दूध से अभिषेक हेतु गाय, पुष्प चढ़ाने हेतु वाटिका एवं अभिषेक,
पूजा के लिए जल हेतु कुआ खुदवाने में दोष नहीं है।
पयोर्थं गां जलार्थं च कूपं पुष्पसुहेतवे।
वाटिका संप्रकुर्वन्ना नाति दोषधरो भवेत्।।१३३।।
अर्थ-भगवान् जिनेन्द्रदेव का अभिषेक करने के लिये सुगमता से दूध की प्राप्ति हो जाय इसके लिये गाय का रखना या जिनालय में गाय को दान देना दोषाधायक नहीं है। इसी प्रकार पूजा में सुगमता से पुष्पों की प्राप्ति के लिये बाग-बगीचा बनवाने में भी दोष नहीं हेै। पूजा के लिये सुगमता से जल मिलता रहे इसके लिये कुआँ बनवाने में भी अत्यन्त दोष नहीं होता है। भावार्थ-यद्यपि जैन शास्त्रों में कुआँ खुदवाने का तथा बगीचा लगवाने का निषेध है, इसी प्रकार गाय का दान देने का भी निषेध है, क्योंकि इन सब कामों में हिंसा अवश्य और अधिकता के साथ होती है। परन्तु यहाँ पर जो इसका विधान लिखा है वह केवल सुगमता के साथ भगवान की पूजा सदा होती रहने के लिए लिखा है। उद्देश्य भिन्न-भिन्न होने से एक ही क्रिया से पुण्य पाप दोनों हो सकते हेैं। केवल खा-पीकर मस्त होने के लिए भोजन बनाना पाप है। परन्तु मुनियों को दान देने के लिये भोजन बनाना पुण्य का कारण है। इसी प्रकार मृतक को वैतरणी नदी से पार कर देने के लिये गाय का दान मिथ्यात्व वा पाप है, परन्तु भगवान् का अभिषेक सुगमता के साथ सदा होते रहने के लिये गाय का दान देना पुण्य का कारण है। इसी प्रकार कुआँ खुदवाने और बगीचा लगाने में अधिक हिंसा होती है, परन्तु भगवान् की पूजा करने के लिये कुआँ, बगीची बनवाना पुण्य का ही कारण माना जाता है। जिस प्रकार पूजा करने में भीहिंसा होती है, परन्तु इन कामों के करने में अनेक जीवों को महापुण्य का बंध होता है और इसीलिये भव्य जीव बड़ी भक्ति से इन कामों को करते हैं। इसी प्रकार जिनालय में गाय का दान देना वा जिनालय के लिये कुआं, बगीची बनवाना पुण्य का ही कारण है। पुण्य—पाप भावों से होता है तथा मिथ्यात्व और सम्यक्त्व भी भावों से ही होता है। इन सब बातों को समझकर मोक्ष के कारणभूत पुण्य कार्य सदा करते रहना चाहिये।