मार्ग और अवस्थिति- ‘श्री दिगम्बर जैन विघ्नहर पाश्र्वनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र कासार आष्टा’ महाराष्ट्र प्रदेश के उस्मानाबाद जिले में उमर्गा तालुका में स्थित है। यह सोलापुर-हैदराबाद नेशनल हाइवे नं. ९ पर स्थित भोसगागाँव से ५ किमी. दूर पर है। गाँव तक पक्की सड़क है। यह उमर्गा से २४ किमी., उस्मानाबाद से ५१ किमी. और शोलापुर से ६४ किमी. है। शोलापुर से आष्टा के लिए संध्या के ५ बजे बस चलती है और वह प्रात: ८ बजे शोलापुर को वापस लौटती है। आष्टा नामक कई गाँव हैं। प्रस्तुत आष्टा कासार आष्टा कहलाता है। क्योंकि प्राचीन काल में इस गाँव में कासार जैनों के २००-२५० घर थे।
अतिशय क्षेत्र- यहाँ पाश्र्वनाथ भगवान की मूर्ति अतिशयसम्पन्न है। इसकी भक्ति से विघ्नों का नाश होता है अत: भक्तजन इसे विघ्नहर पाश्र्वनाथ कहते हैं। इस मूर्ति के संबंध में एक िंकवदन्ती प्रचलित है। लगभग ५०० वर्ष पूर्व मुस्लिम शासन-काल में जब मूर्तियों का निर्मम भंजन किया जा रहा था, मूर्ति के रक्षण की दृष्टि से यह निर्णय किया गया कि मूर्ति को किसी सुरक्षित स्थान पर स्थानान्तरित कर दिया जाये। फलत: इसे संदूक में बंद करके ले जाया जा रहा था। जब यहाँ से २ किमी. दूर दस्तापुर गाँव के बाहर बैलगाड़ी पहुँची तो वहाँ जाकर वह रुक गई। बहुत प्रयत्न करने पर भी गाड़ी वहाँ से नहीं चली। उसी रात आष्टा गाँव के जैन पटेल की पुत्रवधू को स्वप्न आया कि मूर्ति कहीं नहीं जायेगी, दस्तापुर जाकर मूर्ति को वापस लौटा लाओ। प्रात:काल उठने पर उसने अपने स्वप्न की चर्चा घर वालों से की। सुनकर सब बड़े प्रसन्न हुए। परिवार तथा गाँव के अन्य जैन नर-नारी भक्ति गीत गाते हुए दस्तापुर पहुँचे। वहाँ उक्त पुत्रवधू तथा अन्य लोगों ने भगवान के दर्शन किये, आरती उतारी और भक्तिपूर्वक पूजा की तथा प्रार्थना की-‘‘प्रभु! हम आपको ले जाने के लिए आये हैं, आप चलिए।’’ साधारण प्रयत्न करते ही गाड़ी आष्टा की ओर चल पड़ी। वापस पहुँचने पर इसके लिए मंदिर का निर्माण कराया गया और प्रतिष्ठा महोत्सव के साथ उस मंदिर में मूर्ति को विराजमान किया गया। मूर्ति के चमत्कार को देखकर सभी ग्रामवासी इसके भक्त बन गये और इसे ग्राम-देवता मानने लगे। तभी से जैन-जैनेतर सभी लोग भगवान के दर्शनों के लिए यहाँ आने लगे। अनेक भक्तजन मनोकामनाएँ लेकर प्रभु-चरणों में आते हैं और प्रभु की भक्ति से उनकी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। सरकार ने भी भगवान की सेवा-पूजा के लिए कुछ भूमि मंदिर को दी है जो आज भी मंदिर के नाम विद्यमान है। मनौती मानने वाले भक्तगण घी से भगवान का अभिषेक भी करते हैें। इस मूर्ति के ऊपर सर्प-फण नहीं है, पादपीठ पर सर्प लांछन बना हुआ है।
क्षेत्र दर्शन- प्राचीन मंदिर हेमाड़पंथी शैली का था। उसके स्थान पर एक मण्डप बनाकर उसके दो भाग कर दिये गये हैं। अन्त:भाग गर्भगृह और बाह्य भाग सभामण्डप के रूप में प्रयुक्त होता है। इस मण्डप के दायीं ओर कुछ भाग प्राचीन मंदिर का अवशिष्ट है। गर्भगृह में चबूतरानुमा वेदी में मूलनायक भगवान पाश्र्वनाथ की १ फुट ५ इंच ऊँची कृष्णवर्ण पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। वक्ष पर श्रीवत्स है। प्रतिमा के कर्ण स्कंधचुम्बी हैं। इसके आगे भगवान ऋषभदेव की १० इंच ऊंची श्वेत पद्मासन प्रतिमा आसीन है। मूर्ति-लेख के अनुसार इसकी प्रतिष्ठा संवत् १४७२ में की गई थी। इसके दोनों पाश्र्वों में पाश्र्वनाथ और ऋषभदेव की धातु प्रतिमाएँ हैं। बायीं ओर एक कृष्ण पाषाणफलक में २४ तीर्थंकर प्रतिमाएँ उत्कीर्ण हैं। मध्य के खुले भाग में खड्गासन पाश्र्वनाथ हैं। फलक का आकार २ फीट २ इंच है तथा इसका प्रतिष्ठा-काल संवत् १९२९ है। इसके दोनों ओर पाश्र्वनाथ और बिना लांछन की कृष्णवर्ण वाली पद्मासन प्रतिमाएँ हैं तथा ३ धातु प्रतिमाएँ हैं। इनके बायीं ओर चन्द्रप्रभ भगवान की श्वेत पद्मासन प्रतिमा है। इनके अतिरिक्त २ पाषाण की तथा ७ धातु की प्रतिमाएँ और हैं। मूलनायक की दायीं ओर श्वेत मार्बल का ३ फीट ४ इंच ऊँचा संवत् १९२९ में प्रतिष्ठित २४ तीर्थंकरों का एक फलक है, जिसके मध्य में पाश्र्वनाथ प्रतिमा है। इसके अतिरिक्त एक खड्गासन और एक पद्मासन धातु प्रतिमा है। इसकी दायीं ओर ९ इंच ऊँची सुपाश्र्वनाथ की श्वेत वर्ण पद्मासन प्रतिमा है। इसके अतिरिक्त कृष्ण पाषाण की ४ तथा धातु की १२ प्रतिमाएँ हैं। ये सब प्रतिमाएँ एक ही चबूतरे पर विराजमान हैं। यहाँ क्षेत्रपाल भी विराजमान हैं। सभामण्डप में पाषाण की पद्मावती देवी आसीन हैं। मण्डप का फर्श मार्बल का है। मंदिर के ऊपर शिखर नहीं है। सभामण्डप के आगे बरामदा और प्रांगण है।
धर्मशाला- यहाँ यात्रियों के लिए पृथक् से कोई धर्मशाला नहीं है। गर्भगृह के सामने हाल एवं कार्यालय है। मंदिर के प्रांगण में ही सामने और दायीं ओर दो बरामदे हैं तथा इन बरामदों में दो कमरे हैं। कमरे रसोई के, बरामदे यात्रियों के ठहरने के काम आते हैं। मंदिर में बिजली है, कुआँ है और यात्रियों की सुविधा के लिए बरतनों की भी व्यवस्था है। शौच के लिए गाँव से बाहर जाना पड़ता है।
क्षेत्र पर उपलब्ध सुविधाएँ- यहाँ ६ कमरे और ३ हॉल हैं। १६ किमी. दूर नलदुर्ग में गेस्ट हाउस उपलब्ध है। भोजनशाला सशुल्क है, अनुरोध पर भोजन तैयार होता है। श्रमण संस्कृत साधनापीठ है। क्षेत्र पर पुस्तकालय भी है।
मेला- क्षेत्र पर चैत्र वदी ४ (भगवान पाश्र्वनाथ केवलज्ञान तिथि) को वार्षिक मेला होता है। मेला दो दिन का होता है। पहले दिन चैत्र वदी ३ को भगवान शांतिनाथ विधान पूजा होती है। जलयात्रा, पूजा-अभिषेक, प्रवचन और पालकी आदि कार्यक्रम होते हैं। मेले के लिए पूरा महाराष्ट्र और तटवर्ती कर्नाटक और आंध्रप्रदेश से यात्री यहाँ इकट्ठे होते हैं।