ग्वालियर (म.प्र.)में है पार्श्वनाथ की सबसे बड़ी पद्मासन प्रतिमा
-आर्यिका चन्दनामती माताजी
स्थिति और मार्ग— ग्वालियर सेण्ट्रल रेलवे की मुख्य लाइन पर आगरा-झाँसी के मध्य में आगरा से ११८ कि.मी. और झाँसी से ९७ कि.मी. दूर एक प्रसिद्ध शहर है। यह एक समय ब्रिटिश शासनकाल में भारत की रियासतों में चौथे नम्बर पर था और उसके नरेश सिन्धिया वंश के थे। आजकल तो यह मध्यप्रदेश का एक प्रमुख शहर मात्र रह गया है और कुछ प्रशासकीय कार्यालयों के अतिरिक्त उसका कोई विशेष राजनैतिक महत्त्व नहीं है किन्तु प्राचीन काल में इसका बड़ा राजनैतिक महत्त्व रहा है और अनेकों राजनैतिक घटनाएँ यहाँ घटित हुई हैं। दक्षिण-भारत का द्वार होने के कारण इसको विशेष राजनैतिक महत्त्व मिल चुका है। जैन इतिहास, जैन कला और पुरातत्त्व की दृष्टि से भी इसका गौरवपूर्ण स्थान रहा है।
गोपाचल दुर्ग— पुरातन काल में ग्वालियर के कई नाम जैन वाङ्मय में उपलब्ध होते हैं— जैसे गोपाद्रि, गोपगिरि, गोपाचल, गोपालाचल, गोवागिरि, गोवालगिरि, गोपालगिरि, गोवालचलहु, ग्वालियर। ये सब नाम ग्वालियर के दुर्ग के कारण पड़े हैं। इस दुर्ग का अपना एक इतिहास है। कुछ लोगों का कथन है कि यह दुर्ग ईसा से ३००० वर्ष पूर्व का है। कुछ पुरातत्त्वज्ञ इसे ईसा की तीसरी शताब्दी में निर्मित मानते हैं। इस दुर्ग की गणना भारत के प्राचीन दुर्गों में की जाती है। यह किला ३०० फुट ऊँची पहाड़ी पर बना हुआ है। उत्तर से दक्षिण की ओर इसकी लम्बाई पौने दो मील है तथा पूर्व से पश्चिम तक इसकी चौड़ाई ६०० से २८०० फुट तक है। इस गढ़ में जितनी मूर्तियाँ बनी हुई हैं, उनका निर्माण महाराज डूँगरसिंह और कीर्तिसिंह के शासनकाल में ५५ वर्षों में हो पाया था। मूर्तियों के निर्माण का प्रारंभ तो महाराज डूँगरसिंह के काल में ही हो गया, किन्तु मूर्तियों का निर्माण अधिकांशत: महाराज कीर्तिसिंह के काल में पूर्ण हुआ। महाराज डूँगरसिंह के शासनकाल में तो पहाड़ी की ऊबड़-खाबड़, आड़ी-तिरछी शिलाओं और चट्टानों को छेनी-हथौड़ी की सहायता से साफ और चिकना बनाने का उपक्रम चलता रहा। फिर कलाकारों ने चट्टानों के कठिन हृदयों को भेदकर उनके भीतर से सौम्यता, शांति और वीतरागता को प्रतिमा के मुख पर अंकित करने में सफलता प्राप्त की। सारे पर्वत को उधेड़कर जिनेन्द्र प्रभु के विशाल और कमनीय रूप को उजागर करने में कलाकार ने पूर्णत: सफलता प्राप्त की। उन्होंने सम्पूर्ण दुर्ग को जैन प्रतिमाओं का भव्य मंदिर बना दिया। प्रतिमाओं की इस विशालता में भी कलाकार की छेनी और हथौड़ा चूके नहीं हैं और सब कहीं समुचित रूप में भावनाओं और रेखाओं तक का उभार हुआ है। यह कलाकारों के नैपुण्य को प्रदर्शित करने के लिए पर्याप्त है। सबसे ऊँची पार्श्वनाथ प्रतिमा—इस पर्वत पर कुल जैन मूर्तियों की संख्या १५०० के लगभग है। इनमें ६ इंच से लेकर ५७ फुट तक की मूर्तियाँ सम्मिलित हैं। यहाँ की सबसे विशाल मूर्ति भगवान आदिनाथ की है जो उरवाही दरवाजे के बाहर है, खड्गासन मुद्रा में है और ५७ फुट ऊँची है। इसके पैरों की लम्बाई ९ फुट है। एक पार्श्वनाथ की पद्मासन प्रतिमा है जो ४२ फुट ऊँची मानी जाती है। पद्मासन प्रतिमाओं में यह भारत में सबसे विशाल प्रतिमा है। मूर्तियों का निर्मम भंजन—ग्वालियर दुर्ग की मूर्तियों का निर्माण तोमरवंशी नरेश डूँगरसिंह और उनके उत्तराधिकारी पुत्र करनसिंह (अथवा कीर्तिसिंह) के शासन काल के ३३ वर्षों (सन् १४४० से १४७३) में हुआ था। महाराज मानसिंह ने कुछ मूर्तियों का निर्माण करवाकर इसमें वृद्धि की। इन मूर्तियों का निर्माण केवल इन नरेशों ने ही नहीं कराया, अपितु इस पुण्य कार्य में अनेक भक्त श्रावकों ने भी भाग लिया और करोड़ों रुपये व्यय करके पुण्य और कीर्ति का संचय किया। सन् १५५७ में बाबर के सेनापति रहीमदादखाँ ने दुर्ग के पास रहने वाले एक फकीर शेख मोहम्मद गौैस की मदद से इब्राहीम लोदी के सूबेदार तातारखाँ को पराजित करके दुर्ग पर अधिकार कर लिया। जब बाबर ने विजेता के रूप में दुर्ग में प्रवेश किया तो वह इन विशाल और भीमकाय मूर्तियों को देखकर बड़ा झुँझलाया और उसने इन मूर्तियों को ध्वस्त करने का आदेश दे दिया। इस बात का उल्लेख उसने अपने ‘बाबरनामा’ में किया है। इसका आदेश पाकर सैनिकों ने इन मूर्तियों के ऊपर हथौड़ों से निर्मम प्रहार किये, जिसके फलस्वरूप अधिकांश मूर्तियों की मुखाकृति ही नष्ट हो गयी। अनेक मूर्तियों के हाथ-पैर खंडित कर दिये गये। इस प्रकार प्राय: सभी मूर्तियाँ क्षत-विक्षत कर दी गयीं। धर्मोन्माद की ज्वाला में इतिहास, पुरातत्त्व और कला की न जाने कितनी बहुमूल्य सामग्री नष्ट कर दी गयी, इसका मूल्यांकन कौन कर सकता है! इनमें से संयोगवश किसी अतिशय विशेष के कारण भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा अखंडित है।
संग्रहालय मे जैन पुरातत्त्व— ग्वालियर का केन्द्रीय पुरातत्त्व संग्रहालय दुर्ग के गूजरी महल में स्थित है। गूजरी महल न केवल एक प्राचीन स्मारक ही है, अपितु वह स्थापत्य कला का एक अनुपम उदाहरण भी है। इस महल के साथ एक प्रेम कथानक जुड़ा हुआ है। जो मध्यभारत में बड़ा लोकप्रिय है। राजा मानसिंह को शिकार खेलने का बड़ा शौक था। एक दिन वे दुर्ग के उत्तर-पश्चिम में स्थित ‘राय’ गाँव में शिकार खेलने पहुँच गये। गाँव में एक जगह दो भैंसों में युद्ध हो रहा था। दोनों भयंकर क्रोध के कारण एक दूसरे से गुँथे हुए थे। दर्शकों का भारी शोर हो रहा था। कुछ गुजरियाँ सिर पर घड़े रखे हुए राह साफ होने की प्रतीक्षा में वहाँ खड़ी थीं। किसी में यह साहस नहीं था कि भैंसों को अलग कर दे। सहसा एक गूजरी आगे बढ़ी, घड़े उतारकर एक ओर रख दिये, भैंसों के पास पहुँची और अपने बलिष्ठ हाथों से उनके सींग पकड़कर दोनों को अलग कर दिया। राजा मानसिंह खड़े हुए देख रहे थे। वे एक नारी के इस अतुल साहस और शारीरिक बल को देखकर उसकी ओर आकर्षित हो गये। उसके सौन्दर्य ने उ्नाका मन हर लिया। राजा ने गूजरी से विवाह का प्रस्ताव किया। सुन्दरी के परिजन और पुरजन राजा का प्रस्ताव सुनकर गर्व से फूल उठे किन्तु गूजरी कन्या सहसा विवाह के लिए तैयार नहीं हुई। उसने एक शर्त पेश की-यदि राय ग्राम की नदी से महल तक हर समय जल पहुँचने की व्यवस्था कर दी जाये तो वह विवाह कर सकती है क्योेंकि राय ग्राम की नदी के जल के कारण ही तो इतनी शक्ति वाली है। राजा ने यह शर्त स्वीकार कर ली। बम्बों द्वारा पानी लाने की व्यवस्था कर दी गयी। विवाह के बाद गूजरी का नाम ‘मृगनयना’ रखा गया। उसके रहने के लिए एक सुन्दर महल बनवाया गया। वह ‘गूूजरी महल’ के नाम से विख्यात है तथा ‘रानी सागर’ इस बात का स्मरण दिलाता है कि राजा मानसिंह ने अपनी प्यारी रानी के लिए जल की विशेष व्यवस्था की थी। इस संग्रहालय में जो जैन पुरातत्त्व सामग्री संग्रह की गयी है, वह प्राय: तीन स्थानों से—प्राचीन ग्वालियर, पधावली और भिलसा। ग्वालियर से आयी मूर्तियाँ प्राय: तोमरवंश के शासन काल (१५-१६ वीं शताब्दी) की हैं, कुछ ११-१२ वीं शताब्दी की हैं। एक पद्मासन मूर्ति, मूर्ति लेख के अनुसार, महाराजाधिराज मानसिंह के शासनकाल में विक्रम सं. १५५२ मेें प्रतिष्ठित की गयी थी। पार्श्वनाथ की विक्रम सं. १४७६ की है। एक अन्य पार्श्वनाथ की मूर्ति ११-१२ वीं शताब्दी की है। ग्वालियर की मूर्तियों में नेमिनाथ, धर्मनाथ और चंद्रप्रभ की मूर्तियाँ हैं एवं चौमुखी मूर्तियाँ हैं। इनमें क्रमश: ऋषभनाथ, अजितनाथ, महावीर और पार्श्वनाथ की मूर्तियाँ हैं। भिलसा से भी एक चतुर्मुखी प्रतिमा मिली है। उसमें भी मूर्तियों का क्रम उपर्युक्त रीति से है। भिलसा से प्राप्त ऋषभदेव की एक मूर्ति अपने अद्भुत केश-विन्यास के कारण विशेष उल्लेखनीय जान पड़ती है। पधावली की मूर्तियों में आदिनाथ, धर्मनाथ, पद्मप्रभ, अजितनाथ और पार्श्वनाथ की मूर्तियाँ हैं। ये मूर्तियाँ पधावली के पश्चिम में स्थित पहाड़ी से लायी गयी थीं। ये सब १२-१४ वीं शताब्दी की हैं। ये सब मूर्तियाँ गूजरी महल के फाटक में घुसते ही गैलरी में रखी हैं, अथवा गैलरी नं.-२० (जैन कक्ष) में सुरक्षित हैंं। इन मूर्तियों का क्रमिक विवरण इस प्रकार है— १. पार्श्वनाथ —मूर्ति का सिर २. पद्मासन प्रतिमा अवगाहना ढाई फुट। ऊपर दोनों सिरों पर दो पद्मासन अर्हंत प्रतिमाएँ हैं। उनके नीचे दो देवियाँ वाद्य यन्त्र लिए हुए हैं। उनसे नीचे चमरवाहक हैं। ३. साढ़े चार फुट शिलाफलक पर दो खड्गासन तीर्थंकर मूर्तियाँ हैं। सिर के ऊपर छत्र हैं। कोनों पर आकाशचारी गन्धर्व हैं। भगवान के हाथों के पास दोनों ओर दो-दो चमरेन्द्र खड़े हैं। पाषाण का वर्ण कुछ हल्का पीला है। ४. दूसरे बरामदे में—सहस्रकूट चैत्यालय। ५. सर्वतोभद्रिका प्रतिमाएँ पद्मासन मुद्रा मे , अवगाहना चार फुट। ६. सर्वतोभद्रिका प्रतिमाएँ खड्गासन मुद्रा में। चारों कोनों पर चमरवाहक। ७. पूर्वोक्त प्रतिमा-जैसी है। चमरवाहक नहीं है। जैन कक्ष नं. २० में मूर्तियों का क्रम इस प्रकार है—
१.सवा दो फुट ऊँची पद्मासन प्रतिमा। गरदन के ऊपर भाग नहीं है।
२.सर्वतोभद्रिका।
३. पद्मासन मुद्रा में सदा दो फुट उन्नत प्रतिमा पुष्पदन्त तीर्थंकर की। परिकर में ऊपर कोनों पर गजारूढ़ इन्द्र, नभचारी देव और मध्य में चमरेन्द्र।
४.तीर्थंकर मूर्ति का केवल पीठासन भाग है, शेष खण्डित है। मध्य में बोधिवृक्ष बना हुआ है। उसके दोनों ओर खड़े हुए भक्त उसकी पूजा कर रहे हैं। उसके ऊपर तो पद्मासन तीर्थंकर मूर्तियाँ हैं। उनके ऊपर दोनों ओर यक्ष और यक्षी खड़े हैंं। मूर्तिलेख के अनुसार इस मूर्ति की प्रतिष्ठा संवत् १५५२ ज्येष्ठ सुदी ९ सोमवार को सम्पन्न हुई थी।
५. खड्गासन मुद्रा में ७ फुट उन्नत तीर्थंकर प्रतिमा। परिकर में आकाशचारी गन्धर्व और चमरेन्द्र ।
६. ढाई फुट ऊँची पद्मासन मूर्ति। सिर के पीछे प्रभालय है।
७.पंचबालयति की मूर्ति। मध्य में खड्गासन पार्श्वनाथ हैं। ऊपर दो पद्मासन तथा नीचे दो खड्गासन मूर्तियाँ हैं। उनके दोनों ओर चमरवाहक हैं।
८.एक खण्डित मूर्ति केवल पद्मासन (पथोली) का भाग अवशिष्ट है। मूर्ति लेख के अनुसार संवत् १४९२ में प्रतिष्ठित।
९.एक भव्य तीर्थंकर प्रतिमा। पद्मासन मुद्रा में अवगाहना साढ़े चार फुट। छत्र और भामण्डल कलापूर्ण हैं। दोनों ओर दो खड्गासन मूर्तियाँ हैं, किन्तु खण्डित हैं।
१०. सात फुट उन्नत, पद्मासन मुद्रा में तीर्थंकर मूर्ति छत्रत्रयी है। ऊपर दोनों कोनों पर माला लिये हुए देव-देवियाँ बनी हुई हैंं। दो खड्गासन तथा दोनों ओर दो-दो युगल मूर्तियाँ पद्मासन मुद्रा में। नृत्य-मुद्रा में चमरेन्द्र खड़े हैं। दोनों कोनों पर यक्ष और यक्षी हैं। दो सिंह बने हुए हैं। शेष भाग खण्डित है।
११.भगवान पार्श्वनाथ की ५ फुट ऊँची पद्मासन प्रतिमा। सिर पर फणावली, उसके ऊपर छत्र और भामण्डल सुशोभित हैं। ऊपर पाश्र्वों में दोनों ओर गज बने हुए हैं। नीचे दोनों ओर दो-दो खड्गासन मूर्तियाँ हैं। अलंकरण में हिरण और देवियाँ उत्कीर्ण हैंं।
१२.पाँच फुट की खड्गासन तीर्थंकर प्रतिमा। उसके सिर के ऊपर छत्रत्रयी और पीछे भामण्डल सुशोभित हैं। ऊपर दोनों सिरों पर नभचारी गन्धर्व हैं। उनके नीचे दोनोें ओर एक खड्गासन और एक पद्मासन मूर्तियाँ विराजमान हैं। मूर्ति के दोनों किनारों पर अलंकरण हैं।
१४. सात फुट के एक शिलाफलक पर भगवान ऋषभदेव की खड्गासन मूर्ति है। उसके दोनों ओर चार खड्गासन मूर्तियाँ हैं। उनके नीचे चमरवाहक चमर लिये हुए भगवान की सेवा में खड़े हैं। पादपीठ पर वृषभलांछन अंकित है।
१५. पाँच फुट के शिलाफलक पर पद्मासन प्रतिमा उत्कीर्ण है। बायीं ओर ९ लघु पद्मासन मूर्तियाँ बनी हुई हैं, दायीं ओर का भाग खंडित है। शिलाफलक भी टूटा हुआ है।
१६.भगवान अजितनाथ की खड्गासन प्रतिमा है। बायीं ओर तीन लघु खड्गासन मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। दूसरी ओर का भाग खंडित है। पादपीठ पर गज का लांछन अंकित है।
१७.पद्मासन तीर्थंकर प्रतिमा के ऊपर छत्र हैं। छत्र के ऊपर ३ पद्मासन प्रतिमाएँ हैं। दायीं और बायीं ओर २-२ पद्मासन और १-१ खड्गासन प्रतिमाएँ उत्कीर्ण हैं।
१८.सर्वतोभद्रिका प्रतिमा। एक स्तम्भ में चारों दिशाओं में चार पद्मासन प्रतिमाएँ विराजमान हैं।
१९.किसी मूर्ति का ऊपर का भाग, जिसमें केवल छत्र मध्य में और दो हाथी दोनोें सिरों पर बने हुए हैं।
२०. एक पद्मासन प्रतिमा। सिर कटा हुआ है।
२१. कक्ष नं. २० के सामने मैदान में एक पद्मासन तीर्थंकर मूर्ति रखी है। उसके सिर के पीछे भामण्डल और सिर के ऊपर छत्रत्रयी है। दोनों पाश्र्वों में दो पद्मासन प्रतिमाएँ बनी हुई हैं। उनसे नीचे चमरेन्द्र चमर लिए हुए खड़े हैं। मूर्ति पर भव्य अलंकरण किया हुआ है। कुछ मूर्तियाँ ऐसी हैं, जो अन्य कक्षों में रखी हुई हैं। उनमें एक है वदोह (विदिशा जिला) से प्राप्त तीर्थंकर माता की मूर्ति। माता पर्यंक पर लेटी हुई हैं। उनके बगल में सद्य:जात बाल तीर्थंकर लेटे हुए हैं। तीर्थंकर माता के सिर के पीछे भामण्डल है। उनके निकट इन्द्र द्वारा माता की सेवा के लिए भेजी गयी चार देवियाँ खड़ी हैं। उनके हाथों में चामर आदि वस्तुएँ हैं। ये चार देवियाँ कौन थीं अथवा क्या कर रही थीं, इसका समाधान हमें ‘हरिवंश पुराण’ से इस भाँति हो जाता है— सहैव रुचकप्रभारुचकया तदाद्याभया परा च रुचकोज्ज्वला सकलविद्युदग्रेसरा:। दिशां च विजयादयो युवतश्चतस्रो वरा जिनस्य विदधु: परं सविधिजातकर्मश्रिता:।।३८।३७।अर्थात् विद्युत्कुमारियों में प्रमुख रुचकप्रभा, रुचका, रुचकाभा और रुचकोज्ज्वला ये चार देवियाँ तथा दिक्कुमारियों में प्रमुख विजया आदि चार देवियाँ जिनेन्द्रदेव के जातकर्म करने में जुट गयीं। मूर्ति को ध्यानपूर्वक देखने से स्पष्ट प्रतीत होता है कि इसमें बनी हुई चार देवियाँ हरिवंशपुराण में वर्णित चार विद्युत्कुमारियाँ हैं अथवा चार दिक्कुमारियाँ हैं। प्रतीक के रूप में मूर्ति में चार देवियाँ अंकित कर दी गयी हैं। निश्चय ही यह तीर्थंकर माता तथा सद्य:जात बालक तीर्थंकर की मूर्ति है तथा देवियाँ माता का जातकर्म करके माता की सेवा में खड़ी हुई हैं।
शिलालेख—शिलालेखों की दृष्टि से संग्रहालय अत्यन्त समृद्ध है। इसमें कुछ जैन शिलालेख भी हैं जो ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। एक शिलालेख उदयगिरि (जिला विदिशा) गुहा से उपलब्ध हुआ है जो गुप्त संवत् १०६ (सन् ४२५ ई.) का है। इसमें उल्लेख है कि कुरुदेश के शंकर स्वर्णकार ने कर्मारगण (स्वर्णकार संघ) के हित के लिए गुहा मंदिर में तीर्थंकर पार्श्वनाथ की प्रतिमा का निर्माण कराया। एक शिलालेख १३ वीं शताब्दी का है। यह यज्वपाल वंश के असल्लदेव का नरवर शिलालेख है जो विक्रम सं. १३१९ (सन् १२६२) का है। इसमें गोपगिरि दुर्ग के माथुर कायस्थ परिवार की वंशावली दी गयी है। सर्वप्रथम भुवनपाल का नाम है जो धार-नरेश भोज का मंत्री था। उसने जैन तीर्थंकर के मंदिर का निर्माण कराया, नागदेव ने उसमें तीर्थंकर प्रतिमा की प्रतिष्ठा करायी और यह शिलालेख वास्तव्य कायस्थ (श्रीवास्तव) ने लिखा। एक अन्य शिलालेख उपर्युक्त असल्लदेव के पुत्र गोपालदेव नरवर का है जिसमें आशादित्य कायस्थ द्वारा एक वापिका बनवाने और वृक्ष लगाये जाने का उल्लेख है। ग्वालियर में तोमर राजवंश के काल में जैनधर्म—तोमर राजवंश प्राचीन भारतीय राजवंशों में अत्यन्त प्रतिष्ठित राजवंश माना जाता है। तोमरवंश ने अपनी वीरता, साहस और सूझबूझ से भारतीय इतिहास पर उल्लेखनीय प्रभाव डाला है। तोमरवंश के राजा अनंगपाल ने दिल्ली को बसाया था, यह एक ऐतिहासिक तथ्य है, जिसका समर्थन दिल्ली संग्रहालय में उपलब्ध निम्नलिखित श्लोक से होता है—देशोऽस्ति हरियानाख्य: पृथिव्यां स्वर्गसन्निभ:। ढिल्ल्किाख्यपुरी तत्र तोमरैरस्ति निर्मिता।। यहाँ तोमरों से अभिप्राय अनंगपाल से है। इसी तोमरवंश की एक शाखा ग्वालियर में शासन करती थी। इस वंश के शासनकाल में जैनधर्म को प्रगति करने का पूर्ण अवसर मिला। जैनधर्म के प्रति तोमरवंश के शासकों का व्यवहार उदार और सहानुभूतिपूर्ण रहा। इस वंश के कई राजा तो जैनधर्म के अनुयायी भी थे। कई राजाओं के मंत्री जैन थे। यहाँ के राजाओं पर भट्टारकों का बड़ा प्रभाव था और वे उनके शिष्य थे। इस कारण इस काल में ग्वालियर में अनेक मंदिरों और मूर्तियों का निर्माण हुआ। अनेक प्रतिष्ठोत्सव हुए तथा अनेक जैन गं्रथों का प्रणयन और प्रतिलिपि हुई। महाराज वीरमदेव का मंत्री कुशराज था। वह जैसवाल जैन वंश में उत्पन्न हुआ था। इस मंत्री ने ग्वालियर मेंं चन्द्रप्रभ जिनमंदिर बनवाया था और उसका प्रतिष्ठोत्सव बड़े समारोह के साथ किया था। कुशराज ने पद्मनाभ नामक एक कायस्थ विद्वान् से यशोधरचरित्र नामक एक काव्य ग्रंथ लिखने का अनुरोध किया था। पद्मनाभ ने उनके अनुरोध को स्वीकार करके भट्टारक गुणकीर्ति के संरक्षण में इस संस्कृत काव्य ग्रन्थ की रचना की। वीरमदेव के राज्यकाल में यहाँ अनेक ग्रंथों की प्रतिलिपियाँ भी हुर्इं जो अब भी विभिन्न शास्त्र भण्डारों में मिलती हैं। जैसे सं. १४६० में गोपाचल में साहू वरदेव के चैत्यालय में भट्टारक हेमकीर्ति के शिष्य मुनि धर्मचन्द्र ने सम्यक्त्व कौमुदी की प्रति आत्म-पठनार्थ लिखी, यह तेरहपंथी मंदिर जयपुर के शास्त्र भंडार में सुरक्षित है। सं.१४६८ में भट्टारक गुणकीर्ति की आम्नाय में साहू मरुदेव की पुत्री देवसिरी ने ‘पंचास्तिकाय’ टीका की प्रति करवायी, जो कारंजा के शास्त्र भंडार में है। सं. १४६९ में आचार्य अमृतचंद कृत प्रवचनसार की तत्त्वदीपिका टीका लिखी गयी थी। सं. १४७९ में षट्कर्मोपदेश की प्रति लिखवाकर अर्जिका विमलमती को पूजा महोत्सव के साथ समर्पित की। यह प्रति आमेर के शास्त्र भंडार में विद्यमान है। महाराज डूँगरसिंह की जैनधर्म में पूर्ण आस्था थी। वह कुशल राजनीतिज्ञ, अप्रतिम साहसी और पराक्रमी योद्धा था। नरवर को जीतकर उसने अपने राज्य का विस्तार कर लिया था। नरवर के दुर्ग में उसने अपनी विजय के उपलक्ष्य में जयस्तम्भ भी बनवाया। गोपाचल दुर्ग की ऊबड़-खाबड़ चट्टानों में सम, सुडौल और विशाल प्रतिमाओं का निर्माण उसके शासनकाल में प्रारंभ हुआ। यह सिलसिला उसके पुत्र कीर्तिदेव के शासनकाल के अंत तक चला। इनके शासनकाल में अनेक नये ग्रंथों का निर्माण हुआ। भट्टारक यश:कीर्ति ने संवत् १४९७ में पाण्डवपुराण, १५०० में हरिवंशपुराण की रचना अपभ्रंश भाषा में की। जिनरात्रिकथा, रविव्रत कथा और चन्द्रप्रभ चरित आदि ग्रंथ भी इन्होेंने बनाये। स्वयंभूदेव के हरिवंशपुराण की जीर्ण-शीर्ण प्रति का भी उद्धार इन्होंने कराया। अपभ्रंश भाषा के महाकवि रइधू ग्वालियर के ही रहने वाले थे। महाराज डूँगरसिंह और उनके पुत्र महाराज कीर्तिसिंह दोनों ही नरेश इस महान् कवि के भक्त थे। रइधू ने अपनी रचनाओं में जो प्रशस्तियाँ लिखी हैं, वे ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। उनमें उन्होंने ग्वालियर, पद्मावती, उज्जयिनी, दिल्ली, हिसार आदि स्थानों की तत्कालीन राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियाँ भी दी हैं; अपने समकालीन राजाओं, सेठों, कवियों और भट्टारकों के भी परिचय दिये हैं। महाराज कीर्तिसिंह के शासनकाल में संवत् १५२१ में जैसवाल कुलभूषण उल्हा साहू के ज्येष्ठ पुत्र पद्मसिंह ने २४ जिनालयों का निर्माण कराया और उनकी प्रतिष्ठा करायी। संवत् १५३१ में इन्होंने महाकवि पुष्पदंत के आदिपुराण की प्रतिलिपि करायी। इस ग्रंथ के दानकर्ता की प्रशस्ति में लिखा है कि उन्होंने गं्रथों की एक लाख प्रतिलिपियाँ कराकर विभिन्न मंदिरों में भेजींं। भ.गुणभद्र ने यहाँ के श्रावकों की प्रेरणा से अनेक कथाओं का निर्माण कराया था। संवत् १५२१ में यहाँ के एक लुहाड़िया गोत्रीय खण्डेलवाल जैन ने ‘पउमचरिउ’ की प्रतिलिपि करायी। महाराज डूँगरसिंह का शासन संवत् १४८१ से १५१० तक रहा तथा महाराज कीर्तिसिंह का राज्यकाल संवत् १५१० से १५३६ तक है। वस्तुत: ग्वालियर में जैनधर्म का यह स्वर्ण काल माना जाता है। इनके पश्चात् महाराज मानसिंह के राज्यकाल में कुछ सांस्कृतिक कार्य होने के उल्लेख प्राप्त होते हैं। संवत् १५५८ में गोपाचल दुर्ग में भट्टारक सोमकीर्ति और भट्टारक विजयसेन के शिष्य ब्रह्मकला ने षट्कर्मोपदेश की प्रतिलिपि करायी। इसी संवत् में नागकुमार चरित की प्रति करायी गयी। संवत् १५६९ में गोपाचल में श्रावक सिरीमल के पुत्र चतरु ने ४४ पद्यों में नेमीश्वर गीत की रचना की। इस प्रकार तोमरवंश के राज्यकाल में गोपाचल मेें जैनों के विविध सांस्कृतिक कार्य हुए। इस काल में निर्मित मूर्तियों के लेखों में गोपाचल के नरेशों का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। जिन गं्रथों का इस काल में निर्माण हुआ या प्रतिलिपि हुई, उनकी प्रशस्ति में भी इन नरेशों का उल्लेख सम्मान के साथ किया गया है। इसी प्रकार माधवसेन के दूसरे शिष्य विजयसेन से दूसरी परम्परा प्रारंभ हुई। इस परम्परा में विजयसेन, नयसेन, श्रेयांससेन, अनंतकीर्ति, कमलकीर्ति, क्षेमकीर्ति, हेमकीर्ति, कमलकीर्ति हुए। कमलकीर्ति के दो शिष्य थे—शुभचंद्र और कुमारसेन। शुभचंद्र ने अपनी पीठ सोनागिरि में स्थापित की। इनके शिष्य यश:सेन थे। कमलकीर्ति के दूसरे शिष्य कुमारसेन की शिष्य-परम्परा में हेमचंद, पद्मनन्दि, यश:कीर्ति हुए। यश:कीर्ति के पट्ट शिष्य दो हुए-गुणचंद्र और क्षेमकीर्ति। गुणचंद्र के शिष्य सकलचंद्र और उनके शिष्य महेन्द्रसेन हुए। यश:कीर्ति की शिष्य परम्परा में क्षेमकीर्ति और त्रिभुवनकीर्ति हुए। इनका पट्टाभिषेक हिसार में हुआ। इनकी परम्परा में सहस्रकीर्ति, महीचन्द्र, देवेन्द्रकीर्ति, जगत्कीर्ति, ललितकीर्ति, राजेन्द्रकीर्ति और मुनीन्द्रकीर्ति हुए। इन भट्टारकों का अपने समय में राजा और प्रजा दोनों पर ही अद्भुत प्रभाव था। इन्होंने अनेक मंदिरों और मूर्तियों की प्रतिष्ठा की, अनेक भट्टारकों ने स्वयं शास्त्र लिखे तथा दूसरे विद्वानों को पे्ररणा देकर शास्त्र लिखवाये, शास्त्रों की प्रतिलिपि करायी। इन भट्टारकों में से जिन्होेंने कुछ विशेष कार्य किये, उनका संक्षिप्त उल्लेख यहाँ किया जा रहा है—
विमलसेन— समय १४वीं शताब्दी का उत्तरार्ध। वि.सं.१४१४ में इनके द्वारा प्रतिष्ठित एक पद्मासन धातु चौबीसी जयपुर के पाटौदी मंदिर में विराजमान है। सं. १४२८ में प्रतिष्ठित आदिनाथ की एक मूर्ति दिल्ली के नया मंदिर में विराजमान है।
धर्मसेन— समय विक्रम की १५वीं शताब्दी। इनके द्वारा प्रतिष्ठित पार्श्वनाथ , अजितनाथ और धर्मनाथ तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ जैन मंदिर हिसार में विराजमान हैं।
गुणकीर्ति— इनके तप और चारित्र का प्रभाव तोमरवंश के शासकों पर पड़ा और वे जैनधर्म की ओर आकर्षित हुए। ये अत्यन्त प्रभावशील थे। राजा डूँगरसिंह के शासनकाल में जैन मूर्तियों के उत्कीर्णन का जो महत्त्वपूर्ण कार्य हुआ, उसका श्रेय इन्हीं भट्टारक को है।
यश:कीर्ति— ये गुणकीर्ति के लघुभ्राता और शिष्य थे। वे बड़े विद्वान् थे। इनकी रचनाओं में पाण्डवपुराण, हरिवंशपुराण, आदित्यवारकथा और जिनरात्रिकथा मुख्य हैंं। इन्होंने महाकवि स्वयम्भू के खंडित और जीर्ण-शीर्ण हरिवंशपुराण का उद्धार ग्वालियर के पास पनिहार जिन चैत्यालय में बैठकर किया था।
भट्टारक गुणभद्र—आप प्रकाण्ड विद्वान् थे। आपने लोगों के आग्रह से १५ कथाओं की रचना की। भानुकीर्ति—इनकी लिखी हुई रविव्रत कथा प्राप्त होती है। कमलकीर्ति—इनके समय में कविवर रइधू ने चन्द्रवाड़ में भगवान चन्द्रप्रभ मूर्ति की प्रतिष्ठा की। ग्वालियर में जैन मंदिर और वार्षिक मेले—ग्वालियर, लश्कर और मुरार इन तीनों भागों को मिलाकर ग्वालियर शहर कहलाता है। इनमें से ग्वालियर में ४ मंदिर और ४ चैत्यालय हैं, लश्कर में कुल २० मंदिर और ३ चैत्यालय हैं, तथा मुरार में २ मंदिर और २ चैत्यालय हैं। यहाँ जैन समाज की ओर से २६ जनवरी को रथयात्रा निकाली जाती है। आसौज कृष्ण २ को ग्वालियर किले के उरवाही द्वार के नीचे पंचायती मेला होता है। आसौज कृष्ण ४ को दिगम्बर जैन जैसवाल मंदिर दानाओली से भगवान की प्रतिमा को एक पत्थर की बावड़ी पर ले जाकर विराजमान करते हैं और वहाँ मेला भरता है। आसौज अमावस्या को वासुपूज्य मंदिर ग्वालियर से श्रीजी की जलेव एक पत्थर की बावड़ी पर जाती है। यह मेला बड़ा होता है। इसके अतिरिक्त भगवान महावीर जन्मकल्याणक चैत्र सुदी १३ को, निर्वाण कल्याणक कार्तिक वदी ३० एवं भगवान पार्श्वनाथ जन्मकल्याणक पौष वदी ११ व निर्वाणकल्याणक श्रावण सुदी सप्तमी को भी मेला लगता है। जैन धर्मशालाएँ—”’यहाँ लश्कर में ९, ग्वालियर में २ तथा मुरार में १ जैन धर्मशाला है। इनमें नयी सड़क (लश्कर) में महावीर धर्मशाला अधिक सुविधाजनक है।