चक्रवर्ती हरिषेण ने पर्वतों पर जो मंदिर बनवाये थे,उनमें श्वेत पताकायें लहरा रही थीं।
नमःसिद्धेभ्य इत्यक्त्वा सुमाली तमथागदत्।
नामूनि शतपत्राणि न चैते वत्स तोयदाः।।२७५।।
सितकेतुकृतच्छायाः सहस्राकारतोरणाः।
शृङ्गेषु पर्वतस्यामी विराजन्ते जिनालयाः।।२७६।।
कारिता हरिषेणेन सज्जनेन महात्मना।
एतान् वत्स नमस्य त्वं भव पूतमनाःक्षणात्।।२७७।।
इति श्रुत्वा ततो वप्रा कलिशेनेव ताडिता
। हृदये दुःखसंतप्ताप्रतिज्ञामकरोदिमाम्।।२८७।।
तब सुमाली ने ‘नमःसिद्धेभ्यः’ कहकर दशानन से कहा कि हे वत्स! न तो ये कमल हैं और न मेघ ही हैं।।२७५।। किन्तु सफेद पताकाएँ जिन पर छाया कर रही हैं तथा जिनमें हजारों प्रकार के तोरण बने हुए हैं ऐसे—ऐसे ये जिनमन्दिर पर्वत के शिखरों पर सुशोभित हो रहे हैं।।२७६।। ये सब मन्दिर महापुरुष हरिषेण चक्रवर्ती के द्वारा बनवाये हुए हैं। हे वत्स! तू इन्हें नमस्कार कर और क्षणभर में अपने हृदय को पवित्र कर।।२७७।।