तदनन्तर बहुत काल व्यतीत हो जाने पर जब समुद्र के समान गम्भीर ऋषभदेव का युग-तीर्थ विच्छिन्न हो गया और धार्मिक उत्सव नष्ट हो गया तब सर्वार्थसिद्धि से चयकर फिर से कुतयुग की व्यवस्था करने के लिए जगत् का हित करने वाला मैं दूसरा अजितनाथ तीर्थंकर उत्पन्न हुआ हूँ।।२०४—२०५।। जब आचार के विघात और मिथ्यादृष्टियोेंं के वैभव से समीचीन धर्म ग्लानि को प्राप्त हो जाता है-प्रभावहीन होने लगता है तब तीर्थंकर उत्पन्न होकर उसका उद्योत करते हैं।।२०६।। संसार के प्राणी उत्कृष्ट बन्धुस्वरूप समीचीन धर्म को पुनः प्राप्त कर मोक्षमार्ग को प्राप्त होते हैं और मोक्ष स्थान की ओर गमन करने लगते हैं। अर्थात् विच्छिन्न मोक्षमार्ग फिर से चालू हो जाता है।।२०७।।