प्रस्तावना-जैनधर्म के अनुसार वर्तमान में २४ तीर्थंकर हुए हैं, तीर्थंकरों की इस शृँखला में पहले भगवान ऋषभदेव फिर भगवान महावीर और अब भगवान पाश्र्वनाथ का नाम हम सभी के मस्तक पटल पर छाया हुआ है। उनकी जयंती और निर्वाणोत्सव हम आज बड़ी धूमधाम से मनाते हैं। भगवान पाश्र्वनाथ २३वें तीर्थंकर हैं। हिन्दुओं की मान्यतानुसार अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, काशी, अवन्ति, उज्जयिनी और द्वारका ये सात महापुरियाँ हैं। इनमें काशी मुख्य मानी गयी है। ‘‘काश्यां हि मरणान्मुक्ति:’’ यह हिन्दू शास्त्रों का वाक्य है। आज बनारस नगरी हिंदुओं के तीर्थधाम से अधिक प्रसिद्धि को प्राप्त हैं किन्तु प्राचीन इतिहास देखने पर ज्ञात होता है कि जिनधर्म की प्रभावना के अनेक कथानक यहाँ से जुड़े हुए हैं जिसमें भगवान पाश्र्वनाथ का जन्मस्थल भेलूपुर मोहल्ले को माना जाता है। जीवन परिचय-काशी और वाराणसी नाम से प्रख्यात बनारस नगरी कर्मभूमि के प्रारंभ से ही इन्द्र के द्वारा बसाई गई है। यहाँ २३वें तीर्थंकर भगवान पाश्र्वनाथ का जन्म हुआ है।
‘‘वाराणसि नगरी धन्य हुई, धन धन्य हुए सब नर नारी।
हे अश्वसेननंदन! तुम से, वामा माँ भी मंगलकारी।।
वैसाख वदी वह दूज भली, माता उर आप पधारे थे।
श्री आदि देवियों ने आकर, माता से प्रश्न विचारे थे।।’’
इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र संबंधी काशी देश में बनारस नाम का एक नगर है, जहाँ राजा अश्वसेन (विश्वसेन) राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम वामा (ब्राह्मी) था। जब उन सोलहवें स्वर्ग के इन्द्र की आयु छह मास ही अवशेष रह गई थी, तब इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने माता के आँगन में रत्नों की धारा बरसाना शुरू कर दी थी। रानी ब्राह्मी ने सोलह स्वप्नपूर्वक वैशाख कृष्णा द्वितीया के दिन इन्द्र के जीव को गर्भ में धारण किया था। नवमास पूर्ण होने पर पौष कृष्णा एकादशी के दिन पुत्र का जन्म हुआ था। इन्द्रादि देवोें ने सुमेरु पर्वत पर ले जाकर तीर्थंकर शिशु का जन्माभिषेक करके ‘‘पार्श्वनाथ’’ यह नामकरण किया था। श्री नेमिनाथ के बाद तिरासी हजार सात सौ पचास वर्ष बीत जाने पर इनका जन्म हुआ था। तीर्थंकर पाश्र्वकुमार ने विवाह नहीं किया था। इनके शरीर की ऊँचाई ९ हाथ, आयु १०० वर्ष और वर्ण हरा था। एक बार ध्यान में लीन प्रभु ने शंवर नाम ज्योतिषी देव (कमठ नामक पूर्व भव का वैरी) के दारूण उपसर्गों को सहनकर चैत्र कृष्णा चतुर्थी तिथि को अहिच्छत्र में केवलज्ञान प्राप्त किया तथा श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन सम्मेदशिखर पर्वत से मोक्षधाम को पधारे हैं। उनके बाद सम्मेदशिखर पर्वत से किसी भी तीर्थंकर ने मोक्ष की प्राप्ति नहीं की है। अत: यह पर्वत वर्तमान में ‘‘पारसनाथ हिल’’ के नाम से जाना जाता है।
शुभ पौष वदी ग्यारस तिथि थी, जब आए प्रभु साक्षात् यहाँ।
मित्रों संग वन में घूम रहे, अहियुग को दीना मंत्र महा।।
तब नागयुगल धरणेन्द्र तथा, पद्मावति होकर भक्त बने।
शुभ पौष वदी ग्यारस के दिन, प्रभु दीक्षा ले मुनिश्रेष्ठ बने।।
सोलह वर्ष बाद नवयौवन से युक्त भगवान किसी समय क्रीड़ा के लिए अपनी सेना के साथ नगर के बाहर गये। कमठ का जीव जो कि सिंह पर्याय से नरक गया था, वह वहाँ से आकर महीपाल नगर का महीपाल नाम का राजा हुआ था। उसी की पुत्री वामा देवी भगवान की माता थी। यह राजा (भगवान के नाना) किसी समय अपनी पत्नी के वियोग में तपस्वी होकर वहीं आश्रम के पास वन में पंचाग्नियों के बीच में बैठा तपश्चरण कर रहा था। देवों द्वारा पूज्य भगवान उसके पास जाकर उसे नमस्कार किये बिना ही खड़े हो गये। यह देखकर वह साधु क्रोध से युक्त हो गया और सोचने लगा ‘‘मैं कुलीन हूँ, तपोवृद्ध हूँ और इसका नाना हूँ’’ फिर भी इस अज्ञानी कुमार ने अहंकारवश मुझे नमस्कार नहीं किया है, क्षुभित हो उसने अग्नि में लकड़ियों को डालने के लिए पड़ी हुई लकड़ी को काटने हेतु अपना फरसा उठाया। इतने में ही अवधिज्ञानी भगवान पाश्र्वनाथ ने कहा ‘‘इसे मत काटो’’ इसमें जीव हैं किन्तु मना करने पर भी उसने लकड़ी काट ही डाली, तत्क्षण ही उसके भीतर रहने वाले सर्प और सर्पिणी निकल पड़े और घायल हो जाने से छटपटाने लगे। यह देखकर प्रभु के साथ स्थित सुभौमकुमार ने कहा कि तू अहंकारवश यह कुतप करके पाप का ही आस्रव कर रहा है। सुभौम के वचन सुन तपस्वी व्रुâधित होकर अपने तपश्चरण की महत्ता प्रकट करने लगा। तब सुभौमकुमार ने अनेक युक्तियों से उसे समझाया कि सच्चेदेव, शास्त्र और गुरु के सिवाय कोई हितकारी नहीं है। जिनधर्म में प्रणीत सच्चे तपश्चरण से ही कर्म निर्जरा होती है। यह मिथ्यातप, जीव हिंसा सहित होने से कुतप ही है। यद्यपि वह तपस्वी समझ तो गया किन्तु पूर्व वैर का संस्कार होने से अपने पक्ष के अनुराग से अथवा दु:खमय संसार के कारण से अथवा स्वभाव से ही दुष्ट होने से उसने स्वीकार नहीं किया प्रत्युत् ‘‘यह सुभौमकुमार अहंकारी होकर मेरा तिरस्कार कर रहा है’’ ऐसा समझ वह भगवान पाश्र्वनाथ पर अधिक क्रोध करने लगा। पुन: इसी शल्य से मरकर ‘‘शम्बर’’ नाम का ज्योतिषी देव हो गया। इधर सर्प और सर्पिणी पाश्र्वकुमार के उपदेश से शांतभाव को प्राप्त हुए तथा मरकर बड़े ही वैभवशाली देवता धरणेन्द्र और पद्मावती हो गये। दीक्षा-तीस वर्ष की अवस्था में एक दिन राजसभा में अयोध्या नरेश जयसेन के दूत द्वारा भगवान ऋषभदेव का चरित्र सुनते-सुनते भगवान गृहवास से पूर्ण विरक्त हो गये और लौकांतिक देवों द्वारा पूजा को प्राप्त हुए। प्रभु देवों द्वारा लाई गई विमला नाम की पालकी पर बैठकर अश्ववन में पहुँच गये। वहाँ दारूवृक्ष के नीचे तेला का नियम लेकर पौष कृष्णा एकादशी के दिन प्रात:काल के समय सिद्ध भगवान को नमस्कार करके प्रभु तीन सौ राजाओं के साथ दीक्षित हो गये।
तत्क्षण मनपर्ययज्ञानी हो, सब ऋद्धी से परिपूर्ण हुए।
इक समय सघन वन के भीतर, प्रभु निश्चल ध्यानारूढ़ हुए।।
कमठासुर ने उपसर्ग किया, अग्नी ज्वाला को उगल-उगल।
पत्थर फैके मूसलधारा, वर्षायी आँधी उछल-उछल।।
पारणा के दिन गुल्मखेट नगर के धन्य नामक राजा ने अष्ट मंगलद्रव्यों से प्रभु कर पड़गाहन कर आहारदान देकर पंचाश्चर्य प्राप्त कर लिये। छद्मस्थ अवस्था के चार मास व्यतीत हो जाने पर भगवान एक समय देवदारु वृक्ष के नीचे विराजमान होकर ध्यान में लीन हो गये। इसी समय कमठ का जीव शंबर ज्योतिषीदेव आकाशमार्ग से जा रहा था, अकस्मात् उसका विमान रुक गया, उसे विभंगावधि से पूर्व का वैर बंध स्पष्ट दिखने लगा। फिर क्या था, क्रोधवश उसने महागर्जना, महावृष्टि भयंकर वायु आदि से महा उपसर्ग करना प्रारंभ कर दिया, बड़े-बड़े पहाड़ तक लाकर समीप में गिराये, इस प्रकार उसने सात दिन तक लगातार भयंकर उपसर्ग किया।
उस ही क्षण धरणीपति पद्मावति, आ करके बहु भक्ति किया।
प्रभु को मस्तक पर धारणकर, ऊपर से फण का छत्र किया।।
अवधिज्ञान से यह उपसर्ग जानकर धरणेन्द्र अपनी भार्या पद्मावती के साथ पृथ्वीतल से बाहर निकला। धरणेन्द्र और पद्मावती ने भगवान को अपने फणाओं के ऊपर उठा लिया और वङ्कामय छत्र तान कर स्थित हो गये। आचार्य कहते हैं देखो! स्वभाव से ही व्रूर प्राणी इन सर्प-सर्पिणी ने अपने ऊपर किये गये उपकार को याद रखा सो ठीक ही है। क्योंकि सज्जन पुरुष अपने ऊपर किये हुए उपकार को कभी नहीं भूलते हैं। तदनंतर ध्यान के प्रभाव से प्रभु का मोहनीय कर्म क्षीण हो गया इसलिए वैरी कमठ का सब उपसर्ग दूर हो गया। ==
प्रभु क्षपक श्रेणि में चढ़ करके, मोहनी कर्म का नाश किया।
सम्पूर्ण घातिया को विनाश, कैवल्यश्री को वरण किया।।
पृथ्वी से बीस हजार हाथ, ऊपर पहुँचे अर्हन्त बने।
इन्द्रों के आसन कांप उठे, प्रभु समवसरण गगनांगण में।।
वदि चैत्र चतुर्थी तिथि उत्तम, जब प्रभु में ज्ञान प्रकाश हुआ।
उस स्थल का उस ही क्षण से, अहिच्छत्र तीर्थ यह नाम हुआ।।
एक बार ध्यान में लीन प्रभु ने शंबर नामक ज्योतिषी देव (कमठ नामक पूर्व भव का बैरी) के दारूण उपसर्गों को सहन कर चैत्र कृष्णा चतुर्थी के दिन प्रात:काल के समय अहिच्छत्र में विशाखा नक्षत्र में लोकालोकप्रकाशी केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया। उसी समय इन्द्रों ने आकर समवसरण की रचना करके केवलज्ञान की पूजा की। शंबर नाम का देव भी काललब्धि पाकर उसी समय शान्त हो गया और उसने सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लिया। आचार्य कहते हैं-अहो! पापी कमठ के जीव का कहाँ तो निस्कारण वैर और कहाँ ऐसी शांति? सच कहा है कि महापुरुषों के साथ मित्रता तो दूर रही, शत्रुता भी वृद्धि का कारण होती है।’’
‘‘सख्यमास्तां विरोधश्व वृद्धये हि महात्मभि:।’’
भगवान पार्श्वनाथ के समवसरण में स्वयंभू आदि को लेकर दस गणधर थे, सोलह हजार मुनिराज, सुलोचना को आदि लेकर छत्तीस हजार आर्यिकाएं, एक लाख श्रावक और तीन लाख श्राविकाएं थीं। इस प्रकार बारह सभाओं को धर्मोपदेश देते हुए भगवान ने पाँच मास कम सत्तर वर्ष तक विहार किया। अंत में आयु का एक माह शेष रहने पर विहार बंद हो गया। प्रभु पार्श्वनाथ सम्मेदाचल के शिखर पर छत्तीस मुनियों के साथ प्रतिमा योग से विराजमान हो गये। श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन प्रात;काल के समय विशाखा नक्षत्र में सिद्धपद को प्राप्त हो गये। इन्द्रों ने आकर मोक्षकल्याणक उत्सव मनाया।
पार्श्वनाथ का जीव पहले मरुभूति हुआ, फिर सहस्रार स्वर्ग में देव हुआ, वहाँ से आकर विद्याधर हुआ, फिर अच्युत स्वर्ग में देव हुआ, वहाँ से आकर वङ्कानाभि चक्रवर्ति, फिर मध्यम ग्रैवेयक में अहमिन्द्र हुआ, वहाँ से आकर आनंद नाम का राजा हुआ, फिर आनतस्वर्ग में इन्द्र हुआ तदनंतर भगवान पार्श्वनाथ तीर्थंकर होकर भव्य जीवों के लिए परम आश्रय स्वरूप हुआ है। ==
कमठ का जीव पहले मरुभूति का कमठ नाम का बड़ा भाई था, फिर कुक्कुट सर्प हुआ, फिर पाँचवे नरक गया, फिर अजगर हुआ, फिर नरक गया, फिर भील हुआ, पुन: नरक गया, पुन: सिंह हुआ, पुन: नरक गया और फिर महीपाल राजा होकर शंबर देव हुआ है। कमठ ने मरुभूति की भार्या के साथ व्यभिचार किया जिससे राजा अरविंद ने कुपित हो उसे दंडित करके राज्य से बाहर निकाल दिया किन्तु मरुभूति उस समय भी उस भाई पर व्रुâद्ध न होते हुए उसे वापस लाने हेतु खोजते हुए वहाँ पहुँचता है कि जहाँ वह कमठ तापसी वेष में हाथ में पत्थर की विशालकाय शिला लेकर तप कर रहे हैं। मरुभूति का मन सरल था, भाई का प्रेम उमड़ रहा था किन्तु कमठ ने उसे ही अपना शत्रु समझ लिया और अत्यंत क्रोधावेष में अंधा होकर उसी के ऊपर अपने हाथ की शिला पटक दी। फलस्वरूप वहीं से उसके संस्कार मरुभूति के प्रति क्रोध से बदला लेने के हो गये थे जो कि दश भव तक चलते रहे हैं।
भगवान पार्श्वनाथ वर्तमान वीर नि. सं. २५३४ से २७८४ वर्ष पहले मोक्ष गये हैं। इसमें सौ वर्ष की आयु मिलाने से २८८४ वर्ष भगवान को जन्म लेकर हो गये हैं। श्री गुणभद्र आचार्य कहते हैं—
‘‘आदि मध्यांतगंभीरा: सन्तोंऽभोनिधिसन्निभा:। उदाहरणमेतेषां पाश्र्वो गण्य: क्षमावताम्।।
जो समुद्र के समान आदि मध्य और अंत में गंभीर रहते हैं, ऐसे सज्जनों का यदि कोई उदाहरण हो सकता है तो क्षमावानों में गिनती करने योग्य भगवान पार्श्वनाथ हो सकते हैं। ऐसे पार्श्वनाथ भगवान हमें भी संपूर्ण प्रकार के उपसर्गों को सहन करने की शक्ति प्रदान करें और क्षमाशील बनाएं। इतनी महान क्षमा तथा सहिष्णुता का उदाहरण हमें भगवान पार्श्वनाथ के दशभव के जीवन में ही मिलेगा। इसलिए यदि हमारे मन में किसी अपकारी के प्रति कलुषता बैठी हुई हो तो हमें बार-बार पार्श्वनाथ का चरित्र पढ़ना, सुनना और मनन करना चाहिए। हममें क्षमा गुण का विकास होगा, जिसका फल कालांतर में बहुत ही मीठा मिलेगा और यदि हम उस कषाय के कण को भीतर में लिए ही रहेंगे तो कमठ के समान हमारी हानि की संभावना हो सकती है। अत: कषाय के एक कण को अग्नि से भी अधिक भयंकर समझकर उससे बचने की कोशिश करनी चाहिए और पार्श्वनाथ के श्रीचरणों में अनन्त-अनन्त नमस्कार करते हुए अपने मनुष्य जीवन को सफल करना चाहिए। हमें कमठ जैसे क्रोध के संस्कार नहीं चाहिए, किन्तु पार्श्वनाथ जैसे क्षमा के, सहिष्णुता के संस्कार चाहिए, क्योंकि कहा भी है—
‘‘उत्तम छिमा गहो रे भाई, इह भव जस पर भव सुखदाई।
गाली सुनि मन खेद न आनो, गुन को औगुन कहै अयानो।।
काहए अयानो वस्तु छीनै, बांध मार बहुविधि करै।
धरतैं निकारैं तन विदारैं, वैर जो न तहाँ धरैं।।
तै करम पूरब किये खोटे, सहै क्यों नहिं जीयरा।
अति क्रोध अग्नि बुझाये प्राणी, साम्य जल ले सीयरा।’’