श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र एलोरा (औरंगाबाद-महा.)
—अंबरकर राव
क्षेत्र परिचय
महाराष्ट्र में औरंगाबाद शहर से ३० कि.मी. दूरी पर एलोरा अतिशय क्षेत्र है। यहाँ की आबादी की दृष्टि से एलोरा छोटा सा दिखता है। फिर भी अपनी विशेष कलाकृति एवं मंदिरों के कारण विश्व में अद्वितीय माना गया है। यहाँ की प्रकृति नयन मनोहर है। जलवायु स्वास्थप्रद है। वर्षाकाल में यहाँ का सौन्दर्य बड़ा ही अनोखा होता है। एलोरा की गुफाएं बीज चंद्राकार पहाड़ में खोदी गई हैं। यहाँ एलोरा की प्रकृति हमें निराला अनुपम आनंद प्रदान करती है। एलोरा की शिल्पकला हमें भारतीय संस्कृति की विशालता का परिचय देती है। यहाँ जैन, बौद्ध, वैदिक, शैवपंथीय ब्राह्मणीय की ३४ सुंदर गुफाएँ हैं। १ से लेकर १२ तक गुफाऐं हैं। जिसमेें १० नम्बर की गुफा विशेष है। गुफा नं.१३ से लेकर २९ तक शैव पंथीय है। उसमें से नं. १६, जो कैलाश गुफा के नाम से जानी जाती है अपनी विशालता एवं सुंदरता के कारण विश्वविख्यात है।
जैन गुफाएं— नं.-३० से लेकर ३४ तक जैन गुफा संख्या में कम हैं। फिर भी उसकी वास्तुकला, शिल्पकला एवं चित्रकला की प्रशंसा देश-विदेश के गणमान्य विद्वानों ने की है। ३० नं. की गुफा कैलाश की प्रतिकृति है। भीतर जाते ही शिल्पकला के सुन्दर नमूने देखने को मिलते हैं। जो गुफा नं. ३२ इंद्रसभा (समवसरण धर्मसभा) के नाम से मशहूर है। इस गुफा में जहाँ-तहाँ वीतराग भगवान की मूर्तियाँ शिलाओं में उत्कीर्ण की गई हैं। प्राय: हर एक मूर्ति के ऊपर तीन मुकुट हैं जो भगवान के तीन जगत को जीतने के प्रतीक हैं और इसी कारण भगवान त्रिलोकीनाथ कहलाते हैं। यहाँ गुफाओं में चित्रकला विद्यमान है। यद्यपि वह सर्वत्र नहीं है फिर भी जो शेष है उसमें भारतीय है, प्राचीन चित्रकला का परिचय हो जाता है। चित्रकला विद्वानों का ऐसा अनुमान है कि पुराने समय में इसी कला का प्रचार गुजरात तथा राजस्थान में देखने को मिलता है। सभी मूर्तियाँ प्रमाणबद्ध हैं, अद्वितीय एवं अनुपम हैं।
भगवान पार्श्वनाथ मंदिर
इन गुफाओं से उत्तर की ओर १ कि.मी. दूरी पर २३ वें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ जी का मंदिर बना हुआ पाया जाता है। जगह के इस उचित चुनाव के कारण शायद मूर्तिभंजक की नजर हमारे सौभाग्य से इस मंदिर पर नहीं पड़ी अन्यथा उनकी चोटों से यह अछूता न रहता। यहाँ का दृश्य बड़ा ही लुभावना है। जन कोलाहलों से दूर और चित्ताकर्षक है। परिसर नीलाकाश नीरव, निस्पंद फैला हुआ है। यात्री जब यहाँ पहुँचता है तो मानों शांति की सुखद छाया में आ बैठता है। एलोरा के इस मंदिर में सप्तकलायुक्त यक्ष-यक्षिणी सहित महामनोज्ञा, विशालकाय, अद्र्धपद्मासनस्थ, कोई १६ फीट ऊँची, ९ फीट चौड़ी ध्यानमग्न भगवान पार्श्वनाथ वीतराग प्रतिमा विराजमान है। शिल्पकार ने अपनी कल्पना और प्रतिमा द्वारा मानव जगत के आध्यात्मिक और भौतिक संस्कृति के उच्चतम सिद्धांतों को समुचित अंकन करके कला का कमाल दिखाया है। आत्मा की कला-कला की आत्मा है। जिस शिल्पकार ने यह मूर्ति बनायी वह वास्तविक अपनी अंतर आत्मा में गोते लगाकर व्यवहारत: भगवान रूप में—स्वरूप में तन्मय होकर ही ऐसी अनोखी कला के निर्माण में समर्थ हुआ होगा। आध्यात्मिक आदर्श ही भारतीय सभ्यता की आधारशिला है। प्रतिमा की प्रसन्न मुद्रा, विशाल कंधे तथा हाथ पर रखी हुई अंगुलियाँ, शिर के कुंतल केस, अर्ध उन्मीलित नेत्र, ध्यानमग्न गंभीर भव्य चेहरा, ये सब बातें मूर्ति की वीतरागता और सुुंदरता में वृद्धि ही करते हैं। दर्शक दर्शन के लिए सामने आते ही हर्ष विभोर हो उठता है। मूर्ति के अगल-बगल में यक्ष-यक्षिणी बने हुए हैं। सिंहासन पर बीचोंबीच एक और भगवान पार्श्वनाथ की छोटी मूर्ति बनाई हुई है। सिंहासन के निचले भाग पर धर्मचक्र खुदा हुआ है तथा एक तरफ प्रतिष्ठाकारक श्रावकोत्तम ‘‘चक्रेश्वर’’ अपनी धर्मपत्नी के साथ तथा एक तरफ चव्रेश्वर के तीनों भाई अनेक आभूषण तथा यज्ञोपवीत आदि से विभूषित हैं। विनम्र और भक्ति से हाथ जोड़े हुए दिखाई देते हैं। यह सब बेजोड़ है। शिल्पकार ने अपनी चतुराई का कमाल दिखाया है। यहाँ दर्शक तथा यात्री अपूर्व शक्ति का अनुभव करते हैं और अपनी यात्रा सफल समझते हैं। दोष रहित आत्मा को ही नग्नता शोभा देती है।यह भाव नास्तिक के मन में भी स्वभावत: आते हैं। भगवान सब प्रकार के आभूषण से रहित हैं, फिर भी जगत के शिरोभूषण बने हैं, सार यह है कि नग्नत्व दोष रहित होने की निशानी है। इस अतिशय क्षेत्र पर पहले कार्तिक पूर्णिमा का मेला लगता था। अब यह मेला बदी १४ को होता है। भगवान के चरणों के नीचे एक लेख खुदा हुआ है। इस शिल्प लेख में विदित होता है कि इस एलोरा तीर्थ पर शक संवत् ११५६ (ई.सं.१२३४) में श्री वर्धनापुर के निवासी श्रावक राणूजी के पुत्र श्रावक म्हालुगी की धर्मपत्नी स्वर्णा की कुक्षि से उत्पन्न चारों पुत्रों में चक्रेश्वर बड़ा था। वह महादानी, धर्मपरायण, स्थिर व शुद्धदृष्टिवान, सतीवल्लभ, अपने दानादि गुणों के कारण कल्पवृक्ष के समान था। उन्होंने ही पर्वत पर भगवान पार्श्वनाथ आदि तीर्थंकरों के विशाल जिनबिम्ब समारोह पूर्वक प्रतिष्ठित कराये थे। इस चव्रेश्वर ने इस एलोरा स्थान को ऐसा सुतीर्थ बना दिया जिसकी तुलना पूर्व काल में भरत चक्रवर्ती के द्वारा कैलाशपर्वत बनवाने से की जाती है। उसके साथ ही उसी शिलालेख से यह भी बातें समझ में आती हैं कि चक्रेश्वर सद्गुणों का आकर और निर्मल धर्म का संरक्षक दातार था। उसने दान धर्म के प्रभाव से अपने कर्मों को धोया तथा धर्ममूर्ति, निर्मल धर्म के संरक्षक यह चव्रेश्वर मानों पंचम वासुदेव जी ही हुए।
ऐतिहासिकता— एलोरा की महान कलाकृतियों से परिचित होने पर स्वभावत: हमारा ध्यान इसके इतिहास की ओर आकृष्ट होता है। एलोरा के विषय में हुए संशोधनों से हमें ज्ञात होता है कि एलोरा का पहला नाम एलापुर था। यह इतिहास प्रसिद्ध हो चुका है। आंध्र, चालुक्य, राष्ट्रकूट, कल्यान तथा यादवों के समय में एलापुर नामका एक गाँव था। इतिहासवेत्ताओं का यह मत है कि दिगम्बर जैन तपस्वी एलाचार्य ने आठवीं सदी के लगभग इस भूभाग को अपने पावन विहार से पुनीत किया था और इसी एलाचार्य के नाम पर इस भूभाग को एलोरा संज्ञा प्राप्त हुई है। ऐलाचार्य भगवत् जिनसेनाचार्य के दादागुरु थे। धवलाकार स्वामी वीरसेन ने आषढ़ी (एलाचार्य) सिद्धांत ग्रंंथों का अध्ययन किया था। जयधवला ग्रंथ में कवि चक्रवर्ती वीरसेन स्वामी ने एक जगह अपने को एलाचार्य का शिष्य कहा है। महामंडलेश्वर अमोघवर्ष प्रथम ने अपना शेष काल सूलिभंजन में बिताया। सूलिभंजन एलोरा से ५ कि.मी. दूरी पर है। इसी अमोघवर्ष को जिनसेनाचार्य ने धर्म के पाठ पढ़ाये। इससे स्पष्ट होता है कि आठवीं सदी से लेकर १२ वीं सदी तक एलोरा में जैनियों का खासा निवास था। इस ऐतिहासिक तथ्यों का विचार करने पर यह निश्चित होता है कि नवमीं शताब्दी से लेकर १३ वीं शताब्दी तक अर्थात् मुसलमानों द्वारा दक्षिण आक्रमणों तक जैन गुफाऐं बनती रहीं। एलोरा, अजंता जो अपनी संस्कृति के लिए विश्व में विख्यात हैं। उसी प्रांगण में जैन जगत के इतिहास में उभरकर आया है, इस शताब्दी की अनूठी देन ‘‘श्री पार्श्वनाथ ब्रह्मचर्याश्रम (गुरुकुल)। गुरुकुल प्रणाली का गौरवशाली इतिहास तक्षशिला, नालंदा विश्वविद्यालय जो आज खंडहरों के रूप में विद्यमान है। वही झाँकी, इस शताब्दी में लौकिक शिक्षा के साथ-साथ आध्यात्मिक दृष्टि का सूत्रपात एलोरा गुरुकुल से स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। गुरुदेव आचार्य श्री १०८ समंतभद्र महाराज की प्रेरणा से तथा तीर्थरक्षा शिरोमणि आचार्य श्री १०८ आर्यनंदी महाराज के सानिध्य में प्रारंभ हुआ यह गुरुकुल आज देश में अपना देदीप्यमान स्थान रखता है।
गुरुकुल की विशेषता—२०० दिगम्बर जैन बालकों को अत्यल्प शुल्क में भोजन, निवास की व्यवस्था। दो मंजिला नवनिर्मित आ.आर्यनंदी छात्रावास। नवनिर्मित श्री सुभाषसा केशरसा साहूजी भोजनालय। सर्वांगीण विकास हेतु अत्याधुनिक बाहुबली व्यायामशाला। स्वाध्याय हेतु आचार्य आर्यनंदी श्रुतभंडार। आरोग्य हेतु श्री चुन्नीलाल सा साहूजी आरोग्यधाम। आध्यात्मिक प्रगति हेतु नित्यनियम से पूजा, अभिषेक, प्रार्थना, स्वाध्याय आदि। धार्मिक शिक्षा में जैन-धर्म चारों भाग, छहढाला, द्रव्यसंग्रह, रत्नकरण्डश्रावकाचार, तत्त्वार्थसूत्र इत्यादि ग्रंथों का सार्थ पठन-पाठन। संगणक प्रशिक्षण की स्वतंत्र व्यवस्था, तज्ज्ञ प्रशिक्षक। यात्रियों के ठहरने हेतु सुसज्जित दो धर्मशालाएँ। वद्यालय का उल्लेखनीय कार्य— कक्षा ५ वीं से १० वीं तक शैक्षणिक सुविधा। लौकिक शिक्षा में मैट्रिक का औसतन परीक्षा परिणाम लगभग ८० से ९० प्रतिशत रहता है। जिसमें अधिकांश छात्र विशेष प्रावीण्य धारक होते हैं। खेलकूद में राष्ट्रीय स्तर पर प्रथम स्थान प्राप्त किया, परिणामस्वरूप केद्र सरकार द्वारा विशेष अनुदान प्राप्त। महाराष्ट्र राज्य के शिक्षा विभाग में ग्रामीण विभाग के स्कूल में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त किया है। क्रीड़ा-साहित्यिक-सांस्कृतिक एवं वैज्ञानिक स्पर्धाओं में सदैव अग्रसर। टेक्नीकल स्वूस्कूलरा बालकों को स्वावलंबी बनाया जाता है इस विभाग का भी महाराष्ट्र में अपना विशेष स्थान है। विद्यालय में १२०० छात्र हैं, ३६ शिक्षकों का सुविद्य स्टाफ है।