गार्हस्थ्यमनुपाल्यैवं गृहवासाद् विरज्यतः। यद्दीक्षाग्रहणं तद्धि पारिव्राज्यं प्रचक्ष्यते।।१५५।।
पारिव्राज्यं परिव्राजो भावो निर्वाणदीक्षणम्। तत्र निर्ममता वृत्या जातरूपस्य धारणम्।।१५६।।
प्रशस्ततिथिनक्षत्रयोगलग्न ग्रहांशके। निग्र्रन्थाचार्यमाश्रित्य दीक्षा ग्राह्या मुमुक्षुणा।।१५७।।
विशुद्धकुलगोत्रस्य सद्वृत्तस्य वपुष्मतः। दीक्षायोग्यत्वमाम्नातं सुमुखस्य सुमेधसः।।१५८।।
ग्रहोपरागग्रहणे परिवेषेन्द्रचापयोः। वक्रग्रहोदये मेघपटलस्थगितेऽम्बरे।।१५९।।
नष्टाधिमासदिनयोः, संक्रान्तौ हानिमत्तिथौ। दीक्षावििंध मुमुक्षूणां नेच्छन्ति कृतबुद्धयः।।१६०।।
संप्रदायमनादृत्य यस्त्विमं दीक्षयेदधीः। स साधुभिर्बहिः कार्यो वृद्धात्यासादनारतः।।१६१।।
इस प्रकार गृहस्थ धर्म का पालन कर घर के निवास से विरक्त होते हुए पुरुष का जो दीक्षा ग्रहण करना है उसे पारिव्रज्य कहते है ।।१५५।।
परिव्राट् का जो निर्वाणदीक्षारूप भाव है उसे पारिव्रज्य कहते हैं, इस पारिव्रज्या क्रिया में ममत्व भाव छोड़कर दिगम्बररूप धारण करना पड़ता है।।१५६।।
मोक्ष की इच्छा करने वाले पुरुष को शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र, शुभ योग, शुभ लग्न और शुभ ग्रहों के अंश में निग्र्रन्थ आचार्य के पास जाकर दीक्षा ग्रहण करनी चाहिए।।१५७।।
जिसका कुल और गोत्र विशुद्ध है, चरित्र उत्तम है, मुख सुन्दर है और प्रतिभा अच्छी है ऐसा पुरुष ही दीक्षा ग्रहण करने के योग्य माना गया है ।।१५८।।
जिस दिन ग्रहों का उपराग हो, ग्रहण लगा हो, सूर्य-चन्द्रमा पर परिवेष (मण्डल) हो, इन्द्रधनुष उठा हो,दुष्ट ग्रहों का उदय हो, आकाश मेघपटल से ढका हो,नष्ट मास अथवा अधिक मास का दिन हो, संक्रान्ति हो अथवा क्षय तिथि का दिन हो उस दिन बुद्धिमान् आचार्य मोक्ष की इच्छा करने वाले भव्योें के लिए दीक्षा की विधि नहांr करना चाहते है अर्थात् उस दिन किसी शिष्य को नवीन दीक्षा नहीं देते हैं ।।१५९-१६०।।
जो मन्दबुद्धि आचार्य इस सम्प्रदाय का अनादर कर नवीन शिष्य को दीक्षा दे देता है वह वृद्ध पुरुषों के उल्लंघन करने में तत्पर होने से अन्य साधुओं के द्वारा बहिष्कार कर देने योग्य है।
भावार्थ—जो आचार्य असमय में ही शिष्यों को दीक्षा दे देते हैं, वह वृद्ध आचार्यों की मान्यता का उल्लंघन करते हैं, इसलिए साधुओं को चाहिए कि वे ऐसे आचार्य को अपने संघ से बाहर कर दें ।।१६१।। (आदिपुराण भाग—२ पर्व ३९ वां, पृ. २८३, २८४)