चत्तारि मंगलं—अरिहंत मंगलं,
सिद्ध मंगलं, साहु मंगलं,
केवलि पण्णत्तो धम्मो मंगलं।
चत्तारि लोगुत्तमा—अरिहंत लोगुत्तमा,
सिद्ध लोगुत्तमा, साहु लोगुत्तमा,
केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा।
चत्तारि सरणं पव्वज्जामि—अरिहंत सरणं पव्वज्जामि,
सिद्ध सरणं पव्वज्जामि, साहु सरणं पव्वज्जामि,
केवलि पण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि। ह्रौं
शांतिं कुरु कुरु स्वाहा। अनादि सिद्धमंत्र:।
(हस्तलिखित वसुनंदि प्रतिष्ठासार संग्रह) इसलिये ये महामंत्र और चत्तारि मंगल पाठ अनादि निधन है, ऐसा स्पष्ट है। वर्तमान में विभक्ति लगाकर ‘चत्तारिमंगल पाठ—नया पाठ पढ़ा जा रहा है, जो कि विचारणीय है। यह पाठ लगभग ५० वर्षों से अपनी दिगम्बर जैन परम्परा में आया है। देखें प्रमाण—‘ज्ञानार्णव’ जैसे प्राचीन ग्रंथ में बिना विभक्ति का प्राचीन पाठ ही है। यह विक्रम संवत् १९६३ से लेकर कई संस्करणों में वि़ सं. २०५४ तक में प्रकाशित है, इसमें पृ. ३०९ पर यही प्राचीन पाठ है। प्रतिष्ठातिलक जो कि वीर सं. २४५१ में सोलापुर से प्रकाशित है, उसमें पृष्ठ ४० पर यही प्राचीन पाठ है। आचार्य श्री वसुिंवदु—अपरनाम जयसेनाचार्य द्वारा रचित ‘प्रतिष्ठापाठ’ जो कि वीर सं. २४५२ में प्रकाशित है, उसमें पृ. ८१ पर प्राचीन पाठ ही है। हस्तलिखित ‘श्री वसुनंदिप्रतिष्ठापाठ संग्रह’ में भी प्राचीन पाठ है। प्रतिष्ठासारोद्धार जो कि वीर सं. २४४३ में छपा है, उसमें भी यही पाठ है। ‘क्रियाकला’ जो की वीर सं. २४६२ में छपा है, उसमें भी तथा जो ‘सामायिकभाष्य’ श्री प्रभाचंद्राचार्य द्वारा ‘देववंदना’ की संस्कृत टीका है, उसमें भी अरहंत मंगलं, अरहंत लोगुत्तमा,……. अरहंत सरणं पव्वज्जामि यही पाठ है पुन: यह संशोधित नया पाठ क्यों पढ़ा जाता है। क्या ये पूर्व के आचार्य व्याकरण के ज्ञाता नहीं थे ? इन आचार्यों की कृति में परिवर्तन, परिवर्धन व संशोधन कहाँ तक उचित है ? नया पाठ— चत्तरि मंगलं—अरहंता मंगलं…..,अरहंता लोगुत्तमा…….,अरहंते सरणं पव्वज्जामि, सिद्धे सरणं पव्वज्जामि……। यह पाठ लगभग ४०-५० वर्षों से आया है ऐसा पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य आदि विद्वानों ने कहा था। जो भी हो, हमें और आपको प्राचीन पाठ ही पढ़ना चाहिए। सभी पुस्तकों में प्राचीन पाठ ही छपाना चाहिए व मानना चाहिए। नया परिवद्र्धित पाठ नहीं पढ़ना चाहिए।