अलि-चुंबिएहिं पुज्जइ, जिणपयकमलं च जाइमल्लीहिं।
सो हवइ सुरवरिंंदो, रमेई सुरतरुवरवणेहिं।।
अलि-चुम्बितै: पूजयति, जिनपद-कमलं च जातिमल्लिवै:।
स भवति सुरवरेन्द्र:, रमते सुरतरुवरवनेषु।।४७३।।
अर्थ- जो भव्य पुरुष भगवान जिनेन्द्र देव के चरण कमलों की जिन पर भ्रमर घूम रहे हैं ऐसे चमेली, मोगरा आदि उत्तम पुष्पों से पूजा करता है वह स्वर्ग में जाकर अनेक देवों का इन्द्र होता है और वह वहाँ पर चिरकाल तक स्वर्ग में होने वाले कल्पवृक्षों के वनों में (बगीचों में) क्रीड़ा किया करता है। (भावसंग्रह पृ. १०२)