य: सार: सर्वसारेषु, स सम्यग्दर्शनं मतम् । आ मुत्तेर्नहि मां मुञ्चेत्, वृत्तं च विमलीक्रियात्।।
सम्पूर्ण सारों में जो ‘‘सार’’ है वह सम्यग्दर्शन ही है। मोक्ष होने तक वह मुझे न छोड़े या मुझसे न छूटे और मेरे चारित्र को भी निर्मल करे। (सम्यग्दर्शन, सद्दर्शन, सद्दृष्टि, सम्यग्दृष्टि, सद्दृक्, सम्यग्दृक् और सम्यक्त्व ये सब पर्यायवाची नाम हैं। सत् या सम्यक् शब्द प्रशस्त और प्रशंसावाची हैं। दृशिर् धातु यद्यपि देखने अर्थ में है तो भी मोक्षमार्ग के प्रकरण में उसका ‘श्रद्धान’ अर्थ ग्राह्य है चूँकि धातुओं के अनेक अर्थ पाये जाते हैं। अत: समीचीन श्रद्धा का नाम सम्यग्दर्शन हो जाता है। यह मोक्षमार्ग का मूल है। इसवेâ औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक ऐसे तीन भेद होते हैं। ये भेद अंतरंग में दर्शनमोह और अनंतानुबंधी कषाय के उपशम, क्षयोपशम और क्षय की अपेक्षा से होते हैं। अत: इनके अंतरंग कार्य की अपेक्षा से सार्थक हैं। सम्यक्त्व के निसर्गज और अधिगमज ये दो भेद भी माने गये हैं। इन दोनों में अंतरंग कारण उपर्युक्त उपशमादि तीन में से कोई भी हो सकता है िंकतु बाह्य कारणों में अंतर होने से ही इनके नाम में अंतर पड़ गया है। ऐसे ही आज्ञासम्यक्त्व आदि दश भेदों में भी अंतरंग कारण समान होते हुए भी बाह्य कारणों की अपेक्षा से दश प्रकार हो जाते हैं। सराग और वीतराग अथवा व्यवहार और निश्चय की अपेक्षा भी सम्यक्त्व के दो भेद होते हैं। इनमें अंतरंग कारण में कथंचित् अंतर है कथंचित् नहीं भी है। जब उपशम, क्षयोपशम को सराग कहकर क्षायिक को वीतराग कहा जाता है तब अंतरंग कारण में अंतर हो जाता है। और जब द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि उपशम श्रेणी में चढ़कर वीतरागता प्राप्त कर वीतराग सम्यग्दृष्टि कहलाता है तब मात्र बाह्य कारणोें की अपेक्षा से ही अंतर माना जाता है। ऐसे व्यवहार और निश्चय में भी समझना चाहिए। चूँकि समयसार टीका में भेदरत्नत्रय कृत सरागसम्यग्दृष्टि और अभेदरत्नत्रय में वीतराग सम्यग्दृष्टि संज्ञा दी है। इन सभी सम्यग्दर्शनों के लक्षण आगमानुसार आपको इस परिच्छेद में देखने को मिलेंगे। पुन: आपको स्वयं आगम की तुला से तोलना होगा कि मैं सराग सम्यग्दृष्टि हूँ या वीतराग सम्यग्दृष्टि। यदि आप अपने को सराग सम्यग्दृष्टि निश्चित कर लेंगे तो आपको अपने सम्यग्दर्शन को आठ अंग सहित बनाना होगा और भी उसके शंका, मद आदि दोषों को दूर कर अन्य-अन्य गुणों को वृद्धिंगत करते हुए वीतराग सम्यक्त्व को प्राप्त करने के लिये भावना भानी होगी।)
उपशम सम्यक्त्व— अनादि मिथ्यादृष्टि जीव को सर्वप्रथम उपशम सम्यग्दर्शन ही होता है। अत: वह मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी चतुष्क इन पाँच के उपशम से होता है। सादि मिथ्यादृष्टि के सात प्रकृतियों के उपशम से औपशमिक सम्यग्दर्शन होता है। कदाचित् मिश्र और सम्यक्त्व प्रकृति की उद्वेलना हो जाने पर पाँच प्रकृतियों के उपशम से भी होता है। इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल अंतर्मुहूर्त ही है। कषायपाहुड़सुत्त में दर्शनमोह की उपशमन विधि के अनंतर सम्यग्दृष्टि को जा लक्षण किया है सो देखिये—
सम्यक्त्व का लक्षण सम्माइट्ठी जीवो पवयणं णियमसा दु उवइट्ठं।
सद्दहदि असब्भावं अजाणमाणो गुरुणिओगा१।।१०७।।
सम्यग्दृष्टि जीव सर्वज्ञ के द्वारा उपदिष्ट प्रवचन का तो नियम से श्रद्धान करता ही है, किन्तु कदाचित् सद्भूत अर्थ को स्वयं नहीं जानता हुआ गुरु के नियोग से असद्भूत अर्थ का भी श्रद्धान करता है। यह गाथा महान् ऋषिप्रवर श्री गुणधर आचार्य की है। ये आचार्य षट्खंडागम सूत्र के रचयिता ग्रन्थकार श्री पुष्पदंत और भूतबलि आचार्य से भी प्रथम हुये हैं। इन्होेंने ‘कषाय पाहुड़’ नाम का जो ग्रंथ बनाया है उस पर श्री यतिवृषभ आचार्य ने चूर्णीसूत्रों की रचना की है तथा श्री वीरसेनाचार्य ने उस मूल गाथा और चूर्णीसूत्रों पर ‘जयधवला’ नाम से टीका रची है। इस गाथा को यथास्थान बहुत से आचार्यों ने प्रयुक्त किया है। किन्हीं ने ज्यों की त्यों दे दिया है और किन्हीं ने उसी के अभिप्रायरूप किन्तु कुछ परिवर्तित रूप से दिया है। यथा—धवला की छठी पुस्तक में यह ‘गाथा’ ज्यों की त्यों है। धवला की प्रथम पुस्तक में यह गाथा निम्नरूप से है।
सम्माइट्ठी जीवो उवइट्ठं पवयणं तु सद्दहदि।
सद्दहदि असब्भावं अजाणमाणो गुरुणियोगा२।।११०।।
भगवती आराधना में यह गाथा ज्यों की त्यों है। पुन: आगे कहते हैं—
‘‘सुत्तादो तं सम्मं दरसिज्जंतं जदा ण सद्दहदि।
सो चेव हवइ मिच्छाइट्ठी जीवो तदो पहुदी।।३३।।
पुन: सूत्र से सम्यक् अर्थ को दिखाने पर भी जब कोई श्रद्धान नहीं करता है तो वह उसी समय से मिथ्यादृष्टि हो जाता है— शिवकोटि आचार्य की यह भी गाथा ध्यान देने योग्य है—
पदमक्खरं च एक्वं पि जो ण रोचेदि सुत्तणिद्दिट्टं।
सेसं रोचंतो विहु मिच्छाइट्ठी मुणेयव्वो३।।३९।।
जो जीव सूत्रनिर्दिष्ट समस्त वाङ्मय का श्रद्धान करता हुआ भी यदि एक पद का श्रद्धान नहीं करता है तो वह समस्त श्रुत की रूचि करता हुआ भी मिथ्यादृष्टि है। क्षयोपशम सम्यक्त्व—सम्यग्दर्शन गुण को विपरीत करने वाली प्रकृतियों में से देशघाती सम्यक्त्व प्रकृति के उदय होने पर जो आत्मा के परिणाम होते हैं उनको वेदक या क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन कहते हैं। वे परिणाम चल, मलिन या अगाढ़ होते हुये भी नित्य ही अर्थात् जघन्य अंतर्मुहूर्त से लेकर उत्कृष्ट छ्यासठ सागर पर्यंत कर्मों की निर्जरा के कारण हैंंं। इस सम्यक्त्व का जघन्य काल अंतर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट छ्यासठ सागर प्रमाण है तथा मध्यम के अनेक भेद हैं। जिस प्रकार एक ही जल अनेक कल्लोलरूप के परिणत होता है, उसी प्रकार से जो सम्यग्दर्शन सम्पूर्ण तीर्थंकर या अर्हंतों के समान अनंत शक्ति के होने पर भी शांतिनाथ जी शांति के लिए और श्री पाश्र्वनाथ जी रक्षा करने के लिए समर्थ हैं, इस तरह नाना विषयों में चलायमान होता है उसको चल सम्यग्दर्शन कहते हैं। जिस प्रकार शुद्ध सुवर्ण भी मल के निमित्त से मलिन कहा जाता है, उसी तरह सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से जिसमें पूर्ण निर्मलता नहीं है उसको मलिन सम्यग्दर्शन कहते हैं। जिस तरह वृद्ध पुरूष के हाथ में ठहरी हुई भी लाठी कांपती है उसी तरह जिस सम्यग्दर्शन के होते हुये भी अपने बनवाये हुए मंदिर आदि में ‘यह मेरा मंदिर है’ और दूसरे के बनवाये मंदिर आदि में ‘यह दूसरे का है’ ऐसा भाव होेवे, उसको अगाढ़ सम्यग्दर्शन कहते हैं। लब्धिसार में भी कहते हैं—
सम्मुदये चलमलिणमगाढं सद्दहदि तच्चयं अत्थं।
सद्दहदि असब्भावं अजाणमाणो गुरुणियोगा।।१०५।।
सुत्तादो तं सम्मं दरसिज्जंतं जदा ण सद्दहदि।
सो चेव हवदि मिच्छाइट्ठी जीवो तदो पहुदी।।१०६।।
सम्यक्त्व प्रकृति का उदय होने पर यह जीव चल, मलिन व अगाढ़रूप से तत्त्वों के अर्थ का श्रद्धान करता है अर्थात् सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से तत्त्वार्थश्रद्धान रूप सम्यक्त्व में चल, मलिन, अगाढ़ ये तीन दोष लगते रहते हैं। ऐसा यह सम्यग्दृष्टि जीव कदाचित् आप स्वयं विशेष अर्थ को नहीं जानता हुआ गुरु के नियोग से असत् अर्थ का भी श्रद्धान कर लेता है तो भी वह सम्यग्दृष्टि ही रहता है। पुन: कदाचित् किसी अन्य आचार्य के द्वारा गणधर आदि प्ररूपित सूत्र को दिखाकर सम्यक् स्वरूप बतलाये जाने पर भी यदि वह अपनी पूर्व मान्यता को हठ बुद्धि से नहीं छोड़ता है तो वह उसी समय से मिथ्यादृष्टि हो जाता है। यहाँ पर ‘अजाणमाणो गुरुणियोगा’ इस चरण का अर्थ विशेष महत्त्व रखता है। देखिये टीकाकार के शब्दों में—‘अयं वेदकसम्यग्दृष्टि: स्वयं विशेषमजानानोे गुरोर्वचनाकौशलदुष्टाभिप्रायगृहीतविस्मरणादिनिबन्धनान्नियोगादन्यथा व्याख्यानासद्भावं तत्त्वार्थेष्वसद्रूपमपि श्रद्दधाति तथापि सर्वज्ञाज्ञाश्रद्धानात्सम्यग्दृष्टिरेवासौ। पुन: कदाचिदाचार्यांतरेण गणधरादिसूत्रं प्रदश्र्य व्याख्यायमानं सम्यग्रूपं यदा न श्रद्दधाति तत: प्रभृति स एव जीवो मिथ्यादृष्टिर्भवति, आप्तसूत्रार्थाश्रद्धानात।’’यह वेदक सम्यग्दृष्टि स्वयं विशेष को नहीं समझता हुआ गुरु के वचनों की अकुशलता से उनके दुष्ट अभिप्राय से अथवा उनके गृहीत अर्थ के विस्मरण आदि के निमित्त से विपरीत व्याख्यान किये गये असद्भाव का तत्त्वार्थों के असत् स्वरूप का भी श्रद्धान कर लेता है फिर भी सर्वज्ञ देव की आज्ञा का श्रद्धान करने से वह सम्यग्दृष्टि ही है। पुन: कदाचित् अन्य आचार्य के द्वारा गणधरादि के सूत्रों को दिखाकर सम्यक् स्वरूप का व्याख्यान किये जाने पर भी यदि वह उस समय उस पर श्रद्धान् नहीं करता है तो वह उसी समय से मिथ्यादृष्टि हो जाता है क्योंकि आप्त कथित सूत्र के अर्थ का वह श्रद्धान नहीं कर रहा हैै। इससे यह समझ लेना चाहिये कि वर्तमान के उपलब्ध जो पूर्वाचार्य प्रणीत गं्थ हैंं। जैसे धवल, जयधवल, महाधवल, समयसार, नियमसार, प्रवचनसार, रयणसार, मूलाचार, तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थराजवार्तिक, श्लोकवार्तिक, तिलोयपण्णत्ति, त्रिलोकसार, गोम्मटसार जीवकाण्ड, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, आदिपुराण, पद्मपुराण, उत्तर पुराण, हरिवंशपुराण, भावसंग्रह, वराँगचरित, वसुनंदिश्रावकाचार आदि। इन ग्रंथों के रचयिता आचार्यों को गुरु मानकर उनके रचित ग्रंथों पर पूर्णतया श्रद्धान रखना चाहिये। यदि उन्होंने गुरुपदेश के विस्मरण से या अज्ञान से अथवा दुष्ट अभिप्राय से भी कुछ कहा होगा तो उस दोष के भागी वे होंगे न कि हम, हम तो गुरु वाक्यों पर दृढ़श्रद्धान रखने से सम्यग्दृष्टि ही बने रहेंगे। चूँकि यह गाथा हमें जो सम्यग्दृष्टि का लक्षण बता रही है उस पर हर एक विद्वानों को लक्ष्य देना उचित है। यह गाथा सामान्य आचार्य के मुख से नहीं निकली है किन्तु श्रीकुन्दकुन्ददेव के भी पहले के एक विशेष महर्षि गुणधरदेव के मुख-कमल से निकली हुई है। वास्तव में इसमें गुरु का एक विशेष ही महत्त्व झलक रहा है। अत: अज्ञायमान गुरु के नियोग से यदि कुछ गलत भी विषय में हमारा श्रद्धान चल रहा है तो वह सही ही है। कब तक? जब तक कि उसके विरोध में कोई आचार्यप्रणीतसूत्र वाक्य नहीं मिल जाते हैं तभी तक। यदि पुन: उन सूत्र वाक्यों को देखकर भी हम अपनी धारणा नहीं बदलते हैं तो उसी समय से हम मिथ्यादृष्टि हो जाते हैं। अत: आगम वाक्य देख लेने के बाद दुराग्रही बनकर अपने सम्यक्त्वरत्न को छोड़ना उचित नहीं है।
क्षायिकसम्यक्त्व—दर्शनमोह की मिथ्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व तथा अनंतानुबंधी चतुष्क इन सात प्रकृतियों के सर्वथा क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व होता है। ‘दर्शन मोहनीय कर्म का क्षय हो जाने पर यह जीव उसी भव में या तीसरे अथवा चौथे भव में सिद्ध पद को प्राप्त कर लेता है, किन्तु चौथे भव का उल्लंघन नहीं करता है तथा दूसरे सम्यक्त्वों की तरह यह सम्यक्त्व नष्ट भी नहीं होता।’ क्षायिक सम्यग्दृष्टि बहुतेक उसी भव से मोक्ष पद प्राप्त कर लेता है अथवा यहाँ से देवपर्याय को प्राप्तकर वहाँ से आकर मोक्ष प्राप्त करने में तृतीय भव हो जाता है। कदाचित् किसी ने सम्यक्त्व होने से पहले नरकायु बाँध ली पुन: सम्यक्त्व हुआ तो भी वह नरक जाकर, वहाँ से आकर मनुष्य होकर मोक्ष चला जायेगा। यदि सम्यक्त्व के पहले तिर्यंच आयु या मनुष्य आयु बाँध ली है तो क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त कर भोगभूमिया मनुष्य होकर वहाँ से स्वर्ग जाकर पुन: यहाँ आकर मोक्ष प्राप्त करेगा, इसमें चौथे भव में मोक्ष प्राप्ति होती है, किन्तु इससे अधिक भव क्षायिक सम्यग्दृष्टि नहीं ले सकता है। ‘यह सम्यक्त्व इतना दृढ़ होता है कि तर्व तथा आगम से विरुद्ध श्रद्धान को भ्रष्ट करने वाले वचन या हेतु उसको भ्रष्ट नहीं कर सकते। अत्यंत भयोत्पादक या ग्लानिकारक पदार्थों को देखकर भ्रष्ट नहीं होता। यदि कदाचित् तीनलोक उपस्थित होकर भी अपने श्रद्धान से भ्रष्ट करना चाहें तो भी वह भ्रष्ट नहीं होता१।’ इस सम्यक्त्व का जघन्यकाल अंतर्मुहूर्त है उत्कृष्टकाल कुछ अधिक तेंतीस सागर प्रमाण है।
प्रश्न—स्त्रियों में कौन-कौन सम्यक्त्व होते हैं?
उत्तर—स्त्रियों में औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होते हैं, क्षायिक नहीं।
प्रश्न—पुन: स्त्रीवेद से क्षपक श्रेणी में आरोहण करना, मोक्ष जाना कैसे होगा?
उत्तर—वह भाववेद की अपेक्षा कथन है। अर्थात् कोई पुरूष द्रव्य से तो पुरूषवेदी है और यदि भाव से स्त्रीवेदी अथवा नपुंसकवेदी है तो वह मोक्ष जा सकता है। यथा—‘‘क्षायिक सम्यक्त्व स्त्रीवेद में भाववेद की अपेक्षा से ही है।’’ शंका—तो फिर स्त्रियों में चौदह गुणस्थान होते हैं यह कथन कैसे बनेगा? समाधान—‘‘ऐसा नहीं कहना, क्योंकि भावस्त्रीवेद से युक्त मनुष्यगति में चौदह गुणस्थानों को सद्भाव मान लेने में कोई विरोध नहीं है।’’ अत: द्रव्य स्त्रियों के क्षायिक सम्यक्त्व नहीं होता है। सम्यक्त्व के दो भेद भी होते हैं—निसर्गज और अधिगमज। निसर्गज सम्यक्त्व—जो सम्यग्दर्शन गुरु के उपदेश की अपेक्षा न करके उत्पन्न होता है वह निसर्गज कहलाता है। अथवा ‘गुरु के अल्प उपदेशमात्र से उत्पन्न हो जाता है’ ऐसा पूर्व में कारण के प्रकरण में कहा गया है। अधिगमज सम्यक्त्व—इस सम्यक्त्व में गुरु का उपदेश प्रमुख है अर्थात् गुरु के उपदेश का अवलंबन लेकर ही यह सम्यक्त्व प्रकट होता है अत: इसको अधिगमज सम्यक्त्व कहते हैं।
सम्यक्त्व के दश भेद
‘‘वह सम्यग्दर्शन आज्ञासमुद्भव, मार्गसमुद्भव, उपदेशसमुद्भव, सूत्रसमुद्भव, बीजसमुद्भव, संक्षेपसमुद्भव, विस्तारसमुद्भव, अर्थसमुद्भव, अवगाढ़ और परमावगाढ़, इस प्रकार से दश प्रकार का है।’’ १. दर्शनमोह के उपशांत होने से ग्रंथश्रवण के बिना केवल वीतराग भगवान् की आज्ञा से ही जो तत्त्वश्रद्धान उत्पन्न होता है उसे ‘आज्ञा सम्यक्त्व’ कहा गया है। २. दर्शनमोह का उपशम होने से जो निग्र्रन्थलक्षण कल्याणकारी मोक्षमार्ग का श्रद्धान होता है उसे ‘मार्ग सम्यग्दर्शन’ कहते हैं अर्थात् निग्र्रन्थ दिगम्बर मार्ग ही मोक्षमार्ग है ऐसा श्रद्धान मार्ग सम्यग्दर्शन है। ३. तिरेसठ शलाका पुरूषों के पुराण के उपदेश से जो सम्यग्दर्शन होता है उसे आगम में प्रवीण गणधरदेव ने ‘उपदेश सम्यग्दर्शन’ कहा है। ४. मुनि के सकलचारित्र को सूचित करने वाले आचारसूत्र को सुनकर जो तत्त्वश्रद्धान होता है उसे उत्तम ‘सूत्र सम्यग्दर्शन’ कहा गया है। ५. जिन जीवादि पदार्थों के समूह का तथा गणितादि विषयों का ज्ञान दुर्लभ है उनका किन्हीं बीजपदों के द्वारा ज्ञान प्राप्त करने वाले भव्य जीव के जो दर्शनमोहनीय के असाधारण उपशमवश तत्त्वश्रद्धान होता है उसे ‘बीज सम्यग्दर्शन’ कहते हैं। ६. जो भव्यजीव पदार्थों के स्वरूप को संक्षेप से ही जान करके तत्त्वश्रद्धान को प्राप्त हुआ है उसके उस सम्यग्दर्शन को ‘संक्षेप सम्यग्दर्शन’ कहा है। ७. जो भव्यजीव बारह अंगों को सुनकर तत्त्वश्रद्धानी हो जाता है उसे ‘विस्तार सम्यग्दर्शन’ से सहित जानो। ८. अंग बाह्य आगमों के पढ़े बिना भी उनमें प्रतिपादित किसी पदार्थ के निमित्त से जो श्रद्धान होता है वह ‘अर्थ सम्यग्दर्शन’ कहलाता है। ९. अंगों के साथ अंगबाह्य श्रुत का ( सर्वश्रुत का) अवगाहन करके जो सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है उसे ‘अवगाढ़ सम्यग्दर्शन’ कहते हैं। १०. केवलज्ञान के द्वारा देखे गये पदार्थोंे के विषय में जो रुचि होती है सो यहाँ ‘परमावगाढ़ सम्यग्दर्शन’ इस नाम से प्रसिद्ध है। इन दशों प्रकार के सम्यक्त्व में से अंत के चार सम्यक्त्वों के अतिरिक्त आदि के छह सम्यग्दर्शन में पाँचों लब्धियों को प्राप्त करके दर्शन मोहनीय का उपशम आदि होना विवक्षित है। अंत के तीन में तो अंग-पूर्व रूप श्रुतज्ञान की अपेक्षा से जो विशेषता आती है वही उन-उन सम्यक्त्व के नाम से विवक्षित हैं क्योंकि वहाँ तो पहले से सम्यक्त्व विद्यमान ही है। कारण भाव मिथ्यादृष्टि मुनि को अधिक से अधिक ग्यारह अंग तक ज्ञान हो सकता है बारहवें अंग और पूर्वों का नहीं और अंतिम सम्यक्त्व तो केवली भगवान् के पूर्णज्ञान की विवक्षा से ही वर्णित है। पूर्व के छह सम्यक्त्वों में भी यदि गुरु का उपदेश न मिले तो देशनालब्धि को पूर्वभव के संस्कारवश या गुरु के लाभ मात्र आदि रूप से समझ लेना चाहिए। आज्ञा सम्यक्त्व आदि छह सम्यक्त्वों में बाह्य कारण प्रधान है चूँकि इनमें बाह्य कारणों की अपेक्षा से ही भेद हुआ है तथा विस्तार आदि तीन सम्यक्त्व में श्रुतज्ञानरूप अंतरंग कारण प्रधान है और अंतिम सम्यक्त्व में तो केवलज्ञान की अपेक्षा है। इस तरह से सम्यक्त्व में औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक की अपेक्षा से तीन भेद कहे हैं। निसर्गज और अधिगमज की अपेक्षा से दो भेद हो गये हैं एवं आज्ञा सम्यक्त्व आदिरूप से दश भेद किये गये हैं। सराग और वीतराग की अपेक्षा भी सम्यक्त्व के दो भेद होते हैं। अध्यात्म ग्रंथों में इन्हीं व्यवहार सम्यक्त्व और निश्चय सम्यक्त्व नाम कहा है। पूर्वाचार्यों ने सराग अथवा व्यवहार सम्यक्त्व को कहाँ तक माना है और वीतराग अथवा निश्चयसम्यक्त्व कहाँ से शुरू होता है? अब इस विषय पर विशद प्रकाश डाला जाता है।
सराग सम्यक्त्व—कषाय प्राभृत गं्रथ में श्री गुणधर आचार्य ने तो दर्शनमोह के उपशम आदि से होने वाले सम्यक्त्व का लक्षण व्यवहार प्रधान किया ही है। यथा—
सम्माइट्ठी जीवो पवयणं णियमसा दु उवइट्ठं।
सद्दहदि असब्भावं अजाणमाणो गुरुणिओगा।।१०७।।
सम्यग्दृष्टि जीव सर्वज्ञदेव के द्वारा उपदिष्ट प्रवचन का तो नियम से श्रद्धान करता ही है, किन्तु कदाचित् अज्ञानवश सद्भूत अर्थ को स्वयं नहीं जानता हुआ गुरु के नियोग से असद्भूत अर्थ का भी श्रद्धान करता है। क्षायिक सम्यक्त्व को वीतराग सम्यक्त्व कहने की अपेक्षा यह लक्षण वीतराग सम्यग्दृष्टि का भी हो जाता है क्योंकि चतुर्थ, पंचम और छठे गुणस्थान में यह लक्षण संभव ही है और आचार्यों की तो बात ही क्या, अकलंकदेव आदि ने क्षायिक सम्यक्त्व को वीतराग कहा है सो ही आगे दिया है। साक्षात् गौतमस्वामी जो कि विपुलमति मन:पर्ययज्ञान के धारी थे, सात ऋद्धियों से समन्वित थे, तद्भव मोक्षगामी थे और तीस वर्ष तक भगवान महावीर स्वामी के चरण सानिध्य में रहकर उनकी दिव्य अमृतमयी दिव्यध्वनि को श्रवण किया था और जिन्होंने द्वादशांगरूप में श्रुत की रचना की थी। ऐसे श्री गौतम गणधर मुनियों के पाक्षिक प्रतिक्रमण में दर्शनाचार का लक्षण करते हुए कहते हैं—‘‘दंसणायारो अट्ठविहो— णस्संकिय णिक्कंखिय णिव्विदिगिंछा अमूढदिट्ठी य। उवगूहण ठिदिकरणं वच्छल्ल पहावणा चेदि।। अट्ठविहो परिहाविदो, संकाए कंखाए विदिगिंछाए अण्णदिट्ठी पसंसणदाए परपाखंडपसंसणदाए, अणायदणसेवणदाए अवच्छल्लदाए अप्पपहावणदाए तस्स मिच्छा मे दुक्कडं।’’दर्शनाचार आठ प्रकार का है—नि:शंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना। मैंने शंका से, कांक्षा से, विचिकित्सा से, अन्य दृष्टि की प्रशंसा से, परपाखण्ड की प्रशंसा से, अनायतन के सेवन से, अवात्सल्य से और अप्रभावना से जो इस आठ प्रकार के दर्शनाचार में विराधना की है वह मेरा दुष्कृत मिथ्या होेवे। इस प्रकार से श्री गौतम स्वामी ने मुुनियों तक के लिए यह व्यवहारप्रधान सम्यक्त्व बतलाया है। अब अध्यात्म योगी श्री कुन्दकुन्ददेव के वचनों में देखिये— श्री कुन्दकुन्ददेव दर्शनपाहुड़ में सम्यक्त्व का लक्षण बताते हुए कहते हैं—
‘‘छह दव्व णव पयत्था पंचत्थी सत्त तच्च णिद्दिट्ठा।
सद्दहइ ताण रूवं सो सद्दिट्ठी मुणेयव्वो।।१९।।
छह द्रव्य, नव पदार्थ, पाँच अस्तिकाय, सात तत्त्व ये जिनेन्द्रेदव द्वारा कहे गये हैं। इनके स्वरूप को जो श्रद्धान करता है वह सम्यग्दृष्टि है। पुन: व्यवहार और निश्चय की अपेक्षा कहते हैं—
जीवादी सद्दहणं सम्मतं जिणवरेहिं पण्णत्तं।
ववहारा णिच्छयदो अप्पाणं हवइ सम्मतं।।२०।।
जिनेन्द्रदेव ने जीवादि पदार्थों के श्रद्धान को व्यवहार से सम्यक्त्व कहा है और अपनी आत्मा के ही श्रद्धान को निश्चय से सम्यक्त्व कहा है।’’ आगे चारित्रपाहुड़ में चारित्र के दो भेद करते हुए पहले सम्यक्त्वचरण चारित्र को कहते हैं—
‘‘जिणणाणदिट्ठिसुद्धं पढमं सम्मत्तचरणचारित्तं।’’
प्रथम जो सम्यक्त्व का आचरणस्वरूप चारित्र है वह जिनेन्द्रदेव के ज्ञान से देखा हुआ शुद्ध है। भावार्थ — चारित्र के दो भेद हैं—सम्यक्त्वचरण और संयमचरण। आठ अंग आदिरूप आचरण सम्यक्त्वचरण है और श्रावक के बारह व्रत तथा मुनि के महाव्रत आदि रूप चारित्र को संयमचरण कहते हैं। पूर्वोक्त प्रकार सम्यक्त्वचरण को जानकर शंकादि दोषों को छोड़ना चाहिए। क्योंकि वे सम्यक्त्व को मलिन करने वाले हैं। नि:शंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये आठ अंग हैं। इत्यादि रूप से यही सम्यक्त्वचरण है। नियमसार ग्रंथ में श्री कुन्दकुन्ददेव ने ‘नियम’ शब्द का अर्थ रत्नत्रय किया है। उसमें सम्यक्त्व का लक्षण करते हुए कहते हैं—
‘‘अत्तागमतच्चाणं सद्दहणादो हवेइ सम्मत्तं।’’
आप्त, आगम और तत्त्वों के श्रद्धान में सम्यक्त्व होता है। समयसार में सम्यक्त्व का लक्षण बताते हैं—
भूयत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं च।
आसवसंवर णिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मत्तं।।१३।।
भूतार्थनय से जाने हुए जीव-अजीव और पुण्य-पाप तथा आस्रव-संवर, निर्जरा-बंध और मोक्ष ये नव तत्त्व सम्यक्त्व हैं। मूलाचार ग्रन्थ२ में भी श्री कुन्दकुन्ददेव ने यही गाथा दी है। रयणसार में श्री कुन्दकुन्ददेव कहते हैं—
सम्मत्तरयणसारं मोक्खमहारुक्खमूलमिदि भणिदं।
तं जाणिज्जइ णिच्छयववहार सरूवदो भेयं।।४।।
भयविसणमल विवज्जिय संसारसरीरभोगण्व्वििण्णो।
अट्ठगुणंगसमग्गो दंसणसुद्धी हु पंचगुरूभत्तो।।५।।
णियसुद्धप्पणुरत्तो बहिरप्पावत्थवज्जिओ णाणी।
जिणमुणिधम्मं मण्णइ गयदुखो होइ सद्दिट्ठी।।६।।
मयमूढमणायदणं संकाइवसणभयमईयारं।
जेसिं चउदालेदे ण संति ते होंति सद्दिट्ठी।।७।।
देवगुरुसमयभत्ता संसारसरीराभोगपरिचत्ता।
रयणत्तयसंजुत्ता ते मणुया सिवसुहं पत्ता।।८।।
अर्थ—संसार में सम्यक्त्व रत्नों में श्रेष्ठ है। इसे मोक्षरूपी महावृक्ष का मूल कहा गया है। निश्चय और व्यवहार नय से इसका भेद किया जाता है। सम्यग्दर्श्ना से शुद्ध व्यक्ति सात भय, सात व्यसन, पच्चीस मलदोष से रहित होता है। संसार, शरीर और भोगों से विरक्त आठ गुणों से परिपूर्ण तथा आठ अंगों से युक्त और पंचपरमेष्ठी का भक्त होता है। जो निज शुद्ध आत्मा में अनुरक्त, बहिरात्म अवस्था से रहित, वीतराग मुनिधर्म को मानता है वह दु:खों से मुक्त सम्यग्दृष्टि होता है। जिनके आठ मद, तीन मूढ़ता, छह अनायतन, शंकादि आठ दोष, सात व्यसन, सात भय, पाँच अतिचार ये चवालीस दूषण नहीं होते हैं वे सम्यग्दृष्टि होते हैं। जो मनुष्य देव, गुरु और शास्त्र के भक्त, संसार, भोग के परित्यागी, रत्नत्रय से संयुक्त होते हैं वे सुख को प्राप्त करते हैं। इस प्रकार से श्री कुन्दकुन्ददेव ने भी इन सभी सम्यक्त्व के लक्षणों में सर्वत्र व्यवहारपरक ही लक्षण कहा है। इससे मालूम होता है कि उनकी दृष्टि में भी व्यवहार सम्यग्दर्शन हेय नहीं था किन्तु उपादेय ही था अन्यथा आध्यात्मिक ग्रन्थों में भी इन व्यवहार प्रधान लक्षणों को क्यों रखते? हाँ, पाहुड़ गं्रथ में क्वचित् निश्चय सम्यग्दर्शन का लक्षण भी किया है। पंचास्तिकाय में व्यवहार मोक्षमार्ग में व्यवहाररत्नत्रय का लक्षण करके पुन: निश्चय मोक्षमार्गरूप निश्चय रत्नत्रय को कहा है। इससे व्यवहार के बाद निश्चय होता है यह क्रम भी परिलक्षित हो जाता है। श्री उमास्वामी आचार्य ने तत्त्वार्थसूत्र में सम्यग्दर्शन का लक्षण किया है—
तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्३ ।।२।।
वास्तविक पदार्थों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। श्री अंकलंकदेव कहते हैं—
तद्द्विविधं सरागवीतरागविकल्पात्।।२९।।
सराग और वीतराग के भेद से वह सम्यक्त्व दो प्रकार का है।
प्रशम, संवेग, अनुकंपा और आस्तिक्य इनके द्वारा जिसकी अभिव्यक्ति होती है वह प्रथम सराग सम्यग्दर्शन है
आत्मविशुद्धिमात्रमितरत्।।३१।।
सप्तानां कर्मप्रकृतीनां आत्यंतिकेऽपगमे सत्यात्मविशुद्धिमात्रमितरद् वीतरागसम्यक्त्वमित्युच्यते। अत्र पूर्व साधनं भवति, उत्तरं साधनं साध्यं च१। आत्मा की विशुद्धिमात्र वीतराग सम्यक्त्व है। अनंतानुबंधी आदि सात प्रकृतियों के अत्यंत क्षय हो जाने से जो आत्मा की विशुद्धि मात्र होती है वह वीतराग सम्यक्त्व है। इनमें से सराग सम्यक्त्व साधन है और वीतराग सम्यक्त्व साधन भी है और साध्य भी है। श्री उमास्वामी आचार्य श्रावकाचार में कहते हैं—
देवे देवमतिर्धर्मे धर्मधीर्मलवर्जिता।
गुरौ च गुरुताबुद्धि: सम्यक्त्वं तन्निगद्यते।।५।।
तीर्थंकर परमदेव को देव मानना, दयामय धर्म को धर्म मानना और निग्र्रंथ गुरु को गुरु मानना अर्थात् सच्चे देव, धर्म और गुरु का ही श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। पुनरपि आगे चलकर कहते हैं—
जीवाजीवादितत्त्वानां श्रद्धानं दर्शनं मतम्।
निश्चयात्वे स्वरूपे वावस्थानं मलवर्जितम्।।२१।।
जीव-अजीव आदि तत्त्वों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है अथवा निश्चय से अपने आत्म स्वरूप में स्थिर होना सम्यग्दर्शन है। यह पच्चीस मलदोषों से रहित होता है। औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक सम्यक्त्व का वर्णन करते हुए पुन: कहते हैं—
वीतराग: पुन: सम्यक् क्षायिकंभववारणम्।
सम्यक्त्वं च द्वयं ज्ञेयं सरागं सुखकारणम्२।।३२।।
क्षायिक सम्यक्त्व वीतराग है चूँकि वह संसार का नाश करने वाला है तथा औपशमिक और क्षायोपशमिक ये दोनों सम्यक्त्व सराग हैं। ये भी मुक्ति सुख के कारण हैं। भावी तीर्थंकर श्री समंतभद्र स्वामी कहते हैं—
श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपोभृताम्।
त्रिमूढापोढमष्टांगं सम्यग्दर्शनमस्मयम्३।।४।।
सत्यार्थ आप्त, आगम और गुरु का तीन मूढ़ता से रहित, आठ मद से रहित और आठ अंग से सहित श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा में सम्यग्दृष्टि का लक्षण कहते हैं—
जो तच्चमणेयंतं णियमा सद्दहदि सत्तभंगेहिं।
लोयाण पण्हवसदो ववहारपवत्तणट्ठं च।।१०।।
जो आयरेण मण्णदि जीवाजीवादि णवविहं अत्थं।
सुदणाणेण णएहि य सो सद्दिट्ठी हवे सुद्धो।।११।
।जो लोगों के प्रश्नों के वश से और व्यवहार को चलाने के लिए सप्तभंगी के द्वारा नियम से अनेकांतात्मक तत्त्व का श्रद्धान करता है, जो आदर से जीव-अजीव आदि नौ प्रकार के पदार्थों को श्रुतज्ञान से और नयों से अच्छी तरह जानता है, वह शुद्ध सम्यग्दृष्टि है।।१०-११।। जो पुत्र-स्त्री आदि सर्वपदार्थों में गर्व को नहीं करता है, उपशम भाव को भाता है और अपने को तृण समान समझता है, विषयों में आसक्त होता हुआ भी और सदा सर्व आरम्भों में प्रवृत्त होता हुआ भी जो यह मोहकर्म का विलास है, ऐसा समझकर सबको हेय मानता है। उत्तम गुणों के ग्रहण करने में तत्पर रहता है, उत्तम साधुओं की विनय करता है और साधर्मी जनों का अनुरागी है, वह परमसम्यग्दृष्टि है। श्री अमृतचंद्रसूरि कहते हैं—
जीव, अजीव आदि सात तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप का विपरीत अभिनिवेश से रहित सदा ही श्रद्धान करना चाहिए, क्योंकि वह आत्मा का स्वरूप है। पुन: आठों अंगों का स्पष्टीकरण किया गया है। यशस्तिलक चंपू में कहते हैं—
आप्तागम पदार्थानां श्रद्धानं कारणद्वयात्।
मूढाद्यपोढमष्टांगं सम्यक्त्वं प्रशमादिभाक्।।४८।।
अंतरंग और बहिरंग कारणों के मिलने पर आप्त (देव), शास्त्र और पदार्थों का तीन मूढ़ता रहित आठ अंग सहित जो श्रद्धान होता है, उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं, यह सम्यग्दर्शन प्रशम, संवेग आदि गुण वाला होता है। वसुनंदि आचार्य कहते हैं—
अत्तागमतच्चाणं जं सद्दहणं सुणिम्मलं होइ।
संकाइदोसरहियं तं सम्मत्तं मुणेयव्वं।।६।।
आप्त, आगम और तत्त्वों का शंकादि दोष रहित जो अतिनिर्मल श्रद्धान होता है, उसे सम्यक्त्व जानना चाहिए। सावयधम्म दोहा नामक श्रावकाचार में सम्यक्त्व का लक्षण कहते हैं—
अत्तागमतच्चाइयहं जं णिम्मलु सद्धाणु।
संकाइयदोसहं रहिउ, तं सम्मत्तु वियाणु।।१९।।
आप्त, आगम और तत्त्वादिकों का जो शंकादि दोषों से रहित निर्मल श्रद्धान है उसे ही सम्यक्त्व जानना चाहिए। चारित्रसार में भी चामुंडराय जी लिखते हैं—
जिनेन्द्र भगवान अर्हन्त परमेष्ठी के द्वारा उपदिष्ट निग्र्रंथलक्षण मोक्षमार्ग मेें श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। श्रीमान् शुभचन्द्राचार्य कहते हैं—
यज्जीवादिपदार्थानां श्रद्धानं तद्धि दर्शनम्।
निसर्गेणाधिगत्या वा तद्भव्यस्यैव जायते।।६।
जो जीवादि पदार्थों का श्रद्धान करना है वही नियम से सम्यग्दर्शन है। वह सम्यग्दर्शन निसर्ग से अथवा अधिगम से भव्य जीवों के ही उत्पन्न होता है, अभव्य के नहीं होता। श्री नेमिचन्द्राचार्य कहते हैं—
जीव आदि पदार्थों का श्रद्धान करना सम्यक्त्व है, वह सम्यक्त्व आत्मा का स्वरूप है तथा इस सम्यक्त्व के होने पर ज्ञान (संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय इन तीनों) दुरभिनिवेशों से रहित सम्यक् हो जाता है। यही बात अमितगति आचार्य ने भी कही है— पहले तो क्षायोपशमिक, क्षायिक और औपशमिक भेदों को कहते हैं—पुन: कहते हैं—
साध्यसाधनभेदेन, द्विधा सम्यक्त्वमिष्यते।
कथ्यते क्षायिकं साध्यं, द्वितीयं साधनं परम्।।५८।।
साध्य और साधन के भेद से सम्यक्त्व दो प्रकार का कहा गया है। क्षायिक सम्यक्त्व साध्यरूप है और शेष दोनों साधनरूप हैं। आगे कहते हैं—
वीतरागं सरागं च सम्यत्वं कथितं द्विधा।
विरागं क्षायिकं तत्र सरागमपरे द्वयम्।।६५।।
ज्ञानियों ने सम्यक्त्व को दो प्रकार का कहा है—वीतराग सम्यक्त्व और सराग सम्यक्त्व। इनमें क्षायिक वीतराग सम्यक्त्व है और शेष दोनों सराग सम्यक्त्व हैं२। इन सभी सम्यग्दर्शन के लक्षणों में व्यवहार प्रधान ही लक्षण दिख रहा है। जो कि सच्चे देव, धर्म, गुरु और तत्त्वों के श्रद्धान रूप ही है। वास्तव में यह सम्यग्दर्शन जिसके प्रकट हो जाता है वह आत्मतत्त्व को नहीं समझता है ऐसी बात नहीं है क्योेंकि सभी सम्यक्त्व में स्वपर भेद विज्ञान होता ही है। आध्यात्मिक भाषा में वीतराग सम्यक्त्व को वीतरागी मुनियों के ही माना गया है उसके पहले छठे गुणस्थान तक सराग सम्यक्त्व माना है फिर भी यहाँ पर उपर्युक्त लक्षणों में श्री अकलंक देव ने तत्त्वार्थराजवार्तिक में क्षायिक सम्यक्त्व को वीतराग कहा है। उमास्वामी श्रावकाचार में तथा अमितगति श्रावकाचार में भी औपशमिक, क्षायोपशमिक को सराग सम्यक्त्व एवं क्षायिक को वीतराग सम्यक्त्व कहा है। इस दृष्टि से भी वर्तमान काल में वीतराग सम्यक्त्व का अभाव है। यद्यपि यह क्षायिक सम्यक्त्व चतुर्थ गुणस्थान में हो सकता है फिर भी केवली, श्रुतकेवली के पादमूल के बिना असम्भव होने से आज यह सम्भव नहीं है। अत: सराग सम्यग्दर्शन ही होता है।
वीतराग सम्यग्दर्शन
अब अध्यात्मभाषा में वीतराग सम्यक्त्व का लक्षण देखिये— निश्चयसम्यक्त्व ही वीतराग सम्यक्त्व है-
निश्चयनय से निश्चयचारित्र के साथ होने वाला निश्चयसम्यक्त्व ही वीतरागसम्यक्त्व कहलाता है। यह निश्चयचारित्र सातवें गुणस्थान से प्रारंभ होता है उसके पहले नहीं। शुद्धात्मा की उपलब्धि ही निश्चय सम्यक्त्व है-‘‘तस्मिन् परमसमाधिकाले नवपदार्थमध्ये शुद्धनिश्चयनयेनैक एव शुद्धात्मा प्रद्योतते………शुद्धात्मोपलब्धि सा चैव निश्चयसम्यक्त्वं ……अभेदविवक्षायां शुद्धात्मस्वरूपमिति तात्पर्यं।’’‘उस परमसमाधि के काल में नव तत्त्वों के मध्य शुद्धनिश्चयनय से एक शुद्धात्मा ही प्रद्योतित होता है, प्रकाशित होता है, प्रतीति में आता है व अनुभव में आता हैै। जो यह अनुभूति-प्रतीति-शुद्धात्मोपलब्धि है वही निश्चय सम्यक्त्व है और वह अनुभूति निश्चयनय से गुण-गुणी में अभेद विवक्षा करने से शुद्धात्मा का स्वरूप ही है ऐसा तात्पर्य समझना।’ यह निश्चय सम्यक्त्व शुद्धोपयोग मेें ही होगा। वीतरागसम्यग्दृष्टि कब होता है?–‘‘….निश्चयचारित्राविनाभाविवीतरागसम्यग्दृष्टिर्भूत्वा……।’’‘जो पुन: सम्यग्दृष्टि अंतरात्मा है वही ज्ञानी जीव है, वह मुख्यवृत्ति से निश्चयरत्नत्रय लक्षण शुद्धोपयोग के बल से निश्चय चारित्र के बिना नहीं होने वाला ऐसा वीतराग सम्यग्दृष्टि होकर निर्विकल्प समाधिरूप परिणाम परिणति को करता है। तब उस परिणाम के द्वारा द्रव्यभावरूप संवर, निर्जरा और मोक्ष पदार्थों का कर्ता होता है।’ यह अवस्था भी शुद्धोपयोग में ही घटित होगी। वीतराग सम्यक्त्व में बंध नहीं होता–‘…..ततश्च वीतराग सम्यक्त्वे जाते साक्षाद्बंधको भवति इति मत्वा वयं सम्यग्दृष्टय: सर्वथा बंधो नास्तीति न वक्तव्यंसराग-वीतराग की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि दो प्रकार के होते हैं उसमें जो सराग-सम्यग्दृष्टि हैंं। अर्थात्— १६-२५-०-१०-४-६-१-३६-५-१६-१- इस प्रकार के बंधव्युच्छित्ति के प्रकरण से चतुर्थ गुणस्थानवर्ती ४३ प्रकृतियों का अबंधक होता है किन्तु ७७ प्रकृतियों को अल्पस्थिति अनुभागरूप से बाँधता हुआ भी संसार स्थिति का छेदक होता है इसलिये वह अबंधक है। इसी प्रकार से अविरति सम्यग्दृष्टि के ऊपर के गुणस्थानों में यथासंभव सरागसम्यक्त्व पर्यंत, नीचे-नीचे के गुणस्थानों की अपेक्षा से तरतमता रूप से अबंधक है। किन्तु उपरिम गुणस्थानों की अपेक्षा से बंधक है। पुन: वीतरागसम्यक्त्व के हो जाने पर साक्षात् अबंधक होता है, ऐसा समझकर हम सम्यग्दृष्टि हैं हमें सर्वथा बंध नहीं है ऐसा नहीं कहना चाहिए।’’ यहाँ पर भी वीतराग सम्यक्त्व को सातवें से ही समझना। आत्मा की भावना ही निश्चयभक्ति है वही निश्चयसम्यक्त्व है-‘‘भक्ति: पुन: सम्यक्त्वं भण्यते व्यवहारेण सरागसम्यग्दृष्टीनां पंचपरमेठ्याराधनारूपा निश्चयेन वीतरागसम्यग्दृष्टीनां शुद्धात्मतत्त्वभावनारूपा चेति।’’,‘‘भक्ति ही पुन: सम्यक्त्व कहलाती है। व्यवहार से सराग सम्यग्दृष्टियों की भक्ति पंचपरमेष्ठी के आराधन रूप है और निश्चय से वीतरागसम्यग्दृष्टियों की भक्ति शुद्धात्मतत्त्व की भावना रूप है।’’ इस प्रकरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि शुद्धात्मतत्त्व की भावनारूप भक्ति छठे गुणस्थान के ऊपर वाले वीतरागियों के ही होती है। इसी बात की पुष्टि के लिए और भी प्रमाण मौजूद हैं— क्या गृहस्थ को वीतराग सम्यक्त्व हो सकता है?‘‘रागी सम्यग्दृष्टिर्न भवतीति भणितं भवद्भि:। तर्हि चतुर्थपंचम गुणस्थानवर्तिन:, तीर्थंकरकुमार-भरत-सगर-राम-पांडवादय: सम्यग्दृष्टयो न भवन्ति? इति। तन्न, मिथ्यादृष्ट्यपेक्षया त्रिचत्वारिंशत्प्रकृतीनां बंधाभावात् सरागसम्यग्दृष्टयो भवंति। कथं! इति चेत्; चतुर्थगुणस्थानवर्तिनां….सर्वत्र तात्पर्येण ज्ञातव्यं।’’ ‘‘रागी सम्यग्दृष्टि नहीं होता है ऐसा आपने बहुत बार कहा है, पुन: चतुर्थपंचमगुणस्थानवर्ती तीर्थंकरकुमार, भरतसम्राट, सगरचक्री, रामचंद्र और पांडव आदि सम्यग्दृष्टि नहीं माने जायेंगे?’’ ‘‘ऐसी बात नहीं है, मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा से तेतालीस प्रकृतियों के बंध का अभाव होने से वे सराग सम्यग्दृष्टि थे।’’ ‘‘सो कैसे?’’ ‘‘चतुर्थगुणस्थानवर्ती जीवों के अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ और मिथ्यात्व के उदय से होने वाले पाषाणरेखा आदि के समान रागादि भावोें का अभाव हो चुका है। पुन: पंचम गुणस्थानवर्ती जीवों के अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ से होने वाले भूमिरेखा आदि के समान रागादि भावों का अभाव हो चुका है। ऐसा पहले भी कह चुके हैं। इस ग्रंथ में तो पंचम गुणस्थान से ऊपर के गुणस्थानवर्ती वीतराग सम्यग्दृष्टियों का ही मुख्यरूप से ग्रहण है। सरागसम्यग्दृष्टियों का गौणरूप से ग्रहण है। ऐसा ही व्याख्यान सम्यग्दृष्टि के व्याख्यान के काल में सर्वत्र तात्पर्यरूप से समझ लेना चाहिए।’’ शुद्धोपयोग कहाँ से शुरू होता है? ‘‘सातवें से।’’ सो ही देखिये—‘‘मिथ्यात्व-सासादन मिश्रगुणस्थानत्रये तारतम्येनाशुभोपयोग: तदनंतरसंयतसम्यग्दृष्टि-देशविरत-प्रमत्तसंयतगुण-स्थानत्रये तारतम्येन शुभोपयोग:, तदनंतरप्रमत्तादिक्षीणकषायान्तगुणस्थानषट्केतारतम्येन शुद्धोपयोग:, तदनंतरं सयोग्ययोगीजिनगुणस्थानद्वये शुद्धोपयोगफलमिति।मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र इन तीन गुणस्थानोें में तरतमता से अशुभोपयोग है, इसके बाद असंयतसम्यग्दृष्टि, देशविरत और प्रमत्तविरत इन तीन गुणस्थानोें में तरतमता से शुभोपयोग है, इसके अनंतर अप्रमत्तसंयत से लेकर क्षीणकषाय तक इन छह गुणस्थानोें में तरतमता से शुद्धोपयोग है, इसके बाद सयोगकेवली व अयोगकेवली इन दो गुणस्थानोें में शुद्धोपयोग का फल है। ‘‘कोई विद्वान् चौथे गुणस्थान में शुद्धोपयोग का प्रारम्भ मानते हैं? ‘‘यदि इसमें ‘तारतम्येन’ शब्द न होता तब तो मान सकते थे किन्तु ‘‘तारतम्य’’ का अर्थ यही है कि ‘सातवें से प्रारंभ होकर बारहवें गुणस्थान तक आगे-आगे विशुद्ध होते हुए अंत में शुद्धोपयोग की पराकाष्ठा हो जाती है। अत: चतुर्थगुणस्थान में शुद्धोपयोग का अंश भी सम्भव नहीं है प्रत्युत् छठे गुणस्थानवर्ती मुनि के शुभोपयोग की समानता भी चतुर्थगुणस्थानवर्ती के नहीं हो सकती है।’’ दूसरी बात यह है कि मुनियों के चारित्र में ही दो भेद हैं न कि श्रावकों के चारित्र में। जैसा कि प्रवचनसार में कहा है—‘‘चारित्तं खलु धम्मो’’ इति वचनात्। तच्च चारित्रमपहृतसंयमोपेक्षासंयमभेदेन सरागवीतरागभेदेन वा शुभोपयोगशुद्धोपयोगभेदेन च द्विधा भवति।’’‘‘चारित्र ही निश्चय से धर्म है, ऐसा कथन है। वह चारित्र अपहृत और उपेक्षा संयम के भेद से, सराग और वीतराग के भेद से अथवा शुभोपयोग और शुद्धोपयोग के भेद से दो प्रकार का होता है। किसी भी ग्रंथ में श्रावकों के विकलचारित्र में सराग-वीतराग अथवा निश्चय-व्यवहार ऐसे दो भेद देखने को नहीं मिलते हैं। सरागसम्यग्दृष्टि अशुभ से ही बच सकता है शुभ से नहीं।‘‘योऽसौ वस्तुस्वरूपं जानाति स सरागसम्यग्दृाqष्ट: सन्नशुभकर्म कर्तृत्वं मुंचति। निश्चयचारित्राविनाभावि वीतरागसम्यग्दृष्टिर्भूत्वा शुभाशुभसर्वकर्मकर्तृत्वं च मुंचति।। इस तरह जो वस्तुस्वरूप को जानता है वह सरागसम्यग्दृष्टि होता हुआ अशुभकर्म के कर्तृत्व को छोड़ता है। पुन: निश्चयचारित्र से अविनाभावी ऐसा वीतरागसम्यग्दृष्टि होकर शुभ-अशुभ सर्वकर्म के कर्तृत्व को छोड़ता है। वीतरागता के अभाव में कर्मों का आस्रव होता ही है—‘‘निश्चयेन वीतरागस्वसंवेदनज्ञानस्याभाव एव अज्ञानं भण्यते। तस्मादज्ञानादेव कर्म प्रभवतीति।‘निश्चय से वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान का अभाव ही अज्ञान है। उस अज्ञान से ही कर्म आते हैं।’ इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि श्रेणी में बुद्धिपूर्वक राग का अभाव हो जाने से बहुत ही अल्प स्थिति-अनुभाग वाले कर्म आते हैं। आगे पूर्ण वीतरागता में कर्मों का आना पूर्णतया रुक जाता है। आत्मा की उपलब्धि भी वीतरागी को ही होती है—‘‘रागादिभ्यो भिन्न: शुद्धजीवोऽस्तीति पक्ष: परमसमाधिस्थपुरूषै: शरीररागादिभ्यो भिन्नस्य चिदानंदैकस्वभाव-शुद्धजीवस्योपलब्धेरिति हेतु:‘ रागादि से भिन्न शुद्ध जीव है’ यह पक्ष हुआ, ‘क्योंकि परमसमाधि में स्थित महर्षियों को शरीर और रागादि से भिन्न चिदानंदैक स्वभाव शुद्ध जीव की उपलब्धि होती है’ यह हेतु हुआ। ज्ञानी का लक्षण—‘‘इति यो जानाति ाqमथ्यात्वविषयकषायपरित्यागं कृत्वा निर्विकल्प समाधौस्थित: सन् स ज्ञानी भवति। न च परिज्ञानमात्रेण। इस प्रकार से जो जानता है कैसे? मिथ्यात्व, विषय और कषायों का त्याग करके वही, ज्ञानी होता है न कि जानने मात्र से। इस प्रकार से वीतराग सम्यग्दृष्टि, शुद्धोपयोगी और ज्ञानी संज्ञायें सातवें से ही शुरु होती हैं। रयणसार में इसी बात को श्री कुन्दकुन्ददेव कहते हैं—
णाणी खवेइ कम्मं णाणबलेणेदि सुबोलए अण्णाणी।
विज्जो भेषज्जमहं जाणे इदि णस्सदे वाहि।।७२।।
ज्ञानी पुरूष अपने ज्ञान के बल से कर्मों का क्षय करता है ऐसा कथन करने वाला अज्ञानी है। कारण मैं वैद्य हूँ, मैं औषधि को जानता हूँ। क्या उस औषधि को सेवन न कर उसके ज्ञान मात्र से रोग दूर हो जायेगा? नहीं। अभिप्राय यही है कि चारित्र को धारण करना ही औषधि सेवन करना है। वह चारित्र ही संसार रोग को नष्ट करने वाला है। अत: रत्नत्रयधारी ही सच्चे ज्ञानी होते हैं। कौन सा कार्य कर्मों को क्षणमात्र में निर्जीर्ण करता है—
जं अण्णाणी कम्मं, खवेदि भवसयसहस्सकोडीहिं।
तं णाणी तिहिं गुत्तो, खवेइ उस्सासमेत्तेण।।२३८।।
अज्ञानी कोटिसहस्र भवों में जितने कर्मों की निर्जरा करता है, ज्ञानी तीन गुप्ति से गुप्त होकर एक श्वांस मात्र में उतने कर्मों की निर्जरा कर देता है। यहाँ पर ‘तीन गुप्ति’ सहित होना ही महत्त्व रखता है। जब आज के मुनियों के ये तीन गुप्तियाँ असंभव हैं तब श्रावक व असंयमी में तीन गुप्ति का होना व उतनी निर्जरा का होना तो सर्वथा आकाश पुष्प के समान ही है। इस कथन से यही निष्कर्ष निकलता है कि वीतरागता त्रिगुप्ति से गुप्त महामुनियों के ही होती है उसके पहले छठे गुणस्थानवर्ती मुनि सरागचारित्र वाले होने से सरागी ही हैं। जैसा कि प्रवचनसार में कहा है— अर्हंत आदि के प्रति भक्ति और प्रवचनरत जीवों के प्रति वत्सलभाव करना सो यह शुभयुक्त चर्या है। यह अवस्था मुनि में पाई जाती है। वंदना, नमस्कार आदि करना, गुरुओं के आने पर उठकर खड़े होना, जाते समय उनके पीछे-पीछे जाना, उनके श्रम को दूर करना आदि जो मुनियों की क्रियायें हैं वे सराग अवस्था में वर्जित नहीं हैं१।’’ निष्कर्ष यह है कि आजकल चतुर्थ गुणस्थान से लेकर छठे गुणस्थानवर्ती मुनियों तक सराग सम्यग्दर्शन ही है। उसी का नाम व्यवहार सम्यग्दर्शन है। सप्तम गुणस्थानवर्ती मुनि के शुद्धोपयोग की अवस्था में वीतराग सम्यक्त्व होता है उसी का नाम निश्चय सम्यक्त्व है। व्यवहार सम्यक्त्व में देव, शास्त्र, गुरु और तत्त्वादि का श्रद्धान तो होता ही है, साथ ही आत्मा के स्वरूप का भी श्रद्धान होता है किन्तु निश्चय सम्यक्त्व में शुद्धात्मा के स्वरूप की प्रतीति अर्थात् अनुभूति होती है जैसा कि इस वीतराग सम्यक्त्व के लक्षण में सर्वत्र ही स्पष्ट रूप से दिखाया गया है। अकलंकदेव ने क्षायिक सम्यक्त्व का लक्षण भी ‘आत्मा की विशुद्धि मात्र ही कहा है और उसे वीतराग संज्ञा दी है।’ सो यह सिद्धान्त का कथन भी मान्य ही है, किन्तु आज तो वह ही उपलब्ध नहीं है। सम्यग्दृष्टि जीव कहाँ-कहाँ जन्म लेते हैं?
प्रश्न—सम्यग्दृष्टि जीव मरण कर कहाँ-कहाँ जाते हैं?
उत्तर — सम्यग्दृष्टि नारकी मरणकर गर्भज मनुष्य ही होते हैं। सम्यग्दृष्टि तिर्यंच आयु पूरी करके देवगति को ही प्राप्त करते हैं। देव और देवियाँ सम्यक्त्व सहित मरण करके मनुष्य ही होते हैं। भोगभूमिज और कर्मभूमिज मनुष्य भी सम्यक्त्व सहित मरण करके सौधर्म स्वर्ग आदि में ही जाते हैं अथवा कोई क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव उसी भव में मोक्ष भी प्राप्त कर लेते हैं।
प्रश्न—बद्धायुष्क मनुष्य यदि सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेता है तो वह चारों गतियों में जा सकता है सो कैसे?
उत्तर — यदि किसी जीव ने नरक, तिर्यंच या मनुष्य की आयु बांध ली है पुन: उसे क्षयोपशम सम्यग्दर्शन हुआ है तो मरते समय वह सम्यग्दर्शन छूट जायेगा। उपशम सम्यक्त्व में तो मरण होता नहीं है कदाचित् द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि श्रेणी में मरण करे तो वह देवगति में ही जायेगा। हाँ, यदि क्षायिक सम्यग्दृष्टि है अथवा क्षायिकसम्यक्त्व पूर्ण होने में कुछ कार्य शेष रहा है उस समय वह कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि कहलाता है। वह भी मरणकर चारों गतियों में भी जा सकता है। इस तरह क्षायिक सम्यग्दृष्टि और कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि यदि नरक में जाते हैं तो वे प्रथम नरक में ही जायेंगे। यदि तिर्यंच या मनुष्य की आयु बाँध चुके थे तो वे भोगभूमि में तिर्यंच या मनुष्य होंगे। वर्तमान में क्षायिक सम्यक्त्व के न होने से कोई भी सम्यग्दृष्टि मनुष्य या तिर्यंच, स्त्री हों या पुरूष, वे मरणकर देवगति को प्राप्त करेंगे, यह नियम है।
प्रश्न—सम्यग्दृष्टि जीव कहाँ-कहाँ नहीं जाते हैं?
उत्तर — एवेंद्रिय स्थावरों में, विकलत्रय में, असंज्ञी, अपर्याप्तक और संमूच्र्छन जीवों में, अल्पायु में, दरिद्र और नीचकुलों में, नरकगति और तिर्यंचगति में, भवनवासी, व्यंतर और ज्योतिषीदेवों में, स्त्रीवेद और नपुंसक वेद में, सर्वदेवियों में सम्यग्दृष्टि जीव जन्म नहीं लेते हैं। निष्कर्ष यह निकला कि कोई भी सम्यग्दृष्टि मनुष्य यहाँ से मरण कर विदेहक्षेत्र का मनुष्य नहीं हो सकता है वह सौधर्म आदि स्वर्गों में देव ही होवेगा।