पुण्याच्चव्रधरश्रियं विजयिनीमेैन्द्रीं च दिव्यश्रियं।
पुण्यात्तीर्थकरश्रियं च परमां नैःश्रेयसीं चाश्नुते।
पुण्यादित्यसुभृच्छ्रियां चतसृणामाविर्भवेद् भाजनं।
तस्मात्पुण्यमुपार्जयन्तु सुधियः पुण्याज्जिनेन्द्रागमात्।।१२९।।
पुण्य से सबको विजय करने वाली चक्रवर्ती की लक्ष्मी मिलती है, इन्द्र्र की दिव्य लक्ष्मी भी पुण्य से मिलती है, पुण्य से तीर्थंकर की लक्ष्मी प्राप्त होती है और परम कल्याणरूप मोक्षलक्ष्मी भी पुण्य से ही मिलती है इस प्रकार यह जीव पुण्य से ही चारों प्रकार की लक्ष्मी का पात्र होता है, इसलिए हे सुधीजन! तुम लोग भी जिनेंन्द्र भगवान् के पवित्र आगम के अनुसार पुण्य का उपार्जन करो।।१२९।। (आदिपुराण भाग—२ पृ. ९५)