अवस्थिति और मार्ग— जबलपुर नगर की गणना मध्यप्रदेश के प्रमुख नगरों में की जाती है। यह औद्योगिक, राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक सभी दृष्टियों से महाकौशल का सबसे बड़ा नगर है। जैन समाज का तो यह केन्द्र ही है। यहाँ जैनों के लगभग दो हजार घर हैं तथा ३६ दिगम्बर जैन मंदिर और ३ चैत्यालय हैं। जबलपुर नगर से ६ कि.मी. दूर जबलपुर-नागपुर रोड पर दक्षिण-पश्चिम की ओर पुरवा और त्रिपुरी के बीच में एक छोटी-सी पहाड़ी है। यह धरातल से ३०० फुट ऊँची है। ‘पिसनहारी की मढ़िया’ अथवा मढ़िया इसी पहाड़ी पर है। पहाड़ी पर जाने के लिए २६५ सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। इसके पास ही मेडिकल कॉलेज बना हुआ है। जबलपुर शहर से यहाँ आने के लिए बसों और टैम्पुओं की सुविधा है। यहाँ का पता इस प्रकार है—पिसनहारी मढ़िया ट्रस्ट, नागपुर रोड, जबलपुर (म.प्र.)।
क्षेत्र का इतिहास— यह स्थान लगभग ५०० वर्ष से प्रकाश में आया है। यद्यपि इसके आसपास चारों ओर प्राचीन कला-सामग्री बिखरी पड़ी है, किन्तु मढ़िया में इसके पूर्व का कोई पुरातत्त्व नहीं मिलता। इस क्षेत्र के नाम और निर्माण के संबंध में अनेक किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं। उनमें से एक किंवदन्ती यह भी है— जबलपुर नगर के मध्य में कमानिया द्वार (त्रिपुरीस्मारकद्वार) के निकट एक निर्धन पिसनहारी विधवा रहती थी। वह आटा पीसकर अपना निर्वाह करती थी। एक दिन उसने जैन मुनि का उपदेश सुना। उपदेश सुनकर उसने तभी मन में एक जैन मंदिर निर्माण कराने का संकल्प कर लिया किन्तु समस्या थी धन की। जिसने जीवन में दूसरों के समक्ष कभी हाथ नहीं पसारा, जो अपने श्रम पर ही निर्भर रहकर अपना जीवन-यापन करती थी, वह मंदिर के लिए दूसरों से भिक्षा कैसे माँगती ! उसका संकल्प अखंड था। उसने निश्चय कर लिया कि श्रम द्वारा धन संग्रह करके मंदिर-निर्माण करना है, और मंदिर अवश्य बनेगा, चाहे इसके लिए कितना ही श्रम क्यों न करना पड़े। बस, इस संकल्प का सम्बल लेकर वह श्रम करने में जुट गयी। वह घर-घर जाती और वहाँ से अन्न लाकर पीसती। सुबह से शाम तक उसकी चक्की कभी विराम न लेती। चक्की की मधुर ध्वनि से उसका अडिग संकल्प गानों के रूप में गूँजता। वृद्ध शरीर और अथक परिश्रम किन्तु संकल्प की संजीवनी उसे श्रान्त-क्लान्त न होने देती। ज्यों-ज्यों धन-संचय होता जाता, त्यों-त्यों उसमें एक नवीन स्पूर्ति तरंगित होती जाती। लोग उसके इस दुस्साहस पर हँसते, किन्तु वह लोक निंदा या उपहास से निर्लिप्त बनी अपनी साधना में निरत रहती। वह दिन भी आ पहुँचा, जब लोगों ने देखा कि वृद्धा पिसनहारी कुदाल-फावड़ा लेकर मढ़िया की पहाड़ी पर वन्य झाड़ियों और वृक्षों को काट-काटकर मंदिर के लिए ऊबड़-खाबड़ भूमि को समतल बनाने में जुटी हुई है। तब राज (मिस्त्री) आये, मजदूर आये, र्इंट चूना और पत्थर लाये गये और मंदिर का निर्माण आरंभ हो गया। उसकी निंदा करने वाले अब उसकी प्रशंसा करने लगे। जो उसका उपहास उड़ाते थे, वे उसे सहयोग देने को तत्पर हो गये किन्तु उस तपस्विनी को यह सब देखने-सुनने का अवकाश कहाँ था। वह तो मजदूरों के संग र्इंट-गारा इधर से उधर पहुँचाने में जुटी रहती। प्रात: से संध्या तक मजदूरों के साथ वह काम करती, उनके काम की देखभाल करती और रात्रि होते ही उस निर्जन नीरव जंगल में खटिया डालकर चौकसी करती। तब वह दिन भी आ पहुँचा, जब मंदिर तैयार हो गया। उसके ऊपर शिखर का मुकुट लग गया किन्तु मुकुट में मणि नहीं थी, जो बड़ी भारी कमी थी। स्वर्ण कलश के बिना शिखर सूना-सूना सा लग रहा था। एक निर्धन असहाय अबला के पास इतनी पूँजी कहाँ थी जिससे वह स्वर्ण कलश चढ़ा पाती। तब उस पुण्यशाली महाभागा ने ऐसा कलश चढ़ाया, जैसा संसार ने न कभी देखा था, न कभी सुना था। उसने अपनी चक्की के दोनों पाट शिखर में चिनवा दिये। जिन पाटों ने उसे जीवन में रोटी दी, जिन पाटों ने उसके संकल्पों को मूर्त रूप दिया, वे ही उसकी एकमात्र पूँजी थे। भगवान के लिए उसने अपनी समग्र पूँजी समर्पित कर दी। किन्तु इतिहास उसका नाम सुरक्षित न रख पाया, यह कैसी विडम्बना है। फिर भी जन-जन की श्रद्धा ने इस क्षेत्र को ‘पिसनहारी मढ़िया’ के रूप में सदा सर्वदा के लिए अमर कर दिया। इस मंदिर में गुम्बज के नीचे के आले में दो मूर्तियाँ विराजमान हैं। इनके सिंहासन पीठ पर प्रतिष्ठा संवत् १५८७ उत्कीर्ण है। ये ही यहाँ की सर्वप्राचीन मूर्तियाँ हैं। इनसे पूर्ववर्ती एक मूर्ति संवत् १५४८ की है, जो शाह जीवराज पापड़ीवाल द्वारा प्रतिष्ठित है। उन्होंने विभिन्न स्थानों पर इसी प्रतिष्ठा-संवत् की अनेक मूर्तियाँ भेजी थीं। उक्त मूर्ति पापड़ीवाल जी द्वारा भेजी हुई है। संवत् १५८७ में निर्मित मंदिर और मूर्तियों के अतिरिक्त यहाँ अन्य कोई पुरातत्त्व सामग्री नहीं है। शेष मंदिर और मूर्तियों की प्रतिष्ठा तो वीर संवत् २४८३ और २४८४ में हुई है। लगता है, इस अंतराल में (वीर संवत् २०५६ से २४८३ तक) ४२७ वर्ष तक यहाँ कोई दूसरा मंदिर नहीं बना और न इसे तीर्थक्षेत्र के रूप में मान्यता मिली। संवत् १९३९ में जबलपुर के जैन समाज की दृष्टि इस ओर गयी। वह यहाँ के प्राकृतिक सौन्दर्य, ऐतिहासिक महत्त्व और आध्यात्मिक साधना के उपयुक्त वातावरण से प्रभावित होकर आकृष्ट हुआ। धीरे-धीरे यहाँ निर्माण कार्य प्रारंभ हो गया। सीढ़ियाँ बनीं, धर्मशालाएँ बनीं। फिर संवत् १९७६ में यहाँ दो गजरथ महोत्सव संपन्न हुए। इन उत्सवों में सहस्रों व्यक्तियों ने सम्मिलित होकर इस स्थान के महत्त्व को समझा। संवत् १९८४ में चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज का यहाँ पदार्पण हुआ। क्षुल्लक श्री गणेशप्रसाद जी वर्णी तो यहाँ पर्याप्त समय तक रहे। इन दोनों आध्यात्मिक संतों के पुण्य प्रसाद और प्रभाव से इस स्थान का द्रुत गति से विकास हुआ, क्षेत्र के रूप में इसकी ख्याति हुई और अनेक नवीन मंदिर-मन्दरियों का निर्माण करने की प्रेरणा जगी। यहाँ का चमत्कारिक जलकुण्ड अवश्य उल्लेखनीय है। वह जलकुण्ड अब भी विद्यमान है।
क्षेत्र दर्शन— जबलपुर-नागपुर सड़क के किनारे एक विशाल अहाते के मध्य में क्षेत्र का कार्यालय, धर्मशाला तथा क्षेत्र स्थित संस्थाओं के भवन अवस्थित हैं। यहाँ एक जिनालय और मानस्तम्भ भी है। इसके पृष्ठभाग में पहाड़ी है, जिस पर मंदिरों की श्वेत पंक्ति, उन्नत शिखर और उनके ऊपर लहराती ध्वजाएँ बरबस ध्यान आकर्षित कर लेती हैं। कार्यालय से कुछ दूर चलने पर पहाड़ी की चढ़ाई प्रारंभ हो जाती है। पहाड़ी पर चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। चढ़ाई सुगम है। पहाड़ी पर तेरह मंदिर हैं जिनमें दो मंदिर भगवान पार्श्वनाथ के हैं जिनका परिचय यहाँ प्रस्तुत है-
मंदिर नं.-२— इससे कुछ सीढ़ियाँ चढ़ने पर पार्श्वनाथ मंदिर मिलता है। यह मूर्ति कृष्ण पाषाण की है और पद्मासन है। इसकी अवगाहना २ फुट ७ इंच है। यह वीर संवत् २४८३ में प्रतिष्ठित हुई। इस चबूतरानुमा वेदी पर २ पाषाण की और ४ धातु-प्रतिमाएँ विराजमान हैं। यहाँ भगवान पार्श्वनाथ के वीर सं. २४८३ में प्रतिष्ठित चरण चिन्ह भी विराजमान हैं।
मंदिर नं.-१२— कमलासन पर भगवान पार्श्वनाथ की १ फुट १० इंच ऊँची मूर्ति पद्मासन में विराजमान है। वीर संवत् २४८४ में इसकी प्रतिष्ठा हुई।
क्षेत्र स्थित संस्थाएँ— क्षेत्र पर पूज्य वर्णी जी की प्रेरणा से स्थापित वर्णी जैन गुरुकुल और छात्रावास हैं। विद्यालय और छात्रावास के भवन गुरुकुल के अपने हैं। यहाँ निकट ही मेडिकल कालेज है। इस दृष्टि से गुरुकुल के महत्व और उपयोगिता का सहज ही मूल्यांकन किया जा सकता है।
धर्मशालाएँ— क्षेत्र स्थित धर्मशालाओं में ६० कमरे हैंं। धर्मशालाओं में प्रकाश के लिए बिजली की व्यवस्था है। जल के लिए कई कुएँ और हैण्डपंप हैं। क्षेत्र पर आवश्यक वस्तुओं की व्यवस्था है, जैसे बरतन, बिस्तर आदि। जबलपुर, भेड़ाघाट आदि के लिए बस और टैम्पो यहाँ बराबर मिलते हैं।
व्यवस्था— यहाँ की व्यवस्था के लिए ‘पिसनहारी मढ़िया ट्रस्ट’ नामक एक ट्रस्ट है। इसके पदाधिकारियों और सदस्यों का चुनाव जबलपुर जैन समाज द्वारा होता है।
वर्तमान स्थिति- वर्तमान में यह तीर्थ श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मंदिर, पिसनहारी मढ़िया जी अतिशय क्षेत्र के रूप में जाना जाता है। जिला जबलपुर के ग्राम पुरवा (त्रिपुरी वार्ड) में स्थित इस तीर्थ पर रेल अथवा सड़क मार्ग से जबलपुर होकर जा सकते हैं। पर्वत पर भव्य जिनालय के साथ नंदीश्वर द्वीप की रचना दर्शनीय है। पर्वत पर ही अति सुन्दर रमणीक विद्युत साज-सज्जा युक्त मनमोहक फव्वारे से सुसज्जित बगीचा बनाया गया है। समीपवर्ती क्षेत्र पनागर, कोनी जी, बहोरी बंद, भेड़ाघाट आदि हैं। क्षेत्र पर यात्रियों के ठहरने हेतु उचित सुविधाएँ हैं।