(भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ पुस्तक एवं मोहन जैन, धरणगाँव द्वारा प्रेषित लेख के आधार पर प्रस्तुत) मार्ग और अवस्थिति-श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र ‘अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ’ महाराष्ट्र के अकोला जिले में सिरपुर गाँव में स्थित है। सिरपुर पहुुँचने के लिए सबसे निकट का स्टेशन अकोला है जो बम्बई-नागपुर रेलवे मार्ग पर यहाँ से लगभग ७० किमी. दूर है। गाँव तक पक्की सड़क है और नियमित बस सेवा है। यहाँ आने के लिए अकोला की ओर से आने वालोें को मालेगाँव आना पड़ता है। वहाँ से सिरपुर ६ किमी. है। नांदेड़ से वाशिम, वाशिम से मालेगाँव होकर भी आ सकते हैं। वाशिम स्टेशन सिरपुर से ३० किमी. खण्डवा-पूर्णा छोटी रेलवे लाइन पर है।
क्षेत्र का इतिहास- अतिशय क्षेत्र सिरपुर (श्रीपुर) और उसके अधिष्ठाता अन्तरिक्ष पार्श्वनाथभारत भर में प्रसिद्ध हैं। इस क्षेत्र का इतिहास काफी प्राचीन है। कुछ लोगों की धारणा है कि इस क्षेत्र का निर्माण ऐल नरेश श्रीपाल ने कराया था। उनका आशय संभवत: क्षेत्र से नहीं, मंदिर से है। अर्थात् वर्तमान मंदिर राजा श्रीपाल ने निर्मित कराया होगा। किन्तु क्षेत्र के रूप में अन्तरिक्ष में विराजमान उस मूर्ति विशेष की और क्षेत्र की ख्याति तो इससे भी पूर्वकाल से थी। जैन साहित्य, ताम्रशासन और शिलालेखों में इसके संंबंध में अनेक उल्लेख मिलते हैं। जैन कथा साहित्य के आधार पर तो यहाँ तक कहा जा सकता है कि यह चमत्कारी प्रतिमा रामचन्द्र के काल में भी विद्यमान थी। विद्याधर नरेश खरदूषण ने इसकी स्थापना की थी। कथा इस प्रकार है- लंकानरेश रावण की बहन चन्द्रनखा का विवाह खरदूषण विद्याधर नरेश के साथ हुआ था। खरदूषण जिनदर्शन किये बिना भोजन नहीं करता था। एक बार वन विहार करते हुए उसे प्यास लगी। किन्तु वहाँ आसपास में कोई जिनालय दिखाई नहीं पड़ रहा था। प्यास अधिक बढ़ने लगी। तब उसने बालुका की एक मूर्ति बनाकर उनका पूजन किया। पश्चात् उस मूर्ति को एक कुएँ में सुरक्षित रख दिया। १६वीं सदी के लक्ष्मण नामक एक कवि ने ‘श्रीपुर पार्श्वनाथविनती’ में इस घटना का इस प्रकार पद्यमय चित्रण किया है-
वसंत मास आयो तिह काल। क्रीड़ा करन चाल्यो भूपाल।।३।।
लागी तृषा प्रतिमा नहिं संग। बालुतनू निर्मायो बिंब।।४।।
पूजि प्रतिमा जल लियो विश्राम। राख्यो बिंब कूपनि ठाम।।५।’’
आचार्य लावण्यविजयजी आदि कई श्वेताम्बर आचार्यों ने भी पार्श्वनाथके बिम्ब की स्थापना खरदूषण द्वारा की गई माना है। दूसरे आचार्यों के मतानुसार इस बिम्ब की स्थापना माली-सुमाली द्वारा हुई मानी जाती है। जैन पुराणों में कई स्थानों पर श्रीपुर का नामोल्लेख मिलता है। चारुदत्त धनोपार्जन के लिए भ्रमण करता हुआ यहाँ आया था। इसका उल्लेख चारुदत्त चरित्र में आया है। कोटिभट श्रीपाल वत्सनगर (वाशिम, जिला अकोला) आया था, तब इस नगर के बाहर विद्या साधन करते हुए एक विद्याधर की सहायता उसने की थी। सिरपुर (श्रीपुर) के पार्श्वनाथकी ख्याति पौराणिक युग के पश्चात् ईसा की प्रारंभिक शताब्दियोें में भी रही है। प्राकृत निर्वाण-काण्ड में इस मूर्ति की वंदना करते हुए कहा गया है-‘पासं सिरपुरि वंदमि’ अर्थात् ‘मैं श्रीपुर के पार्श्वनाथकी वंदना करता हूँ।’ भट्टारक उदयकीर्ति कृत अपभ्रंश निर्वाण-भक्ति में इसी का अनुकरण करते हुए कहा है-‘अरु वंदउँ सिरपुरि पासणाहु। जो अंतरिक्ख थिउ णाणलाहु।’ प्राकृत निर्वाण भक्ति की अपेक्षा अपभ्रंश निर्वाण भक्ति में एक विशेषता है। इसमें श्रीपुर के जिन पार्श्वनाथकी वंदना की गई है, उनके संबंध में यह भी सूचित किया गया है कि वे पार्श्वनाथअन्तरिक्ष में स्थित हैं। इनके अतिरिक्त गुणकीर्ति, मेघराज, सुमतिसागर, ज्ञानसागर, जयसागर, चिमणा पण्डित, सोमसेन, हर्ष आदि कवियों ने तीर्थ वंदना के प्रसंग में विभिन्न भाषाओं में अन्तरिक्ष पार्श्वनाथका उल्लेख किया है। यतिवर मदनकीर्ति ने ‘शासन चतुस्त्रिंशिका’ में इस प्रतिमा के चमत्कार के संबंध में इस प्रकार बताया है-
अर्थात् जिस ऊँचे आकाश में एक पत्ता भी क्षण भर के लिए ठहरने में समर्थ नहीं है,उस आकाश में भगवान जिनेश्वर का गुणरत्न पर्वतरूपी भारी जिनबिम्ब स्थिर है। श्रीपुर नगर में दर्शन करने पर वे पाश्र्वजिनेश्वर किसके मन को चकित नहीं करते? इस प्रकार अनेक आचार्यों, भट्टारकों और कवियों ने श्रीपुर के अंतरिक्ष पार्श्वनाथकी स्तुति की है और आकाश में अधर स्थिर रहने की चर्चा की है। कुछ शिलालेख और ताम्रशासन भी उपलब्ध हुए हैं, जिनमें इस क्षेत्र को भूमि दान करने का उल्लेख मिलता है। चालुक्यनरेश जयसिंह के ताम्रपत्रानुसार ई. सन् ४८८ में इस क्षेत्र को कुछ भूमि दान दी गई थी। एक अन्य लेख के अनुसार मुनि श्री विमलचन्द्राचार्य के उपदेश से (ई. सन् ७७६) पृथ्वी निर्गुन्दराज की पत्नी कुन्दाच्ची ने श्रीपुर के उत्तर में ‘लोकतिलक’ नामक मंदिर बनवाया था। इन्हीं विमलचन्द्राचार्य की प्रतिष्ठित कई छोटी-बड़ी मूर्तियाँ श्रीपुर में उपलब्ध होती हैं। अकोला जिले के सन् १९११ के गजैटियर में यहाँ के संबंध में लिखा है कि आज जहाँ मूर्ति विराजमान है, उसी भोंयरे में वह मूर्ति संवत् ५५५ (ई. सन् ४९८) में वैशाख सुदी ११ को स्थापित की गई थी। इसके विपरीत कुछ लोगों की मान्यता है कि ऐल नरेश श्रीपाल ने यह पार्श्वनाथमंदिर बनवाया था। ऐल श्रीपाल के संबंध में एक रोचक िंकवदन्ती भी प्रचलित है। जो इस प्रकार है- ऐलिचपुर के नरेश ऐल श्रीपाल जिनधर्मपरायण राजा थे। अशुभोदय से उन्हें कुष्ठ रोग हो गया। उन्होंने अनेक उपचार कराये, किन्तु रोग शान्त होने के बजाय बढ़ता ही गया। एक बार वे अपनी रानी के साथ कहीं जा रहे थे। मार्ग में विश्राम के लिए वे एक वृक्ष के नीचे बैठ गये। निकट ही एक कुआँ था। वे उस कुएँ पर गये। उन्होंने उसके जल से स्नान किया और उस जल को तृप्त होकर पिया। फिर वे रानी के साथ आगे चल दिये। दूसरे दिन रानी की दृष्टि में यह बात आयी कि रोग में पर्यान्त अन्तर है। रानी ने राजा से पूछा-‘‘आपने कल भोजन में क्या-क्या लिया था?’’ राजा ने उन व्यंजनों के नाम गिना दिये जो कल लिये थे। रानी कुछ देर सोचती रही, फिर उसने पूछा-‘‘आपने स्नान कहाँ किया था?’’ राजा ने उस कुएँ के बारे में बताया जहाँ कल स्नान किया था। रानी बोली-‘‘महाराज! हमें लौटकर वहीं चलना है जहाँ आपने कल स्नान किया था। आपके रोग में सुधार देख रही हूँ। मुझे उस कुएँ के जल का ही यह चमत्कार प्रतीत होता है।’’ राजा और रानी लौटकर कुएँ तक आये। उन्होंने वहीं अपना डेरा डाल दिया। कई दिन तक रहकर राजा ने उस कुएँ के जल से स्नान किया। इससे रोग बिल्कुल जाता रहा। राजा बड़ा प्रसन्न हुआ, किन्तु वह उस कूप के संबंध में विचार करने लगा-क्या कारण है जो इस वूâप-जल में इतना चमत्कार है। रात्रि में जब वह सो रहा था तब उसे स्वप्न दिखाई दिया और स्वप्न में पार्श्वनाथकी मूर्ति दिखाई दी। स्वप्न से जागृत होने पर उसने बड़े यत्नपूर्वक वह मूर्ति कुएँ से निकाली। प्रतिमा के दर्शन करते ही राजा को अत्यन्त हर्ष हुआ। उसने बड़ी भक्ति के साथ भगवान की पूजा की। फिर स्वप्न में देवपुरुष द्वारा बतायी विधि के अनुसार घास की गाड़ी में उस प्रतिमा को रखकर चल दिया। उसकी इच्छा प्रतिमा को अपनी राजधानी ऐलिचपुर ले जाने की थी। वह कुछ ही दूर गया होगा कि उसके मनमें संदेह हुआ-गाड़ी हल्की क्यों है? उसने पीछे की ओर मुड़कर देखा, प्रतिमा सुरक्षित थी। वह गाड़ी लेकर फिर चला, किन्तु प्रतिमा नहीं चली, वह बहुत भारी हो गयी। तब राजा ने लाचार होकर मूर्ति वहाँ के (श्रीपुर) मंदिर के तोरण में विराजमान करा दी। पश्चात् मंदिर का निर्माण कराया। इस कार्य में भट्टारक रामसेन का पूरा सहयोग रहा। किसी कारणवश वहाँ की जनता रामसेन से इस मूर्ति की प्रतिष्ठा नहीं कराना चाहती थी अत: रामसेन ने अधूरे मंदिर में ही प्रतिमा विराजमान करने का विचार किया किन्तु प्रतिमा वहाँ से हटी नहीं। तब रामसेन वहाँ से चले गये। पश्चात् राजा ने पद्मप्रभमलधारी भट्टारक को बुलाया। उन्होंने अपनी भक्ति से धरणेन्द्र को प्रसन्न किया और धरणेन्द्र के आदेशानुसार प्रतिमा के चारों ओर से दीवारें बनवाकर मंदिर का निर्माण कराया। इस प्रकार विद्याधर नरेश खरदूषण ने जिस प्रतिमा की स्थापना की थी, वह मूर्ति पहले कुएँ में निवास करती थी। ऐल श्रीपाल ने उसे कुएँ से निकाला और उसका देवालय बनवाया। ये िंकवदन्ती हैं। इससे मन को पूरा समाधान नहीं हो पाता, बल्कि मन में कुछ शंकाएँ भी उठ खड़ी होती हैं। जैसे-(१) खरदूषण मुनिसुव्रतनाथ तीर्थंकर के काल में हुआ है जो कि तीर्थंकर परम्परा में बीसवें तीर्थंकर हैं। खरदूषण ने उनकी प्रतिमा न बनाकर तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथकी प्रतिमा क्यों बनायी? भविष्य में होने वाले पार्श्वनाथतीर्थंकर की फणावलीयुक्त प्रतिमा की कल्पना उसने क्यों कर ली? (२) खरदूषण ने जिस प्रतिमा को कुएँ में विराजमान कर दिया था, उस प्रतिमा की ख्याति किस प्रकार हो गई? निर्वाणकाण्ड आदि से ज्ञात होता है कि राजा ऐल श्रीपाल से पूर्व भी श्रीपुर के पार्श्वनाथकी ख्याति थी और यह अतिशय क्षेत्र के रूप में प्रसिद्ध था। इन प्रश्नों का समाधान पाये बिना क्षेत्र का प्रामाणिक इतिहास खोजा नहीं जा सकेगा। क्षेत्र अत्यन्त प्राचीन है, इसमें संदेह नहीं है। यदि हम प्राकृत निर्वाण-काण्ड में आये हुए ‘पासं सिरपुरि वंदमि’ समेत अतिशय क्षेत्रों संबंधी समस्त गाथाओं को बाद में की गई मिलावट भी मान लें, जैसी कि कुछ विद्वानों की धारणा है, तब भी क्षेत्र को प्राचीन सिद्ध करने वाले अन्य भी प्रमाण उपलब्ध हैं। जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, चालुक्य नरेश जयसिंह के वि. संवत् ५४५ (ई. सन् ४८८) के ताम्रशासनादेश द्वारा इस क्षेत्र को कुछ भूमि दान दी गई थी। अर्थात् ईसा की पाँचवीं शताब्दी में भी यह क्षेत्र प्रसिद्ध था। आठवीं शताब्दी के आचार्य जिनसेन ने ‘हरिवंशपुराण’ में श्रीपुर आदि नगरों को दिव्य नगर माना है। बृहत् जैन शब्दार्णव, पृ. ३१७ के अनुसार ‘इस मूर्ति की प्रतिष्ठा वि. संवत् ५५५ में हुई थी।’
सिरपुर के संदर्भ
Sirpur Inscription (In Situ) Shirpur is 37 miles from Akola. IN the temple of Antariksha Parswanath, belonging to the Digambar Jain Community, there is an abroded inscription in Sanskrit, which seems to be dated in Sambat 1334. But Mr. Consens believes that the temple was built at least a hundred years earlier. The name of Antariksha Parswanath with that of the builder of temple Jaysingh also occurs in the record.” – Consens Progress Reprot 1902, P.3 and Epigraphia Indomoslemanica, 1907-8, P.21 Inscriptions in the C.P. & Berar, by R.B. Hiralal, P. 389 -Central Provinces & Berar District Gazettier Akola District, Vol. VIII, by C. Brown I.C.S. & A. F. Nelson I.C.S. ने भी संवत् ५५५ का समर्थ किया है।
भ्रान्त धारणाएँ
श्रीपुर के पार्श्वनाथकी मूर्ति अत्यन्त चमत्कारपूर्ण, प्रभावक और अद्भुत है। इसका सबसे अद्भुत चमत्कार यह है कि यह अन्तरिक्ष में अधर विराजमान है। कहते हैं, प्राचीन काल में यह अन्तरिक्ष में एक पुरुष से भी अधिक ऊँचाई पर अधर विराजमान थी। श्री जिनप्रभसूरि श्री अन्तरिक्ष पार्श्वनाथकल्प में इस मूर्ति की ऊँचाई इतनी मानते हैं, जिसके नीचे से सिर पर घड़ा लिये हुए स्त्री आसानी से निकल जाये। उपदेश सप्तति में सोमर्ध गणी बताते हैं कि पहले यह प्रतिमा इतनी ऊँची थी कि घट पर घट धरे स्त्री इसके नीचे से निकल सकती थी। श्री अन्तरिक्ष पार्श्वनाथछन्द में श्री लावण्य समय नीचे से एक घुड़सवार निकल सके इतनी ऊँचाई बताते हैं। इस प्रकार की कल्पनाओं का क्या आधार रहा है, यह किसी आचार्य ने उल्लेख नहीं किया और दुर्भाग्य से ऐसे संदर्भ प्राप्त नहीं हैं जो उनकी धारणा या कल्पना का समर्थन कर सकें। श्रद्धा के अतिरेक में जनता में नाना प्रकार की कल्पनाएँ बनने लगती हैं। आचार्यों ने जैसा सुना, वैसा लिख दिया। उनके काल में मूर्ति भूमि से एक अंगुल ऊपर थी, आज भी वह अन्तरिक्ष में अधर स्थित है। कहने का सारांश यह है कि जिसकी ख्याति हो जाती है, उसके संबंध में कुछ अतिशयोक्ति होना अस्वाभाविक नहीं है, किन्तु उनके बारे में भ्रांति या विपर्यास होना खेदजनक है। इस क्षेत्र की अवस्थिति के बारे में भी कुछ भ्रान्तियाँ हो गई हैं। जैसे-श्रीपुर पार्श्वनाथक्षेत्र कहाँ हैं, इस संबंध में कई प्रकार की मान्यताएँ प्रचलित हैं। सुप्रसिद्ध जैन इतिहासवेत्ता पं. नाथूराम प्रेमी धारवाड़ जिले में स्थित शिरूर गाँव को श्रीपुर मानते हैं। इस स्थान पर शक संवत् ७८७ का एक शिलालेख भी उपलब्ध हुआ था। बर्गेस आदि पुरातत्त्ववेत्ता बेसिंग जिले के सिरपुर स्थान को प्रसिद्ध जैन तीर्थ मानते हंैं तथा वहाँ प्राचीन पार्श्वनाथमंदिर भी मानते हैं। किन्तु हमारी विनम्र सम्मति में ये दोनों ही मान्यताएँ नाम-साम्य के कारण प्रचलित हुई हैं। श्वेताम्बर मुनि शीलविजयी (विक्रम सं. १७४८) ने ‘तीर्थमाला’ नामक गं्रथ में अपनी तीर्थ-यात्रा का विवरण दिया है। उस विवरण को यदि ध्यानपूर्वक देखा जाये, तो श्रीपुर के संबंध में कोई भ्रान्ति नहीं रह सकती। उन्होंने अपनी दक्षिण यात्रा का प्रारंभ नर्मदा नदी से किया था। सबसे प्रथम वे मानधाता गये। उसके बाद बुरहानपुर होते हुए देवलघाट चढ़कर बरार में प्रवेश करते हैं। वहाँ ‘सिरपुर नगर अन्तरीक पास, अमीझरो वासिम सुविलास’ कहकर अन्तरिक्ष पार्श्वनाथऔर वाशिम का वर्णन करते हैं। उसके बाद लूणारगाँव, ऐलिचपुर और कारंजा की यात्रा करते हैं। इस यात्रा विवरण से इसमें संदेह का रंचमात्र भी स्थान नहीं रहता कि वर्तमान सिरपुर पार्श्वनाथही श्रीपुर पार्श्वनाथहै। वाशिम, लूणारगाँव, ऐलिचपुर और कारंजा इसी के निकट हैं। मुनि शीलविजयी ने सिरपुर पार्श्वनाथको अंतरिक्ष में विराजमान पार्श्वनाथलिखा है। वर्तमान सिरपुर पार्श्वनाथतो अन्तरिक्ष कहलाता ही है और वस्तुत: यह प्रतिमा भूमि से एक अंगुल ऊपर अन्तरिक्ष में विराजमान है। जबकि धारवाड़ के शिरूर गाँव अथवा बेसिंग जिले के सिरपुर गाँव के पार्श्वनाथमंदिर में जो पार्श्वनाथ-प्रतिमा हैं, वह न तो अन्तरिक्ष में स्थित है और न उन प्रतिमाओं को अन्तरिक्ष पार्श्वनाथही कहा जाता है। धारवाड़ (मैैसूर प्रान्त) जिले के शिरूर के पक्ष में एक प्रमाण अभिलेख संबंधी दिया जाता है, वह एक ताम्रपत्र है, जिसके अनुसार शक संवत् ६९८ (ई.स. ७७६) में पश्चिमी गंगवंशी नरेश श्रीपुर द्वारा श्रीपुर के जैनमंदिर के लिए दान दिया गया। यह मंदिर निश्चय ही गंगवाड़ी प्रदेश में होगा। इसलिए धारवाड़ जिले के शिरूर गाँव को श्रीपुर मानने में कोई आपत्ति नहीं है। इस संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि विद्यानंद स्वामी ने जिस ‘श्रीपुर पार्श्वनाथस्तोत्र’ की रचना की है, वह श्रीपुर भी वर्तमान शिरूर गाँव ही हो। ऐसा प्रतीत होता है कि गंगवाड़ी का श्रीपुर (वह शिरूर हो अथवा अन्य कोई) प्राचीनकाल में अत्यन्त प्रसिद्ध स्थान था और वहाँ कोई पार्श्वनाथमंदिर था। उसकी ख्याति भी दूर-दूर तक थी। प्रसिद्ध दार्शनिक विद्वान आचार्य विद्यानंद गंगवंशी नरेश शिवमार द्वितीय (राज्यारोहण सन् ८१०, श्रीपुरुष के पुत्र) और राचमल्ल सत्यवाक्य (शिवमार का भतीजा, राज्यारोहण-काल सन् ८१६) इन दोनों नरेशों के समकालीन थे। उनका कार्यक्षेत्र भी प्राय: गंगवाड़ी प्रदेश ही रहा है। श्रीपुर पार्श्वनाथस्तोत्र के रचयिता ये ही दार्शनिक आचार्य विद्यानंद है अथवा वादी विद्यानंद, यह अभी तक निर्णय नहीं हो पाया। यदि दार्शनिक आचार्य विद्यानंद इसके रचयिता सिद्ध हो जाते हैं तो कहना होगा कि श्रीपुर के उक्त पार्श्वनाथमंदिर के साथ आचार्य विद्यानंद का भी संबंध था। श्रीपुर (गंगवाड़ी) के इन पार्श्वनाथके साथ एक और महत्वपूर्ण घटना का संबंध बताया जाता है। वह घटना है आचार्य पात्रकेशरी की। आचार्य पात्रकेशरी एक ब्राह्मण विद्वान थे। उनकी धारणा शक्ति इतनी प्रबल थी कि जिस ग्रंथ को वे दो बार पढ़ या सुन लेते थे, वह उन्हें कण्ठस्थ हो जाता था। एक दिन वे पार्श्वनाथमंदिर में गये। वहाँ एक मुनि देवागम स्तोत्र का पाठ कर रहे थे। उस स्तोत्र को सुनकर पात्रकेशरी बड़े प्रभावित हुए। स्तोत्र समाप्त होने पर पात्रकेशरी ने उन मुनिराज से स्तोत्र की व्याख्या करने के लिए कहा। मुनिराज सरल भाव से बोले-‘‘मैं इतना विद्वान नहीं हूँ जो इस स्तोत्र की व्याख्या कर सकू।’’ तब पात्रकेशरी ने उनसे स्तोत्र का एक बार फिर पाठ करने का अनुरोध किया। मुनिराज ने उसका पुन: पाठ किया। सुनकर पात्रकेशरी को वह स्तोत्र कण्ठस्थ हो गया। वे घर जाकर उस पर विचार करने लगे, किन्तु अनुमान के विषय में उनके मन में कुछ संदेह बना रहा। वे विचार करते-करते सो गये। रात्रि में उन्हें स्वप्न दिखाई दिया। स्वप्न में उनसे कोई कह रहा था-‘‘तुम क्यों चिंतित हो। प्रात: पार्श्वनाथके दर्शन करते समय तुम्हारा संदेह दूर हो जायेगा।’’ प्रात:काल होने पर वे पार्श्वनाथमंदिर में गये। वहाँ पार्श्वनाथका दर्शन करते समय उन्हें फण पर एक श्लोक अंकित दिखाई दिया। श्लोक इस प्रकार था-
श्लोक पढ़ते ही उनका संदेह जाता रहा। उनके मन में जैनधर्म के प्रति अगाध श्रद्धा के भाव उत्पन्न हो गये। वे विचार करने लगे-‘‘मैंने अब तक अपना जीवन व्यर्थ ही नष्ट किया। मैं अब तक मिथ्यात्व के अंधकार में डूबा हुआ था। अब मेरे हृदय के चक्षु खुल गये हैं। मुझे अब एक क्षण का भी विलम्ब किये बिना आत्मकल्याण के मार्ग में लग जाना चाहिए।’’ उन्होंने जिनेन्द्र प्रतिमा के समक्ष हृदय से जैनधर्म को अंगीकार किया और दिगम्बर मुनि-दीक्षा ले ली। वे जैन दार्शनिक परम्परा के जाज्वल्यमान रत्न बने। इस प्रकार पात्रकेशरी को श्रीपुर के पार्श्वनाथके समक्ष आत्म-बोध प्राप्त हुआ। एक सम्पूर्ण कथन का सारांश यह है कि श्रीपुर नामक कई नगर थे। उन नगरों में पार्श्वनाथमंदिर और पार्श्वनाथ-प्रतिमा की भी प्रसिद्धि थी। किन्तु इन सबमें अंतरिक्ष पार्श्वनाथकेवल एक ही थे और वे थे उस श्रीपुर (वर्तमान सिरपुर) में, जो वर्तमान में अकोला जिले में स्थित है। आचार्य विद्यानंद अथवा पात्रकेशरी की घटना जिस श्रीपुर के पार्श्वनाथमंदिर में घटित हुई, यह अवश्य अन्वेषणीय है। आचार्य पात्रकेशरी से संबंधित घटना अहिच्छत्र में घटित हुई, इस प्रकार के उल्लेख भी कई गं्रथों और शिलालेखों में उपलब्ध होते हैं। आराधना कथाकोश-कथा १ में उस घटना को अहिच्छत्र में घटित होना बताया है। इसलिए इस संबंध में भी विश्वासपूर्वक कहना कठिन है कि वस्तुत: यह घटना श्रीपुर में घटित हुई अथवा अहिच्छत्र में? यदि श्रीपुर में घटित हुई तो किस श्रीपुर में?
ऐल श्रीपाल कौन था?- ऐलवंशी नरेश श्रीपाल का कुष्ठ रोग अन्तरिक्ष पार्श्वनाथके माहात्म्य के कारण वहाँ के कुएँ के जल में स्नान करने से जाता रहा, इस प्रकार का उल्लेख हम इस लेख के प्रारंभ में कर चुके हैं। वह श्रीपाल कौन था? कुछ लोग इस श्रीपाल और पुराणों में वर्णित कोटिभट श्रीपाल को एक व्यक्ति मानते हैं जो मैना सुन्दरी का पति था, किन्तु यह मान्यता निराधार है और केवल नाम साम्य के कारण है। वस्तुत: कोटिभट श्रीपाल भगवान नेमिनाथ के तीर्थ में हुए हैं, जबकि ऐल-श्रीपाल का काल अनुमानत: दसवीं शताब्दी का उत्तरार्ध है। इसी ऐल नरेश ने पार्श्वनाथमंदिर बनवाया था। इस मंदिर में कई शिलालेख मिलते हैं। किन्तु उनमें जो अंश पढ़ा जा सका है, उसमें रामसेन, मल्लपद्मप्रभ, अन्तरिक्ष पार्श्वनाथस्पष्ट पढ़े गये हैं। पवली मंदिर के द्वार के ललाट पर एक लेख इस प्रकार पढ़ा गया है-‘श्री दिगम्बर जैन मंदिर श्रीमन्नेमिचन्द्राचार्य प्रतिष्ठित।’ इन लेखों में आचार्य रामसेन, आचार्य मलधारी पद्मप्रभ, आचार्य नेमिचन्द्र इन आचार्यों का नामोल्लेख है। ये सभी आचार्य समकालीन थे और इनके समय में ऐल श्रीपाल ऐलिचपुर का राजा था। वह राष्ट्रकूट नरेश इन्द्रराज तृतीय और चतुर्थ का सामन्त था। जिला वैतूल के खेरला गाँव से शक सं. १०७९ और १०९४ (क्रमश: ई.स. ११५७ और ११७२) के दो लेख प्राप्त हुए हैं, जिनमें श्रीपाल की वंश-परम्परा में नृसिंह, बल्लाल और जैनपाल नाम दिये हुए हैं। खेरला गाँव राजा श्रीपाल के आधीन था। राजा श्रीपाल के साथ महमूद गजनवी (सन् ९९९ से १०२७) के भानजे अब्दुल रहमान का भयानक युद्ध हुआ था। ‘तवारीख-ए अमजदिया’ नामक ग्रंथ के अनुसार यह सन् १००१ में ऐलिचपुर और खेरला के निकट हुआ था। अब्दुल रहमान का विवाह हो रहा था। वह नौशे का मौर बांधे हुए बैठा था। तभी युद्ध छिड़ गया। वह दूल्हे के वेष में ही लड़ा। इस युद्ध में दोनों मारे गये। यह स्थान अचलपुर-वैतूल रोड पर खरपी के निकट माना जाता है। ऐल श्रीपाल जैनधर्म का कट्टर उपासक था। इसी कुएँ के जल से कुष्ठ रोग ठीक हो जाने पर उसने अंतरिक्ष पार्श्वनाथकी मूर्ति कुएँ के जल से निकलवायी और मंदिर बनवाया। इसी ने ऐलोरा की विश्वविख्यात गुफाओं का निर्माण कराया था। यह भी कहा जाता है कि इस राजा ने सिद्धक्षेत्र मुक्तागिरि पर भी मंदिर का निर्माण कराया था। इस प्रकार अन्तरिक्ष पार्श्वनाथमंंदिर निर्माता ऐल श्रीपाल था। उसने ऐलिचपुर, ऐलोरा आदि कई नगर अपने वंश-नाम पर बसाये। यहाँ एक बात स्पष्ट करना आवश्यक है। जब ऐल श्रीपाल ऐलिचपुर में शासन कर रहा था, लगभग उसी के काल में आश्रमनगर में एक परमारवंशी श्रीपाल शासन कर रहा था। यह राजा भोज का संबंधी और सामन्त था, जबकि ऐल श्रीपाल राष्ट्रकूट नरेश इन्द्रराज का सामन्त था। आश्रमनगर के श्रीपाल के संबंध में ब्रह्मदेव सूरि कृत बृहद्द्रव्यसंग्रह-टीका के आद्यवाक्य में इस प्रकार परिचय दिया गया है-‘‘अथ मालवदेशे धारा नाम नगराधिपतिराजभोजदेवाभिधान-कलिकालचक्रवर्तिसंबन्धिन: श्रीपालमहामण्डलेश्वरस्य…..।’’ इसमें श्रीपाल को भोजराज का संबंधी और महामण्डलेश्वर माना है और वह आश्रमपत्तन नगर का शासक बताया है। दोनों श्रीपालों का काल समान है, नाम समान है, सामन्त-पद भी समान है। अत: दोनों श्रीपालों के संबंध में भ्रम हो जाना स्वाभाविक है। किन्तु दोनों का वंश समान नहीं है, दोनों के स्वामी समान नहीं हैं। फिर विचार करने की बात यह है कि राजा भोज-जैसा अनुभवी शासक आश्रमपत्तन नगर (बूंदी जिला) का शासन ऐलिचपुर (अकोला जिला) में बैठे हुए व्यक्ति को क्यों सौंपेगा, जबकि ऐलिचपुर की अपेक्षा धारानगरी आश्रमपत्तन के अधिक निकट है। इसलिए नामसाम्य होने पर भी दोनों श्रीपाल भिन्न व्यक्ति हैं। यहाँ एक बात अवश्य विचारणीय है। ब्रह्मदेव सूरि ने बृहद्द्रव्यसंग्रह की टीका के उत्थानिका वाक्य में यह सूचना दी है कि आश्रमपत्तन नगर में सोम श्रेष्ठी के अनुरोध पर नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव ने लघु द्रव्य-संग्रह रची और फिर तत्त्वज्ञान के विशद बोध के लिए बृहद्द्रव्य-संग्रह की रचना की। दूसरी ओर अंतरिक्ष पार्श्वनाथमंदिर के द्वार के ऊपर अंकित लेख में ‘श्री दिगम्बर जैन मंदिर श्रीमन्नेमिचन्द्राचार्य प्रतिष्ठित’ यह वाक्य दिया है। यद्यपि यह वाक्य अधिक प्राचीन नहीं लगता, किन्तु नेमिचन्द्राचार्य नाम से भ्रान्ति उत्पन्न हो जाना स्वाभाविक है। इससे तो ऐसा आभास होता है कि आश्रमपत्तन नगर के शासक श्रीपाल और ऐलिचपुर के शासक श्रीपाल में अभिन्नता है तथा आश्रमपत्तन नगर में बैठकर जिन नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव ने द्रव्यसंग्रह की रचना की, उन्होंने ही अन्तरिक्ष पार्श्वनाथमंदिर की प्रतिष्ठा की। किन्तु वस्तुत: नामसाम्य होने पर भी ये व्यक्ति अलग-अलग हैं क्योंकि धारानरेश भोज और ऐल श्रीपाल का समय भिन्न है। भोज ई. सन् १००० में गद्दी पर बैठा और श्रीपाल की मृत्यु सन् १००१ में हो गयी। केवल एक वर्ष का ही काल दोनों का समान था। अत: इस एक वर्ष में श्रीपाल द्वारा मंदिर-निर्माण का कार्य संभव नहीं हो सकता।
मंदिर और मूर्ति दिगम्बर आम्नाय की हैं- पवली मंदिर, सिरपुर मंदिर, अन्तरिक्ष पार्श्वनाथकी मूर्ति तथा अन्य सभी मूर्तियाँ दिगम्बर आम्नाय की हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है। मंदिर का निर्माण दिगम्बर धर्मानुयायी ऐल श्रीपाल ने कराया, मूर्तियों के प्रतिष्ठाकारक और प्रतिष्ठाचार्य दिगम्बर धर्मानुयायी रहे हैं। मूर्तियों की वीतराग ध्यानावस्था दिगम्बर धर्मसम्मत और उसके अनुकूल है। इस मंदिर और मूर्तियों के ऊपर प्रारंभ से दिगम्बर समाज का अधिकार रहा है। इसके अतिरिक्त पुरातात्त्विक, साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्य भी मिलते हैं, जिनसे यह सिद्ध होता है कि यह क्षेत्र सम्पूर्णत: दिगम्बर धर्मानुयायियों का है। श्वेताम्बर मुनि शीलविजयी ने १७वीं शताब्दी में दक्षिण के तीर्थों की यात्रा की थी। उन्होंने ‘तीर्थमाला’ नाम से अपनी यात्रा का विवरण भी पुस्तक के रूप में लिखा था। उसमें उन्होंने लिखा है कि यहाँ से समुद्र तक सर्वत्र दिगम्बर ही बसते हैं। इसके पश्चात् उन्होंने सिरपुर अन्तरिक्ष को दिगम्बर क्षेत्र लिखा है। इससे पूर्व यतिवर्य मदनकीर्ति (ईसा की १३वीं शताब्दी) अन्तरिक्ष पार्श्वनाथको स्पष्ट ही दिगम्बरों के शासन की विजय करने वाला अर्थात् दिगम्बर धर्म की मूर्ति बता ही चुके थे। यहाँ उत्खनन के फलस्वरूप जो पुरातत्त्व उपलब्ध हुआ है, उससे भी सिद्ध होता है कि ये मंदिर और मूर्तियाँ दिगम्बर आम्नाय की हैं। प्रथम उत्खनन १९२८ ई. में हुआ था। सिरपुर गाँव के बाहर पश्चिम दिशा की ओर पवली मंदिर है। मंदिर की दीवार के इर्द गिर्द पक्के फर्श के ऊपर ४-५ फुट मिट्टी चढ़ गई थी। उसे सन् १९६७ में हटाया गया। फलत: मंदिरके तीन ओर दरवाजों के सामने १०²१० फुट के चबूतरे और सीढ़ियाँ निकलीं। इसके अतिरिक्त पाषाण की खड्गासन सर्वतोभद्रिका जिनप्रतिमा, जिनबिम्ब स्तंभ, एक शिलालेख युक्त स्तंभ और अन्य कई प्रतिमाएँ निकली हैं। गर्भगृह की बाह्य भित्तियाँ भी निकली हैं, जिनमें १८ इंच या इससे भी लम्बी, ९ इंच चौड़ी और २ फुट ३ इंच मोटी र्इंटें लगी हुई हैं। इसी प्रकार मंदिर के अंदर गर्भगृह के सामने पत्थर के चौके लगाने के लिए खुदाई की गई। खुदाई में दिनाँक ६-३-६७ को ११ अखण्ड जैन मूर्तियाँ निकलीं। इनमें एक मूर्ति मूँगिया वर्ण की तथा शेष हरे पाषाण की हैं। सभी के पाद पीठ पर लेख उत्कीर्ण हैं। इन लेखों में आचार्य रामसेन, मलधारी पद्मप्रभ, नेमिचन्द्र आदि का नामोल्लेख मिलता है, जो दिगम्बर आचार्य थे। इन मूर्तियों, स्तंभों और लेखों में एक भी वस्तु श्वेताम्बर सम्प्रदाय से संबंधित नहीं है, सभी दिगम्बर मान्यता के अनुकूल हैं। पुरातत्त्व-विभाग के पूर्वांचल की सर्वे रिपोर्ट (१७-४-७३) में लिखा है-सिरपुर का प्राचीन मंदिर अंतरिक्ष पार्श्वनाथका है तथा वह दिगम्बर जैनों का है।
लिस्ट ऑफ प्रोटेक्टेड मौन्यूमेण्ट (List of Protected Monuments, inspected by the Govt. of India, correted on Sept. 1920) -यह सिरपुर गाँव के बाहर का अन्तरिक्ष पार्श्वनाथका मंदिर जैनों का है तथा पुरातत्त्व विभाग ने इसको संरक्षित करके अपने अधिकार में लिखा है और ता. ८ मार्च १९२१ के करार के अनुसार दिगम्बरी लोग साधारण मरम्मत कर सकते हैं तथा विशेष मरम्मत सिपर्क सरकार ही करेगी। इसके पश्चात् पुरातत्त्व विभाग भोपाल की ओर से दिनाँक ५-१२-६४ को दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी के नाम एक महत्वपूर्ण पत्र आया। उसमें लिखा है-‘‘सरकार की ओर से सिरपुर के पवली मंदिर की मरम्मत नहीं हो सकी क्योंकि पवली मंदिर सुरक्षित स्थानों की सूची में से निकाल दिया है। आप मालिक हैं। अब आप उचित मरम्मत करा सकते हैं।’’ इस मंदिर के संबंध में इम्पीरियल गजेटीयर (आक्सफोर्ड) वाशिम डिस्ट्रिक्ट-भाग ७, पृ. ९७ पर उल्लेख है कि अन्तरिक्ष पार्श्वनाथका प्राचीन मंदिर इस जिले में सबसे अधिक आकर्षक कलापूर्ण स्थान है। यह मंदिर दिगम्बर जैनों का है। यहाँ खुदाई में जो मूर्तियाँ और स्तंभ निकले थे, उनके लेख इस प्रकार पढ़े गये हैं-
१. नेमिनाभ भगवान- अवगाहना ७ इंच, संवत् १७२७ मार्गशीर्ष सुदी ३ शुक्ले श्री काष्ठासंघे माथुरगच्छे पुष्करगणे श्री लोहाचार्यान्वये भट्टारकश्रीलक्ष्मीसेनाम्नाये भट्टारकश्रीगण्ुाभद्रोपदेशात्…….ज्ञातीय इक्ष्वाकुवंशे उपरोत पाबायक गोत्रे स.क तस्यात्मज स.वासुदेव तस्यात्मज…….इदं बिम्बं प्रणमति।
२. भगवान पार्श्वनाथ- अवगाहना ७ इंच, संवत् १७५४ वैशाख सुदी १३ शुक्रवार काष्ठासंघे…..प्रतिष्ठा।
३. भागवान पार्श्वनाथ- अवगाहना ८ इंच। शके १५९१ फाल्गुण सुदी द्वितीया सेनगणे भ. सोमसेन उपदेशात् श्रीपुर नगरे प्रतिष्ठा।
४. भगवान पार्श्वनाथ- अवगाहना ९ इंच। स्वस्ति श्री संवत् १८११ माघ शुक्ला १० श्री कुन्दकुन्दाम्नाये गुरु ज्ञानसेन उपदेशात् आदिनाथ तत्पुत्र पासोवा सडतवाल (पुत्र) कृपाल जन्मनिमित्ते श्रीपुर नगरे अन्तरिक्ष पार्श्वनाथपवली जिनालय जीर्णोद्धार कृत्य प्रतिष्ठितमिदं बिम्बं।
५. पाषाण स्तंभ- श्री अन्तरिक्ष नम: गुरु कुन्दकुन्द नम: संवत् १८११ माघ सुदी १० आदिनाथ पुत्र पासोवा सडतवाल…….पुत्र कृपाला जमे देंऊल उद्धार केले। इन मूर्ति लेखों से भी यह स्पष्ट है कि ये मूर्तियाँ और जिनालय दिगम्बर सम्प्रदाय के हैं। इनके निर्माता, प्रतिष्ठापक, प्रतिष्ठाचार्य आदि सभी दिगम्बरी थे।
क्षेत्र-दर्शन
पवली का दिगम्बर जैन मंदिर-सिरपुर गाँव के बाहर अति प्राचीन हेमाड़पंथी शैली का दिगम्बर जैन मंदिर है। यहीं पर राजा ऐल श्रीपाल का कुष्ठ रोग यहाँ के कुएँ के जल में स्नान करने से ठीक हुआ था। इस कुएँ में से ही उसने अन्तरिक्ष पार्श्वनाथकी मूर्ति निकाली थी और उसने यहीं पर मंदिर का निर्माण कराया था। पवली का यह मंदिर ऐल श्रीपाल द्वारा बनवाया हुआ है। कहा जाता है कि इस मंदिर के शिखर में ऐसी र्इंटों का प्रयोग किया गया था, जो जल में तैरती हैं। यद्यपि इन र्इंटों का प्रयोग बहुत ही कम हुआ है, अधिकांशत: पाषाण का प्रयोग हुआ है। यह मंदिर अष्टकोण आकार का है और अत्यन्त कलापूर्ण है। इस पाषाण मंदिर के नीचे र्इंटों का चबूतरा बना। ये र्इंटें भी आकार में बड़ी और अधिक प्राचीन हैं। लगता है, वर्तमान पाषाण मंदिर के निर्माण के पहले यहाँ र्इंटों का कोई प्राचीन मंदिर था। मराठी भाषा में पोल शब्द का अर्थ है मिट्टी गारे की सहायता के बिना बनायी गयी पत्थर की दीवार। लगता है इस पोल शब्द से ही अपभ्रंश होकर पवली शब्द बन गया और वह मंदिर का ही नाम हो गया। यह मंदिर गाँव के बाहर पश्चिम की ओर वृक्षों की पंक्ति के मध्य खड़ा हुआ है। इस मंदिर में पूर्व, उत्तर और दक्षिण की ओर पत्थर के द्वार बने हुए हैं। द्वार के सिरदल पर पद्मासन दिगम्बर मूर्तियाँ बनी हुई हैं। इसी प्रकार द्वारों के दोनों ओर खड्गासन दिगम्बर जैन मूर्तियाँ और आम्रपत्रों से वेष्टित कलशों का अंकन बड़ा भव्य प्रतीत होता है। दक्षिण द्वार पर तीर्थंकरों के जीवन से संबंधित अत्यन्त कलापूर्ण चित्रांकन है। पूर्व के द्वार पर तीन-तीन पंक्तियों के दो शिलालेख हैं जिन्हें इस प्रकार पढ़ा जा सकता है-
ऊपर का शिलालेख- शाक ९०९….पंच……..मूलसंघे…..(बलात्कार) भट्टारक श्री……..जि….न….रा (ज्ञी) रा (जा) मति श्री भूपालभूप श्री पार्श्वनाथबिं……….(राष्ट्रकूटसंघ)……..श्री जे (जि) न…….(प्र) तिष्ठित……..(इन्द्र) राज (हने) श्रीपाल इह श्रीरायतनं।
दूसरा शिलालेख- ।।स…….१३३८ वैशाख सुदि श्री मालवस्थ ठ: रामल पौत्र ठ: भोज पुत्र अमर (कुल) समुत्पन्न संघपति ठ: श्री जगसिंहेन अन्तरिक्ष श्री पाश्र्व (ना) थ निजकुल (उद्धारक) षटवड वंश……..राज………। गर्भगृह में भगवान पार्श्वनाथकी ३ फीट ६ इंच उत्तुंग संवत् १४५७ में प्रतिष्ठित श्वेत वर्ण की पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। शीर्ष पर ९ फण सुशोभित हैं। वक्ष पर श्रीवत्स अंकित है। कर्ण स्कन्धचुम्बी हैं। इस वेदी पर पाषाण की ३२ और धातु की ४ मूर्तियाँ हैं। गर्भगृह के द्वार पर अर्हन्त और देव-देवियों की प्रतिमा बनी हुई हैं। द्वार अलंकृत है। गर्भगृह के आगे दालान बना हुआ है। बायीं ओर २फुट २ इंच ऊँचे एक पाषाण फलक में अर्धपद्मासन दिगम्बर प्रतिमा बनी हुई है। परिकर में भामण्डल, छत्र और कोनों में पद्मासन मूर्तियाँ बनी हुई हैं। अधोभाग में खड्गासन दिगम्बर मूर्तियाँ हैं। इस वेदी से आगे बायीं ओर एक वेदी में १ फुट ६ इंच ऊँचे फलक में भगवान महावीर की अर्ध पद्मासन मूर्ति है। इससे आगे २ फीट ६ इंच ऊँचे फलक में पार्श्वनाथकी प्रतिमा उत्कीर्ण है। ये तीनों मूर्तियाँ प्राचीन हैं। दालान में दायीं ओर २ फीट २ इंच ऊँचे शिलाफलक में अर्ध पद्मासन तीर्थंकर मूर्ति है। सिर के पृष्ठ भाग में भामण्डल और उपरिभाग में छत्र की संयोजना है। ऊपर दोनों कोनों पर दो पद्मासन और नीचे दो खड्गासन मूर्तियों का अंकन है। इससे आगे बढ़ने पर दूसरी वेदी में श्वेत पाषाण की चन्द्रप्रभ भगवान की पद्मासन मूर्ति है। इसकी अवगाहना १ फुट ५ इंच है और वीर संवत् २४९६ में प्रतिष्ठित हुई है। इस वेदी से आगे बढ़ने पर तीसरी वेदी में २ फीट ७ इंच ऊँचे एक शिलाफलक में संवत् १५४५ की पार्श्वनाथमूर्ति है। यह श्यामवर्ण है और पद्मासन है। इसके परिकर में गजारूढ़ इन्द्र तथा दोनों पाश्र्वों में पार्श्वनाथके सेवक यक्ष-यक्षी धरणेन्द्र एवं पद्मावती हैं। नीचे चरणचौकी पर गज बने हुए हैं, जो इन्द्र के ऐरावत गज के प्रतीक हैं। मध्य में धरणेन्द्र उत्कीर्ण हैं। गर्भगृह के सामने चार स्तंभों पर आधारित खेलामण्डप बना हुआ है। स्तंभों पर तीर्थंकरों, मुनियों और भक्ति-नृत्य में लीन भक्तों की मूर्तियाँ बनी हुई हैं। मण्डप के मध्य में गोलाकार चबूतरा बना हुआ है। जो संभवत: पूजा, मण्डल विधान के प्रयोजन से बनाया गया है। यह मंदिर पूर्वाभिमुखी है। उत्तर और दक्षिण द्वारों के आगे अर्धमण्डप बने हुए हैं। दक्षिण द्वार पर दो चैत्यस्तंभ रखे हुए हैं, जिनमें सर्वतोभद्रिका प्रतिमाएँ हैं। पूर्व द्वार के आगे का अर्धमण्डप गिर गया है। यह मंदिर अठकोण बना हुआ है। इसकी रचना शैली अत्यन्त आकर्षक है। मंदिर के आगे बायीं ओर चबूतरे पर भट्टारक शान्तिसेन, भट्टारक जिनसेन और भट्टारकों के शिष्यों की समाधियाँ बनी हुई हैं। इस मंदिर के सामने एक और जिनालय है। इसमें प्रवेश करने पर बायीं ओर २ फीट ५ इंच उत्तुंंग पार्श्वनाथकी श्याम वर्ण पद्मासन मूर्ति है जो वीर संवत् २४९६ की प्रतिष्ठित है। इस मूर्ति में फण की संयोजना नहीं की गई, पाद पीठ पर सर्प का लांछन बना हुआ है। इसकी बायीं ओर ५ फीट ९ इंच उत्तुंग पंच फणावलिमण्डित श्यामवर्ण सुपार्श्वनाथकी खड्गासन प्राचीन मूर्ति है तथा दायीं ओर ५ फीट ६ इंच उन्नत नौ फण विभूषित पार्श्वनाथकी खड्गासन प्राचीन मूर्ति है। इस मूर्ति के सिर पर जटाएँ अंकित हैं। इससे बायीं ओर बढ़ने पर पार्श्वनाथकी ३ फुट ५ इंच ऊँची श्याम वर्ण की खड्गासन मूर्ति है। इसके सिर पर सप्तफण मण्डप है। इसके आगे बायीं ओर बढ़ने पर ३ फीट ४ इंच ऊँचे फलक में मध्य में खड्गासन और ऊपर-नीचे दो-दो पद्मासन मूर्तियाँ बनी हुई हैं। ये मूर्तियाँ यहीं उत्खनन में निकली थीं। यहाँ मंदिर के बाहर अहाते में १८ प्राचीन मूर्तियाँ रखी हैं। ये सभी खण्डित हैं। ये मूर्तियाँ इसी मंदिर से खुदाई में निकली थीं। यहॉँ एक कुआँ हैं। इसके जल में कुष्ठ रोग, उदर रोग आदि ठीक हो जाते हैं, ऐसा कहा जाता है। मंदिर के पास धर्मशाला बनी हुई है जिसमें पाँच कमरे हैं। संवत् २०२६ में यहाँ पंचकल्याणक प्रतिष्ठा हुई थी। पवली मंदिर के निकट एक जिनालय बना हुआ है। इसमें केवल गर्भगृह है। इसमें भगवान पार्श्वनाथकी ४ फीट ५ इंच ऊँची ९ फणवाली पद्मासन मूर्ति विराजमान है। मंदिर का द्वार पूर्वाभिमुखी है।
अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ मंदिर- इस मंदिर के संबंध में यह अनुश्रुति है कि ऐल श्रीपाल ने अन्तरिक्ष पार्श्वनाथकी मूर्ति की प्रतिष्ठा इस मंदिर में नहीं करायी थी, बल्कि पवली के दिगम्बर जैन मंदिर में करायी थी। मुस्लिम काल में, जब मूर्तियों का व्यापक विनाश किया जा रहा था, तब अन्तरिक्ष पार्श्वनाथकी मूर्ति की सुरक्षा के लिए पवली के मंदिर से सिरपुर के इस मंदिर में लाकर भोंयरे में विराजमान कर दिया गया था। पवली मंदिर की खण्डित मूर्तियों को देखने से इस अनुश्रुति में सार दिखाई देता है। किन्तु यह मूर्ति किस संवत् में पवली के मंदिर से लाकर यहाँ विराजमान की गई, यह ज्ञात नहीं होता। इस संबंध में हमारी धारणा इससे भिन्न है। हमारी विनम्र मान्यता है कि ऐल श्रीपाल ने ही सिरपुर के जिनालय का निर्माण कराया था और पवली के कुएँ से मूर्ति को निकालकर और यहाँ लाकर भूगर्भगृह में विराजमान किया था। ऐल श्रीपाल के संबंध में पूर्व में जिस िंकवदन्ती का उल्लेख किया गया है, उसमें भी यह बताया गया है कि ऐल श्रीपाल घास की गाड़ी में मूर्ति को कुछ दूर ले गया। जब उसने पीछे मुड़कर देखा तो मूर्ति वहीं अचल हो गयी। इस अनुश्रुति से भी हमारी धारणा की पुष्टि होती है। हमें लगता है, जहाँ पवली मंदिर है, पहले उस स्थान पर कोई मंदिर था। अन्तरिक्ष पार्श्वनाथकी मूर्ति उसमें विराजमान थी। वह मंदिर किसी कारणवश नष्ट हो गया या किसी आततायी ने नष्ट कर दिया। उस काल में मूर्ति को बचाने के उद्देश्य से मूर्ति को कुएँ में छिपा दिया। ऐल श्रीपाल ने उस मूर्ति को कुएँ से निकाला और उसे लेकर चला। किन्तु सिरपुर में आकर मूर्ति अचल हो गयी, तब उसने मूर्ति के ऊपर ही मंदिर का निर्माण कराया। हमारी यह धारणा अधिक तर्वâसंगत और स्थिति के अनुकूल लगती है। इस स्थिति में यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है कि तब पवली मंदिर किसने बनवाया? हमारी मान्यता है कि पवली मंदिर भी ऐल श्रीपाल ने ही बनवाया। जहाँ उसने कुएँ से मूर्ति निकालकर रखी, उसी स्थान पर स्मृति के रूप में उसने मंदिर बनवाया। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि ऐल श्रीपाल कट्टर दिगम्बर धर्मानुयायी था। उसने वाशिम, मुक्तागिरि, ऐलौरा आदि कई स्थानों पर दिगम्बर जिनालयों का निर्माण कराया था। अत: पवली और सिरपुर के जिनालय मूलत: दिगम्बर जिनालय थे और हैं। उसने जिन रामसेन, मलधारी पद्मप्रभ और नेमिचन्द्र से प्रतिष्ठा करायी थी, वे भी दिगम्बर जैन भट्टारक थे और उन्होंने दिगम्बर विधि से प्रतिष्ठा की। अस्तु। यह मंदिर गाँव के मध्य में गली में है। मंदिर का प्रवेश-द्वार छोटा है। उसमें झुककर ही प्रवेश किया जा सकता है। प्रवेश करने पर एक छोटा प्रांगण मिलता है। उसके तीन ओर बरामदे हैं। यहीं दिगम्बर जैन गद्दी (कार्यालय) है तथा तिजोड़ी आदि रहती है। इस प्रांगण में ऊपर से ही अन्तरिक्ष पार्श्वनाथके दर्शन के लिए एक झरोखा बना हुआ है। इस झरोखे में से मूर्ति के स्पष्ट दर्शन होते हैं। आँगन में से ही तलघर (भोंयरे) में जाने के लिए सोपान-मार्ग बना हुआ है। तलघर में भगवान पार्श्वनाथकी ३ फीट ८ इंच ऊँची और २ फीट ८ इंच चौड़ी कृष्ण वर्ण अर्धपद्मासन मूर्ति विराजमान है। यह मूर्ति अत्यन्त अतिशयसम्पन्न और मनोज्ञ है। इसके शीर्ष पर सप्तफणावलि सुशोभित है। कर्ण स्कन्धचुम्बी हैं। वक्ष पर श्रीवत्स का अंकन है। सिर के पीछे भामण्डल है तथा सिर के ऊपर छत्र शोभायमान है। यह मूर्ति भूमि से कुछ ऊपर अधर में स्थित है। नीचे और पीछे कोई आधार नहीं है। केवल बायीं ओर मूर्ति का अंगुलभर भाग भूमि को स्पर्श करता है। नीचे से रूमाल निकल जाता है, केवल इस थोड़े से भाग में आकर अड़ जाता है। मूलनायक के आगे विधिनायक पार्श्वनाथकी छह इंच अवगाहना वाली लघु पाषाण प्रतिमा विराजमान है। दोनों ही मूर्तियों के ऊपर लेख नहीं है। दायीं ओर एक दीवार-वेदी में मध्य में महावीर स्वामी की १ फुट ७ इंच उन्नत श्वेत खड्गासन प्रतिमा है। इसके बायीं ओर पार्श्वनाथकी १ पुुâट ४ इंच ऊँची श्वेत पद्मासन और दायीं ओर शांतिनाथ की १ फुट २ इंच ऊंंची संवत् १५४८ की प्रतिष्ठित श्वेत वर्ण की पद्मासन प्रतिमा है। मूलनायक के बायें पाश्र्व में नेमिनाथ की संवत् १५६४ में प्रतिष्ठित १ फुट समुन्नत श्वेत पद्मासन प्रतिमा है। इससे आगे बढ़ने पर मुनिसुव्रतनाथ की संवत् १५४८ की १ फुट १ इंच ऊँची श्वेत पद्मासन प्रतिमा है। फिर अरनाथ की संवत् १५४८ में प्रतिष्ठित १ फुट २ इंच ऊँची श्वेत पद्मासन प्रतिमा है। इससे आगे संवत् १५४८ में प्रतिष्ठित १ फुट ४ इंच ऊँची आदिनाथ भगवान की श्वेत पद्मासन मूर्ति है। इनसे ऊपर दीवार-वेदी में संवत् १५६१ में प्रतिष्ठित और १ फीट ७ इंच उन्नत श्वेत वर्ण ऋषभदेव पद्मासन मुुद्रा में आसीन हैं। इसके दोनों पाश्र्वों में श्याम वर्ण तीर्थंकर मूर्तियाँ हैं। इनमें से काले पाषाण की एक मूर्ति आदिनाथ की है। यह ७ इंच ऊँची है और इसका प्रतिष्ठाकाल संवत् १९४६ है। दूसरी मूर्ति अनन्तनाथ की है। यह १० इंच ऊंची और अति प्राचीन है। इस पर ब्राह्मी लिपि में दो पंक्तियों का लेख है। इनके बगल मेें ३ पाषाण चरण बने हुए हैं, जिनमें शक संवत् १८०८ के नेमिसागर के और संवत् १९४६ के आदिनाथ और पार्श्वनाथके चरण हैं। इनके बगल में २ फीट ३ इंच ऊँचे पाषाण-फलक में पद्मावती देवी, ५ तीर्थंकर मूर्तियों और चमरवाहकों का अंकन है। अधोभाग में दोनों किनारों पर भैरव बने हुए हैं तथा संवत् १९३० का प्रतिष्ठा लेख खुदा है। इन मूर्तियों के बगल में भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति कारंजा की गद्दी है। बायीं ओर बरामदे में ५ वेदियाँ बनी हुई हैं, जिनमें काष्ठासन पर संवत् १५४८ की ४ मूर्तियाँ विराजमान हैं। एक वेदी में अर्धपद्मासन अति प्राचीन तीर्थंकर मूर्ति भी विराजमान है। इसी बरामदे से होकर नीचे तल-प्रकोष्ठ (भोंयरे) में जाने का सोपान-मार्ग है। यह आकार में छोटा है, किन्तु इसमें सम्पूर्ण मंदिर की रचना दिखाई पड़ती है। २ फीट ७ इंच ऊँचे श्याम वर्ण शिलाफलक में खड्गासन चिन्तामणि पार्श्वनाथकी प्रतिमा उत्कीर्ण है। इसे विघ्नहर पार्श्वनाथभी कहते हैं। इसके परिकर में छत्र, कीचक, मालावाहक देव, ४ तीर्थंकर प्रतिमाएँ, चमरेन्द्र और भक्त हैं। इस मूर्ति के सामने क्षेत्र के रक्षक दो क्षेत्रपाल विराजमान हैं। यह भोंयरा आठ फीट ऊँचा है। चिन्तामणि पार्श्वनाथकी प्रतिमा अतिशयसम्पन्न है। अनेक लोग यहाँ मनौती मनाने आते हैं। कहते हैं, लगातार पाँच रविवारों को भक्तिपूर्वक इसके दर्शन करने से कामना पूर्ण होती है। ऊपर आँगन के पास एक कमरे में वेदी में सहस्रफण पार्श्वनाथकी श्वेत वर्ण वाली दो पद्मासन प्रतिमाएँ हैं। इनके अतिरिक्त पाषाण की ९ और धातु की २ प्रतिमाएँ हैं। एक चरण पादुका भी है। एक ओर भट्टारक वीरसेन की गुरु-गद्दी है। उसके पास बरामदे में भट्टारक विशालकीर्ति की गद्दी है। इस प्रकार इस मंदिर में तीन भट्टारकों के पीठ या गद्दियाँ रही हैं। लगता है, इन तीन भट्टारकों में भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति बलात्कारगण की कारंजा शाखा के, भट्टारक वीरसेन सेनगण और भट्टारक विशालकीर्ति संभवत: बलात्कारगण की लातूर शाखा के थे। यह उल्लेखनीय है कि इस मंदिर में उपर्युक्त सभी मूर्तियाँ दिगम्बर आम्नाय की हैं, नग्न दिगम्बर हैं। इनके प्रतिष्ठाकारक और प्रतिष्ठाचार्य सभी दिगम्बर जैन धर्मानुयायी थे, जैसा कि उनके मूर्ति-लेखों से ज्ञात होता है। भट्टारकों की तीन परम्पराओं की यहाँ गद्दियाँ रही हैं। ये भट्टारक भी दिगम्बर धर्मानुयायी थे। कुल मिलाकर यह सिद्ध होता है कि मंदिर और मूर्तियाँ दिगम्बर आम्नाय की हैं और सदा से दिगम्बर समाज के अधिकार में रही हैं। इस मंदिर के ऊपर शिखर है तथा मंदिर के द्वार पर नगाड़ाखाना है। मंदिर के ऊपर दिगम्बरों की ध्वजा लगी हुई है। वर्ष में अनेक बार यात्रा उत्सव होते हैं, उन अवसरों पर तथा जब कभी प्रतिष्ठा विधान आदि होते हैं, उन अवसरों पर दिगम्बर समाज पुरानी ध्वजा उतारकर नयी ध्वजा लगाती है। नीचे के भोंयरे की देहलियों में जहाँगीर और औरंगजेबकालीन रुपये जड़े हुए हैं। कुछ उख़ड़ भी गये हैं। यह मंदिर पंचायतन कहलाता है। यहाँ पंचायतन से प्रयोजन है, जिसमें आराध्य मूलनायक की मूर्ति हो, शासन देवों की मूर्ति हो, शास्त्र का निरूपण करने वाले गुरु की गद्दी हो, क्षेत्रपाल हों और सिद्धान्त-शास्त्र हों। ये सभी बातें यहाँ पर हैं ही। मंदिर के चबूतरे के बगल में एक कच्चा मण्डप है जो दिगम्बर समाज के अधिकार में है। इसमें एक पीतल की वेदी पर संवत् १९२५ में प्रतिष्ठित सुपार्श्वनाथभगवान की श्वेत पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। यहाँ दो चरण-चिन्ह भी स्थापित हैं।
धर्मशाला- मण्डप के पीछे दिगम्बर समाज की दो धर्मशालाएँ बनी हुई हैं-एक मण्डप के पीछे और दूसरी मंदिर के पीछे। यहीं क्षेत्र का दिगम्बर जैन कार्यालय है। इन धर्मशालाओं में यात्रियों के लिए बिजली, गद्दे, तकिये, चादरें और बर्तनों की सुविधाएँ उपलब्ध हैं। मण्डप के पीछे वाली धर्मशाला में मीठे जल का कुआँ है, जिसमें मोटर फिट है तथा हैण्डपम्प लगा हुआ है। कुएँ के पास ही स्नानगृह बना है। इन धर्मशालाओं में कुल कमरों की संख्या ३७ है।
व्यवस्था- सिरपुर और पवली के दोनों मंदिरों, समाधियों तथा उनसे संबंधित सम्पत्ति की व्यवस्था ‘दिगम्बर जैन तीर्थ कमेटी सिरपुर’ द्वारा होती है। यह एक पंजीकृत संस्था है। इसका चुनाव वैधानिक ढंग से नियमानुसार होता है।
मेला- क्षेत्र का वार्षिक मेला कार्तिक शुक्ला १३ से १५ तक तीन दिन होता है। इस अवसर पर भगवान की रथयात्रा निकलती है। मेले में लगभग ३-४ हजार व्यक्ति सम्मिलित होते हैं। चैत्र शुक्ला १ को नववर्ष के उपलक्ष्य में दो दिन मेला होता है। इस अवसर पर जलयात्रा होती है। आषाढ़ शुक्ला १४-१५ को विशेष आयोजन के साथ अभिषेक और पूजन होता है।
निकटवर्ती तीर्थक्षेत्र- अन्तरिक्ष पार्श्वनाथसिरपुर के पास वाशिम में अमीझरो पार्श्वनाथ(धाकड़ मंदिर) और चिन्तामणि पार्श्वनाथ(सैतवाल मंदिर) है जो ७०० वर्ष प्राचीन है। इन दोनों मंदिरों में भोंयरे हैं। ऐल राजा ने बरार प्रदेश में अनेक मंदिरों का निर्माण कराया था।
श्वेताम्बर समाज द्वारा कलह- श्री अन्तरिक्ष पार्श्वनाथदिगम्बर जैन क्षेत्र का मंदिर और मूर्तियाँ स्पष्टत: दिगम्बर आम्नाय की हैं, किन्तु श्वेताम्बरों द्वारा दिगम्बर तीर्थों पर बलात् अधिकार करने की अपनी नीति के कारण लगभग आधी शताब्दी से इस क्षेत्र पर भी श्वेताम्बर समाज द्वारा अनुचित कार्य किये जा रहे हैं। कुछ वर्ष पूर्व श्वेताम्बर लोगों ने दिगम्बर समाज से केवल दर्शन-पूजन की सुविधा मांगी थी। दिगम्बर समाज ने उदारतावश उन्हें यह सुविधा प्रदान कर दी। परिणाम यह हुआ कि श्वेताम्बर भाइयों ने इस उदारता का लाभ उठाकर अपने पैर पैâलाने शुरू कर दिये और सम्पूर्ण तीर्थ पर अपना स्वामित्व जताने लगे। प्रीवी कौंसिल तक केस चले। वहाँ से जो निर्णय हुआ, उसके अनुसार दोनों मंदिरों, उनकी मूर्तियों आदि का स्वामित्व और उनकी व्यवस्था का दायित्व तो दिगम्बर समाज का है, केवल अन्तरिक्ष पार्श्वनाथकी मूर्ति के पूजन के लिए दोनों समाजों के लिए तीन-तीन घण्टे का समय नियत कर दिया गया है।
वर्तमान स्थिति- यह अंतरिक्ष पार्श्वनाथपवली दिगम्बर जैन मंदिर नाम से आज भी विद्यमान है तथा वह जलाशय, कूप (कुआं) के रूप में विद्यमान है। यह दिगम्बर जैन संस्कृति की परंपरागत प्राचीन ऐतिहासिक निधी है। इसके सन्निकट इस कूप के जल से आज भी अनेक चर्मरोग ठीक होते हैं। अनेक श्रद्धालुओं का यह वास्तविक अनुभव है जो विज्ञान के लिए आव्हान है। इस कुएं का जल दूर-दूर से आये यात्री औषधी मानकर लेते हैं और आरोग्य लाभ पाते हैं। श्री अंतरिक्ष पार्श्वनाथपवली दिगम्बर जैन मंदिर के प्रांगण में एवम् सभामंडप में समय-समय पर उत्खनन होते रहे। उसमें अनेक दिगम्बर प्रतिमायें तथा दिगम्बर संस्कृति के विविध अवशेष प्राप्त हुए हैं। उत्खनन में प्राप्त ईटें पानी पर तैरती हैं। यह यहाँ की विशेषता है। इस मंदिर के प्रवेश द्वार पर उत्कीर्ण शिलालेखों से यह सिद्ध होता है कि, इस मंदिर का निर्माण राजा ईल अर्थात् श्रीपाल द्वारा ई.सन् की १० वीं शताब्दी में हुआ है तथा इस मंदिर का जीर्णोद्धार ई.सं. १४०६ में हुआ है। भारतीय इतिहास के आक्रमण काल की परिवर्तन शृंखला में भगवान अंतरिक्ष पार्श्वनाथकी यह अतिशय युक्त चमत्कारी ‘‘अंतरिक्ष मूर्ति’’ शिरपुर ग्राम में विद्यमान पुरातन भोयरेंयुक्त मंदिर में सुरक्षा की दृष्टि से स्थानांतरित की गई। यह मंदिर श्री अंतरिक्ष पार्श्वनाथस्वामी दिगम्बर जैन संस्थान बस्ती मंदिर शिरपुर नाम से प्रख्यात है। बस्ती मंदिर का जीर्णोद्धार ई.सन् १६ वीं शताब्दी में हुआ है। यह मंदिर दिगम्बर आम्नाय का प्रतीक है। मंदिर की छत पर एवं चौक में चूने से दिगम्बररूप में बनीं मूर्तियाँ दिगंबरत्व का प्रमाण हैं तथा इस मंदिर पर ध्वजारोहण का अधिकार केवल दिगम्बर जैन समाज को है। यह मंदिर त्रि-स्तरीय (तीन ताल में है, ऊपर के ताल में तीन वेदियाँ है। मध्य के ताल में (भोयरे में ) दस वेदियाँ है। इन सभी वेदियों पर दिगम्बर तीर्थंकरों की मूर्तियाँ विराजमान हैं जो पूर्णरूपेण दिगम्बर आम्नाय की हैं। पूर्णत: दिगम्बर जैन समाज के स्वामित्व अधिकार में हैं तथा केवल दिगम्बर जैन आम्नायानुसार पूजा की जाती है। पार्श्वनाथमूर्ति मूलत: पाषाण की है एवम् पूर्णत: दिगम्बर आम्नाय की है। गत शताब्दी से यह मूर्ति लेप में लिप्त है जो श्वेताम्बर आक्रमण प्रवृत्ति द्वारा आज विवाद का विषय बनी हुई है। इस मध्यतल में दिगम्बर रूप में उत्कीर्ण तीर्थंकर प्रतिमा सहित पद्मावती देवी की संगमरमर की अतिसुंदर मूर्ति विराजमान है। जिसकी प्रतिष्ठा यहाँ के मूल निवासी स्व. बालासा नामक कासार जाति के श्रावक द्वारा संवत् १९३० (ई.सं. १८७३) में हुयी है। अन्य मूर्तियों पर लिखित शिलालेख द्वारा यह सिद्ध होता है कि मंदिर की स्थापना से ही यह मंदिर दिगम्बर जैन समाज का रहा है और आज भी है। यहीं पर दिगम्बर आम्नाय के तीन भट्टारक गुरुपीठों के अंतर्गत एक स्वस्ति श्री भट्टारक पट्टाचार्य देवेन्द्रकीर्ति जी महाराज का पीठ है तथा ऊपर के ताल पर स्वस्ति श्री भट्टारक पट्टाचार्य वीरसेन महाराज एवं स्वस्ति श्री भट्टारक पट्टाचार्य विशालकीर्ति जी महाराज ऐसे दो पीठ परंपरा से स्थापित हैं। पूर्व में इन भट्टारक पीठों के निर्देशन में और संरक्षण में मंदिर की व्यवस्था, जीर्णोद्धार तथा धर्मशालाओं का निर्माण एवम् जीर्णोद्धार होता रहा है। श्वेताम्बर समाज का कोई भी पीठ यहाँ पर न था न आज है। मंदिर के तीसरे स्तर के भूगर्भ के भोयरे में दिगम्बर आम्नाय की तीन वेदियाँ हैं। इनमें से एक वेदी पर दिगम्बर आम्नाय की दिगम्बर स्वरूप में खड्गासनस्थ चिंतामणि पार्श्वनाथभगवान की प्राचीन मूर्ति विराजमान है। यह मूर्ति अंतरिक्ष भगवान पार्श्वनाथमूर्ति के समकालीन है। अन्य दो वेदियों पर दिगम्बर आम्नाय के क्षेत्रपाल विराजमान हैं।
दिगम्बर-श्वेताम्बर विवाद-मीमांसा- श्वेताम्बर संप्रदाय की निर्मिती भगवान महावीर के निर्वाण के बाद करीब ६ वीं शताब्दी में हुई। यह निर्विवाद सत्य हैै। इतिहास संशोधकों ने इसे मान्यता दी है। तीर्थ संस्कृति एवम् सभ्यता के प्रतीक हैं। समृद्ध अतीत की धरोहर हैं। किन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदाय का नेतृत्व अपने पुरातनत्व को सिद्ध करने की होड़ में लगा है। यही कारण है कि गत शताब्दी से हमारे ऐतिहासिक तीर्थों पर योजनाबद्ध आक्रमण कर श्वेताम्बर स्वामित्व प्रस्थापित करने का प्रयास हो रहा है। तीर्थंकरों की निर्वाणभूमि श्री सम्मेद शिखर जी, गिरनार जी, पावापुरी जी तथा अन्य अतिशय क्षेत्र जैसे केशरियाजी, मक्सी पार्श्वनाथजी, अंतरिक्ष पार्श्वनाथजी शिरपुर आदि अनेक आक्रमण के लक्ष्य रहे हैं। श्वेताम्बरियों ने अंतरिक्ष पार्श्वनाथमूर्ति के संबंधी ई.सन् १९९० में न्यायालय में वाद प्रस्तुत किया। जिसका अंतिम निर्णय प्रिव्ही कौन्सिल द्वारा ई.सन् १९२९ में हुआ। मूर्ति का मूल स्वरूप लेप से व्याप्त था। श्वेताम्बरियों द्वारा यह मूर्ति गोबर एवम् रेत के मिश्रण से बनी हुई है ऐसी भ्रांतिपूर्ण झूठी कथायें प्रस्तुत की गयीं। इस कारण न्यायालयों द्वारा लेप के आवरणों को हटाकर निर्णय देने संबंधी असमर्थता व्यक्त की गयी। झूठे सबूत, आगम संबंधी गलत मान्यतायें तथा व्यवस्थापन सिद्ध करने हेतु बनावटी बही खाते प्रस्तुत होने से यह मूर्ति श्वेताम्बरी मानी गयी। परन्तु मूर्ति की पूजा दोनों संप्रदायों को ई.स.१९०५ के समय- सारिणीनुसार करने का अधिकार दिया गया। तत्पश्चात् मूर्ति पर आवश्यकतानुसार लेप पर लेप चढ़ते रहे किन्तु पाप का घड़ा भरने से सन् १९५९ में श्वेताम्बरी नेतृत्व को लेप हटाने की प्रेरणा अव्यक्त शक्ति द्वारा दी गयी। लेप के आवरण हटाये गये। सत्यस्वरूप प्रगट हुआ। यह मूर्ति पाषाण की दिगम्बर आम्नाय की हुई। अन्याय का निराकरण करने से यह अंतरिक्ष पार्श्वनाथभगवान का अतिशय माना जाता है। अब इस विवाद को नया आयाम प्राप्त हुआ है। ई.सन् १९६० में दिगम्बरियों ने प्रीव्हीकौन्सिल द्वारा घोषित निर्णय निरस्त कर मूर्ति के दिगम्बर सत्यस्वरूप (मूलरूप) स्वीकृति संबंधी न्यायालय में दावा प्रस्तुत किया। यह विवाद न्यायालय द्वारा निर्णीत होना शेष है। वीतरागता जैन तत्वज्ञान का सर्व स्वीकृत प्राण है। यह जैनत्व की अस्मिता है। इसका संरक्षण एवम् संवर्धन करना यही सभी का धर्म है। इस क्षेत्र संबंधी प्रचलित विवाद का निर्णय वीतरागता अर्थात् जैनत्व का प्राण सिद्ध करने का निर्णायक बिन्दु होगा। श्वेताम्बरियों की कुप्रवृत्ति का भंडाफोड होगा। इस दावे से परावृत्त होने के लिए श्वेताम्बर पक्ष द्वारा नीति-अनीति का विचार न कर आक्रमणों की शृंखला गत अनेक वर्षों से चल रही है। आज भी न्यायालय में श्री पवली दिगम्बर जैन मंदिर, पद्मावती देवी तथा दिगम्बरी धर्मशालाओं पर स्वामित्त्व प्रस्थापित करने के दावे दाखिल हैं। वीतरागता को पूर्ववत् प्रतिष्ठित करने का न्यायोचित आंदोलन वर्षों से चल रहा है। आईये! इस यज्ञ में हम सभी सम्मिलित होकर तन-मन-धन समर्पित कर पुण्य लाभ एवं कर्तव्य पूर्ति का आनंद लें। हमारी भावना हो…….
क्षेत्र की विशेषताएँ- आज भी यह अंतरिक्ष पार्श्वनाथभगवान की प्राचीन-मनोज्ञ-अतिशययुक्त मूर्ति अंतरिक्ष में अधर स्थिति में विराजमान है। दिगम्बर जैन धर्मावलंबियों की इस मूर्ति पर अनन्य श्रद्धा है तथा श्रद्धालुओं को समय-समय पर साक्षात्कार हुये हैं। यह अंतरिक्ष भगवान पार्श्वनाथमूर्ति पुरातन शिल्पकला का जगद्विख्यात अद्भुत अद्वितीय नमूना है। तीर्थंकरोें के अतिशयों में ‘‘अंतरिक्ष’’ यह अतिशय एकमात्र दिगम्बर आगम द्वारा स्वीकार्य है। अंतरिक्ष पार्श्वनाथपवली दिगम्बर जैन मंदिर के सन्निकट कुऐं के जल से आज भी अनेक प्रकार के चर्मरोग ठीक होते हैं। अनेक भक्तों का यह वास्तविक अनुभव है। इस कुऐं का जल दूर-दूर से आये यात्रीगण औषधि रूप से ग्रहण करते हैं और आरोग्य लाभ पाते हैं।
पुरातत्वीय संशोधन-श्री अंतरिक्ष पार्श्वनाथदिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र शिरपुर, जिला-वाशिम (महा.) प्राचीन दिगम्बर जैन संस्कृति के अस्तित्व का एवं अस्मिता का ज्वलंत इतिहास है। पुरातत्व, उत्खनन, मूर्तिलेख, साहित्य में उल्लेख एवं अनेक विध प्रशस्तियों द्वारा तथा पुरातत्वीय सर्वेक्षण और गॅजेटियर्स द्वारा यह समय-समय पर सिद्ध हुआ है कि श्री अंतरिक्ष पार्श्वनाथसंस्थान शिरपुर तथा श्री पवली दि. मंदिर दिगम्बर जैन परम्परा के ही हैं।
इस संदर्भ में लक्षणीय चिरस्थायी प्रमाण- ‘श्री अंतरिक्ष पार्श्वनाथभगवान का यह प्राचीन मंदिर दिगम्बर जैनियों के स्वामित्व का है और इस मंदिर के शिलालेख में ई.सन् १४०६ ऐसा स्पष्ट उत्कीर्ण है।’’ The old temple of Antariksha Parshwanath belongs to the Digambari jain Community has an inscription with a date which has been read as year 1406 A.D. Imperial Gazeteer, Oxford. Part XXIII Page 39 ‘‘वाशिम तहसील के शिरपुर कस्बे में अंतरिक्ष पार्श्वनाथमंदिर है जो दिगम्बर जैनियों के स्वामित्व का है जो इस पूरे जिले में अत्यंत मनोरम प्राचीनतम स्मारक है।’’ इम्पीरियम गजेटियर ऑक्सफोर्ड भाग ७, पृ.९७ The Temple of Antariksha Parshwanath at Shirpur in Basim Taluqu belonging to the Digambari jain Community is the most interesting monument of the past in the district. Imperial Gazeteer, Oxford. Part VII Page 97 बम्बई सरकार द्वारा पश्चिम भारत विषयक पुरातत्त्व विभाग सर्वेक्षण प्रगति अहवाल दिनाँक ३०-२-१९०२ नुसार गाँव (शिरपुर) से थोड़ी दूरी पर पश्चिम दिशा में दिगम्बर जैन समाज के स्वामित्व का अंतरिक्ष पार्श्वनाथभगवान का प्राचीनतम मंदिर है। Govt. of Bombay progress report of Archelogical survey of western India dated 30-2-1902 says ” A short distance outside the village in the west stood the old Termple of Antariksha Parshwanath belongs to Digambari jain Community ” क्षेत्र संबंधी पत्र व्यवहार का पता इस प्रकार है- मंत्री, श्री अन्तरिक्ष पार्श्वनाथदिगम्बर जैन संस्थान पो.-सिरपुर (तालुका-वाशिम), जिला-अकोला (महाराष्ट्र)