जबलपुर (म.प्र.) से १५ किमी. दूर राष्ट्रीय राजमार्ग क्र. ७ पर मुख्य सड़क पर बलेहा सरोवर के निकट प्रकृति की सुरम्य गोद में सुप्रसिद्ध दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र पनागर सर्वाधिक मनोहर एवं रमणीक स्थल है। हस्तलिखित ग्रंथों से यह ज्ञात होता है कि इसका इतिहास लगभग २००० वर्ष प्राचीन है। पूर्व में इसका नाम पनागर था अर्थात् यह नगर स्वर्ण का भंडार माना जाता था। यहाँ की अद्भुत सम्पत्ति ‘बड़ा जैन मंदिर’ है जो अपनी पुरातन गौरव गाथा का यशोगान कर रहा है। मंदिर के सूक्ष्म वैभव का अध्ययन किया जाये तो स्पष्ट है कि इसका निर्माण तीन या चार चरणों में हुआ होगा। मंदिर के मध्य भाग की मूल वेदी, जिसे आज जती बाबा की वेदी कहा जाता है का निर्माण संवत् ८८४ में हुआ और उसी समय भगवान पाश्र्वनाथ की प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई। मध्य भाग का निर्माण सं. ८८६ में उत्खनन से प्राप्त मूर्तिवत् रचना को प्रतिष्ठापित कर हुआ। मध्य भाग में ही नंदीश्वर जिनालय का निर्माण हुआ। तत्पश्चात् सं. १९६४, १३२४, १४००, १५११, १५४८ में आयोजित महानतम् धार्मिक आयोजनों का स्वर्णिम शृँखलावत उल्लेख प्राप्त है। संवत् १५४८ बड़े जैन मंदिर के इतिहास का स्वर्णमयी वर्ष कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस वर्ष नगर के कछियाने वार्ड में खुदाई में प्राप्त श्री १००८ भगवान शांतिनाथ की चतुर्थकालीन अतिशयमयी मूर्ति की प्रतिष्ठापना करने हेतु बड़े जैन मंदिर में मूर्ति लाते समय असावधानीवश बाएँ हाथ का भाग खंडित हो गया था। देवों ने समाज के प्रमुख को आदेश देकर वह हाथ दंत कथानुसार गुड़ एवं चूने से जुड़वाया एवं १५४८ में मूर्ति की पुनप्र्रतिष्ठा सम्पन्न कराई गई। इसी प्रकार भगवान पाश्र्वनाथ की ५ फुट उत्तुंग चमत्कारी पद्मासन मूर्ति बैलगाड़ी से कहीं अन्यत्र ले जायी जा रही थी। गाड़ी बड़े मंदिर जी के समीप पहुँचकर अनेक प्रयास के बाद भी आगे नहीं बढ़ सकी। अंतत: समाज के प्रमुखों के सद्प्रयासों से उस मूर्ति की प्रतिस्थापना संवत् १५४८ में हुई। अतिशयों की शृंखला में एक घटना और जुड़ी जब भगवान पाश्र्वनाथ की मूर्ति दीवाल से सटाकर बनी वेदी से स्वयमेव पूजन हेतु निर्मित स्थल पर मध्य में अवस्थित हो गई। उपर्युक्त घटनाक्रमों के साथ अधोवर्णित अतिशयों की गाथाएँ घर-घर की कहानी बनी हुई हैं। १. सन् १९४० में भगवान पाश्र्वनाथ की मूर्ति से अनवरत जलस्राव का होना, प्रत्यक्षदृष्टि प्रेमलाल माली। २. सन् १९१० में केशरवृष्टि ३. ३ फरवरी १९८३ को भगवान शांतिनाथ, पाश्र्वनाथ एवं अन्य त्रिमूर्तियों से अनवरत ६ घंटे तक जलस्राव का होना। ४. बड़े मंदिरजी की अनेक वेदियों में रात्रि में देवों द्वारा आरती, भजन, संगीत की ध्वनि आदि। इस प्रकार यहाँ के मंदिरों के निर्माण की पृष्ठभूमि में जैन समाज की भूमिका कभी भुलाई नहीं जा सकती। भगवान शांतिनाथ की प्राचीन भव्य मूर्ति एवं भगवान पाश्र्वनाथ की पद्मासन मूर्ति दर्शकों का मन मोह लेती है। िंकवदन्ती है कि भगवान शांतिनाथ के दरबार से आज तक कभी कोई भक्त खाली हाथ नहीं लौटा। पंचायती मंदिर में लगभग २.५ मीटर ऊँची भगवान ऋषभदेव की कायोत्सर्ग मुद्रा में अत्यन्त मनोज्ञ प्रतिमा है। इसके अतिशय के कारण ही यह क्षेत्र प्रसिद्ध हुआ है। सम्मेदशिखर जी की रचना दर्शनीय है। अतिशयकारी भगवान सुपाश्र्वनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार २ वर्ष में पूर्ण हुआ है। प्रतिमा अति मनोज्ञ, मनोहारी एवं सुन्दर है, वेदी प्रतिष्ठा के समय से ही साक्षात् अतिशययुक्त है। मढ़िया जी से यह क्षेत्र २० किमी. एवं कोनीजी से ६० किमी. दूर अवस्थित है। देवरी से मात्र २ किमी. दूर रेलवे स्टेशन है, वहाँ से आटो रिक्शा आदि से क्षेत्र पर जाया जा सकता है।
क्षेत्र पर उपलब्ध सुविधाएँ- यात्रियों के आवास हेतु यहाँ १ धर्मशाला, १ जती भवन एवं १४ अन्य कमरे हैं। भोजनशाला सशुल्क है। एक विद्यालय (कन्याशाला) तथा पुस्तकालय भी है।