अन्नमुन्न च मित्रवन्न हितकृत कोऽप्यस्ति बन्धुःपरो।
गुह्याद् गुह्यतरं गुरोहपि न तद्वाच्यं यदस्योच्यते।।
दु:साध्यान्यपि साध्यत्यगणयन्प्राणाश्च तत्र स्पुटो।
दृष्टान्तो मणिकेतुरेव कुरुतां तन्मित्रमीदृगिवधम् ।।१४२।।
(उत्तरपुराण पृ. १२) गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे श्रेणिक! इस लोक तथा परलोक में मित्र के समान हित करने वाला दूसरा नहीं है और न मित्र से बढ़कर कोई भाई है। जो बात गुरु अथवा माता-पिता से भी नहीं कही जाती ऐसी गुप्त बात मित्र से कही जाती है। मित्र अपने प्राणों की भी परवाह नहीं करता हुआ कठिन से कठिन कार्य को सिद्ध कर देता है। मणिकेतु ही इस विषय का स्पष्ट दृष्टान्त है।