इत्थं ते पाण्डवाः श्रुत्वा धर्म पूर्वभवांस्तथा। संवेगिनो जिनस्यान्ते संयमं प्रतिपेदिरे।।१४३।।
कुन्ती च द्रोैपदी देवी सुभद्राद्याश्च योषितः। राजीमत्याः समीपे ताः समस्तास्तपसि स्थिताः।।१४४।।
ज्ञानदर्शनचारित्रैव्र्रतैःसमितिगुप्तिभिः। आत्मानं भावयन्तस्ते पाण्डवाद्यास्तपोऽचरन्।।१४५।।
शार्दूलविक्रीडितम् कुन्ताग्रेण वितीर्णभैक्ष्यनियमः क्षुत्क्षामगात्रः क्षमः षण्मासैरथ भीमसेनमुनिपो निष्ठाप्य स्वान्तक्लमम्।
षण्माद्यैरुपवासभेदविधिभिर्निष्ठाभिमुख्यैः स्थित- ज्र्येष्ठाद्र्यैिवजहार योगिभिरिलां जैनागमाम्मोधिभिः।।१४६।।
(हरिवंशपुराण पृ. ७९६, ७९७) इस प्रकार वे पाण्डव धर्म तथा पूर्व भव श्रवण कर संसार से विरक्त हो श्री नेमिजिनेन्द्र के समीप संयम को प्राप्त हो गये ।।१४३।।
कुन्ती, द्रौपदी तथा सुभद्रा आदि जो स्त्रियाँ थीं वे सब राजीमती अर्यिका के समीप तप में लीन हो गयीं ।।१४४।।
सम्यग्दर्शन,सम्यग्ज्ञान,सम्यक्चारित्र,महाव्रत, समिति तथा गुप्तियों से अपनी आत्मा के स्वरूप का चिन्तवन करते हुए वे पाण्डव आदि तप करने लगे ।।१४५।।
उन सब मुनियों में भीमसेन मुनि बहुत ही शक्तिशाली मुनि थे। उन्होंने भाले के अग्रभाग से दिये हुए आहार को ग्रहण करने का नियम लिया था, क्षुधा से उनका शरीर अत्यन्त दुर्बल हो गया था और छह महीने में उन्होंने इस वृत्तपरिसंख्यान तप को पूरा कर हृदय का श्रम दूर किया था। युधिष्ठिर आदि मुनियों ने भी बड़ी श्रद्धा के साथ वेला, तेला आदि उपवास किये थे। इस प्रकार मुनिराज भीमसेन ने जैनागम के सागर युधिष्ठिर आदि मुनियों के साथ पृथिवी पर विहार किया ।।१४६।।