सर्वेषामदिभिक्षासु दातारोऽपि जिनेशिनाम्। सर्वासु वर्धमानस्य वसुधारानियोगतः।।२४९।।
अर्धत्रयोदशोत्कर्षाद्वसुधारासु कोट्यः। तावन्त्येव सहस्राणि दशघ्नानि जघन्यतः।।२५०।।
समस्त तीर्थंकरों की आदि पारणाओं और वर्धमान स्वामी की सभी पारणाओं में नियम से रत्नवृष्टि हुआ करती थी वह रत्नवृष्टि उत्कृष्टता से साढ़े बारह करोड़ और और जघन्यरूप से साढ़े बारह लाख प्रमाण होती थी ।।२४९-२५०।।(हरिवंशपुराण, सर्ग—६०, पृ. ७२४)