मार्ग और अवस्थिति- धाराशिव की गुफाएँ लयण कहलाती हैं। ये उस्मानाबाद शहर (महाराष्ट्र प्रदेश) से केवल ५ किमी. दूर हैं। शहर की कोतवाली के बगल से ईशान कोण से एक सड़क इन गुफाओं को जाती हैं। ४ किमी. तक तो सड़क है और १ किमी. पहाड़ी मार्ग से होकर जाना पड़ता है। जहाँ तक सड़क है, वहाँ तक तांगा और रिक्शा चले जाते हैं। उस्मानाबाद के लिए शोलापुर, औरंगाबाद अथवा कुर्डुवाड़ी-लातूर रेल मार्ग के येडसी स्टेशन से सरकारी बसें जाती हैं।
गुहा मंदिरों का इतिहास- इन गुहामंदिरों का इतिहास अत्यन्त प्राचीन है। भगवान पार्श्वनाथ से कुछ वर्षों के पश्चात् हुए कलिकुण्ड नरेश ने यहाँ तीन लयणों अथवा गुहा-मंदिरों का निर्माण कराया था और उनमें पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमाएँ विराजमान करायी थीं। इन लयणों का इतिहास आचार्य हरिषेण ने ‘बृहत्कथाकोश’ ग्रंथ में दिया है। मुनि कनकामर कृत ‘करकण्डुचरिउ’ नामक अपभ्रंश ग्रंथ में विस्तारपूर्वक इसकी कथा दी गई है। कथा का सारांश इस प्रकार है- चम्पानगरी में दधिवाहन नामक राजा राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम पद्मावती था। एक बार जब रानी गर्भवती थी, उसके मन में दोहला उत्पन्न हुआ-‘‘मैं मर्दाने वस्त्र धारण करके गजराज पर आरूढ़ होकर वन-विहार के लिए जाऊँ।’ उसने अपनी यह इच्छा अपने पति को बतायी। राजा अपनी रानी की इच्छा पूर्ति के लिए झट तैयार हो गया। गजशाला से मुख्य गज को मँगाकर, रानी को मर्दाने वस्त्र धारण कराके, गज के ऊपर रानी को अपने साथ आरूढ़ कराकर वहाँ से चल दिया। नगर से बाहर निकलते ही वन की मादक वायु के शीतल झकोरों के लगते ही गज मदोन्मत्त हो उठा और बड़ी द्रुतगति से वन की ओर भागने लगा। महावत ने अंकुशों के प्रहारों द्वारा गज को वश में करने की बहुत चेष्टा की, किन्तु गज नहीं रुका। वह मार्ग में वृक्षों और लताओं को उखाड़कर फैकने लगा, महावत को सूँड़ से पकड़कर पैरों तले रौंद दिया। राह में जो पशु या मनुष्य उसकी चपेट में आ गये, उन सबको रौंद दिया। गज अनेक नगरों, गाँवों और पर्वतों को लाँघता हुआ तीव्र वेग से चलता गया। राजा ने इस भयानक संकट से बचने का उपाय सोचा। तभी उसे एक वृक्ष की लटकती हुई शाखा दिखाई पड़ी। राजा उसे पकड़कर लटक गया, किन्तु रानी भयाक्रान्त होकर जड़ बनी बैठी रही। अनेक योजनों की यात्रा के पश्चात् जब गज शान्त हुआ तो एक पद्म सरोवर को देखकर जल में आलोडन की इच्छा से धीमी गति से जल में घुसा। रानी अवसर देखकर गज के ऊपर से कूद पड़ी और वन में एक ओर चल दी। चलते-चलते वह एक श्मशान में पहुँची। वहाँ उसे प्रसव-पीड़ा हुई। भाग्य की यह कैसी विडम्बना थी कि एक राजरानी के प्रसव के समय परिचर्या के लिए कोई परिचारिका भी नहीं थी। रानी ने पुत्र प्रसव किया। तभी एक शापग्रस्त विद्याधर चाण्डाल-वेष में वहाँ आया और अपनी शाप-कथा विस्तार से बताकर कहने लगा-‘‘देवी! अनेक वर्षों से मैं इस श्मशान में इस पुण्यवान बालक की प्रतीक्षा कर रहा था। इसके कारण ही मुझे शाप से मुक्ति मिल सकेगी। निमित्तज्ञों ने ऐसा ही बताया है। मैं इस बालक का अपने पुत्र के समान लालन-पालन करूँगा। इसे आप मुझे दे दें।’’ रानी ने अपना सद्य:जात शिशु उस चाण्डाल को दे दिया। शिशु को देकर वह एक आर्यिका के आश्रम में चली गयी। बालक के हाथ में जन्म से खुजली थी, अत: उसका नाम करकण्डु रख दिया गया। पद्मावती दूर रहकर भी अपने प्राणप्रिय पुत्र का ध्यान रखती थी। बालक करकण्डु अब किशोर हो गया। एक दिन वह भ्रमण करता हुआ वन में पहुँचा। जब वह श्रान्त हो गया तो एक वृक्ष की छाया में बैठ गया। उसी दिन उस नगर के नरेश की मृत्यु हो गयी थी। नरेश के कोई संतान नहीं थी। सिंहासन सूना नहीं रखा जा सकता था अत: अमात्यों ने निश्चय किया कि राजगज को जल से पूर्ण कलश देकर छोड़ दिया जाये। वह जिसका अभिषेक कर दे, उसी का राज्याभिषेक कर दिया जाये। इस निर्णय के अनुसार गज छोड़ा गया। वह नगर मेें घूमता रहा, किन्तु उसने किसी का भी अभिषेक नहीं किया। राज्याधिकारी और सेवक राजगज के साथ थे। सारे नगर में भ्रमण करता हुआ राजगज वन में चल दिया। वह भ्रमण करता हुआ उधर जा निकला, जिधर करकण्डु वृक्ष के नीचे चिन्तामग्न बैठा हुआ था। उसको पता तक नहीं चला कि कब राजगज उसके समीप आ खड़ा हुआ। राजगज ने जब कलश का जल उसके सिर पर उड़ेल दिया तो वह हड़बड़ाकर उठ बैठा और आश्चर्यचकित नेत्रों से कभी राजगज को और कभी राजकर्मचारियों को देख रहा था। राजकर्मचारियों ने उसका आश्चर्य दूर करते हुए विनयपूर्वक निवेदन किया-‘‘आप इस नगर के नरेश मनोनीत हुए हैं। आप हमारे साथ राजप्रासाद चलें, वहाँ आपका राज्याभिषेक किया जायेगा।’’ वह राजगज पर आरूढ़ होकर राजप्रासाद पहुँचा। वहाँ शुभलग्न में राजपुरोहित और अमात्यों ने विधिवत् उसका राज्याभिषेक करके राजसी वस्त्रालंकार और मुकुट पहनाकर सिंहासन पर बैठाया। राज्यासीन होते ही करकण्डु ने राजसी सम्मान के साथ अपने विद्याधर माता-पिता को राजमहलों में बुला लिया। उसने अल्प समय मेें ही राज्य में बहुमुखी सुधार किये, जिससे सम्पूर्ण प्रजा अपने नवीन राजा से बहुत प्रसन्न हुई, साथ ही राजकोष भी बहुत बढ़ गया। राज्य में खुशहाली हो गयी। सभी ओर उसकी जयजयकार होने लगी। उसने राज्य की स्थिति सुदृढ़ बना दी। राज्य की सैनिक शक्ति में भी उसने पर्याप्त वृद्धि की। उसने कलिंग देश के दन्तिपुर नगर को अपनी राजधानी बनाया। आन्तरिक स्थिति सुदृढ़ करने के पश्चात् उसने आसपास के राज्यों को जीतना प्रारंभ कर दिया। अनेक राजाओं ने उसका माण्डलिक बनना स्वीकार कर लिया। अब सम्पूर्ण कलिंग पर उसका अधिकार हो गया। तब शुभ मुहूर्त में वह दिग्विजय के लिए निकला। सर्वप्रथम उसने दक्षिण के राज्यों की ओर ध्यान दिया। वह जहाँ भी गया, विजयश्री ने उसके चरण चूमे। वह अपने इस विजय-अभियान के संदर्भ में तेर नगर में आया। वहाँ के राजा ने उसकी आधीनता स्वीकार कर ली और बहुमूल्य भेंट देकर उसे संतुष्ट किया। एक दिन तेर नरेश शिव उससे सविनय निवेदन करने लगा—‘‘देव! यहाँ निकट ही एक पर्वत पर बड़ी आश्चर्यजनक घटना होती है। उस पर्वत के भीलराज ने मुझे उस घटना का विवरण बताया हैै। उस पर्वत पर एक वामी है। एक गज प्रतिदिन सूँड़ में जल भरकर और अद्भुत कमल-पुष्प लेकर उस वामी तक आता है। वह वामी पर जल छिड़कता है, वहाँ कमल-पुष्प चढ़ाता है और वामी को नमस्कार करके चला जाता है। यदि देव प्रसन्न हों तो आप भी इस आश्चर्य को देखने का अनुग्रह करें।’’ करकण्डु नरेश को भी यह सुनकर देखने की उत्सुकता हुई। वह अनेक नरेशों, अमात्यों और पुरजनों से परिवृत हुआ पर्वत की ओर चल दिया। वहाँ पहुँचकर सबने उस वामी को देखा। तभी उन्हें एक गज-हाथी आता हुआ दिखाई पड़ा। गज वामी के पास आकर खड़ा हो गया। उसने सूँड़ में भरा हुआ जल वामी के ऊपर छिड़का, पश्चात् वामी पर कमल चढ़ाया और सिर झुकाकर वन में चला गया। यह देखकर सभी को बड़ा आश्चर्य हुआ। करकण्डु नरेश कुछ देर विचार करके बोला-‘‘प्रतीत होता है, इस वामी के नीचे कोई जिनप्रतिमा है। इस गज को अवधिज्ञान द्वारा अथवा किसी प्रकार इस प्रतिमा का ज्ञान हो गया है अत: यह प्रतिदिन प्रतिमा की पूजा करने आता है।’’ फिर करकण्डु महाराज के सुझाव पर जब वामी को खुदवाया गया तो वहाँ पार्श्वनाथ भगवान की अत्यन्त मनोज्ञ प्रतिमा दिखाई पड़ी। सबने भक्तिपूर्वक भगवान के दर्शन और पूजन किये। सहसा करकण्डु को प्रतिमा के पीठ पर एक गाँठ दिखाई पड़ी। उसने आदेश दिया-‘‘इस गाँठ को तोड़ दिया जाये। इससे प्रतिमा की सुन्दरता में निखार आ जायेगा। तत्काल मूर्ति शिल्पी बुलाये गये। गाँठ देखकर मुख्य शिल्पी हाथ जोड़कर बड़ी विनयपूर्वक बोला—‘‘राजाधिराज! मेरी घृष्टता क्षमा करें। यदि यह गाँठ तोड़ी गई तो अनर्थ हो जायेगा।’’ किन्तु राजहठ के आगे किसी की नहीं चली। गाँठ तोड़ी गई। गाँठ के टूटते ही उसमें से जलधारा निकल पड़ी। फिर प्रयत्न करने पर भी जलधारा नहीं रुकी। करकण्डु नरेश को एक विद्याधर से यह भी ज्ञात हुआ कि रथनूपुर के नील और महानील नामक दो विद्याधर नरेश शत्रु से पराजित होकर तेर में आ बसे और वहीं अपना राज्य स्थापित कर लिया। एक बार वे लंका की यात्रा को गये। लौटते हुए मलय देश के पूदी पर्वत पर एक जिनालय में उक्त पार्श्वनाथ प्रतिमा के दर्शन करके मन में उन्हें विचार उत्पन्न हुआ कि इस प्रतिमा को हम अपने नगर में ले चलेंगे और ऐसी ही मनोज्ञ प्रतिमा बनवायेंगे। यह सोचकर वे उस प्रतिमा को ले आये। रात में विश्राम करने के लिए वे इस पर्वत पर उतरे। प्रात:काल होने पर उन्होंने ले जाने के लिए प्रतिमा उठायी, किन्तु वह उठ नहीं सकी, वहीं अचल हो गई। तब उन्होंने वहीं एक सहस्र स्तम्भों वाली लयण बनवा दी किन्तु वह लयण निरन्तर जलधारा के कारण टूट-फूट गयी। करकण्डु ने उसी लयण को पुन: बनवाया। उसके अतिरिक्त दो लयण और बनवाये और उनमें पार्श्वनाथ की प्रतिमाएँ विराजमान करायीं। दक्षिण के सम्पूर्ण नरेशों पर विजय प्राप्त करके करकण्डु ने बंग को जीता। पश्चात् उसने अंग पर आक्रमण किया। दोनों ओर की सेनाएँ आमने-सामने आ डटीं। दधिवाहन और करकण्डु भी एक-दूसरे के सम्मुख डट गये। तभी एक स्त्री दौड़ती हुई आयी। उसने हाथ उठाकर दोनों को रोकते हुए कहा-‘‘यह युद्ध बंद करो, अन्यथा अनर्थ हो जायेगा। पिता और पुत्र को मैं अपने नेत्र से शत्रु के रूप में आमने-सामने खड़ा हुआ नहीं देख सकती।’’ दधिवाहन और करकण्डु दोनों विस्मित होकर उस स्त्री को देखने लगे। दधिवाहन ने पूछा-‘‘भद्रे! तुम कौन हो?’’ वह स्त्री और कोई नहीं पद्मावती थी। वह बोली-‘‘इस मलिन वेष में मुझे आप नहीं पहचान सके। मैं पद्मावती हूँ और यह आपका पुत्र करकण्डु है।’’ तब दधिवाहन ने उसे पहचान लिया और उसे अपने अंक में भर लिया। बीस वर्ष के बिछुड़े पति-पत्नी का यह अप्रत्याशित संयोग कितना रोमांच, हर्ष और विस्मय से भरा हुआ था। दधिवाहन पद्मावती को छोड़कर अपने पुत्र की ओर दौड़ा और उसे भी अपने आलिंगन में लपेट लिया। करकण्डु अत्यन्त चकित विस्मित हुआ कुछ समझ नहीं पा रहा था। तब पद्मावती ने अपनी दुर्भाग्य कथा सुनाते हुए उसके जन्म का वृत्तान्त सुनाया। तभी उसके माता-पिता विद्याधर दम्पत्ती भी आ गये। उन्होंने भी पद्मावती के कथन का समर्थन किया। करकण्डु को अब विश्वास हुआ कि मेरे माता-पिता ये विद्याधर नहीं, अपितु दधिवाहन और पद्मावती हैं। उसने अपने वास्तविक माता-पिता के चरण छुए। दधिवाहन ने वहीं करकण्डु को अंग का राजा बना दिया। इस प्रकार करकण्डु भारत के बहुत विशाल भूभाग का स्वामी हो गया। धाराशिव की तीन गुफाएँ और उनकी पार्श्वनाथ मूर्तियाँ इसी करकण्डु नरेश द्वारा निर्मित करायी गयी थीं। यह नरेश पार्श्वनाथ और महावीर के मध्यवर्तीकाल में हुआ था। नल और नील नामक विद्याधर भी पार्श्वनाथ के पश्चाद्वर्तीकाल में हुए थे, ऐसा लगता है। ये नील-महानील रामचन्द्र के समकालीन नल-नील से भिन्न प्रतीत होते हैं क्योंकि रामचन्द्र के काल में सर्पफणवाली पार्श्वनाथ की कोई मूर्ति थी, ऐसा उल्लेख किसी शास्त्र या पुराण में नहीं मिलता। पार्श्वनाथ की सर्पफणावलियुक्त प्रतिमा पार्श्वनाथ के पश्चात् ही बनना प्रारंभ हुई थी अत: लगता है, नल-नील पार्श्वनाथ के १००-५० वर्ष पश्चात् हुए थे। पार्श्वनाथ प्रतिमा उनसे कुछ पूर्वकाल की थी। नल-नील ने जो लयण बनाया था, वह निरन्तर जलधारा गिरने के कारण गिर पड़ा। ऐसा प्रतीत होता है, करकण्डु नरेश नल-नील से लगभग १०० वर्ष पश्चात् हुआ था। इस प्रकार धाराशिव की ये गुफाएँ २५५० या २६०० वर्ष प्राचीन हैं। कुछ पुरातत्त्व वेत्ताओं के मत में ये गुफाएँ ईसा की तीसरी शताब्दी की हो सकती हैं तथा वहाँ की पार्श्वनाथ -मूर्तियों का आनुमानिक काल ईसा की पाँचवीं से आठवीं शताब्दी मानते हैं। प्रचलित इतिहास में करकण्डु नामक किसी राजा का नाम उपलब्ध नहीं होता अत: ये पुरातत्त्ववेत्ता करकण्डु को ऐतिहासिक व्यक्तित्व स्वीकार करने के लिए संभवत: तैयार नहीं हैं किन्तु महावीर से पूर्वकालीन इतिहास की शोध-खोज का अभी तक कोई गंभीर प्रयत्न नहीं हुआ। ऐसी दशा में साहित्यिक साक्ष्यों को एकदम उपेक्षणीय अथवा अविश्वसनीय नहीं माना जा सकता। दूसरी ओर तीसरी से आठवीं शताब्दी तक का उपर्युक्त काल-निर्धारण नितान्त काल्पनिक एवं आनुमानिक आधार पर किया गया लगता है। उसके लिए कोई ठोस आधार प्रस्तुत नहीं किया गया। बिना किसी पूर्वाग्रह के हमारा अब भी विश्वास है कि धाराशिव की गुफाएँ एवं मूर्तियाँ महावीर से पूर्वकालीन हैं। उस्मानाबाद का प्राचीन नाम धाराशिव था अत: गुफाओं का नाम इस नगर के नाम पर ही ‘धाराशिव गुफाएँ’ पड़ गया। उस काल में तेर नगर का विशेष महत्व था और गुफाओं वाला क्षेत्र तेर का प्रभाव क्षेत्र था। अत: साहित्य में कहीं-कहीं इन्हें तेर की गुफाएँ भी कह दिया गया है। अतिशय क्षेत्र-प्राचीन काल में धाराशिव के पार्श्वनाथ को अग्गलदेव या अर्गलदेव कहा जाता था। इनके अतिशयों के कारण इनकी बड़ी मान्यता थी। ये अग्गलदेव इतने विख्यात थे कि आचार्यों ने केवल अग्गलदेव का उल्लेख किया है, उसके साथ नगर तक का उल्लेख करने की आवश्यकता उन्होंने अनुभव नहीं की। प्राकृत निर्वाणकाण्ड में केवल ‘अग्गलदेवं वंदमि’ लिखना ही पर्याप्त समझा। विश्वभूषण (१७वीं शताब्दी का उत्तरार्ध) ने भी ‘अर्गलदेवं वंदे नित्यं’’ लिखकर अर्गलदेव की वंदना की है किन्तु अनेक लेखकों ने अग्गलदेव अथवा अर्गलदेव की स्पष्ट पहचान के लिए उसके साथ धाराशिव का भी उल्लेख किया है कि धाराशिव नगरी के आगलदेव को मैं नमस्कार करता हूँ। इसी प्रकार जयसागर ने ‘सुआगलदेव धारासिव ठाम’ लिखकर गुणकीर्ति का ही अनुकरण किया है। ज्ञानसागर ने ‘सर्वतीर्थ वंदना में’ आगलदेव का स्मरण छप्पय छंद में इस प्रकार किया है-
‘‘धारासिव सुभ ठाण स्वर्गपुरीसम लहिए। आगलदेव जिनेश नाम थी पातक दहिए।
पर्वतमध्य निवास महिमा नहिं पारह। सेवत नवविधि होय पूजत सुखभंडारह।।
आगलदेव तणी कथा सुणताँ पातक परिहरे। ब्रह्म ज्ञानसागर वदति मनवांछित पूरण करे।।’’
उदयकीर्ति ने आगलदेव की स्थिति स्पष्ट करने के लिए उन्हें करकण्डु राजा द्वारा निर्मित बताया है। यथा-‘करवंâडराय णिम्मियउ भेउ। हउँ वंदउँ आगलदेव देउ।।’ उपर्युक्त विद्वान् १३वीं शताब्दी से १७वीं शताब्दी तक के हैं। अर्थात् धाराशिव के पार्श्वनाथ की अर्गलदेव के रूप में १७वीं शताब्दी तक तो निश्चितरूप से ख्याति रही है। अर्गलदेव के रूप में यह मान्यता कब और कैसे धुँधली पड़ती गई, यह जानने का कोई साधन नहीं है।
क्षेत्र-दर्शन- यहाँ पर्वत पर ४ गुफाएँ उत्तराभिमुखी बनी हुई हैं। इसी प्रकार ३ गुफाएँ दक्षिणाभिमुखी हैं। दोनों के मध्य में उत्तराभिमुखी गुफाओं के सामने शिवगुरु का मंदिर बना है। दक्षिणाभिमुखी गुफाओं में मूर्तियाँ नहीं हैं, केवल एक गुफा में पार्श्वनाथ की जीर्ण मूर्ति है। ये गुफाएँ और मूर्तियाँ पुरातत्त्व विभाग के संरक्षण में हैं किन्तु वास्तव में पुरातत्त्व विभाग इतनी बहुमूल्य पुरातन सामग्री की ओर से उदासीन है। यहाँ की मुख्य गुफा का प्रवेश भाग गिर गया है। उसके कारण गुफा में अंधकार रहता है, यात्रियों को प्रवेश करने में भी असुविधा होती है तथा गुफा के शेष भाग के गिरने का भी खतरा है। सफाई और प्रकाश के अभाव में गुफाओं में चमगादड़ों का साम्राज्य है।
गुफा नं.१- यहाँ हम मुख्य गुफा की ओर से दर्शन करेंगे। इस गुफा का प्रवेश भाग गिर गया है। पहाड़ की बड़ी-बड़ी शिलाएँ तथा बाहरी भाग गिरकर गुफा के द्वार पर मलवे का ढेर एकत्रित हो गया है। इस मलवे के कारण द्वार अवरुद्ध हो गया है और गुफा में अंधकार व्याप्त हो गया है। अंदर प्रवेश करने के लिए छोटा सा मार्ग शेष है। प्रवेश करते समय भय बना रहता है कि कहीं कोई शिला ऊपर से आकर गिर न पड़े। गुफा में प्रवेश करते ही २० स्तंभों पर आधारित एक विशाल मण्डप मिलता है। इसमें जगह-जगह से ऊपर से पानी टपकता रहता है। इसके कारण मण्डप में जल भरा रहता है। बगल से निकलकर सामने ६ सीढ़ियाँ चढ़कर गर्भगृह मिलता है। इसमें सामने ही भगवान पार्श्वनाथ की ६ फीट ६ इंच ऊँची और ६ फीट चौड़ी श्याम वर्णी अर्धपद्मासन प्रतिमा विराजमान है। वक्ष पर श्रीवत्स नहीं है। कान स्वंध तक नहीं हैं। सिर के ऊपर विशाल सप्तफण सुशोभित है। फणों के दोनों पाश्र्वों में पुष्पवर्षा करते हुए देव दीख पड़ते हैं। भगवान के दोनों ओर इन्द्र चमर लिये बैठे हैं। इन्द्रों के सिर पर किरीट तथा गले में रत्नहार सुशोभित हैं। उनके आगे सिंह मुख फाड़े हुए बैठा है। इस गर्भगृह का आकार १९ फीट ८ इंच लम्बा और १६ फीट ३ इंच चौड़ा है। परिक्रमापथ बना हुआ है। इतनी विशाल होते हुए भी मूर्ति अत्यन्त मनोज्ञ और लावण्ययुक्त है। मण्डप के तीन ओर २३ प्रकोष्ठ बने हुए हैं। गर्भगृह के वामपाश्र्व में एक खड्गासन ६ फीट उत्तुंग श्यामवर्ण प्रतिमा है। केशों की अलग-अलग सुन्दर लटें बनी हुई हैं। सिर के ऊपर छत्र है। इस प्रतिमा के बगल में भूरे पाषाण की ३ फीट ऊँची सर्वतोभद्रिका प्रतिमा है। इस प्रकोष्ठ के बाहर भूरे पाषाण की ३ फीट उन्नत एक तीर्थंकर प्रतिमा रखी है। यह अर्धपद्मासन है। सिर के ऊपर छत्र हैं। छत्रोें के दोनों ओर चमरेन्द्र हैं। उनसे नीचे दोनों ओर दो-दो पद्मासन प्रतिमाएँ और बनी हुई हैं। पादपीठ पर सात भक्त श्रावक हाथ जोड़े हुए विनय मुद्रा में बैठे हैं। प्रतिमा खण्डित है। इस प्रकोष्ठ के बगल वाली कोठरी में सरस्वती की २ फीट ७ इंच ऊँची श्यामवर्णी मूर्ति है। बायें कंधे के सहारे वीणा रखी हुई है और देवी उसे दायें हाथ से बजा रही है। बायाँ हाथ वरद मुद्रा में है। देवी अर्धपद्मासन से बैठी है। मण्डप में ३ फीट १ इंच ऊँची सर्वतोभद्रिका प्रतिमा रखी हुई है। यह खण्डित है। शिखर के ऊपर चारों दिशाओं में पद्मासन तथा नीचे खड्गासन प्रतिमाएँ हैं। इन प्रकोष्ठों के अतिरिक्त शेष प्रकोष्ठों में चमगादड़ों ने निवास बना लिया है।
गुफा नं.२- उक्त गुफा की बायीं ओर की गुफा में तीन द्वार हैं। यह गुफा १७ फीट १ इंच लम्बी और ११ फीट २ इंच चौड़ी है। इसके मध्य में दो जलकुण्ड बने हुए हैं। दीवार के सहारे ४ फुट ४ इंच ऊँची पार्श्वनाथ की खड्गासन प्रतिमा विराजमान है। यह सप्तफणावलियुक्त है। प्रतिमा की पीठ पर सर्प-वलय बना हुआ है। प्रतिमा का वर्ण हलका श्याम है। इसका मुख घिस गया है। इसके वाम पाश्र्व में ३ फीट ९ इंच ऊँची सर्वतोभद्रिका प्रतिमा है तथा दक्षिण पाश्र्व में १ फुट ९ इंच ऊँचे पाषाणफलक में पद्मासन प्रतिमा उत्कीर्ण हैं। उसके ऊपर छत्र तथा नीचे चमरवाहक हैं।
गुफा नं.३- दायीं ओर एक विशाल गुफा है। इसमें बाहर बरामदा तथा २० स्तंभों पर आधारित विशाल सभामण्डप है। मण्डप का फर्श कच्चा है। गर्भगृह १९ फीट २ इंच लम्बा और १७ फीट ९ इंच चौड़ा है। ४ फीट ऊँचे चबूतरे पर भगवान पार्श्वनाथ की अर्धपद्मासन श्यामवर्ण प्रतिमा है। यह ६ फीट २ इंच ऊँची और ६ फीट चौड़ी है। इसका लेप कहीं-कहीं उतर गया है। सिर के ऊपर सप्तफण है, किन्तु जीर्ण-शीर्ण हैं। शेष रचना प्रथम गुफा की प्रतिमा के समान है, किन्तु काफी अस्पष्ट हो चुकी है। वेदी के चारों ओर परिक्रमा-पथ बना हुआ है। इस गुफा में कहीं-कहीं जल टपकता है, किन्तु जल-कुण्ड नहीं बना है। मुख्य गर्भगृह की बायीं ओर एक प्रकोष्ठ में एक चबूतरे पर ४ फीट २ इंच ऊँची अर्धपद्मासन श्यामवर्ण प्रतिमा है। ऊपर छत्रत्रयी है। छत्रों के दोनों ओर चमरेन्द्र हैं, किन्तु अस्पष्ट हैं। मूर्ति से लेप उतर गया है। बरामदे में दायीं ओर एक गुफा है। इस गुफा में सात द्वार हैं। बीच में स्तंभ बने हुए हैं। इसके आगे चौरस चबूतरा है। इस गुफा की हालत अच्छी है। इसका जीर्णोद्धार किया गया है। स्तंभ नये लगे हैं। चबूतरे पर दायीं ओर एक छोटी गुफा बनी हुई है।
गुफा नं.४- इस गुफा में प्रवेश द्वार तथा उसके दोनों ओर खिड़कियाँ हैं। फिर सभामण्डप है जिसमें ४ स्तंभ बने हुए हैं। सामने गर्भगृह है, जिसमें भगवान पार्श्वनाथ की मूर्ति है। मूर्ति बिल्कुल जीर्णशीर्ण है। यह मूर्ति गारे मिट्टी की बनी हुई है। रचना पूर्ववत् है, किन्तु सब कुछ अस्पष्ट है। इसमें परिक्रमा-पथ नहीं है। गर्भगृह भी छोटा है। इस गुफा में ४ प्रकोष्ठ बने हुए हैं। ये सब खाली हैं। यहाँ से पहाड़ पर पगडण्डी द्वारा दक्षिणाभिमुखी गुफाओं की ओर जाते हैं। यहाँ ३ गुफाएँ बनी हुई हैं। इसका विवरण इस प्रकार है-
गुफा नं. ५- इस गुफा में तीन खण्ड हैं। इसमें जल भरा हुआ है।
गुफा नं. ६- इसमें ५ द्वार हैं। मध्य में स्तंभ है। आगे बराण्डा है। १० स्तंभोें पर आधारित सभामण्डप बना हुआ है। स्तंभों के मध्य गर्भगृह है। इसमें ५ फीट ६ इंच ऊँची पार्श्वनाथ प्रतिमा है। इसके शीर्ष पर नौ फण बने हुए हैं किन्तु जीर्णशीर्ण हैं। सब कुछ अस्पष्ट है। इस गुफा में दो कोठरियाँ बनी हैं। ==
गुफा नं.७- इस गुफा में ११ द्वार हैं। एक कोठरी बनी हुई है। गुफा में जल है। द्वारों के सिरदलों पर पशुओं आदि की मूर्तियाँ बनी हुई हैंं। किन्तु वे अस्पष्ट हो गई हैं। उपर्युक्त सभी गुफाओं का निर्माण-काल एक नहीं लगता। संभवत: उत्तराभिमुखी गुफाएँ प्राचीन हैं। इसमें गुफा नं. १-३ और ४ करकण्डु नरेश द्वारा निर्मित लगती हैं। पार्श्वनाथ मूर्तियाँ, जो अर्धपद्मासन हैं, वे भी करकण्डु द्वारा प्रतिष्ठित प्रतीत होती हैं। शेष गुफाएँ एवं मूर्तियाँ उत्तरकालीन लगती हैं। इनका निर्माण समय पुरातत्त्ववेत्ताओं द्वारा अनुमानित काल लगता है।
धर्मशाला- उस्मानाबाद में दो जैन मंदिर हैं। वे एक-दूसरे के सामने बने हुए हैं। सेठ नेमचंद बालचंद गांधी के मंदिर में धर्मशाला बनी हुई है जिसमें ५ कमरे हैं। नल और बिजली की उचित व्यवस्था है।