आराधना कथाकोष संस्कृत में करकण्डु राजा की कथा में १००८ खम्भों वाले जिनमंदिर का वर्णन आया है—
मार्गे तेरपुराभ्यर्णे संस्थितः सैन्यसंयुतः।
तदागत्य च भिल्लाभ्यां तं प्रणम्य प्रजल्पितम्।।१४३।।
अस्मात्तेरपुरादस्ति दक्षिणस्यां दिशि प्रभो।
गव्यूतिकान्तरे चारु पर्वतस्योपरिस्थितम्।।१४४।।
धाराशिवपुरं चास्ति सहस्रस्तंभसंभवम्।
श्रीमज्जिनेन्द्रदेवस्य भवनं सुमनोहरम्।।१४५।।
तस्योपरि तथा शैल-मस्तके संप्रवत्र्तते।
वल्मीकं तच्च सद्धस्ती शुभो भक्त्या दिनं प्रति।।१४६।।
शुण्डादण्डेन सत्तोयं गृहीत्वा कमलं सुधीः।
समागत्य परीत्योच्चैः समभ्यच्र्य नमत्यलम्।।१४७।।
इत्याकण्र्य प्रहर्षेण ताभ्यां दत्वोचितं द्रुतम्।
करकण्डुर्महाराजो जिनभक्तिपरायणः।।१४८।।
गत्वा तत्र समालोक्य जिनेन्द्रभवनं शुभम्।
समभ्यच्र्य जिनाधीशान्स्वर्गमोक्षसुखप्रदान्।।१४९।।
स्तुिंत चव्रे च सद्भक्त्या शर्मकोटिविधायिनीम्।
प्रमादो नैव सद्दृष्टे-र्धर्मकर्मणि सर्वदा।।१५०।।
ततो दृष्ट्वा च वाल्मीिंक पूजयन्तं महाद्विपम्।
अत्रास्ति कारणं िंकचिच्चेतसि संविचार्य च।।१५१।।
तद्वल्मीकं समुन्मूल्य मंजूषां तत्र संस्थिताम्।
दृष्ट्वोदघाट्य प्रयत्नेन वीक्ष्य रत्नमयीं च सः।।१५२।।
श्रीमत्पाश्र्वजिनेन्द्रस्य प्रतिमां पापनाशिनीम्।
सन्तुष्टो मानसे चारु-सद्दृष्टिर्धर्मवत्सलः।।१५३।।
तस्याश्च भवनं चारु कारयित्वा सुभक्तितः।
सुधीरग्गलदेवाख्यं स्थापयामास तत्र ताम्।।१५४।। (आराधना कथाकोष-संस्कृत-पृ॰ ४४९)
रास्ते में तेरपुर के पास राजा करकण्डु का पड़ाव पड़ा। इसी समय कुछ भीलों ने आकर नम्र मस्तक से इनसे प्रार्थना की -राजाधिराज, हमारे तेरपुर से दो-कोस दूरी पर एक पर्वत है। उस पर एक छोटा सा धाराशिव नाम का गाँव बसा हुआ है। इस गाँव में एक बहुत बड़ा ही सुन्दर और भव्य जिनमन्दिर बना हुआ है। उसमें विशेषता यह है कि उसमें कोई एक हजार खम्भे हैं। वह बड़ा सुन्दर है। उसे आप देखने को चलें। इसके सिवा पर्वत पर एक यह आश्चर्य की बात है कि वहाँ एक बाँवी है। एक हाथी रोज अपनी सूँड में थोड़ा सा पानी और एक कमल का फूल लिये वहाँ आता है और उस बाँवी की परिक्रमा देकर वह पानी और फूल उस पर चढ़ा देता है। इसके बाद वह उसे अपना मस्तक नवाकर चला जाता है। उसका यह प्रतिदिन का नियम है। महाराज, नहीं जान पड़ता कि इसका क्या कारण है। भीलों द्वारा यह शुभ समाचार सुनकर करकण्डु राजा बहुत प्रसन्न हुआ। इस समाचार को लाने वाले भीलों को उचित इनाम देकर वह स्वयं सबको साथ लिये उस कौतुकमय स्थान को देखने गया। पहले उसने जिनमंदिर जाकर भक्तिपूर्वक भगवान की पूजा की, स्तुति की। सच है, धर्मात्मा पुरुष धर्म के कामों में कभी प्रमाद-आलस नहीं करते। बाद में वह उस बाँवी की जगह गया। उसने वहाँ भीलों के कहे माफिक हाथी को उस बाँवी की पूजा करते पाया। देखकर उसे बड़ा अचम्भा हुआ उसने सोचा कि इसका कुछ न कुछ कारण होना चाहिए। नहीं तो इस पशु में ऐसा भक्ति भाव नहीं देखा जाता। यह विचार कर उसने उस बाँवी को खुदवाया। उसमें से एक सन्दूक निकली। उसने उसे खोलकर देखा। सन्दूक में एक रत्नमयी पाश्र्वनाथ भगवान की पवित्र प्रतिमा थी। उसे देखकर धर्मपे्रमी करकण्डु राजा को अतिशय प्रसन्नता हुई उसने तब वहाँ ‘अग्गलदेव’ नाम का एक विशाल जिनमन्दिर बनवाकर उसमें बड़े उत्सव के साथ उस प्रतिमा को विराजमान किया। (आराधना कथाकोष हिन्दी-पृ॰ ४८४ ४८५)