चूलिकोत्तरपूर्वस्यां पाण्डुका विमला शिला। पाण्डुकम्बलनामा च रक्तान्या रक्तकम्बला।।२८२।।
विदिक्षु व्रमशो हैमी राजती तापनीयिका। लोहिताक्षमयी चैता अर्धचन्द्रोपमाः शिलाः।।२८३।।
अष्टोच्छ्र्रयाः शतं दीर्घा रुन्द्रा पञ्चाशर्तं च ताः। शिले पाण्डुकरक्ताख्ये दीर्घे पूर्वापरेण च।।२८४।।
द्वे पाण्डुककम्बलाख्या च रक्तकम्बलसंज्ञिका। दक्षिणोत्तरदीर्घे ताश्चास्थिरस्थिरभूमुखाः।।२८५।।
धनुःपञ्चशतं दीर्घं मूले तावच्च विस्तृतम्। अग्रे तदर्धविस्तारं एकशोऽत्रासनत्रयम्।।२८६।।
शक्रस्य दक्षिणं तेषु वीशानस्योत्तरं स्मृतम्। मध्यमं जिनदेवानां तानि पूर्वमुखानि च।।२८७।।
भारताः पाण्डुकायां तु रक्तायामौत्तरा जिनाः पाण्डुकम्बलसंज्ञायां पश्चाद्वैदेहका जिनाः।।२८८।।
पूर्ववैदेहकाश्चापि रक्तकम्बलनामनि। इन्द्रैर्बाल्येऽभिषिच्यन्ते तेषु सिंंहासनेषु तु।।२८९।।
चूलिका के उत्तर-पूर्व (ईशान) भाग में निर्मल पाण्डुका शिला स्थित है। पाण्डुकम्बला, रक्ता और रक्तकम्बला नाम की ये तीन शिलायें इसी क्रम से विदिशाओं (आग्नेय,नैऋत्य एवं वायव्य) में स्थित हैं। इनमें पाण्डुका शिला सुवर्णमय, पाण्डुकम्बला रजतमय, रक्ता तपनीयमय और रक्तकम्बला लोहिताक्षमयी है। ये सब शिलायें आकार में अर्धचन्द्र के समान हैं।।२८२-८३।। वे शिलायें आठ (८) योजन ऊंची, सौ (१००) योजन आयत और पचास (५०) योजन विस्तृत हैं। इनमें पाण्डुका और रक्ता नाम की दो शिलाएं पूर्व—पश्चिम आयत तथा पाण्डुकम्बला और रक्तकम्बला नामकी दो शिलायें दक्षिण-उत्तर आयत हैं। वे शिलायें अस्थिर भूमि और स्थिर मुखवाली हैं।।२८४-८५।। इनमें से प्रत्येक शिला के ऊपर तीन—तीन आसन स्थित हैं। इनकी दीर्घता (उंâचाई) पांच सौ (५००) धनुष और मूल में विस्तार भी उतना (५०० धनुष) ही है। उपरिम विस्तार उनका इससे आधा (२५०धनुष) है।।२८६।। उनमें दक्षिण िंसहासन सौधर्म इन्द्रका, उत्तर ईशान इन्द्र का और मध्यम जिनदेवों (तीर्थंकरों) का है। वे आसन पूर्वमुख अवस्थित हैं।।२८७।। पाण्डुकशिला के ऊपर भरत क्षेत्र में उत्पन्न हुए तीर्थंकरों का, रक्ता शिला के ऊपर औत्तर अर्थात् ऐरावत क्षेत्र में उत्पन्न तीर्थंकरों का, पाण्डुकम्बला नामक शिला के ऊपर अपरविदेहवर्ती तीर्थंकरों का तथा रक्तकम्बला नामक शिलाके ऊपर पूर्व विदेहवर्ती तीर्थंकरों का अभिषेक बाल्यावस्था में उन सिंहासनों के ऊपर इन्द्रों द्वारा किया जाता है।।२८८-८९।
(लोकविभाग पृ. ३६)