चित्रा पृथ्वी से ऊपर आठ सौ अस्सी योजन जाकर आकाश में चन्द्रों के मण्डल हैं ।।३६।। ८८०। उत्तान अर्थात् ऊध्र्वमुखरूप से अवस्थित अर्धगोलक के सदृश चन्द्रों के मणिमय विमान हैं। उनकी पृृथक् पृथक् अतिशय शीतल एवं मन्द किरणें बारह हजार प्रमाण हैं।।३७।। उनमें स्थित पृथिवी जीव चूंकि उद्योत नामकर्म के उदय से संयुक्त हैं, इसीलिये वे प्रकाशमान अतिशय शीतल मन्द किरणों से संयुक्त होते हैं।।३८।। एक योजन के इकसठ भाग करने पर छप्पन भागप्रमाण उन चन्द्रविमानों में से प्रत्येक के उपरिम तल का विस्तार व इससे आधा बाहल्य है ।।३९।। ५६/६१ २८/६१। इनकी परिधियां पृथक् पृथक् दो योजन से कुछ अधिक हैं। वे बिम्ब अकृत्रिम व अनादिनिधन हैं।।४०।। उनमें से प्रत्येक की तटवेदी चार गोपुरों से संयुक्त होती है। उसके बीच में उत्तम वेदी सहित रमणीय राजांगण होता है।।४१।। राजांगण के ठीक बीच में उत्तम रत्नमय दिव्य कूट और उन कूटों पर वेदी व चार तोरणों से संयुक्त जिनपुर होते है।।४२।। वे सब जिनभवन मोती व सुवर्ण की मालाओं से रमणीय और उत्तम वङ्कामय किवाड़ों से संयुक्त होते हुए दिव्य चन्दोवों से सुशोभित रहते हैं।।४३।। ये जिनभवन देदीप्यमान रत्नदीपकों से सहित, अष्ट महामंगल द्रव्यों से परिपूर्ण और वन्दनमाला, चंवर व क्षुद्र घंटिकाओं के समूह से शोभायमान होते हैं।।४४।। इन जिनभवनों में स्थान-स्थान पर विचित्र रत्नों से निर्मत नाट्यसभा, अभिषेकसभा और विविध प्रकार की क्रीड़ाशालायें सुशोभित होती हैं।।४५।। वे जिनभवन समुद्र के समान गम्भीर शब्द करने वाले मर्दल, मृदंग और पटह आदि विविध प्रकार के दिव्य वादित्रों से नित्य शब्दायमान रहते हैं ।।४६।। उन जिनभवनों में तीन छत्र, िंसहासन, भामण्डल और चामरों से संयुक्त रत्नमयी जिनप्रतिमायें विराजमान हैं ।।४७।। जिनेन्द्रप्रासादों में श्रीदेवी, श्रुतदेवी और सब सनत्कुमार यक्षों की मनोहर मूर्तियां शोभायमान होती हैं ।।४८।। सब देव गाढ़ भक्ति से जल, गन्ध, फूल, तन्दुल, उत्तम भक्ष्य (नैवेद्य), दीप,धूप और फलों से परिपूर्ण उनकी पूजा करते हैं।।४९।। इन कूटों के चारों ओर समचतुष्कोण लंबे और नाना प्रकार के विन्यास से रमणीय चन्द्रों के प्रासाद होते हैं।।५०।। इनमें से कितने ही प्रासाद मरकतवर्ण, कितने ही कुन्दपुष्प, चन्द्र, हार एवं बर्प जैसे वर्ण वाले; कोई सुवर्ण के समान वर्णवाले और दूसरे मूंगे के सदृश वर्ण से सहित हैं।।५१।। इन भवनों में उपपादमन्दिर, अभिषेकपुर, भूषणगृह, मैथुनशाला, क्रीड़ाशाला, मंत्रशाला और आस्थानशालायें (सभाभवन) स्थित रहती हैं।।५२।। वे सब प्रासाद उत्तम कोटों से सहित, विचित्र गोपुरों से संयुक्त, मणिमय तोरणों से रमणीय, बहुत प्रकार के चित्रों वाली दीवालों से युक्त, विचित्र रूपवाली उपवन-वापिकाओं से विराजमान, सुवर्णमय विशाल खम्भों से सहित और शयनासन आदि से परिपूर्ण हैं।।५३-५४।। ये दिव्य प्रासाद धूप के गन्ध से व्याप्त होते हुए अनुपम एवं शुद्ध रस, रूप, गन्ध और स्पर्श से विविध प्रकार के सुखों को देते हैं।।५५।। भवनों में कूटों से विभूषित और प्रकाशमान रत्न-किरणपंक्ति से संयुक्त सात—आठ आदि भूमियाँ शोभायमान होती हैं।।५६।। इन मन्दिरों के बीच में चन्द्र िंसहासनों पर विराजमान रहते हैं उनमें से प्रत्येक चन्द्र के चार अग्रमहिषियां (पट्ट देवियां) होती हैं ।।५७।। चन्द्राभा, सुसीमा, प्रभंकरा और अर्चिमालिनी, ये उन अग्रदेवियों के नाम हैं। इनमें से प्रत्येक की चार हजार प्रमाण परिवार देवियां होती हैं।।५८।। अग्रदेवियां अपनी अपनी परिवार देवियों के समान अर्थात् चार हजार रूपों प्रमाण विक्रिया दिखलाती हैं। प्रतीन्द्र, सामानिक, तनुरक्ष, तीनों पारिषद, सात अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विष, इस प्रकार प्रत्येक चन्द्र के परिवार देव आठ प्रकार के होते हैं।। ५९-६०।। सब इन्द्रों के एक एक प्रतीन्द्र होते हैं। वे (प्रतीन्द्र) सूर्य ही हैं। सामानिक और तनुरक्ष प्रभृति देव संख्यात प्रमाण होते हैं।।६१।। राजांगण के बाहर विविध प्रकार के उत्तम रत्नों से रचित और विचित्र विन्यासरूप विभूति से सहित परिवार देवों के प्रासाद होते है।।६२।। प्रत्येक इन्द्र के सोलह हजारप्रमाण आभियोग्य देव होते हैं जो नित्य ही विक्रिया धारण करते हुए चन्द्रों के पुरतलों को वहन करते हैं ।।६३।। प्रत्येक इन्द्र के सोलह हजारप्रमाण आभियोग्य देव होते है जो नित्य ही विक्रिया धारण करते हुए चन्द्रों के पुरतलों को वहन करते हैं।।६३।। १६०००। इनमें से सिंह, हाथी, बैल और जटा युक्त घोड़ों के रूप को धारण करने वाले तथा कुन्द-पुष्प के सदृश सफेद चार-हजार प्रमाण देव क्रम से पूर्वादिक दिशाओं में चन्द्रबिम्बों को वहन करते हैं।।६४।। चित्रा पृथिवी के उपरिम तल से ऊपर आठ सौ योजन जाकर आकाश में नित्य सूर्यनगरतल स्थित हैं।।६५।।८००। सूर्यों के मणिमय बिम्ब ऊध्र्व अवस्थित अर्ध गोलक के सदृश हैं। इनकी पृथक् पृथक् बारह हजार प्रमाण उष्णतर किरणें होती हैं।।६६।।१२०००। चूंकि उनमेें स्थित पृथिवी जीव आतप नामकर्म के उदय से संयुक्त होते हैं, इसीलिये वे प्रकाशमान उष्णतर किरणों से युक्त होते हैं ।।६७।। एक योजन के इकसठ भाग करने पर अड़तालीस भागप्रमाण उनमें से प्रत्येक सूर्य के बिम्ब के उपरिम तलों का विस्तार और तलों से आधा बाहल्य भी होता है।।६८।। ४८/६१।२४/६१। इनकी परिधियां पृथक् पृथक् दो योजन से अधिक होती हैं । वे सूर्यबिम्ब अकृत्रिम एवं अनादिनिधन हैं।।६९।। उनमें से प्रत्येक तटवेदी चार गोपुरद्वारों से सुन्दर होती है। उसके बीच में उत्तम वेदी से संयुक्त राजांगण होता है।।७०।। राजांगण के मध्य में जो उत्तम रत्नमय दिव्य कूट होते हैं उनमें सूर्यकान्त मणिमय जिनभवन स्थित हैं।।७१।। निपुण पुरुषों को इन मन्दिरों का सम्पूर्ण वर्णन चन्द्रपुरों के कूटों पर स्थित जिनभवनों के सदृश यहां पर भी करना चाहिये।।७२।। उनमें जो जिनप्रतिमायें विराजमान हैं उनके वर्णन का प्रकार पूर्वोक्त वर्णन के ही समान है। समस्त देव विविध प्रकार के पूजाद्रव्यों से उन प्रतिमाओं की पूजा करते हैं।।७३।। इन कूटों के चारों तरफ जो सूर्यप्रासाद हैं उनका भी वर्णन चन्द्रप्रासादों के सदृश है।।७४।। उन भवनों के मध्य में उत्तम छत्र-चँवरों से संयुक्त और अतिशय दिव्य तेज को धारण करने वाले सूर्य दिव्य सिंहासनों पर स्थित होते हैं।।७५।। द्युतिश्रुति, प्रभंकरा, सूर्यप्रभा और अर्चिमालिनी, ये चार प्रत्येक सूर्य की अग्रदेवियां होती हैं।।६।। इनमें से प्रत्येक अग्रदेवी की चार हजार परिवार-देवियां होती हैं। वे अपने अपने परिवार के समान अर्थात् चार हजार रूपों की विक्रिया ग्रहण करती है।।७७।। सामानिक, तनुरक्ष, तीनों पारिषद , प्रकीर्णक, अनीक, आभियोग्य और किल्विषिक, इस प्रकार सूर्यों के सात प्रकार परिवार देव होते हैं।।७८।। राजांगण के बाहर उत्तम रत्नों से विभूषित ओैर प्रकाशमान तेज को धारण करने वाले समस्त परिवार-देवों के प्रासाद होते हैं।।७९।।
(तिलोयपण्णत्ति भाग—२ पृ. ६६२ से ६६७ तक)