पृथ्वी का पर्यायवाची शब्द है-‘रत्नगर्भा’ यह पृथ्वी अपने गर्भ में न जाने कितने रत्नों को छिपाये है, किसी विशिष्ट अवसर पर, किसी शुभ निमित्त से जब कोई देदीप्यमान अमूल्य रत्न पृथ्वी के गर्भ से बाहर आता है तब उसकी दिव्य आभा से समस्त परिसर आलोकित हो जाता है। ऐसी ही घटना हुई-६-१२-२००४ को, जब आचार्य श्री विवेकसागर के शिष्य ऐलक श्री विश्वप्रभुसागर जी स्थानीय जैन समाज के आमंत्रण पर खड़ौआ पधारे। रात्रि के विश्राम के समय लगभग १२:३० पर महाराज श्री को स्वप्न आया कि जिनमंदिर के आगे भूमि में तीर्थंकर पार्श्वनाथ की प्रतिमाएँ हैं। इसलिए उस पर किसी प्रकार की गंदगी न करें। प्रात:काल ऐलकश्री ने जैन समाज के लोगोें से स्वप्न दर्शन की चर्चा कर यह इच्छा प्रकट की कि भूगर्भ से प्रतिमाओं के उत्खनन का कार्य सम्पन्न होना चाहिए। जैन बंधुओं ने इसे अपने गाँव का सौभाग्य समझा। भूमि की स्वामिनी श्रीमती मुन्नीदेवी पत्नी श्री विनोद कुमार जैन से भूमि को खुदवाने की अनुमति माँगी गई। श्रीमती मुन्नीदेवी ने अपने परिवारीजन से परामर्श कर सहर्ष स्वीकृति प्रदान कर दी। शुभ घड़ी शुभ दिन ११-१२-२००४ को चतुर्दशी के दिन महाराज जी के आहार से पूर्व ही भूमि खनन का कार्य प्रारंभ हुआ। अतिशय चमत्कार-९ फीट गहरे गड्ढे से नाग-नागिन का जोड़ा निकला, खनन करने वाले श्रमिक भयभीत हो बाहर आ गये। सर्पयुगल ने किसी को काटा नहीं। जैन बंधुओं ने भी अहिंसा धर्म का पालन करते हुए नाग-नागिन को पकड़वाकर जंगल में छुड़वा दिया। सर्पयुगल को देखकर भक्तों के मस्तिष्क में पार्श्वनाथ भगवान के गृहस्थ जीवन की घटना कौंध गई। वाराणसी में अपने मित्रों के साथ विहार करते हुए पार्श्वनाथ ने एक तापसी को एक लक्कड़ को जलाते हुए देखा। अवधिज्ञान से पार्श्वनाथ भगवान को ज्ञात हुआ कि इस लक्कड़ में एक जीवित सर्पयुगल है जो कुछ समय पश्चात् काल का ग्रास बन जाएगा।पार्श्वनाथ ने तापसी को अग्नि जलाने से रोका। तापसी को कुमार के कथन पर विश्वास नहीं हुआ। उसने क्रोधित हो जैसे ही कुल्हाड़ी से लक्कड़ को चीरा-मरणासन्न नाग-नागिन का जोड़ा बाहर आ गया। करुणा की प्रतिमूर्ति पाश्र्वपार्श्वनाथ सर्पयुगल को णमोकार मंत्र सुनाया। शुभ भावों से सर्पयुगल की मृत्यु हुई और उनका जन्म धरणेन्द्र-पद्मावती के रूप में हुआ। कमठ के द्वारा ध्यानस्थ प्रभु पर भयंकर उपसर्ग किये जाने पर धरणेन्द्र-पद्मावती ने ही अपने फण का वितान (छत्र) टाँगकर प्रभु की रक्षा की थी। कुछ और खुदाई करने पर भगवान पापार्श्वनाथ की दो प्रतिमाएँ, एक चाँदी का सर्प और विजययंत्र प्राप्त हुआ। यह समाचार पूरे खड़ौआ में फैल गया। समस्त जाति, धर्म, सम्प्रदाय के लोग खनन स्थल पर एकत्रित हो गये। भगवान पार्श्वनाथ की जयकार की तुमुल ध्वनि से नभ गुंंजित हो उठा। खड़ौआवासियों को गर्व हुआ अपनी धरती पर, जो सचमुच में रत्नगर्भा सिद्ध हुई। छोटा सा गाँव खड़ौआ अपने बड़े भाग्य पर हर्ष एवं गर्व से झूम उठा। चमत्कार की पुस्तिका में अभी कुछ और पृष्ठ शेष थे। १२-१२-२००४ को जब महाराजश्री ने पाश्र्व प्रभु की दोनों प्रतिमाएँ थाली में रखीं, सर्प और सर्पिणी जंगल से आकर उस थाली के चारों ओर मँडराने लगे। उन्होंने सम्पूर्ण रात्रि प्रभु-प्रतिमाओं की रक्षा की। एक सर्प तो भगवान की थाली को घेरे हुए था और दूसरा सर्प प्रतिमा के ऊपर फण फैलाकर खड़ा हुआ था। धरणेन्द्र और पद्मावती के द्वारा प्रभु के उपसर्ग-निवारण की पुरातन कथा को वर्तमान युग में जीवंत होते देखकर दर्शकों के हर्ष की सीमा न रही। उन्हें प्रतीत हुआ कि आज उनका खड़ौआ में जन्म लेना सार्थक हो गया। दर्शकों ने नतमस्तक हो रत्नगर्भा धरती की माटी को मस्तक पर लगाया और संकल्प किया-इस पुनीत स्थान पर भव्य मंदिर-निर्माण का, अहिच्छत्र की परिकल्पना उनके मस्तिष्क में जागृत हुई। विचार आया-हम अपने प्रयत्नों से ‘खड़ौआ’ को अहिच्छत्र का रूप प्रदान करेंगे। मंदिर निर्माण का कार्य द्रुतगति से हो रहा है। सर्प युगल आज भी कभी-कभी वेदी पर विचरण करते हैं या कभी अपने पूर्व स्थल गड्ढे में विहार कर आते हैं। उल्लेखनीय समाचार यह है कि आज तक सर्पयुगल ने किसी को काटा नहीं। यहाँ तक कि वे फुफकारना भी भूल गये हैं। पाश्र्व प्रभु के सच्चे भक्तों के संदर्भ में यह आश्चर्य का विषय नहीं है। करुणा सागर प्रभु के चरणों में समर्पित होने वाले प्राणियों के हृदय में क्रोध, ईष्र्या, प्रतिहिंसा जैसे कुत्सित भाव उत्पन्न ही नहीं होते। पाश्र्वप्रभु का स्वयं का जीवन क्षमा, करुणा और अहिंसा का सुन्दरतम निदर्शन है-इसलिए भक्त उन्हीं सौम्य, सात्विक भावों को धारण करना चाहता है-
‘क्रोधित हो व्रूर कमठ ने जब, नभ में ज्वाला बरसाई थी।
उस आत्मध्यान की मुद्रा में, आकुलता तनिक न आई थी।
विघ्नों पर वैर विरोधों पर, मैं साम्य भाव धर जय पाऊँ।
मन की व्याकुलता मिट जाये, ऐसी शीतलता पा जाऊँ।
मंदिर एवं अतिथि-निवास के कार्य में सबसे सहयोग की आवश्यकता है। खड़ौआ में जैन बंधुओं की संख्या अधिक नहीं है। पारस प्रभु के स्पर्श से लोहा सोना बन जाता है। पाश्र्व प्रभु की कृपा से आपका िंकचित सहयोग भी चमत्कार दिखलाएगा।