे रहती है। आत्मस्वरूप का चिंतवन करने की उपयुक्त सामग्री के अभाव में आत्मध्यान की चर्चा आकाश के पुष्पों की माला बनाने की मधुर किन्तु विवेकविहीन कल्पना मात्र है। ध्यान की सामग्री:—तत्वानुशासन में कहा है—
संग त्याग: कषायाणां निग्रहो व्रत धारणं। मनोक्षाणां जयश्चेति सामग्री ध्यान जन्मने।।७५।।
सम्पूर्ण परिग्रहों का त्याग करना, क्रोधादि कषायों का दमन करना, व्रतों का धारण करना, मन तथा इन्द्रियों को वश में करना ध्यान धारण करने की सामग्री है।
ज्ञान वैराग्य रज्जूभ्यां वर्तिन
जित चित्तेन शक्यन्ते धर्तुमिन्द्रिय वाजिन: ।।७७।।
जिसने अपने मन को वश में कर लिया है, वह सदा कुमार्ग गामी इन्द्रिय रूपी घोड़ों को ज्ञान तथा वैराग्य रूपी रस्सियों द्वारा नियंत्रण में रख सकता है। उपयोगी शिक्षा—गृहस्थ अपनी मर्यादा, असमर्थता तथा पात्रता का ध्यान न कर पंचमकाल के धर्मध्यान रूप शुभभाव धारण करने की योग्यता सम्पन्न मुनियों से भी आगे बढ़कर पुण्य क्षय की कल्पना करता हुआ धर्माचरण की गंगा में अपने मन को स्नान न कराके पाप रूपी वैतरिणी में गोता लगाता है तथा शान्ति के पथ से सुदूर होता है। अध्यात्म विद्या के पारदर्शी महर्षियों ने जीवन शोधन हेतु पाप परित्याग का सर्वप्रथम उपदेश दिया है। मानव का कत्र्तव्य है, कि वह अपने गौरवपूर्ण नाम के अनुरूप पापरूपी अग्निदाह से स्वयं का रक्षण करे। महान विद्वान् बनने की आकांक्षा रखने वाला सर्वप्रथम शिशु वर्ग की कक्षा में अभ्यास करता है। जिन्होंने संयम तथा आत्मदर्शन द्वारा अपनी आत्मा को समलंकृत है, उन मुनिजनों के चरणों की अपने मनोमन्दिर में पूजा करता हुआ जो गृहस्थ पाप प्रवृत्ति का त्याग करता है, तथा जिनेन्द्र की भक्ति गंगा में डुबकी लगाकर मन को स्वच्छ बनाता है, वह सच्चा मुमुक्षु बनकर आत्मविकास के पथ पर प्रगति करता है। गृहस्थ के कर्मों का आश्रव सदा होता है तथा होता रहेगा। यदि पापप्रवृत्ति का त्याग हुआ, तो पाप का ना तो पुण्य का आस्रव होगा। तथा संचित पापराशि का क्षय होगा। कदाचित पापाचार का पथ पकड़ा तो पुण्यास्रव बन्द हो जायेगा, तब वह पाप का उदय आने पर नरक में कष्ट पायेगा। जैन धर्म में किसी भी जीव को रियासत नहीं दी गई है। आगामी महापद्म तीर्थंकर हाने वाले क्षायिक सम्यक्त्वी महाराज श्रेणिक का जीव पूर्व में मुनि के गले में सर्प डालने की पाप प्रवृत्ति के कारण नरक में कष्ट भोग रहा है। ऐसी स्थिति में श्रावक को सर्वज्ञ शासन में प्रगाढ़ श्रद्धा धारण कर पूजा आदि छह आवश्यक कर्मों के द्वारा नरभव सफल करने की दिशा में पूर्णतया उद्यत रहना चाहिए। सत्पथ— समन्तभद्र स्वामी ने महत्वपूर्ण मार्गदर्शन किया है। गृहस्थ सम्पत्ति के पीछे चक्कर लगाता फिरता है। यदि उसने अहिंस, सत्य, ब्रह्मचर्य, अचौर्य तथा परिग्रह का रास्ता पकड़ा तो गरीब होते हुए भी वह समृद्धि के शिखर पर पहँुचेगा। ऐसा न कर यदि चोरी, हिंसा, बेईमानी, दुराचर की प्रवृत्ति में वह लगा, तो पास की सम्पत्ति का क्षय होकर वह दु:ख की ज्वाला में स्वयं को भस्म कर देगा। जैनधर्म स्याद्वादी है। गृहस्थ का कत्र्तव्य है कि वह पाप परित्याग के पथ का पथिक बने। सर्वोदय तीर्थ के प्रणेता जिनेश्वर का कथन है कि दुगति में पतनकारी पाप पृवत्तियों से अपनी रक्षा करे ओर दान पूजादि सत्प्रवृतियों का आश्रय ग्रहण करे। निष्कर्ष— इस काल में तद्भामोक्षगामी चरमशरीरी मनुष्य नहीं होते। शुक्लध्यान रूप शुदभाव ही हो सकेगा। भावलिंगी महामुनि इस काल में सातवें गुणस्थान से ऊपर नहीं पहुँच पाते हैं। उनके कर्मों का आस्तव होता रहता है। वे मिथ्यात्व और अविरति रूप आस्रव के कारण रहित है, किन्तु प्रमाद, कषाय तथा योग—जनित उनके कर्मों का आगमन नहीं रुक सकता। असंयमी सम्यक्त्वी गृहस्थ के अविरति आदि जनित आस्रव हो जाता है। श्रुत केवली भद्रबाहुस्वामी भी चरमशरीरी न होने से धर्मध्यान द्वारा पुण्य का संचय कर देवगति को प्राप्त हुए। इस विषय में तत्त्वानुशासन का कथन ध्यान देने योग्य है।
अचरमशरीरी सदा ध्यान के अभ्यासी योगी के अशुभ कर्मों की निर्जरा तथा संवर होता रहता है।
आस्रवंति च पुण्यानि प्रचुराणि च प्रतिक्षणम्। यै: महर्धि: भवत्येष: त्रिदश: कल्पवासिषु।।२२६।।
उस योगी के प्रतिक्षण महान पुण्य कर्म का आस्रव हुआ करता है, उस पुण्य के प्रसाद से वह कल्पवासी देवों में महर्धिक देव होता है।
ततोवर्तीर्य मत्र्येपि चक्रवत्र्यादिसंपद: चिरं भुक्त्या स्वयं मक्त्वा दीक्षां दैगंबरी श्रित:।।२२७।।
स्वर्ग से चयकर वह चक्रवर्ती आदि की सम्पत्ति का चिरकाल पर्यंत भोगकर उसे स्वयं त्याग करके दिगम्बर दीक्षा को धारणा करता है।
वङ्काकाय: स हि ध्यात्वा शुक्लं ध्यानं चतुर्विधम्। विधूयाष्टापि कर्माणि श्रयतेमोक्षमक्षयं।।२२९।।
वङ्कावृषभ संहनन धरी व मुनि चारप्रकार के शुक्ल ध्यान का ध्यान करके तथा आठ कर्मों का क्षयकर के अविनाशी मोक्ष को प्राप्त करता है। इस प्रकार का जीवन वृत्त विवेकी सम्यग्ज्ञानी व्यक्ति का रहता है। देश काल, परिस्थिति, संहनन आदि को ध्यान में रखने वाले ज्ञानी गृहस्थ सच्चेदेव, गुरु तथा शास्त्र की श्रद्धा करके पाप परित्याग तथा संचय के पथ पर प्रस्थित होते हैं। पाप—पुण्य का क्षयकर सिद्ध पदवी पाना उनका अंतिम साध्य रहता है, किन्तु प्रारम्भिक स्थिति में कषायादिवश कर्म राशि आती है, उसमें से प्रथम कार्य पापास्रव को रोकना तथा अशुभ की निर्जरा का प्रयत्न करते जाना तथा पुण्य संग्रह करना है। पाप की वैतरिणी में डुबकी लगाने वाले ग्रहस्थ का पुण्य बन्ध का विरोध करना एकान्तवादी का नाम है। स्याद्वादी कर्मोें के क्षय हेतु प्रथम पाप क्षय के रास्ते को स्वीकार करता है। इस पंचम काल में आत्मा को हिंसादि पाप कार्यों के परित्याग तथा दान पूजा आदि सत्कार्यों को प्राथमिकता देना उचित है। चेतावनी—कुन्दकुन्द स्वामी सचेत करते हैं—
असुहादो णिरयाऊ सुहभावादो दु सग्गसुहमाओ। दुहसुहभावं जाणई जं ते रुच्चेइ तं कुज्जा।।५२।।
रयणसार।
अशुभभाव से नरकायु का बन्ध होता है, शुभभाव से स्वर्ग सुखप्रद आयु का बन्ध होता है। इस तरह नरक में दु:ख तथा स्वर्ग में सुख जीव को अशुभ तथा शुभभाव से मिलते हैं। जो बात तुझे उसे तू कर। १. अन्य धर्मों मेें भी पाप को दु:खप्रद तथा त्याज्य कहा है। पुण्य जीवन को सुख तथा पालने योग्य माना है। बौद्ध ग्रन्थ धम्मपद में कहा है— श्रीवस्ती में एक चुन्दसूकरिक गृहस्थ था। उसने जीवन भर सूकरों का वध किया। अन्त में सूकर की तरह चिल्लाते हुए मरकर वह नरक में उत्पन्न हुआ। इस प्रसंग परबुद्ध ने कहा—
इध सोचति पेञ्च सोचति पापकारी उभयत्थ सोचति।।१—१०।।
पापी इस लोक में शोक करता है; परलोक में भी शोेक करता है। पापी उभय लोक वह दोनों में शोक करता है। श्रीवस्ती में एक धार्मिक उपासक था। उसने जीवन भर पुण्य कर्मों को करके मरकर देव लोक म में जन्म लिया। इस बात पर बुद्ध ने भिक्षुओं से कहा—
पुण्य कर्म करने वाला इस लोक में आनन्द पाता है, परलोक में भी सुखी होता हैं लोकों में मुदित होता है। वह अपने विशुद्ध कर्मों को देखकर मोद करता है। प्रमोद करता है (धम्मपद ५९) विश्व के धर्मोें का साहित्य इसका समर्थन करता है, कि पानी व्यक्ति हीन अवस्था को पाकर दु:ख भोगा करता है। जो पाप का परित्याग कर पुण्य जीवन व्यतीत करता है, वह दोनों लोकों में सुख पाता है। सदाचार को प्राण मानने वाला स्वयं सुखी रहता है तथा विश्व को भी आनन्द प्रदान करता रहता है तथा विश्व को भी आनन्द प्रदान करता है।