मार्ग और अवस्थिति- श्री कलिकुण्ड पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र कुण्डल महाराष्ट्र प्रान्त के सांगली जिले में तालुका तासगाँव में अवस्थित है। यह पूना-सतारा-मिरज रेलमार्ग पर किर्लोस्करबाड़ी से ३.५ किमी. है। यह क्षेत्र सड़क मार्ग से सांगली से ५१ किमी., कराड़ से २९ किमी. तथा तासगाँव से भी २९ किमी. है। सभी स्थानों से यहाँ के लिए बस-सेवा चालू है। किर्लोस्करबाड़ी से क्षेत्र तक के लिए ताँगे भी मिलते हैं।
अतिशय क्षेत्र- प्राचीनकाल में इस नगर का नाम कौण्डिन्यपुर था। बाद में यह कुण्डल हो गया। कहते हैं, इस नगर का सत्येश्वर नामक एक राजा था, जो बहुत बीमार था। बहुत उपचार करने पर भी उसके स्वास्थ्य में सुधार नहीं हुआ। वह मरणासन्न दशा तक पहुँच गया। उसकी रानी का नाम पद्मश्री था। उसने पत्थर जमा करके पार्श्वनाथ की मूर्ति तैयार करायी और बड़े भक्तिभाव से इसकी पूजा करने लगी। धीरे-धीरे राजा के स्वास्थ्य में सुधार होने लगा और वह बिल्कुल स्वस्थ हो गया। इससे राजा और प्रजा सभी इस चमत्कारी मूर्ति के भक्त बन गये। यह तभी से अतिशय सम्पन्न मूर्ति मानी जाने लगी। इस मूर्ति के अभिषेक के लिए जिस गाँव से दही आता था, उस गाँव का नाम दह्यारी पड़ गया, जिस गाँव से दूध आता था, उसका दुधारी, जिस गाँव से कुंभ (नारियल) आता था, उसका नाम कुम्भार और जिस गाँव से फल आते थे, उस गाँव का नाम पलस पड़ गया। ये गाँव अब भी विद्यमान हैं और क्षेत्र के निकट ही हैंं।
इतिहास-प्राचीनकाल में कौण्डिन्यपुर (वर्तमान कुण्डल) करहाटक (वर्तमान कराड़) राज्य के अन्तर्गत था। उस समय करहाटक में शस्त्र-विद्या और शास्त्र-विद्या के शिक्षण के लिए विख्यात विश्वविद्यालय था। यहाँ उस समय प्रकाण्ड विद्वानों का वास था। विद्वानों को राज्याश्रय प्राप्त था। भारत के बड़े-बड़े विद्वान यहाँ आकर स्थानीय शास्त्रार्थ किया करते थे। उनकी जय-पराजय का निर्णय राज्यसभा में ही होता था। आचार्य समन्तभद्र भारतीय विद्वानों की अपनी दिग्विजय यात्रा में यहाँ भी पधारे थे और यहाँ के विद्वानों को वाद में जीता था। कुछ वर्ष पूर्व कुण्डल नगर के दसलाढ़ नामक एक व्यक्ति को अपने घर में खुदाई करने पर तीन ताम्र शासन पत्र प्राप्त हुए थे। इनका प्रकाशन दैनिक अकाल के ३-४-१९५५ के अंक में हुआ था। इनमें से प्रथम ताम्रपत्र राष्ट्रकूट नरेश गोविन्द तृतीय द्वारा दिये दान से संबंधित है। द्वितीय ताम्रपत्र में पुलकेशिन विजयादित्य द्वारा दिये दान शासन का उल्लेख है। तृतीय ताम्रपत्र शक संवत् १२१० का है। इसमें बनवासी नगर के कदम्बवंशी मयूरवर्मन द्वारा दिये गये दान का उल्लेख मिलता है। इस दान पत्र से कई महत्वपूर्ण तथ्यों पर प्रकाश पड़ता है। इसमें प्रारंभिक ५ श्लोकों में मंगलाचरण करने के पश्चात् बताया है-एक दिन कदम्बवंशी राजा कृतवर्मा दर्पण में अपना मुख देख रहे थे। सिर पर एक श्वेत केश को देखकर उनके मन में संसार और भोगों से विराग उत्पन्न हो गया। उसने अपने पुत्र मयूरवर्मा का अभिषेक करके उसे राज्य सौंप दिया और मुनि-दीक्षा ले ली।
क्षेत्र-दर्शन- कुण्डलनगर में एक मंदिर है। यह कलिकुण्ड पार्श्वनाथ मंदिर कहलाता है। इसके गर्भगृह में वेदी पर ५ फीट ४ इंच ऊँची भगवान पार्श्वनाथ की कृष्ण वर्ण पद्मासन मूर्ति विराजमान है। अभी कुछ वर्ष पूर्व मूर्ति पर लेप किया गया है। अत: लेख दब गया है। यह मूर्ति बालुकामय कहलाती है। वक्ष पर श्रीवत्स नहीं है। इसके पीछे दीवार में हाथ जोड़े हुए देवियाँ बनी हुई हैं। यही मूर्ति कलिकुण्ड पार्श्वनाथ कहलाती है। अनेक भक्तजन यहाँ मनौती मानने आते हैं। इस मूर्ति के सामने पार्श्वनाथ भगवान की एक और मूर्ति कृष्ण वर्ण की पद्मासन मुद्रा में आसीन हैं। इसकी अवगाहना १ फुट ३ इंच है। यह सप्तफणमण्डित है। वक्ष पर श्रीवत्स नहीं है। पादपीठ पर सर्प का लांछन अंकित है। मूर्तिलेख के अनुसार इसकी प्रतिष्ठा संवत् ९६४ में हुई थी। इस वेदी पर विधिनायक पार्श्वनाथ की एक धातु-प्रतिमा संवत् १९३६ की प्रतिष्ठित है। यहाँ धातु का एक शिखराकार चैत्य भी है। दायीं ओर पद्मावती देवी की श्वेत मार्बल की मूर्ति है। वेदी के नीचे शिखराकृति बनी हुई है जिससे लगता है कि नीचे भोंयरा है। गर्भगृह के बाहर सभामण्डप में दायीं ओर दीवार में धरणेन्द्र और बायीं ओर की दीवार में पद्मावती की मूर्तियाँ हैं। इन दोनों को अज्ञानतावश सिन्दूर पोत दिया गया है। धरणेन्द्र मुकुट, गलहार, जनेऊ, कड़ा और भुजबंद धारण किये हुए हैं। पद्मावती मुकुट और हार धारण किये हैं। दोनों के साथ सर्प बना है जिससे इनकी पहचान धरणेन्द्र और पद्मावती के रूप में की जाती है। मंदिर के बाहर प्रांगण और एक लम्बा बरामदा है। यह यात्रियों के ठहरने के उद्देश्य से बनाया गया है। मंदिर के बाह्य परिक्रमापथ में एक शिलाफलक में तीर्थंकर मूर्ति बनी हुई है। इसमें एक ओर हाथ जोड़े हुए स्त्री बैठी है, दूसरे पाश्र्व में एक पुरुष खड़ा है। संभवत: यह प्रतिष्ठाकारक दम्पती हैं। अधोभाग में एक-दूसरे के नीचे दो कोष्ठक बने हैं। संभवत: इनमें भरत-बाहुबली का युद्ध प्रदर्शित है।
विशेष जानकारी- इस क्षेत्र के बारे में कहा जाता है कि तीर्थंकर पार्श्वनाथ एवं महावीर स्वामी का समवसरण यहाँ आया है। यहाँ पंचामृत अभिषेक की परम्परा हैं मंदिर जीर्णोद्धार व यात्रियों की सुविधा हेतु विकास योजनाएँ प्रगति पर हैं।
क्षेत्र पर उपलब्ध सुविधाएँ- क्षेत्र पर मात्र २ कमरे, १ हॉल तथा ३ किमी. दूर किर्लोस्कर वाड़ी में कम्पनी का गेस्ट हॉउस है। धर्मशाला भी है।