उद्दाम विरही ने सन् १८९४ में श्रीनगर को ध्वस्त कर दिया और इस ध्वंस-लीला से यह जैन तीर्थ भी नहीं बच पाया किन्तु प्रतिमाएँ सुरक्षित रहीं। स्व.लाला प्रतापसिंह जैन और स्व. लाला मनोहरलाल जैन के संयुक्त प्रयास से ध्वस्त मंदिर का पुनर्निर्माण हुआ। इस काल में जो मंदिर बनाया गया, वह शिल्प-चातुर्य और कलापूर्ण वास्तु-विधान की दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध है। संभवत: उत्तराखण्ड का कोई मंदिर श्रीनगर के जैन मंदिर के समुन्नत, सूक्ष्म शिल्प विधान और भव्य चित्रकारी से समता नहीं कर सकता। लगता है, यहाँ का प्रत्येक पाषाण सजीव है।
अतिशय- इस मंदिर में केवल एक वेदी है, जिस पर तीन प्रतिमाएँ विराजमान हैं। मूलनायक भगवान ऋषभदेव की और दो भगवान पार्श्वनाथ की। तीनों ही पद्मासन प्रतिमाएँ हैं और प्रभावक हैं। पाषाण का सूक्ष्म निरीक्षण करने से ज्ञात होता है कि ये प्रतिमाएँ लगभग पन्द्रह सौ वर्ष प्राचीन होंगी। इनमें भगवान पार्श्वनाथ की कृष्ण पाषाण की पद्मासन प्रतिमा तो चतुर्थ काल की बतायी जाती है जो अत्यन्त सातिशय है। भक्तों की मान्यता है कि इस प्रतिमा की भक्ति करने से सभी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। इस प्रतिमा के चमत्कारों और अतिशयों के संबंध में जनता में नाना प्रकार की िंकवदन्तियाँ प्रचलित हैं। उनमेें सर्वप्रमुख यह है कि यहाँ रात्रि में देवगण आते हैं और इस मूर्ति के समक्ष भावविभोर होकर नृत्य और पूजन करते हैं। लोगों में यह भी धारणा व्याप्त है कि इस प्रतिमा का ही यह चमत्कार है कि अलकनन्दा की बाढ़ में भी वेदी और प्रतिमाओं की कोई क्षति नहीं हुई। वस्तुत: एक अतिशय क्षेत्र के रूप में इस प्रतिमा का सबसे बड़ा चमत्कार तो यह है कि जो इसके दर्शनोें को जाता है, उसके मन में शुभ भावनाएँ और भगवान की भक्ति का ऐसा उद्रेक होता है कि संसार की तमाम वासनाओं को वह भूल जाता है। मंदिर के प्रांगण में क्षेत्रपाल भैरों का भी मंदिर है। सन् १९७० से ही मंदिर में जीर्णोद्धार का कार्य चल रहा है।
मार्ग- उत्तर रेलवे के मुरादाबाद-सहारनपुर मुख्य लाइन के नजीबाबाद स्टेशन से श्रीनगर बस मार्ग से कोटद्वार होते हुए सौ मील दूर है तथा ऋषिकेष से बस द्वारा ६७ मील दूर है। यह नगर हिमालय में अलकनन्दा के तट पर बसा हुआ है। यहाँ अलकनन्दा नदी धनुषाकार हो गयी है। श्री दिगम्बर जैन मंदिर भी अलकनंदा के तट पर अवस्थित है। यात्रियों के ठहरने के लिए मंदिर के बाहर नंद्यावर्त अतिथिभवन है।
इतिहास-सम्पूर्ण हिमालय पर्वत आद्य तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव का विहार स्थल रहा है। पुराण साहित्य से यह ज्ञात होता है कि भगवान ऋषभदेव ने अनेक वर्षों तक हिमालय (कै कै कैलाशपर्वत) में तपस्या की, केवलज्ञान प्राप्ति के पश्चात् कई बार भगवान का समवसरण भी इस पर्वत पर आया और अन्त में कर्म क्षय करके वे हिमालय से ही मुक्त हुए। उनके अतिरिक्त अनेक मुनियों ने पावनतोया गंगा नदी के एकान्त तट पर हिमालय की शिलाओं पर बैठकर तपस्या की। भरत, बाहुबली, भगीरथ आदि अनेक मुनियों ने यहीं से निर्वाण प्राप्त किया। भगवान पार्श्वनाथ का भी एक बार समवसरण यहाँ आया था और उनके आत्मकल्याणकारी उपदेश सुनकर अनेक व्यक्तियों ने जैनधर्म अंगीकार किया था। इसी कारण अनेक शताब्दियों तक जैनधर्म और उसके अनुयायियों का हिमालय के अंचल में प्रभाव रहा है। श्रीनगर के निकटवर्ती नगरों में अब भी डिमरी, चौधरी आदि अनेक जातियों के लोग रहते हैं, जिनमें अब तक जैन संस्कार पाये जाते हैं। इससे प्रतीत होता है इनके पूर्वज अवश्य जैन धर्मानुयायी रहे होंगे किन्तु किन्हीं परिस्थितियों के कारण वे जैनधर्म और उसके अनुयायियों के सम्पर्वक से सर्वथा पृथक् हो गये लेकिन इतना तो निश्चित ही है कि हिमालय के कण-कण में लोकवंद्य तीर्थंकरों और मुनियों की चरण-धूलि मिली हुई है और यहाँ का कण-कण पावन तीर्थ है। श्रीनगर का जैन मंदिर भी प्राचीन काल में एक प्रसिद्ध तीर्थ रहा है। श्रीनगर किसी समय पौढ़ी गढ़वाल की राजधानी थी। अपनी भौगोलिक स्थिति और ऐतिहासिक कारणों से उत्तराखण्ड के प्रमुख नगरों में इनकी गणना रही है। यह व्यापार का बहुत बड़ा केन्द्र रहा है अत: यह स्वाभाविक है कि यहाँ पर तथा पाश्र्ववर्ती नगरों में जैनों की प्रचुर संख्या रही। इस बात के प्रमाण प्राप्त हुए हैं कि यहाँ के जैन मंदिर की मान्यता जैन तीर्थ के रूप में रही तथा बद्रीनाथ आदि जैन तीर्थों को जाने वाले जैन यात्री इस तीर्थ के दर्शनार्थ आते रहे।