लेखिका— गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी
कल्याणकल्पद्रुमसारभूतं, चिंतामणिं चिंतितदानदक्षम्।
श्रीपार्श्वनाथस्य सुपादपद्मं, नमामि भक्त्या परया मुदा च।।१।।
जो कल्याण कल्पतरु सार-भूत चिंतामणि चिंतितदा।
श्रीपारस प्रभु पादकमल को, भक्तिभाव से नमूँ मुदा।।
ध्याने स्थितो यो बहिरंतरंगं, त्यक्त्वोपधिं तत्र तदा जिनस्य।
मातामह: स्यात् कमठासुरोऽसौ, अभूत् कुदेव: कुतपोऽभिरेव।।२।।
परिग्रह तजकर, ध्यान लीन जब खड़े प्रभो!।
कमठासुर कूतप से मरकर, तब मातामह हुआ प्रभो!।।
रुद्धं विमानं पथि गच्छतोहा! ध्यानस्थपार्श्व प्रविलोक्यरुष्ट्वा।
शत्रुं च मत्वा कृतभीमरूपो, धाराप्रपातै: स चकार वृष्टिं।।३।।
पथ में जाता रुका विमान, हा! ध्यानस्थ पापार्श्वको लख।
व्रुधित शत्रु गिन भीमरूप धर, मूसलधार वृष्टि को कर।।
चकास्ति विद्युत् दशदिक्षु पिंगा, वात्या महद्ध्वांतमयं च कालं।
घनाघनोगर्जति घोररावै:, प्रचंडवातै: परिमूलयन् द्रून्।।४।।
विद्युत चमके दश दिश में, आंधी अँधियारी काल समान।
गरजे मेघ भयंकर वायू, वृक्ष उखाड़े शैल समान।।
परीषहैर्वातकृतैस्तदासौ, महामना धीरगभीरपार्श्व:।
अकम्पचित्त: कनकाचलो वै, तं पार्श्वनाथं त्रिविधं प्रवंदे।।५।।
वायु भयंकर उपसर्गों से, महामना पारस प्रभु धीर।
अचलितमना मेरु सम पारस, त्रयविधि वंदूूूं महागभीर।।
पुण्यप्रभावाद् विचलासनाच्च, यात: फणीन्द्रश्चकित: सभार्य:।
फणातपत्रैरुपसर्गकाले, भिंक्त व्यधात् यस्य नमोऽस्तु तस्मै।।६।।
पुण्योदय से फणपति आसन, कंपा पद्मावति के साथ।
आकर फण का छत्र किया प्रभु, शिर पर वंदूूं पारसनाथ।।
श्री पार्श्वनाथ: स्वपरात्मविज्ञ:, श्रेणीं श्रित: स्वात्मजशुक्लयोगै:।
घातीनिहत्वा जगदेकसूर्य:,कैवल्यमाप्नोत् तमहं स्तवीमि।।७।।
स्वपरभेदवित् पारस स्वात्मज, ध्यानशुक्ल श्रेणी पर चढ़।
घात घातिया केवल पायो, त्रिभुवनसूर्य नमूँ शुचि कर।।
माणिक्यगारुत्मणिरत्नगर्भ:, वैडूर्यमुक्तामणिहीरकाद्यै:।
शक्राज्ञया वृत्तसभां जिनस्य, आकाशमध्ये व्यतनोद् धनेश:।।८।।
माणिकरत्न गरुत्मणि मुक्ता, हीरकमणि वैडूर्यों से।
इन्द्राज्ञा से धनपति रचियो, समवशरण गगनांगण में।।
स्तंभांतमानादिविशालकाया:, सरांसि पुष्पस्य सुवाटिका स्यु:।
प्राकारतुंगास्त्रयसालशोभा:, वाप्यादय: स्वच्छजला: सुरम्या:।।९।।
अतिऊँचे मानस्तंभों से, पुष्पवाटिका सरवर से।
परकोटे सालत्रय शोभें, वापी रम्य स्वच्छ जल से।।
क्षिपंति धूपस्य घटेषु देवा:, सौगंध्यधूपं सुरभि: समंतात्।
सुतोरणाद्या ध्वजपंक्तयश्च, मयूरहंसादिकचिन्हयुक्ता:।।१०।।
धूपघटों में सुरगण खेते, धूप सुगंधित चउदिश में।
तोरण ध्वजपंक्ती बहु शोभें, हंस मयूर चिन्ह युत हैं।।
भामंडले सप्तभवान् सुभव्या:, वापीजलेऽपि प्रविलोकयंति।
सर्वा: सुसंपत्निधियोऽपि विश्वे, रत्नानि सर्वाणि बभुश्च तत्र।।११।।
देखें सप्तभवों को भविजन, भामंडल वापी जल में।
नवनिधि चौदहरत्न सभी, संपत्ति वहाँ बहुविध शोभें।।
द्वारेषु देवा: किलरक्षका: स्यु:, सद्दृष्टिमद्भि: सह रज्यमाना:।
मध्ये त्रिसालस्य हि गंधकुट्यां, सिंहासनस्योपरि देवदेव:।।१२।।
रक्षकदेव खड़े द्वारों पर, सम्यग्दृष्टी के प्रिय हैं।
तीनसाल के मध्य गंधकुटि, सिंहासन पर प्रभु शोभें।।
विराजते रत्नमणिप्ररोचि:, कंजासने या चतुरंगुलास्पृक्।
छत्रत्रयं चंद्रनिभं प्रवक्ति, ‘‘त्रैलोक्यनाथोऽय’’ मिति स्तुवे तंं।।१३।।
रत्नमणीमय कमलासन पर, चतुरंगुल ऊपर राजें।
तीनछत्र ‘‘त्रिभुवनपति’’ सूचक, उन प्रभु को हम नित वंदे।।
देवा व्यधुर्दुंदुभिनादमुच्चै:, त्रैलोक्यजंतुं प्रति सूचयंतं।
जयारवं कल्पतरोश्च वृष्टिं, गंधोदवैश्च प्रणमाम्यहं तं।।१४।।
दुंदुभि बजती त्रिभुवन जन को, सूचित करती तव जयकार।
कल्पतरू से पुष्पवृष्टि, गंधोदक वर्षा हो सुखकार।।
अशोकवृक्षो जनशोकहारी, वियोगरोगार्तिविनाशकारी।
सुवीज्यमानाश्चमरीरुहाश्च, भांतीव ते निर्झरवारिधारा:।।१५।।
तरुअशोक जन शोकहरे, रोगार्ति वियोग विनाश करें।
चौंसठ चमर ढुरे निर्झरजल-सम प्रभु पर हम उन्हें नमें।।
भाश्चक्रकांति: प्रभुदेहदीप्त्या, विडंबयत्कोटिरविप्रभासौ।
सर्वार्थभाषामयदिव्यवाक् ते, त्रिकालमाविर्भवति स्तुवे त्वां।।१६।।
प्रभुतनु कांति से भामंडल, दिपे कोटि रवि शशि लज्जें।
सब भाषामय दिव्यध्वनि तव, त्रिसमय प्रगटे नमॅूँ तुम्हें।।
देवा मनुष्या: पशु-पक्षिवृंदं, श्रीपार्श्वमानम्य मिथश्च सर्वे।
विरोधभावं परिहृत्य नित्यं, तिष्ठंति प्रीत्या शुभभावनात:।।१७।।
देव असुर नर पशु पक्षीगण, मिल पारस का कर वंदन।
वैरभाव को छोड़ परस्पर, परमप्रीति धारें सब जन।।
दिशोऽमला: स्वच्छसरांसि भांति, षडर्तुजातास्तरवो लताद्या:।
शाल्यादिसस्यान्यभवन् स्वतश्च, जीवस्य हिंसा न तदा कदाचित्।।१८।।
निर्मल दिश सब स्वच्छ सरोवर, शाली आदिक खेत फलें।
प्राणी हिंसा कभी न होती, षट् ऋतु के फल फूल खिलें।।
केशा: नखा: वुद्धिमगु: प्रभोर्न, दृग्निर्निमेषे चतुरास्यता च।
तनुश्च ते दर्पणवत् चकास्ति, वंदे तमेतेऽतिशयाश्च यस्य।।१९।।
नख अरु केश बढ़े नहिं प्रभु के, दृग टिमकार रहित शोभें।
दिखें चतुर्मुख तनु दर्पणवत्, इन अतिशय युत को वंदे।।
सेन्द्रा नरेन्द्राश्च तथा फणीन्द्रा:,’ नत्वा जिनेन्द्रं गणिनं च भक्त्या।
तत्र स्थिता धर्मसुधां पिबंत:, संतर्पितास्तानुपदिश्य पार्श्व:।।२०।।
इन्द्र नरेन्द्र फणीन्द्र नमनकर, प्रभु को गणधर को भजकर।
बैठे सभा में धर्मपिपासु, प्रभु उपदेश दिया सुखकर।।
विहारकाले शुभमग्रगामी, श्रीधर्मचव्रं विबभौ विभोस्ते।
सुहेमपद्मेषु विभुश्च पादौ, धृत्वांतरिक्षे व्यहरत् स्तुवे तं।।२१।।
प्रभु बिहार में आगे चलता, धर्मचक्र राजे सुखकर।
कनक कमल पर प्रभु पग धरते, गगन गमन करते मनहर।।
नष्टोपसर्गे रविकेवलोत्थे, जातं त्वहिक्षेत्रमिदं सुतीर्थं।
क्षेत्रं पवित्रं जगति प्रसिद्धं, भक्त्या सदा भव्यजना: स्तुवंति।।२२।।
दूर हुआ उपसर्ग तुरत, वैवल्यज्ञान रवि उदित हुआ।
तीर्थ पवित्र ‘‘अहिच्छत्रं’’ भविजन, संस्तुत जग सिद्ध हुआ।।
श्रीपार्श्वनाथाय नमोऽस्तु तुभ्यं। दु:खार्तिनाशाय नमोऽस्तु तुभ्यं।।
अभीप्सितार्थाय नमोऽस्तु तुभ्यं। त्रैलोक्यनाथाय नमोऽस्तु तुभ्यं।।।२३।।
नमोऽस्तु पारसनाथ! तुम्हें, दु:खार्ति विनाशि नमोऽस्तु तुम्हें।
नमोऽस्तु ईप्सित हेतु तुम्हें, हे त्रिभुवननाथ! नमोऽस्तु तुम्हें।।
यो लोकांतर्भूतवस्तुसकलं नक्षत्रवत् लोकते।
यो जित्वा ह्युपसर्गकं ‘‘जिन’’ इति प्रख्यश्च कर्माण्यपि।।
वामानंदन एष एव भगवान् लोकैककल्पद्रुम:।
भूयात् मे त्वरमश्वसेननृपज: श्री ‘‘ज्ञानमत्यै’’ श्रियै।।२४।।
जो सब त्रिभुवन की वस्तू को, इक नक्षत्र सदृश देखें।
जो उपसर्ग रु कर्मशत्रु को, जीता ‘‘जिन’’ इस विधि से हैं।।
अश्वसेन सुत वामानंदन, वे लोकैक कल्पतरु हैं।
उन पारस प्रभु के प्रसाद से, ‘‘ज्ञानमती’’ श्री मम होवे।।