जिंतूर अतिशय क्षेत्र में पार्श्वनाथ की अद्भुत प्रतिमा
—जीवन प्रकाश जैन, हस्तिनापुर
मार्ग और अवस्थिति- महाराष्ट्र प्रान्त मेें दक्षिण-मध्य रेलवे की काचेगुड़ा-मनमाड़ शाखा लाइन के परभणी स्टेशन से ४२ किमी. जिंतूर नगर है और वहाँ से लगभग ४ किमी. दूर सह्याद्रि पर्वत पर श्री नेमिनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र अवस्थित है। जिंतूर नगर तक पक्की सड़क है तथा परभणी से बस सेवा चालू है। नगर से क्षेत्र तक कच्ची सड़क है।
इतिहास- इस नगर का प्राचीन नाम जैनपुर है। जैनपुर से जिंतूर किस प्रकार हो गया, इस संबंध में सेदुल कादरी द्वारा लिखित फारसी की एक पुस्तक में विवरण दिया गया है। यह पुस्तक ताड़पत्र पर लिखी हुई है और यहाँ की मस्जिद में सुरक्षित है। इस पुस्तक में इस क्षेत्र और नगर का जो विवरण मिलता है, उससे पता चलता है कि कादरी अफगानिस्तान से दिल्ली आया था। वह दिल्ली से अजमेर की ख्वाजा साहब की दरगाह में पहुँचा। वहाँ के वली ने उसे बताया कि तुम दक्षिण में जैनपुर जाओ। वहाँ बड़ा मजबूत किला है। रात में उसके द्वार बंद हो जाते हैं और सुबह खुलते हैं। तुम उसे जाकर विजय करो। गाँव के नजदीक पहाड़ पर गुफाएँ हैं, जिनमें अंधकार रहता है। उन गुफाओं में बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ हैं। वली के आदेश से कादरी अजमेर से खुलताबाद, दौलताबाद होता हुआ जैनपुर पहुँचा। उन दिनों जैनपुर यमराज और नेमिराज नामक दो जैन भाइयों की जागीर था। कादरी ने बादशाह की सेना की सहायता से नगर को जीत लिया और यहाँ की तथा क्षेत्र की मूर्तियों का विध्वंस किया तथा मंदिरों को मस्जिद बना दिया। यह घटना हिजरी सन् ६३१ की है। नगर को जीतकर उसका नाम जिंतूर रख दिया। तब से इस नगर को जिंतूर कहा जाने लगा। मुसलमानों के वार्षिक उत्सव के समय इस ग्रंथ का पाठ किया जाता है। संवत् १५३२ में नांदगाँव निवासी बघेरवाल जातीय वीर संघवी आये। यहाँ के मंदिरों की भग्नावस्था देखकर उन्हें बड़ा दु:ख हुआ। तब उन्होंने इन मंदिरों का जीर्णोद्धार कराया। कहते हैं, नगर में पहले १४ जैन मंदिर थे और ३०० घर जैनों के थे। इनमें वर्तमान में २ मंदिर विद्यमान हैं। ३-४ मंदिरों के भग्नावशेष मिलते हैं। ७ जैन मंदिरों की मूलनायक प्रतिमाएँ साहू के जैन मंदिर में रखी हुई हैं। जिस पहाड़ पर जिनालय है, उसके सामने की पहाड़ी पर एक गुफा बनी हुई है, जिसे चन्द्रगुफा कहते हैं। यहाँ मुसलमान आक्रान्ताओं ने बहुत सी मूर्तियाँ तोड़ दी थीं। कहते हैं, जैनों ने खण्डित मूर्तियाँ जमीन में दबा दीं और अखण्डित मूर्तियाँ गाँव के मंदिर में पहुँचा दीं। यह गुफा पर्याप्त प्राचीन है। इस गुफा का उल्लेख संस्कृत निर्वाण-भक्ति में आया है। इस उल्लेख से ही उसकी प्राचीनता असन्दिग्ध हो जाती है। सन्दर्भ श्लोक इस प्रकार है-
भास्वल्लक्षणपङ्क्तिनिर्वृतिपथं विन्दुं च धर्मं शिलाम्। सम्यग्ज्ञानशिलाञ्च नेमिनिलयं वन्दे च शृङ्गत्रयम्।।२८।।’’
इसमें ज्ञानशिला और नेमिनाथ मंदिर के नेमिनाथ की वंदना की गई है। संभवत: प्राचीनकाल में चन्द्रगुफा में कोई शिला थी जिसे ज्ञानशिला कहते थे। आज ज्ञानशिला को तो लोग भूल गये हैं, किन्तु चन्द्रगुहा और चारण मुनियों की पादुका (चरण-चिन्ह) अब भी विद्यमान हैं।
क्षेत्र-दर्शन- क्षेत्र तक कच्ची सड़क है। एक अहाते के अंदर गुहा-मंदिर हैं। ये गुफाएँ एक ही मंदिर के भीतर हैं। इस मंदिर में कुल ६ गुफाएँ या तल-प्रकोष्ठ बने हुए हैं। इन प्रकोष्ठों में जाने के लिए मार्ग है। मंदिर में प्रवेश करते ही दायीं ओर एक प्रकोष्ठ में ४ फीट ८ इंच ऊँचा पाषाण-चैत्य है। जिसमें चारों दिशाओं में २७ मूर्तियाँ बनी हुई हैं। पाषाण श्यामवर्ण है। यहाँ से सीढ़ियों द्वारा उतरकर एक कक्ष में जाते हैं। इसमें भगवान आदिनाथ की २ फीट अवगाहना की श्याम वर्ण पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। मूर्ति के स्कंध तक जटाएँ हैं। चरण चौकी पर कोई लांछन नहीं है किन्तु जटाओं के कारण इसे आदिनाथ की प्रतिमा माना जाता है। इस कक्ष से ४ सीढ़ियाँ उतरकर ११ फीट ९ इंच चौड़ा और १६ फीट ६ इंच लम्बा एक कक्ष मिलता है। इसमें भगवान शांतिनाथ की ५ फीट ४ इंच ऊँची और ४ फीट ४ इंच चौड़ी एक पद्मासन प्रतिमा आसीन है। वक्ष पर श्रीवत्स नहीं है। कर्ण स्कन्धस्पर्शी हैं। इस कक्ष से थोड़ा उतरने पर एक कक्ष में भगवान नेमिनाथ की ७ फीट २ इंच ऊँची और ५ फीट ८ इंच चौड़ी श्यामवर्ण पद्मासन प्रतिमा है। इसके वक्ष पर श्रीवत्स है। कर्ण स्कन्धचुम्बी हैं। जटाएँ स्कंध तक हैं। इसके अधोभाग में दोनों पाश्र्वों में ३-३ भक्त-स्त्रियों और मध्य में ३ भक्त-पुरुषों की मूर्तियाँ बनी हुई हैं। इसके पाश्र्ववर्ती एक अन्य प्रकोष्ठ में भगवान पार्श्वनाथ की नौ फणावलिमण्डित ५ फीट १० इंच उत्तुंग और ४ फीट ५ इंच चौड़ी पद्मासन प्रतिमा है। वक्ष पर श्रीवत्स है। पृष्ठ भाग पर सर्पवलय बना हुआ है। यह वलय एक अन्य वलय में लिपटा हुआ है। वक्ष पर श्रीवत्स अंकित है। इसके फण पर्याप्त भारयुक्त हैं। इतनी विशाल और भारी मूर्ति लगभग ३ इंच वर्गाकार पाषाण के एक टुकड़े पर आधारित है। अत: लोग इसे अंतरिक्ष पार्श्वनाथ कहते हैं। इस मूर्ति के नीचे इतना स्थान है जिसमें मोटा कोबरा सर्प आसानी से बैठ सकता है। एकाधिक बार यहाँ काला फनियल सर्प भी मूर्ति के नीचे बैठा हुआ देखा गया है। लगभग २० वर्ष पहले मूर्ति के गिर जाने की आशंका से इस पाषाण-खण्ड को तोड़ने का प्रयत्न किया गया था। वह पाषाण-खण्ड तो नहीं टूटा, किन्तु प्रतिमा का बैलेन्स कुछ बिगड़ गया। फलत: प्रतिमा बायीं ओर से भूमि पर कुछ टिक गई है। इस प्रकोष्ठ से ऊपर चढ़कर चैत्यस्तंभ के पाश्र्ववर्ती प्रकोष्ठ में एक खड्गासन मूर्ति बाहुबली स्वामी की है जिसकी अवगाहना ४ फुट ७ इंच है। इसमें गहन माधवी लताओं का अंकन है। दायें स्कंध पर एक सर्प फण निकाले हुए है। बायें कंधे का सर्पफण खण्डित है। इस कक्ष में बायीं ओर एक शिलाफलक में मध्य में एक खड्गासन प्रतिमा बनी हुई है। ऊपर दोनों किनारों पर दो पद्मासन और अधोभाग में खड्गासन मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। मध्यवर्ती मूर्ति केकंधों पर जटाएँ हैं। इस मंदिर के सामने की पहाड़ी पर चन्द्रगुफा है। दोनों पहाड़ियों के मध्य में धवधवी नामक नदी बहती है। नेमिनाथ मंदिर से नीचे घाटी में उतरने पर एक चबूतरे पर चरण-पादुका बनी है। संभवत: यह किसी चारण मुनि की स्मृति में बनायी गयी है जो इस पहाड़ी पर कभी आये थे। सामने की पहाड़ी पर राजुलमती का प्राचीन मंदिर है। यहाँ एक वेदी है। इसके चारों ओर तीन कटनी वाली दीवार है। मुस्लिम आक्रामकों की विध्वंस-लीला से बची हुई यहाँ की मूर्तियाँ गाँव के मंदिर में पहुँचा दी गई है।
प्रतिष्ठाकारक और प्रतिष्ठाचार्य- इन मूर्तियों की चरण-चौकी पर लेख उत्कीर्ण हैं। इन लेखों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि इस मंदिर और उसके तल-प्रकोष्ठों का निर्माण नाँदगाँव निवासी बघेरवाल जातीय सुरा गोत्रीय जस्सू संघवी और उनकी धर्मपत्नी कौण्डाई के पुत्र वीर संघवी ने कराया था। वीर संघवी की पत्नी का नाम घालावी था। उसके पुत्रों के नाम नेमा, सातू या शान्ति, अन्तू या अनन्तसा थे। मूर्ति-लेखों में उनकी स्त्रियों के ये छह नाम मिलते हैं-गंगाई, सरस्वती, जयवाई, नेमाई, रतनाई और आदाई। इन मूर्तियों के प्रतिष्ठाचार्य थे भट्टारक कुमुदचन्द्राचार्य, जो मूलसंघ, सरस्वतीगच्छ, बलात्कारगण कुन्दकुन्दाचार्यान्वय के भट्टारक थे। भट्टारक कुमुदचन्द्र, भट्टारक धर्मचन्द्र, उनके शिष्य भट्टारक धर्मभूषण उनके शिष्य भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति के शिष्य थे। ये सभी भट्टारक कारंजा पीठ के अधीश्वर थे। इनका भट्टारक-काल संवत् १६५६ से १६७० तक १निश्चित किया गया है। इन्होंने इस क्षेत्र की मूर्तियों की प्रतिष्ठा शक संवत् १५३२ श्रावण सुदी १३ और फाल्गुन वदी १० को करायी थी। किन्तु एक खण्डित पार्श्वनाथ मूर्ति की चरण-चौकी के लेख से कुछ नवीन तथ्यों पर प्रकाश पड़ता है, जिनसे (१) इन भट्टारकों के काल-निर्णय पर प्रभाव पड़ता है। (२) वीर संघवी के पाँच पुत्र थे, इस मान्यता का खण्डन होता है तथा (३) यह धारणा कि वीर संघवी के तीन पुत्रों ने अपने नाम के अनुरूप तीर्थंकरों की एक-एक प्रतिमा की प्रतिष्ठा करायी, इस धारणा का भी खण्डन होता है। बल्कि मूर्ति-लेखों के देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि वीर संघवी और उनके पुत्रों ने इन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा करायी थी। पार्श्वनाथ की मूर्ति का लेख इस प्रकार है- ‘‘शक १५३० फाल्गुन शुद्ध ५ मूलसंघे बलात्कारगणे कुन्दकुन्दाचार्य-परम्परागत भट्टारक धर्मचन्द्र तत्पट्टे भट्टारक श्री धर्मभूषण तत्पट्टे भट्टारक श्री देवेन्द्रकीर्ति तत्पट्टे भट्टारक श्री कुमुदचन्द्राचार्य भट्टारक धर्मचन्द्र उपदेशात् बघेरवालजातीय सुरागोत्रे संघवी श्री जसाशाह भार्या संघवी श्री कौण्डाई तस्य पुत्र ९ एतेषां मध्ये संघवी श्री वीर सा भार्या घालावी तस्य पुत्रत्रय संघवी श्री अनन्तसा भार्या गंगाई संघवी सातूसा भार्या रतनाई संघाधिपति श्री नेमासा भार्या जयवाई नित्यं प्रणमति।’’ इस लेख से ज्ञात होता है कि भट्टारक धर्मचन्द्र ने शक संवत् १५३० में पार्श्वनाथ-मूर्ति की प्रतिष्ठा की; जसाशाह संघवी के ९ पुत्र थे, जिनमें संघवी वीरसा एक पुत्र था; और संघवी वीरसा के ३ पुत्र थे। इससे ऐसा लगता है कि इन तीन पुत्रों की ६ पत्नियों के जो नाम विभिन्न मूर्ति-लेखों में उपलब्ध होते हैं, वस्तुत: उनकी पत्नियों की संख्या ३ ही थी, किन्तु उनके नाम दो-दो थे।
क्षेत्र की दशा- कुछ वर्षों पहले भूकम्प आया था। उससे पहाड़ी व्रेक हो गयी। भूकम्प का प्रभाव मंदिर पर भी पड़ा था। पहाड़ी की दरार की सीध में मंदिर की दीवार और छत में भी दरार पड़ गई। इससे मंदिर की सुरक्षा को खतरा उत्पन्न हो गया है। चन्द्रगुफा में कोई मूर्ति नहीं है। क्षेत्र पर धर्मशाला है, जिसमें ६ कमरे हैं।
गाँव के मंदिर- जिन्तूर नगर में वर्तमान में २ मंदिर हैं-(१) साहू का महावीर दिगम्बर जैन मंदिर और (२) महावीर दिगम्बर जैन मंदिर पुराना।
साहू का मंदिर- यह मंदिर मूर्तियों की दृष्टि से अत्यन्त सम्पन्न है। नगर के प्राचीन ७ मंदिरों की मूलनायक प्रतिमाएँ इसी मंदिर में विराजमान हैं। दूसरे मंदिर से भी कुछ मूर्तियाँ लाकर यहाँ विराजमान कर दी गई हैं। इस मंदिर में एक वेदी पर पीतल के दो सहस्रकूट चैत्यालय हैं। दायीं ओर का चैत्यालय ४ फीट ९ इंच ऊँचा और १ पुâट १ इंच चौड़ा है। बायीं ओर का जिनालय लोकाकार है और ४ फीट ५ इंच ऊँचा है। दोनों ही जिनालयों में १०००±२४ मूर्तियाँ बनी हुई हैं। इनमें १००० मूर्तियाँ सहस्रकूट जिनालय की और २४ र्मूितयाँ वर्तमान २४ तीर्थंकरों की लगती है। लोकाकार जिनालय के ऊपर लेख उत्कीर्ण है। इसके अनुसार शक संवत् १५४१ माघ वदी ८ को काष्ठासंघ लाडबागड़गच्छ पुष्करगण लोहाचार्यान्वय के भट्टारक नरेन्द्रकीर्ति, उनके शिष्य हेमेन्द्रकीर्ति, उनके शिष्य प्रतापकीर्ति ने बघेरवालजातीय पिवल्या गोत्र के पुंजा और उनके परिवार की ओर से इस सहस्रकूट जिनालय की प्रतिष्ठा की। इसके ऊपर भाग में भी लेख है। इसके अनुसार काष्ठासंघ नन्दीतट गच्छ विद्यागण रामसेनान्वय के भट्टारक श्री विद्याभूषण, उनके शिष्य भट्टारक श्रीभूषण ने इसकी प्रतिष्ठा की। उपर्युक्त दो लेखों के कारण यह समझना कठिन है कि वस्तुत: किन भट्टारक ने इसकी प्रतिष्ठा की। संभवत: भट्टारक प्रतापकीर्ति के उपदेश से इस जिनालय का निर्माण हुआ और भट्टारक श्रीभूषण ने इसकी प्रतिष्ठा की। इस मंदिर (साहू के मंदिर) का भी एक अद्भुत इतिहास है। इस मंदिर में भगवान शीतलनाथ की श्वेत पद्मासन मूलनायक प्रतिमा थी। घटना उस समय की है, जब इस मंदिर पर मुस्लिम काल में मुसलमानों का आक्रमण होने वाला था। आक्रमण होने से पहले एक सज्जन को रात्रि में स्वप्न हुआ, ‘तुम मुझे यहाँ से तत्काल हटा दो।’ प्रात:काल होने पर उसने शुद्ध वस्त्र पहनकर छिपाकर मूर्ति को वहाँ से हटा दिया और कहीं छिपा दिया। थोड़े समय बाद ही मुलसमानों ने मंदिर पर आक्रमण कर दिया। उन्होंने मूर्तियों का भयंकर विनाश किया। मंदिर को मस्जिद बना दिया। जब हैदराबाद के विरुद्ध भारत सरकार ने पुलिस एक्शन लिया और हैदराबाद रियासत को भारत में सम्मिलित कर लिया, तब जैनों ने सरकार के समक्ष इसके बारे में अपनी माँग रखी। मस्जिद बना लेने पर भी वेदी के दो स्तंभों पर पार्श्वनाथ की मूर्तियाँ बनी हुई थीं। अत: सरकार ने जैनों की माँग स्वीकार कर ली और यह मंदिर पुन: जैनों के अधिकार में दे दिया गया। तब इसका जीर्णोद्धार किया गया।
पुराना महावीर मंदिर- इस मंदिर में यों तो अनेक मूर्तियाँ हैं, किन्तु दो मूर्तियाँ उल्लेखनीय हैं। चन्द्रनाथ-गुहा से लायी हुई पद्मावती देवी की ३ फुट ऊँची एक श्यामवर्ण प्रतिमा है। इसकी अलंकरण-सज्जा दर्शनीय है। देवी चतुर्भुजी है। दूसरी मूर्ति भगवान पार्श्वनाथ की है जो ३ फीट १० इंच ऊँची है और खड्गासन मुद्रा में अवस्थित है। इस प्रतिमा के ऊपर लताएँ अंकित हैं जो भगवान की ध्यानावस्था को प्रकट करती हैं। प्रतिमा अद्भुत है। इसकी प्रतिष्ठा शक संवत् १५१४ में हुई थी। इस मंदिर के नीचे तलघर बना हुआ है। यहाँ की समस्त मूर्तियाँ साहू के मंदिर में पहुँचा दी गई हैं।
धर्मशाला- यहाँ धर्मशाला है जिसमें १ कमरा है। बिजली और कुआँ है। मंदिर के पृष्ठभाग में नवीन धर्मशाला और प्रवचन मण्डप का निर्माण हो रहा है।
मेला- यहाँ प्रतिवर्ष भाद्रपद वदी ५ को वार्षिक मेला होता है। इस अवसर पर गाँव से भगवान की पालकी निकलती है जो क्षेत्र पर जाती है। इस मेले में चार-पाँच सौ व्यक्ति सम्मिलित होते हैं। श्रावण सुदी ६ को नेमिनाथ भगवान के तपकल्याणक के दिन क्षेत्र पर पूजा का विशेष आयोजन होता है।
सन् १९७४ के पश्चात्- आज भी तीर्थक्षेत्र का अतिशयपूर्ववत् विद्यमान है। भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा ९ फणायुक्त पाषाण की जमीन से ४ अंगुली अधर है। भगवान के पाश्र्वभाग में नागफणा ॐकार युक्त है। इस गुफा की छत में एक झरोखा प्रकाश हेतु रखा गया है। इस झरोखे से आया सूर्यप्रकाश श्री जी की चंद्राकार प्रदक्षिणा करता है और बाद में लुप्त हो जाता है। सन् १९४७ में हैदराबाद के निजाम के राज्य में इस क्षेत्र पर घोर उपसर्ग हुआ। भगवान पार्श्वनाथ की मूर्ति को छोड़ अन्य सभी मूर्तियों को क्षति पहुँचाई। भगवान पार्श्वनाथ की गुफा में चमत्कार हुआ। श्रीजी का नागफणा दुष्ट गुंडों को जीवित दिखा और वो लोग डरकर भाग गए। आज भी कभी-कभी एक १०-१२ फीट लम्बा साँप भगवान के दर्शन करने के लिए प्रगट होता है, कई यात्रियों ने उसे देखा भी है। क्षेत्र पर नया यात्री निवास निर्मित हुआ है। २१ कमरे तथा २ हाल में लगभग ३०० यात्रियों की निवास व्यवस्था हो सकती है। सशुल्क भोजन व्यवस्था उपलब्ध है।