‘दा’ धातु से देने अर्थ में ‘‘दान’’ शब्द बनता है, इसकी महिमा प्रायः समस्त ग्रन्थों में बताई गयी है क्योंकि दान देने वाला प्राणी आकाश के समान स्वच्छ, निर्मल कान्ति से युक्त होता है। जैसे बादल समुद्र से वाष्प लेते—लेते काले हो जाते हैं और जब वे धरती पर वृष्टि कर देते हैं तो एकदम सपेद हो जाते हैं उसी प्रकार देने वाला दातार भी अपनी आत्मा को स्वच्छ, पुण्यमयी बना लेता है। ‘‘पद्मनन्दिपंचिंवशतिका’’ ग्रन्थ में आचार्य श्री पद्मनन्दि स्वामी भी अनेक अधिकारों के मध्य बड़ी ही सरलतापूर्वक दान का उपदेश देते हुए कहते हैं—
अर्थात् श्री नाभिराजा के पुत्र श्री वृषभदेव भगवान् इस लोक में सदा जयवंत रहें तथा कुरुवंश रूपी घर के करने वाले राजा श्रेयांस भी इस लोक में सदा जयवंत रहें, जिन दोनों महात्माओं की कृपा से उत्कृष्ट धर्मरूपी रथ के चक्र स्वरूप तथा सार क्रम से सहित व्रत तीर्थ तथा दानतीर्थ की उत्पत्ति हुई है। मतलब यह है कि युग की आदि में भगवान् ऋषभदेव धर्मतीर्थ के प्रथम प्रवर्तक थे तथा उनको उन्तालिस दिन के उपवास के पश्चात् हस्तिनापुर के राजा श्रेयांस ने प्रथम पारणा के रूप में इक्षुरस का आहार कराया इसलिए वे दानतीर्थ के प्रथम प्रवर्तक कहलाए। दान के चार भेदों में से यहाँ सर्वप्रथम आहारदान का वर्णन करते हुए गृहस्थ धर्म की सार्थकता को बताया है तथा उनमें सर्वप्रसिद्ध श्रेयांस राजा की धन्यता से श्रावकों को सम्बोधन प्रदान किया है। जिसके विषय में कहते हैं कि—
अर्थात् वसु का अर्थ द्रव्य होता है तथा जो वसु को धारण करने वाली होवे उसको वसुमती कहते हैं। सो इस धरती का नाम वसुमती तभी सार्थक हुआ था जब भगवान् ऋषभदेव के आहार के समय राजा श्रेयांस के महल में रत्नों की वृष्टि—पंचाश्चर्यवृष्टि हुई थी। ऐसे अनुपम पुण्य से सहित श्री श्रेयांस राजा सदा जयवन्त रहें। आहार, औषधि, शास्त्र एवं अभय इन चार दानों में से आहारदान ही ऐसा महत्वपूर्ण दान है जिसमें विधि, द्रव्य, दातार और उत्तम पात्र के निमित्त से रत्नों की वृष्टि होती है अन्य किसी भी दान में रत्नवृष्टि नहीं होती है। इसीलिए आहारदान का एक कथानक प्रसिद्धि को प्राप्त है— एक निर्धन विधवा श्राविका ने अपनी गरीबी से तंग आकर एक सेठजी के घर में भोजन बनाने का कार्य प्रारम्भ कर दिया। उसके एक छोटा सा बालक था, जिसे सेठ अपने पुत्र के समान प्यार करता था किन्तु सेठ के पुत्रगण उसे डाँटा-फटकारा करते थे। उसकी माँ ने सेठजी के चौके में एक दिन खीर बनाई तब श्रेष्ठिपुत्रों को खीर खाते देखकर वह बालक भी खीर खाने को मचल गया किन्तु माँ ने उसे एक चम्मच खीर भी न दी और सन्तोषपूर्वक रूखा-सूखा खाकर जीवन व्यतीत करने की उसे शिक्षा देने लगी। बालक को खीर के लिए जिद करके जोर-जोर से रोते देखकर श्रेष्ठिपुत्रों ने उसे दो—चार थप्पड़ मार दिये। यह सब देखकर सेठजी का मन भर आया और उन्होंने भोजन के पश्चात् बालक की माँ को दूध, चावल और शक्कर देते हुए कहा—‘‘बहन ! आज तुम अपने घर में खीर बनाकर बच्चे को जरूर खिलाना, मेरे पुत्रों ने इसे मारकर तुम्हें कष्ट पहुँचाया है इसके लिए मैं तुमसे क्षमा चाहता हूँ। संसार में किसी के सदा एक समान दिन नहीं रहते अतः तुम धैर्य करके भाग्य पर भरोसा रखो।’’ उस श्राविका ने अपनी झोपड़ी में शुद्ध वस्त्र पहनकर खीर बनाई, फिर बालक से बोली—‘‘बेटा! मैं कुएँ से पानी लाकर अभी तुझे खीर खिलाउंâगी, तब तक तुम यहीं रुको और यदि कोई साधु महात्मा इधर से जाने लग जावें तो उन्हें रोक लेना, उन्हें पहले थोड़ी खीर खिलाकर फिर तुम और हम खाएँगे तो वह बहुत स्वादिष्ट लगेगी।’’ संयोगवश उधर से एक मुनिराज निकल पड़े। मुनिराज को देखते ही उस बालक को माँ की बात याद आ गई और उसने मुनिराज को रोकते हुए कहा—हे महात्मन् ! अभी मेरी माँ ने खीर बनाई है और वह पानी भरने के लिए गई हैं, साथ ही मुझसे कह गई हैं कि अगर कोई मुनिराज इधर से निकलें तो उन्हें रोक लेना, उनको खीर खिलाने के बाद ही मैं तुमको खीर दूंगी इसलिए आप रुक जाइए, अभी मेरी माता आती ही होंगी। दिगम्बर जैन साधु-साध्वी चूँकि इस प्रकार निमंत्रणपूर्वक भोजन नहीं करते इसलिए महाराज आगे बढ़ते जा रहे थे। तब बालक ने उनके पैर मजबूती से पकड़ लिया और गिड़गिड़ाकर कहने लगा—महात्मा जी! जब आप खीर खा लेंगे तभी मैं और मेरी माँ खीर खाएँगे अतः आपको तो रुकना ही पड़ेगा, आप बिना खीर खाए नहीं जा सकते इत्यादि।
बालक मुनि महाराज को रोकने का प्रयास कर रहा था और मुनि आगे जाने की चेष्टा कर रहे थे कि तभी श्राविका पानी भरकर वापस आ गई, उसने सिर पर भरा घड़ा रखे हुए ही मुनिराज का विधिवत् पड़गाहन किया—हे स्वामिन्! नमोऽस्तु-नमोऽस्तु-नमोऽस्तु, अत्र अत्र, तिष्ठ—तिष्ठ, आहार जल शुद्ध है। पुनः चौके में ले जाकर नवधाभक्तिपूर्वक मुनिराज को खीर का आहार दिया। उधर बाहर खड़ा-खड़ा बालक खुशी से जय हो-जय हो, महाराज की जय हो, कर रहा था अत: उसने आहारदान की अनुमोदना मात्र से इतना पुण्य संचित कर लिया कि अगले भव में धन्यकुमार हुआ जिसे धन्ना सेठ के नाम से पुराणों में जाना गया है। वह जहाँ भी जाता था, जिस धरती में हाथ लगा देता था, वहीं रत्नों के घड़े निकल पड़ते थे। उस भव में भी अतीव श्रद्धापूर्वक आहार में दी गई वह खीर उसके घर में अक्षय हो गई और सारे नगर के लोगों को, सेठ जी एवं उनके बच्चों को भी उस श्राविका ने खीर खिलाई तथा पुत्र ने वह खीर खाकर स्वस्थता का अनुभव किया। पुनः अगले जन्म में भी उस पुण्य का फल प्राप्त किया। उसी आहारदान के विषय में आचार्यश्री ने ग्रंथ का एक अधिकार ही रचकर श्रावकों के लिये प्रदान किया है। उसे पढ़कर श्रावकों को दान के उत्तम फल को प्राप्त करना चाहिए। अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य जन्म को पाकर तथा स्वप्न के समान और इन्द्रजाल के समान जीवन, यौवन आदि के होने पर भी जो मनुष्य लोभ रूपी कुएं में गिरे हुए हैं। उनके उद्धार के लिए आचार्यश्री ने दयाभावपूर्वक दान का उपदेश देते हुए कहा है कि ‘‘जिसका खेवटिया चतुर है ऐसे अथाह समुद्र में पड़ी हुई भी नाव जिस प्रकार मनुष्य को तत्काल ही पार कर देती है उसी प्रकार इस भयंकर संसार में स्त्री, पुत्रादि नाना जनों के आधीन जो परिग्रह है उससे संयुक्त गृहस्थी के जंजाल में पँâसे हुए मनुष्य के लिए श्रेष्ठ पात्र में दी हुई दान विधि ही शुभगति को देने वाली होती है इसलिए भव्य जीवों को गृहस्थाश्रम में रहकर अवश्य दान देना चाहिए।’’ कठिन परिश्रम से प्राप्त हुआ धन दान करने से ही सफल होता है ऐसी प्रेरणा देने वाला यह काव्य है—
अर्थात् नाना प्रकार के दुःखों से जो धन पैदा किया गया है तथा जो पुत्रों से एवं अपने जीवन से भी मनुष्यों को प्रिय लगता है उस धन की यदि अच्छी गति है तो केवल दान ही है अर्थात् वह धन दान से ही सफल होता है किन्तु दान के अतिरिक्त कहीं भी व्यसन या विषय भोगों में खर्च किया गया धन विपत्ति का ही कारण बनता है ऐसा सन्तजन कहते हैं। दशलक्षण की पूजा में भी कविवर द्यानतराय ने लिखा है—
‘‘बहु धन बुरा हूँ भला कहिये लीन पर उपगार सों।’’
अर्थात् बहुत धन का संग्रह करना यद्यपि बुरा है तो भी यदि उस धन का सदुपयोग परोपकार में किया जाता है तब वह भी भला—ठीक माना जाता है। दान भी श्रद्धा—भक्तिपूर्वक ही दिया गया सार्थक माना जाता है। विशेष रूप से दान में आहारदान का प्रकरण आचार्यश्री ने लिया है। उसी के सम्बन्ध में आचार्यश्री समन्तभद्र स्वामी का कथन भी द्रष्टव्य है, उन्होंने दान का लक्षण बताते हुए कहा है—
नवपुण्यैः प्रतिपत्तिः, सप्तगुणसमाहितेन शुद्धेन।
अपसूनारम्भाणा-मार्याणामिष्यते दानम्।।
अर्थात् नवधाभक्ति एवं सात गुणों से युक्त श्रावक साधुओं को जो आहार देते हैं उसी का नाम दान है। अब प्रश्न यह उठता है कि ये नवधाभक्ति और आहारदाता के सात गुण कौन-कौन से होते हैं ? अत: सर्वप्रथम नवधाभक्ति के नाम इस प्रकार हैं—
पडिगहमुच्चट्ठाणं, पादोदयमच्चणं च पणमं च।
मणवयणकायसुद्धी, एसणसुद्धी य णवविहं पुण्णं।।
अर्थात्
१. पड़गाहन करना
२. घर में जाकर उच्चासन पर विराजमान करना
३. पाद प्रक्षालन करना ४. अष्टद्रव्य से पूजा करना
५. पंचांग नमस्कार
६. मनशुद्धि
७. वचन शुद्धि
८. कायशुद्धि
९. आहारजल शुद्ध है।
इस नौ प्रकार की नवधाभक्ति को करने के पश्चात् जब श्रावक-श्राविकाएँ चौके में पधारे मुनि या र्आियका से निवेदन करते हैं कि हे स्वामी ! अथवा हे माताजी ! भोजन ग्रहण कीजिए तभी वे मुनि खड़े होकर और र्आियकाएँ बैठकर करपात्र में भोजन ग्रहण करते हैं। इसी प्रकार से दातार के भी सात गुण निम्न प्रकार हैं—
७. धैर्य ये सात गुण जिस दातार में होते हैं वह लोक में प्रशंसनीय होता है।
दान भी इन गुणों से समन्वित दातार के द्वारा दिये जाने पर ही योग्य फल को प्रदान करने वाला होता है। जैसा कि आचार्य उमास्वामी ने भी कहा है—
‘‘विधिद्रव्य दातृपात्र विशेषात्तद्विशेषः’’
इसका अर्थ यह है कि दान देने वाले की विधि ठीक हो, द्रव्य अर्थात् न्यायपूर्वक कमाया गया धन हो, दातार योग्य सांगोपांग हो एवं दान लेने वाला सत्पात्र विशेष हो तो दान के फल में विशेषता आती है। भगवान् ऋषभदेव और राजा श्रेयांस में ऐसी ही विशेषताएँ उत्पन्न हुई थीं, इसलिए उन्हें आहारदान का उत्कृष्ट फल प्राप्त हुआ था। रत्नकरण्ड श्रावकाचार में भी दान का फल बताते हुए कहा है—
गृहत्यागी अतिथी के आहार से, सर्व पाप धुल जाते हैं।
जिस तरह रुधिर से मलिन वस्त्र, जल से धो स्वच्छ बनाते हैं।।
अर्थात् अग्नि जलाना, पानी भरना, झाडू लगाना, कूटना और पीसना ये पाँच आरम्भ की क्रियाएँ पाँच सूना कहलाते हैं, उनके करने से रात-दिन पापों का संचय होता रहता है। वह सब पाप गृहत्यागी संयमी को आहार देने से नष्ट हो जाता है। जैसे कि रुधिर से गंदा हुआ वस्त्र जल से धुलकर स्वच्छ हो जाता है। आहारदान का माहात्म्य विभिन्न ग्रन्थों में उदाहरणों के माध्यम से भी देखने को मिलता है कि जिन्होंने भी आहारदान में अपने अल्पधन का भी सदुपयोग किया वह नियम से धनाढ्य हो गया। जैन समाज में आहारदान के दो पर्व विशेष रूप से माने गये हैं—
१. अक्षयतृतीया,
२. रक्षाबन्धन।
ये दोनों ही पर्व हस्तिनापुर तीर्थराज से प्रारम्भ हुए हैं अतः हस्तिनापुर की पावन धरा को नमन करते हुए प्रत्येक श्रावक-श्राविका को सत्पात्रदान देकर पुण्य का संचय करना चाहिए क्योंकि पुनश्च आचार्यश्री पद्मनन्दि का यह कथन विशेष अनुकरणीय है— बसन्ततिलका छन्द—
अर्थात् हे भव्यप्राणी ! मरते समय यह तेरा धन एक पैड से दूसरे पैड तक भी नहीं जाता है तथा बन्धुओं का समूह श्मशान भूमि से ही लौट आता है परन्तु इस दीर्घ संसार में भ्रमण करते हुए तुझको तेरा पुण्य ही एक मित्र होगा अर्थात् वही तेरे साथ जाएगा, इसलिए तुझे पुण्य का ही उपार्जन करना चाहिए। यहाँ दान की प्रेरणा देते हुए संसार की अनित्यता का दिग्दर्शन कराया गया है। कवि मंगतराय ने बारह भावना में कहा है—
कमला चलत न पैंड जाय मरघट तक परिवारा।
अपने—अपने सुख को रोवें पिता पुत्र दारा।।
ज्यों मेले में पंथीजन मिल नेह फिरें धरते।
ज्यों तरुवर पे रैन बसेरा पंछी आ करते।।
कोस कोई दो कोस कोई उड़ फिर थक-थक हारे।
जाए अकेला हंस संग में कोई न पर मारे।।
कथन का सारांश यही है कि बिजली के समान चंचल धन का आहार आदि दानों में सदुपयोग करना चाहिए। पुन: दान का उपदेश देते हुए आचार्यश्री पद्मनन्दि महाराज कहते हैं—
तद्दीयते च गृहिणा गुुरुभक्तिभाजा, तस्माद्धृतो गृहिजनेन विमुक्तिमार्गः।।
अर्थात् इस संसार में मोक्ष का कारण रत्नत्रय है तथा उस रत्नत्रय को शरीर में शक्ति होेने पर मुनिगण पालते हैं और मुनियों के शरीर में शक्ति अन्न से होती है तथा मुनियों के लिए उस अन्न को श्रावक भक्तिपूर्वक देते हैं। इसलिए वास्तविक रीति से गृहस्थ ने ही मोक्षमार्ग को धारण किया है ऐसा समझना चाहिए। साधुओं के २८ मूलगुणों में से एकभक्त और स्थितिभोजन नाम के मूलगुणों का पालन जहाँ चर्या की दृष्टि से साधु की निजी क्रिया पर आधारित है कि वे दिन में एक बार खड़े होकर करपात्र में आहार ग्रहण करते हैं वहीं आहार देने में गृहस्थी श्रावक-श्राविकाओं की प्रमुख भूमिका होती है। उसी से साधु-साध्वियों की रत्नत्रय साधना होती है। जब कर्मयुग के प्रारम्भ में भगवान् ऋषभदेव के साथ चार हजार राजाओं ने जैनेश्वरी दीक्षा धारण की थी उस समय श्रावकों को तथा मुनियों को आहार देने, लेने की विधि का ज्ञान नहीं था इसीलिए वे सभी राजा भ्रष्ट हो गये थे। पुनः ऋषभदेव ने छह माह तक भ्रमण करके उस चर्या का परिचय कराया, तब से धरती पर सभी को आहारदान की विधि का ज्ञान हुआ। इसीलिए दान की प्रेरणा देकर आचार्यों ने गृहस्थ धर्म की सफलता बताई है कि गृह सम्बन्धी नाना प्रकार के आरम्भों से उपार्जन किये हुए जो पाप, उनसे असमर्थ हुए ऐसे व्रत गृहस्थों को कुछ भी उँâचे फल को नहीं दे सकते जैसा कि प्रीतिपूर्वक तथा शुद्धमन से उत्तमादि पात्रों के लिए एक समय भी दिया हुआ दान उत्तम फल को देता है इसलिए ऊँचे फल के अभिलाषियों को सदा उत्तमादि पात्रों को दान देना चाहिए। और भी आचार्य दान की महिमा का वर्णन करते हैं—
अर्थात् जिस पहाड़ से नदी निकलती है वहाँ पर यद्यपि नदी का फांट थोड़ा होता है परन्तु समुद्र पर्यंत जिस प्रकार पेâनसहित वह उत्तरोत्तर बढ़ती ही चली जाती है उस ही प्रकार यद्यपि सम्यग्दृष्टि के पास पहले लक्ष्मी थोड़ी होती है परन्तु मुनीश्वरों के लिए दिए हुए दान के प्रभाव से र्कीित के साथ मोक्षपर्यन्त वह इन्द्र, अहमिन्द्र, चक्रवर्ती, तीर्थंकर आदि रूप से दिन—प्रतिदिन बढ़ती ही चली जाती है इसलिए सम्यग्दृष्टि को दान अवश्य देना चाहिए। आचार्यों ने कितनी सुन्दर बात कही है—दान देने से इस भव में तो यश सुख आदि प्राप्त होते ही हैं, पुनः क्रम से इन्द्र आदि पद तथा और तो क्या दान के प्रभाव से तीर्थंकर जैसा महान पद भी प्राप्त हो जाता है। जिस प्रकार किसान थोड़ा बीज बोता है उसके बीज की अपेक्षा धान्य अधिक पैदा होता है उसी प्रकार थोड़े से बहुत फल की प्राप्ति कराने वाला दान श्रावकों को खूब देना चाहिए क्योंकि इच्छानुसार द्रव्य संसार में किसी को नहीं मिल सकता। जो शताधिपति है वो हजारपति बनना चाहता है तथा हजारपति लखपति, लखपति करोड़पति इत्यादि रीति से इच्छा की कभी भी समाप्ति नहीं होती, इसलिए ऐसा नहीं समझना चाहिए कि मैं हजारपति होऊँगा तब दान दूँगा अथवा लखपति होऊँगा तब दान दूँगा किन्तु जितना धन पास में होवे उसी के अनुसार ग्रास, दो ग्रास दान अवश्य देना चाहिए। प्राचीन काल में राजा श्रीषेण ने आहारदान दिया जिसके प्रभाव से वे शान्तिनाथ तीर्थंकर हुए। ऐसे परोपकारी भगवान का परम पवित्र और जीवमात्र का हित करने वाला चरित आप लोग भी जानें। इसी भारतवर्ष में मलय नाम का एक अति प्रसिद्ध देश था।
रत्नसंचयपुर इसी की राजधानी थी। जैनधर्म का इस सारे देश में खूब प्रचार था। इस देश के राजा श्रीषेण धर्मज्ञ, उदारमना, न्यायप्रिय, प्रजाहितैषी, दानी और बड़े विचारशील थे। उनके िंसहनन्दिता और अनन्दिता नाम की दो रानियाँ थीं, इन दोनों के इन्द्रसेन और उपेन्द्रसेन नाम के दो शूरवीर पुत्र थे। एक दिन राजा श्रीषेण के यहाँ आदित्यगति और अरिञ्जय नाम के दो चारणऋद्धिधारी मुनिराज पृथ्वी को अपने चरण कमलों से पवित्र करते हुए आहार के लिए आए। श्रीषेण ने बड़ी भक्ति से उनका पड़गाहन कर उन्हें पवित्र आहार कराया। इस पात्रदान के माहात्म्य से उनके यहाँ देवों ने रत्नों की वृष्टि की, कल्पवृक्षों के सुन्दर और सुगन्धित पूâल बरसाए, दुंदुभी बाजे बजे, मन्द सुगन्ध वायु बहने लगी और जय-जयकार हुआ, इन्हें ही पंचाश्चर्य वृष्टि कहते हैं। इसके बाद श्रीषेण ने बहुत वर्षों तक धर्मपूर्वक राज्य-सुख का उपभोग किया पुनः आयु के अन्त में मरकर वे धातकीखण्ड द्वीप के पूर्वभाग की उत्तर कुरू भोगभूमि में उत्पन्न हुए तथा श्रीषेण की दोनों रानियाँ भी इसी उत्तरकुरू की भोगभूमि में जाकर उत्पन्न हुर्इं। राजा श्रीषेण भोगभूमि का अनुपम सुख भोगकर, आयु के अन्त में मरकर स्वर्ग में देव हो गये। स्वर्ग में भी मनचाहा दिव्य सुख भोगकर अन्त में मनुष्य पर्याय प्राप्त की।
आगे जन्म में ये कई बार अच्छे-अच्छे राजघराने में उत्पन्न हुए, पुन: मरकर पुण्य से स्वर्ग गए, वहाँ की आयु पूरी कर अबकी बार भारतवर्ष के सुप्रसिद्ध नगर हस्तिनापुर के राजा विश्वसेन की रानी ऐरा के यहाँ अवतार लिया। यही सोलहवें तीर्थंकर भगवान शान्तिनाथ के नाम से संसार में प्रख्यात हुए। इनके जन्म समय में देवों ने आकर बड़ा उत्सव किया था, इन्हें सुमेरुपर्वत पर ले जाकर क्षीरसमुद्र के पवित्र और निर्मल जल से इनका अभिषेक किया था, भगवान शान्तिनाथ ने अपना जीवन बड़ी ही पवित्रता के साथ व्यतीत किया, यह सब पात्रदान का ही फल है इसलिए जो लोग सत्पात्रों को भक्ति से दान देंगे वे भी नियम से ऐसा ही उच्च सुख प्राप्त करेंगे यह बात ध्यान में रखकर सत्पुरुषों का कत्र्तव्य है कि वे प्रतिदिन कुछ न कुछ दान अवश्य करें यही दान स्वर्ग और मोक्ष के सुख का देने वाला है। जिस प्रकार कारीगर जैसा-जैसा ऊँचा मकान बनाता जाता है, उतना-उतना आप भी ऊँचा होता चला जाता है उसी प्रकार जो मनुष्य मोक्षाभिलाषी मुनियों को भक्तिपूर्वक आहारदान देता है वह उस मुनि को मुक्तिधाम तक नहीं पहुँचाता किन्तु स्वयं भी जाता है, ऐसी इस स्वपरहितकारी दान की महिमा बताई गई है। एक अन्य उदाहरण के द्वारा आचार्यश्री दान का स्वरूप कहते हैं—
दानं न यस्य स जड: प्रविशेत्समुद्रं सच्छिद्रनावमधिरुह्य गृहीतरत्न:।।
तात्पर्य यह है कि जो मनुष्य टूटी-फूटी नाव पर चढ़कर तथा रत्नों को साथ लेकर समुद्र की यात्रा करेगा, वह अवश्य ही रत्नों के साथ समुद्र में डूबेगा उसी प्रकार जो मनुष्य उत्तम मनुष्य भव, धन और जिनेन्द्र की आज्ञा को पाकर दान नहीं करेगा वह अवश्य ही संसार में चक्कर खावेगा तथा उसका वह मनुष्य भव, धन और जिनेन्द्र की आज्ञा आदिक समस्त बातें व्यर्थ चली जाएंगी इसलिए जिस प्रकार समुद्र में गिरी हुई मणि की प्राप्ति होना दुर्लभ है उसी प्रकार यह मानव जीवन आदि भी दुर्लभ है ऐसा जानकर दान के स्वरूप को भलीभाँति समझना चाहिए जिससे मनुष्यत्व आदिक व्यर्थ न जाए और संसार में अधिक न घूमना पड़े। आचार्यों ने तो यहाँ तक भी कह दिया है कि—जिस गृहस्थाश्रम में जिनेन्द्र भगवान के चरण कमलों की पूजा नहीं है तथा भक्तिभाव से संयमीजनों के लिए दान भी नहीं दिया जाता है उस गृहस्थाश्रम के लिए अत्यन्त गहरे जल में प्रवेश कर जल की अंजलि दे देनी चाहिए। उपर्युक्त अनेक उदाहरणों से यह पूर्णतया स्पष्ट है कि आगम में जो श्रावकों के लिए ‘‘दाणं पूजा मुक्खो’’ अर्थात् श्रावकों के मुख्य कर्तव्य दान और पूजा बताए गए हैं उनका पालन करते हुए प्रत्येक श्रद्धालु अपने अतिदुर्लभ मनुष्य जन्म को सार्थक करें। आगे और भी कहा है कि—
दानाय यस्य न धनं न वपुव्र्रताय, नैवं श्रुतं च परमोपशमाय नित्यम्।
अर्थात् जिस मनुष्य का धन तो दान के लिए नहीं है और शरीर व्रत के लिए नहीं है और उत्तम शांति के पैदा करने के लिए शास्त्र नहीं हैं उस मनुष्य का जन्म संसार के जन्म-मरण आदि अनेक दुखों के भोगने का जो कारण, उसके लिए है अथवा यों कह सकते हैं कि धन पाकर उत्तमपात्र आदि के लिए दान देना चाहिए तथा उत्तम शरीर पाकर अच्छी तरह व्रत, उपवास आदि करना चाहिए तथा शास्त्र का अभ्यास कर क्रोधादि कषायों का उपशम करना चाहिए किन्तु जो मनुष्य ऐसा नहीं करता है उसको केवल नाना प्रकार की खोटी गतियों में भ्रमण करना पड़ता है तथा जन्म मरण आदि नाना प्रकार के दुःखों को भोगना पड़ता है इसलिए भव्य जीवों को धन आदि का कही हुई रीति के अनुसार ही उपयोग करना चाहिए क्योंकि व्यवहार में यह कहा है कि धन की तीन गतियाँ होती हैं—दान, भोग और नाश। तात्पर्य यह है कि यदि आपने अपने धन को दान आदि पवित्र कार्यों में नहीं लगाया, उसका धर्मकार्यों में नहीं उपयोग किया तो निश्चित है कि वह धन विनाश को प्राप्त हो जाता है। अतः भव्यात्माओं ! अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य भव को प्राप्त कर इसे व्यर्थ न गंवाओ क्योंकि जिस प्रकार अथाह समुद्र में यदि एक मोती गिर जाए तो उसे ढूँढना अत्यन्त कठिन है उसी प्रकार यह मनुष्य पर्याय एक बार खोने पर दोबारा प्राप्त होना कठिन है अतः जितना हो सके उतना अधिक से अधिक गुरुओं की भक्ति आराधना करते रहना चाहिए क्योंकि कहा गया है—
गुरुभत्ति संजमेण य, तरंति संसार सायरं घोरं।
छिण्णंति अट्ठकम्मं, जम्मण मरणं ण पावेंति।।
अर्थात् जो मनुष्य मोक्षार्थी साधु का नाम मात्र भी स्मरण करता है उसके समस्त पाप क्षण भर में नष्ट हो जाते हैं किन्तु जो भोजन, औषधि आदि बनवाकर मुनियों का उपकार करता है वह संसार से पार हो जाता है इसमें आश्चर्य ही क्या ! कहने का तात्पर्य यही है कि प्रत्येक प्राणी के मन में मुनियों के प्रति अगाध श्रद्धा होनी चाहिए, स्वप्न में भी उनकी निन्दा नहीं करनी अथवा सुननी चाहिए। चारों दानों के अन्तर्गत औषधिदान भी अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। औषधिदान के सम्बन्ध में एक बहुत ही सुन्दर कथानक है—नागश्री नाम की एक ब्राह्मण कन्या थी। वह राजघराने में झाडू बुहारी का काम करती थी। एक दिन मुनिदत्त नाम के एक योगी महल के कोट के भीतर बने एक स्थान पर ध्यान कर रहे थे। संध्या समय वह मुनि के पास गई और गुस्से से बोली—ओ नंगे ढोंगी ! यहाँ से जा ! मुझे बुहारी करने दे, आज हमारे महाराजा इधर आएंगे। मुनि ध्यानावस्था में वैसे के वैसे ही अडिग बैठे रहे। नागश्री अधिक गुस्से में आ गई और उसने सब जगह का कचरा इकट्ठा कर मुनि को उससे ढक दिया।
सुबह राजा की नजर उस गड्ढे पर गई। मुनि के साँस लेने से कचरा ऊपर-नीचे हो रहा था उन्होंने कचरा हटवाया तो उन्हें मुनि पूर्ववत् शान्तिपूर्वक मिले। नागश्री ने भी देखा तो उसे उन शान्ति की र्मूित मुनिराज के गुणों की कीमत जान पड़ी, वह खूब पछताई तथा मुनि से अपना अपराध क्षमा करवाया। उसने श्रद्धापूर्वक मुनि के घाव पर औषधि का लेप किया तथा भरपूर सेवा की। उस सेवा के फल से वह मरने के पश्चात् धनपति सेठ की पुत्री हुई। यह बहुत ही सुन्दर और सौभाग्यशाली थी, उसका नाम वृषभसेना रखा गया। वृषभसेना की धाय रूपवती इसे रोज नहलाया-धुलाया करती थी। एक दिन एक महारोगी कुत्ता उस गड्ढे में, जिसमें कि वृषभसेना के नहाने का पानी इकट्ठा हो रहा था, गिर पड़ा। आश्चर्य! जब वह उस पानी में से निकला जो बिल्कुल नीरोग दीख पड़ा। रूपवती उसे देखकर चकित रह गई। तब उसने थोड़ा सा जल लेकर अपनी माँ की अंधी आँखों में डाला तो उनका रोग खत्म हो गया। इस रोग नाशने वाले जल के प्रभाव से वृषभसेना की बड़ी प्रसिद्धि हो गई। एक बार वृषभसेना ने एक महातपस्वी और अवधिज्ञानी गुणधर नाम के मुनिराज से पूछा—हे दया के समुद्र योगिराज ! मैंने पूर्वजन्म में कौन सा महान् पुण्य किया है जो मेरे स्नान के जल से असाध्य रोग नष्ट हो जाते हैं।
मुनिराज ने वृषभसेना को पूर्व भव का हाल कह सुनाया। महानुभावों ! जिस प्रकार वृषभसेना ने औषधिदान देकर उसके फल से यह महिमा प्राप्त की उसी तरह बुद्धिमानों को चाहिए कि वे जिस-जिस दान की जरूरत समझें उसी के अनुसार सदा अपने धन का उपयोग दान में करते रहें। दान महान पवित्र कार्य है और पुण्य का कारण है अतः गृहस्थाश्रम में व्रत की अपेक्षा दान ही अधिक फल का देने वाला है। इस बात को आचार्य दिखाते हैं—
अर्थात् जो मनुष्य भलीभाँति मन, वचन, काय को शुद्ध कर उत्तमपात्र के लिए आहारदान देता है। उस मनुष्य को संसार से पार करने में कारणभूत पुण्य की इन्द्र भी अभिलाषा करता है इसलिए गृहस्थाश्रम में सिवाय दान के दूसरा कोई कल्याण करने वाला नहीं है अत: श्रावकों को दान की ओर अवश्य लक्ष्य देना चाहिए। कहने का तात्पर्य यही है कि इन्द्र के पास भले ही स्वर्ग के वैभव, नाना प्रकार की सम्पत्ति, भोगोपभोग सामग्री आदि सब कुछ है फिर भी देवों में संयम का अभाव होने से वे आहारदान देने के पात्र नहीं हैं, एकमात्र जिनधर्मी श्रावकों को ही यह परम सौभाग्य प्राप्त होता है इसलिए श्रावकों को अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए क्योंकि सम्पत्ति का कुछ भरोसा नहीं है। आज है तो कल नहीं भी हो सकती है, जैसा कि श्री मंगतराय जी ने बारह भावना में बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है—
इन्द्रजाल आकाश नगर सम, जग सम्पति सारी।
अथिर रूप संसार विचारो, सब नर अरु नारी।।
अर्थात् जिस प्रकार संसार की सभी वस्तुएँ नश्वर हैं उसी प्रकार धन सम्पत्ति आदि भी नाशवान हैं अत: संसार को अस्थिर मानकर प्रत्येक नर-नारी को अपनी सम्पत्ति का सदुपयोग करते रहना चाहिए। अब आचार्यश्री पद्मनन्दि चारों प्रकार के दान का महत्त्व समझाते हुए कहते हैं—
शार्दूलविक्रीडित छन्द—
दानेनैव गृहस्थता गुणवती, लोकद्वयोद्योतिका।
नैव स्यान्ननु तद्विनाधनवतो, लोकद्वयध्वन्सकृत्।।
दुव्र्यापारशतेषु सत्सु गृहिणः, पापं यदुत्पद्यते।
तन्नाशाय शशांकशुभ्रयशसे दानं न चान्यत्परम्।।
अर्थात् धनी मनुष्यों का गृहस्थपना दान से ही गुणों का करने वाला होता है और दान से ही दोनों लोकों का प्रकाश करने वाला है किन्तु बिना दान के वह गृहस्थपना दोनों लोकों का नाश करने वाला ही है क्योंकि गृहस्थों के सैकड़ों खोटे-खोटे व्यापारों के करने से सदा पाप की उत्पत्ति होती रहती है उस पाप के नाश के लिए तथा चन्द्रमा के समान यश की प्राप्ति के लिए यह एक पात्रदान ही है दूसरी कोई वस्तु नहीं है इसलिए अपनी आत्मा के हित को चाहने वाले भव्यों को चाहिए कि वे पात्रदान से ही गृहस्थपने तथा धन को सफल करे। कहने का तात्पर्य यही है कि—‘‘दान देय मन हरष विशेषै, इह भव जस ‘‘दान देय मन हरष विशेषै, इह भव जस पर भव सुख देखे।’’ दान देने से इस लोक में यश-र्कीित की प्राप्ति होती है, मन में अतिशय प्रसन्नता का अनुभव होता है, साथ ही परलोक में भी सुख—समृद्धि की प्राप्ति होती है तो ऐसा कौन सा व्यक्ति है जो इस महान दान को देकर अपने भवों को नहीं सुधारना चाहेगा। इसके अतिरिक्त दान के बिना धन की कुछ भी शोभा नहीं रहती है—
अर्थात् जो धन उत्तमादि पात्रों के उपयोग में आता है, विद्वान लोग उसी धन को ‘‘अच्छा धन’’ समझते हैं तथा वह पात्र में दिया हुआ धन परलोक में सुख का देने वाला होता है और अनन्तगुणा होकर फल देता है किन्तु जो धन नाना प्रकार के भोगविलासों में खर्च होता है वह धनवानों का धन सर्वथा नष्ट हो गया ऐसा समझना चाहिए क्योंकि गृहस्थों के सर्व सम्पदाओं का प्रधान फल एक दान ही है। दूसरे शब्दों में इसे यूं भी कह सकते हैं कि यों तो धनी गृहस्थों के प्रतिदिन नाना कार्यों में धन का खर्च होता रहता है परन्तु जो धन उत्तमादि पात्रों के दान में खर्च होता है वास्तव में वही धन परलोक में नाना प्रकार के सुखों का करने वाला होता है तथा अनन्तगुणा होकर फलता है इसके विपरीत जो धन भोग, विलास आदि निकृष्ट कार्यों में खर्च किया जाता है वह धन सर्वथा नष्ट हो जाता है तथा परलोक में उससे किसी प्रकार का सुख नहीं मिलता और न ही वह अनन्तगुणा होकर फलता ही है क्योंकि समस्त संपदाओं के होने का प्रधान फल दान ही है अर्थात् जिस पुरुष के पास खूब धन हो उसे यही समझना चाहिए कि मैंने विगत जन्मों में अवश्य दान दिया होगा इसलिए धर्मात्मा श्रावकों को निरन्तर उत्तम आदि पात्रों में दान करना चाहिए तथा पाए हुए धन को सफल करना चाहिए। आचार्य ने आगे दान को मोक्षप्राप्ति का सरल उपाय कहा है—
अर्थात् भूतकाल में बड़े-बड़े राजा पुत्रों को राज्य देकर तथा याचकजनों को धन देकर और समस्त प्राणियों को अभयदान देकर अनशन आदि उत्तम तपों को आचरण कर अविनाशी सुख के स्थान मोक्ष को प्राप्त हुए हैं इसलिए मोक्ष का सबसे प्रथम कारण यह दान ही है अर्थात् दान से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है अतः विद्वानों को चाहिए कि धन तथा जीवन को जल के बबूले के समान अत्यन्त विनाशीक समझकर सर्वदा शक्ति के अनुसार उत्तम आदि पात्रों में दान दिया करें। जिस प्रकार एक ही बावड़ी का पानी अनेक वृक्षों में जाकर नाना रूप में परिणत हो जाता है उसी प्रकार पात्रों के भेद से दान किए फल में भी भेद हो जाता है इसलिए जहाँ तक बने, अच्छे सुपात्रों को ही दान देना चाहिए, औरों को नहीं क्योंकि जब एक कल्पवृक्ष हाथ लग गया फिर औरों से क्या लाभ? इस प्रकार सत्पात्रों को दान देकर भव्य पुरुष जो सुख प्राप्त करते हैं उसका वर्णन मुझसे नहीं किया जा सकता। परन्तु संक्षेप में यह समझ लीजिए कि धन-दौलत, स्त्री-पुत्र, खान-पान, भोग-उपभोग आदि जितनी उत्तम सुख सामग्री हैं वह तथा इन्द्र, नागेन्द्र, विद्याधर, चक्रवर्ती आदि महापुरुषों की पदवियाँ, अच्छे सत्पुरुषों की संगति, दिनोंदिन ऐश्वर्यादि की बढ़ोत्तरी, ये सब पात्रदान के फल से प्राप्त होते हैं। इतना ही नहीं, पात्रदान से मुक्ति भी मिल जाती है। राजा श्रेयांस ने दान के ही फल से मुक्तिलाभ किया है। इस प्रकार पात्रदान का अचिन्त्य फल जानकर बुद्धिमानों को इस ओर अपने ध्यान को अवश्य खींचना चाहिए। जिन-जिन सत्पुरुषों ने पात्रदान का आज तक फल पाया है, उन सबके नाममात्र का उल्लेख भी जिन भगवान के सिवा और कोई नहीं कर सकता।
तब उनके सम्बन्ध में कुछ भी कहने से मैं उसी प्रकार हंसी का पात्र बन जाउँगा जैसे कि कोई बौना व्यक्ति उँचे पेड़ से फल तोड़ने की इच्छा से हाथों को फैलाता हुआ, लोगों के द्वारा हँसा जाता है। प्रिय पाठकों ! अभी तक आपने आहार-दान और औषधिदान की कथा को जाना अब आप सब अभयदान की रोचक कथा को पढ़कर शिक्षा ग्रहण करें— भारतवर्ष के मालवा देश में घटगाँव नाम का एक सम्पत्तिशाली शहर था, इस शहर में देविल नाम का एक धनी कुम्हार और एक र्धिमल नाम का नाई रहता था। दोनों ने मिलकर बाहर से आने वाले यात्रियों के ठहरने के लिए एक धर्मशाला बनवाई, एक दिन देविल ने एक दिगम्बर मुनि को लाकर उस धर्मशाला में ठहरा दिया। धर्मिल को जब मालूम हुआ तो उसने मुनि का हाथ पकड़कर बाहर निकाल दिया और वहाँ एक ढोंगी सन्यासी को लाकर ठहरा दिया। सच है, जो दुष्ट हैं, दुराचारी हैं, पापी हैं, उन्हें साधु-सन्त अच्छे नहीं लगते जैसे कि उल्लू को सूर्य नहीं पसंद आता है। उस र्धिमल ने मुनि को निकाल दिया—उनका अपमान किया, पर मुनि ने इसका कुछ भी बुरा न माना। वे जैसे शान्त थे वैसे ही रहे।
धर्मशाला से निकलकर वे एक वृक्ष के नीचे आकर ठहर गए तथा रात इन्होंने वहीं पूरी की। डांस-मच्छर वगैरह का इन्हें बहुत कष्ट सहना पड़ा, इन्होंने सब कुछ बड़ी शांति से सहा। यह ठीक ही है कि जिनका शरीर से रत्ती भर भी मोह नहीं है उनके लिए तो कष्ट कोई चीज नहीं। सबेरे जब देविल मुनि के दर्शन को आया और उन्हें धर्मशाला में न पाकर एक वृक्ष के नीचे बैठे देखा तो उसे र्धिमल की इस दुष्टता पर क्रोध आया। र्धिमल का सामना होने पर उसने उसे फटकारा। देविल की फटकार धर्मिल न सह सका और बात बहुत बढ़ गई यहाँ तक कि परस्पर में मारामारी हो गई। दोनों ही लड़कर मर मिटे। व्रूâर भाव से मरकर ये दोनों क्रम से सुअर और व्याघ्र हुए। देविल का जीव सुअर विन्ध्य पर्वत की गुफा में रहता था, एक दिन कर्मयोग से गुप्त और त्रिगुप्तिगुप्त नाम के दो मुनिराज अपने विहार से पृथ्वी को पवित्र करते हुए इसी गुफा में आकर ठहरे। उन्हें देखकर इस सुअर को जातिस्मरण हो गया। इसने मुनिराज द्वारा धर्मोपदेश सुन कुछ व्रत ग्रहण किए और बहुत सन्तुष्ट हुआ। इसी समय मनुष्यों की गंध पाकर र्धिमल का जीव व्याघ्र मुनियों को खाने के लिए झपटा हुआ आया। सुअर उसे दूर से देखकर गुफा के द्वार पर आकर डट गया इसलिए कि वह भीतर बैठे हुए मुनियों की रक्षा कर सके। व्याघ्र ने गुहा के भीतर घुसने के लिए सुअर पर बड़ा जोर का आक्रमण किया। सुअर पहले से ही तैयार बैठा था। एक के भाव थे मुनि रक्षा करने के और दूसरे के उनको खा जाने के। अतः देविल का जीव तो (सुअर) मुनिरक्षा रूप पवित्र भावों से मरकर सौधर्म स्वर्ग में अनेक ऋद्धियों का धारी देव हुआ और र्धिमल के जीव व्याघ्र ने मुनि को खा जाना चाहा था इसलिए वह पाप के फल से मरकर नरक में गया। इस कथा को पढ़ने से यही बोध होता है कि देखो ! सुअर जैसे तुच्छ तिर्यंच ने भी मुनियों को अभयदान देकर स्वर्ग पद को प्राप्त कर लिया तो हम लोग तो संज्ञी पंचेन्द्रिय मनुष्य हैं तथा दान आदि उत्तम कार्यों वे द्वारा हम अपनी आत्मा को भगवान आत्मा अवश्य बना सकते हैं। आचार्य श्री पद्मनन्दि स्वामी अपने वैराग्यवर्धक ग्रन्थ ‘‘पद्मनन्दिपंचिंवशतिका’’ में पुन: कहते हैं—
दानाय यस्य न समुत्सहते मनीषा, तद्योग्यसम्पदि गृहाभिमुखे च पात्रे।
अर्थात् योग्य सम्पदा के होने पर भी तथा मुनि के घर आने पर भी जिस मनुष्य की बुद्धि दान देने में उत्साह नहीं करती अर्थात् जो दान नहीं देना चाहता वह मूर्ख पुरुष खानि में मिले हुवे अमूल्य रत्न को छोड़कर व्यर्थ पाताल की भूमि को खोदता है। यहाँ आचार्यश्री ने यह समझाने का प्रयास किया है कि यदि कोई मनुष्य रत्न के लिए जमीन खोदे तथा उस मिले हुए रत्न को छोड़कर और भी गहरी भूमि खोदता जावे तो जिस प्रकार उसका नीचे जमीन खोदना व्यर्थ जाता है उसी प्रकार जो मनुष्य योग्य सम्पदा को पाकर दान नहीं देता उस मनुष्य की भी मिली हुई सम्पदा किसी काम की नहीं अतः भव्य जीवों को द्रव्यानुसार दान देने में कदापि प्रमाद नहीं करना चाहिए क्योंकि दान से बड़ा महान कार्य संसार में कोई नहीं है। जैसा कि प्रत्येक संसारी प्राणी को यह भलीभाँति ज्ञात है कि मरते समय यह धन किसी के साथ नहीं जाता है तथा बन्धुओं का समूह श्मशान भूमि से ही लौट आता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि जो दान आदि के द्वारा पुण्य संचित होता है वही जीव के साथ जाता है अतः प्रत्येक प्राणी को पुण्य का ही उपार्जन करना चाहिए। अब आगे आचार्यश्री बसन्ततिलका छन्द के द्वारा यह बताते हैं कि दान देने से किन-किन गुणों की प्राप्ति होती है—
सौभाग्यशौर्यसुखरूप विवेकिताद्या, विद्यावपुर्धनगृहाणि कुले न जन्म।
सम्पद्यतेऽखिलमिदं किल पात्रदानात्तस्मात्किमत्र सततं क्रियते न यत्नः।।
अर्थात् जो मनुष्य उत्तमादि पात्रों को दान देते हैं उन्हें सौभाग्यशूरता, सुख, विवेक आदिक तथा इतना ही नहीं विद्या, शरीर, धन, घर और उत्तम कुल में जन्म ये सब गुण सरलता से प्राप्त हो जाते हैं इसके लिए उन्हें कोई भी प्रयत्न नहीं करना पड़ता। इसके विपरीत जो मनुष्य विचार करते हैं कि मुझे धन जमीन में गाड़ना है तथा मुझे धन से मकान बनवाना है और पुत्र का विवाह करना है इतने काम करने पर यदि अधिक धन होगा तो धर्म के लिए दान करूंगा। इस प्रकार विचार करता ही करता मूर्ख प्राणी अचानक मर जाता है और वह कुछ भी कर नहीं पाता इसलिए मनुष्य को धन मिलने पर सबसे पहले दान करना चाहिए तथा दान से अतिरिक्त विचार कदापि नहीं करना चाहिए अन्यथा उसको धन की प्राप्ति होना निरर्थक ही समझा जाता है। जिस प्रकार कुएँ से यदि जल निकालते रहें तो उसमें अच्छा और अच्छा पानी आता रहेगा परन्तु यदि किसी कारणवश उस कुएँ में से जल नहीं निकाला जाएगा तो निश्चित है कि वह कुएँ का जल दुर्गति को प्राप्त हो जाएगा ठीक उसी प्रकार धन को दान आदि शुभ कार्यों में खर्च करते रहने से उसमें दिन दूनी रात चौगुनी वृद्धि होती है, तिजोरी में बंद रखे रहने से उसका कोई मूल्य नहीं रहता है। और भी आचार्य कहते हैं कि—
यस्यास्ति नो धनवत: किल पात्रदानमस्मिन्परत्र च भवे यशसे सुखाय।
अन्येन केनचिद नूनसुपुण्यभाजा, क्षिप्तः स सेवकनरो धनरक्षणाय।।
अर्थात् जो धनी मनुष्य इस भव में र्कीित के लिए और परभव में सुख के लिए उत्तम आदि पात्रों में दान नहीं देता, समझिए कि वह उस धन का मालिक नहीं है किन्तु किसी अत्यन्त पुण्यवान पुरुष ने उस मनुष्य को उस धन की रक्षा के लिए नियुक्त किया है। कहने का तात्पर्य यह है कि जो उस धन का अधिकारी होता है वह निर्भय रीति से उत्तम आदि पात्रों में धन का व्यय कर सकता है किन्तु जो मालिक न होकर रक्षक होता है वह किसी रीति से धन का व्यय नहीं करता इसलिए आचार्य कहते हैं कि जो धनी होकर दान न देवे तो उसे मालिक नहीं समझना चाहिए किन्तु जो उसकी मृत्यु के पीछे उस धन का मालिक होगा उस पुण्यवान का उसको धन की रक्षा करने वाला दास समझना चाहिए, इसलिए विद्वानों को धन के मिलने पर उस धन के अनुसार अवश्य ही दान देना चाहिए अन्यथा वह धन विनाश को प्राप्त हो जाता है तथा यदि मनुष्य अपने जीवन को सार्थक बनाना चाहता है तो उसको अवश्य उत्तम आदि पात्रों में दान देना चाहिए। क्योंकि यह सच ही कहा गया है कि—‘‘कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है’’ अर्थात् जब हम आहारदान आदि देते हैं तो हमें उसके बदले में इस लोक में पुण्य तथा यश और परलोक में सुख की प्राप्ति होती है। संसार में यह बात बहुधा सुनने में आती है कि अमुक मनुष्य तथा अमुक देव मुझे सुख का देने वाला है तथा मेरा भला करने वाला है तथा वह मनुष्य मुझे दुःख का देने वाला है तथा मेरा बहुत बुरा करने वाला है। आचार्य कहते हैं कि यह सब कहना व्यर्थ ही है क्योंकि सुख तथा दुःख को देने वाला तथा बुरा-भला करने वाला एक पुण्य तथा पाप ही है इसलिए यदि तुम सुख की इच्छा करते हो अथवा अपना भला चाहते हो तो तुमको दानादि विशेष रीति से पुण्य का आराधन करना चाहिए क्योंकि दान के प्रभाव से ऐसी कोई वस्तु नहीं जो न मिल सके। सबसे दुर्लभ मोक्षपद की प्राप्ति भी जब दान से हो जाती है तब इससे भी दुःसाध्य वस्तु क्या रही ? जो मनुष्य लोभ से दान नहीं देते, यहाँ उनके बारे में आचार्य बसन्ततिलका छन्द में श्लोक रचना को दिखाते हैं—
सर्वान्गुणानिह परत्र च हन्ति लोभः, सर्वस्य पूज्यजनपूजनहानिहेतुः।
अन्यत्र तत्र विहितोऽपि हि दोषमात्र—, मेकत्र जन्मनि परं प्रथयन्ति लोकाः।।
जो लोभ अर्हन्त भगवान आदि की पूजा में हानि पहुँचाने वाला है वह लोभ इस भव में तथा परभव में समस्त मनुष्यों के सम्यग्दर्शन आदि गुणों को घातता है किन्तु जो लोभ लौकिक विवाह आदि कार्यों में किया जाता है उस लोभ को तो केवल इस जन्म में दोष ही कहते हैं अतः मनुष्य को दान-पूजा आदि में कदापि लोभ नहीं करना चाहिए। चारों दानों का विस्तृत वर्णन बड़े-बड़े पुराण ग्रन्थों में देखने-पढ़ने से यह स्पष्ट हो जाता है कि अनेक महान पुरुषों ने दान आदि के माध्यम से उच्च गतियों को प्राप्त कर क्रम से शिवरमणी का वरण किया है, इसी शृंखला में ज्ञानदान का एक लघु सुन्दर कथानक यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है जो कि इस प्रकार है— जिनधर्म के प्रचार आदि से पवित्र हुए इस भारतवर्ष में कुरुमरी गाँव में गोविन्द नाम का एक ग्वाला रहता था, उसने एक बार वृक्ष की कोटर में एक पवित्र ग्रंथ देखा, उसे लेकर आया और रोज-रोज उसकी पूजा करने लगा। पुनः एक दिन उसने वह ग्रन्थ ‘‘पद्मनन्दि’’ नाम के महात्मा को ‘‘शास्त्रदान’’ रूप में भेंट कर दिया। इसी के बाद अचानक उसकी मृत्यु हो गई, वह निदान करके इसी कुरुमरी गाँव के चौधरी का अत्यन्त रूपवान पुत्र हुआ। बड़े होने पर एक दिन इसने उन्हीं पद्मनन्दि मुनि को देखा, जिसे कि इसने गोविन्द ग्वाल के भव में ‘‘शास्त्रदान’’ दिया था, उन्हें देखकर उसे जातिस्मरण हो गया। मुनि को नमस्कार कर वह धर्म प्रेम से उनसे दीक्षा लेकर उग्रोग्र तप करने लगा। अत्यन्त निर्मल हृदय के धारक वे मुनि आयु के अन्त में शान्ति से मरण कर पुण्योदय से कौण्डेश राजा हुए। वह अत्यन्त शूरवीर, पराक्रमी थे। इस प्रकार बहुत समय बीत जाने पर कौण्डेश को कुछ ऐसा निमित्त मिला कि जिससे उसे संसार से बड़ा वैराग्य हो गया। जैनधर्म के रहस्य को जानने वाले कौण्डेश को अब घर में रहना वैदखाने के समान जान पड़ने लगा। वह राज्याधिकार पुत्र को सौंपकर जिनमंदिर गया। वहाँ उसने जिन भगवान की पूजा की, जो सब सुखों के लिए कारण है। इसके बाद निग्र्रन्थ मुनि को नमस्कार कर उनके पास दीक्षित हो गया। पूर्व जन्म में कौण्डेश ने जो शास्त्रदान किया था उसके फल से वह थोड़े ही समय में श्रुतकेवली हो गया। जिस प्रकार ज्ञान-दान से एक ग्वाला पूर्ण श्रुतज्ञानी हुआ उसी तरह अन्य भव्य पुरुषों को भी ज्ञानदान देकर अपना आत्महित करना चाहिए जो कि परम्परा से केवलज्ञानरूपी फल को उत्पन्न कराने में बीज के समान है। आचार्य श्री उमास्वामी द्वारा रचित मोक्षशास्त्र अर्थात् तत्त्वार्थसूत्र में दान का लक्षण बताते हुए एक सूत्र आया है—
‘‘अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानम्’’
अर्थात् अपने और पर के उपकार के लिए धन आदिक का देना दान है। अब यह प्रश्न हो सकता है कि स्व-पर उपकार ऐसा क्यों कहा ? तो वह इसलिए कि दान देने में अपना उपकार तो यह है कि पुण्य का बन्ध होता है और पर का उपकार यह है कि दान लेने वाले को आजीविका चलाने एवं धर्मसाधना में सहायता मिलती है। इन्हीं सब विचारों को आचार्य श्री पद्मनन्दि स्वामी अपने ‘‘पद्मनन्दि—पंचविंशतिका’’ ग्रन्थ में चारों प्रकार के दान से प्राप्त फल की महिमा के वर्णन में कहते है—
अर्थात् उत्तम आदि पात्रों में आहारदान के देने से तो इन्द्र, धरणेन्द्र, चक्रवर्ती आदि के सुखों की प्राप्ति होती है तथा औषधिदान के देने से परभव में अत्यन्त रूपवान तथा नीरोग शरीर मिलता है, शास्त्रदान के देने से अत्यन्त आश्चर्य की करने वाली विद्वत्ता की प्राप्ति होती है और अभयदान के देने से सुख तथा नीरोगपना आदि समस्त गुणों की प्राप्ति होती है, अन्त में उत्तमोत्तम चक्रवर्ती आदि पदों की प्राप्ति होकर मोक्ष की प्राप्ति होती है इसीलिए उत्तमोत्तम सुख, नीरोगता आदि गुणों के अभिलाषी मनुष्यों को अवश्य ही चारों प्रकार का दान देना चाहिए। अन्य ग्रन्थ में दान के दानदत्ति, दयादत्ति, समदत्ति और अन्वयदत्ति ऐसे भी चार भेद किए गए हैं। विधिपूर्वक पात्रों को चार प्रकार का दान देना ही दानदत्ति है। दीन, दुःखी, अन्धे, लंगड़े, रोगी आदि को करुणापूर्वक भोजन, वस्त्र, औषधि आदि दान देना दयादत्ति है। अपने समान श्रावकों को कन्या, भूमि, स्वर्ण आदि देना समदत्ति दान है तथा अपने पुत्र को घर का भार सौंपकर आप निश्चिन्त हो धर्माराधन करना अन्वयदत्ति है।
शार्दूलविक्रीडित छन्द—
चितारत्नसुरद्रुकामसुरभिस्पर्शोपलाद्या भुवि, ख्याता एव परोपकारकरणे दृष्टा न ते केनचित्।
तैरत्रोपकृतं न केषुचिदपि प्रायो न सम्भाव्यते, तत्कार्याणि पुनः सदैव विदधद्दाता परं दृश्यते।।
अर्थात् यह सब जानते हैं कि चिन्तामणि रत्न, पारसमणि, कल्पवृक्ष, कामधेनु आदि पदार्थ संसार में परोपकारी हैं परन्तु इनको साक्षात् उपकार करते हुए अभी तक किसी ने देखा नहीं है लेकिन चिन्तामणि रत्न आदि के कार्य को करने वाला दाता अर्थात् दूसरों को मनवांछित दान देने वाला अवश्य देखने में आता है इसलिए चिन्तामणि रत्न, कल्पवृक्ष आदि उत्कृष्ट पदार्थ दाता ही हैं किन्तु इससे भिन्न चिन्तामणि आदिक कोई पदार्थ आज नहीं दिखते हैं अतः भव्य पुरुषों को दान आदि देकर सर्वश्रेष्ठ ‘‘दाता’’ यह संज्ञा प्राप्त करनी चाहिए तथा शुभ भावों को धारण करके प्रसन्नचित्त होकर उत्तम आदि पात्रों को दान देते हुए असीम पुण्य का संचय करना चाहिए। रत्नकरण्डश्रावकाचार में आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी ने भी श्रावकों की षट्क्रियाओं में दान का सुन्दर विवेचन किया है तथा किस दान में कौन प्रसिद्ध हुए हैं इस बात को एक श्लोक के माध्यम से बताते हैं—
श्रीषेण वृषभसेने, कौण्डेश: शूकरश्च दृष्टान्ता:।
वैयावृत्यस्यैते, चर्तुिवकल्पस्य मन्तव्या:।।
अर्थात् श्रीषेण राजा आहारदान के फल से श्री शान्तिनाथ तीर्थंकर हुए हैं। वृषभसेना ने औषधिदान के भाव से अपने शरीर के स्र्पिशत जल से बहुतों के दु:ख दूर किए हैं। कौण्डेश ने मुनि को शास्त्रदान देकर अपने श्रुतज्ञान को पूर्ण कर प्रसिद्धि पाई है और सूकर ने मुनि को अभयदान देने के पुण्य से देवगति को प्राप्त किया है। आचार्यों ने इसीलिए दान आदि शुभ कार्यों को करने के लिए विशेष बल दिया है क्योंकि काल का कुछ भी भरोसा नहीं है। कोई यदि यह सोचे कि मैं आज नहीं, कल दान दूँगा तो यह उसकी गलतफहमी है। जैसा कि कवि श्री मंगतरायजी ने भी कहा है—
सूरज चाँद छिपै निकलै ऋतु फिर-फिर कर आवे।
प्यारी आयू ऐसी बीते, पता नहीं पावे।।
अर्थात् सूरज-चाँद तो छिपने के बाद दोबारा उदित हो जाते हैं तथा गर्मी, सर्दी, वर्षा आदि ऋतुएँ क्रम-क्रम से पुन: लौटकर आ जाती हैं लेकिन हे भव्यात्मन्! प्यारी आयु कब बीत जाती है पता नहीं चलता तथा वह आयु एक बार खोने के बाद दोबारा प्राप्त नहीं होती है अत: कल करने के लिए कुछ भी मत छोड़ो। यह बात सत्य है कि जिन घरों में यतीश्वरों का आवागमन बना रहता है वे घर तथा उन घरों में रहने वाले श्रावक धन्य गिने जाते हैं किन्तु जो श्रावक यतीश्वरों को दान नहीं देते इसलिए जिनके घर में यतीश्वर नहीं आते, वे घर नहीं हैं किन्तु मनुष्यों को फाँसने के लिए जाल हैं इसीलिए भव्य जीवों को चाहिए कि वे प्रतिदिन यथायोग्य यतीश्वरों को दान अवश्य दिया करें। मोक्षाभिलाषियों को किस प्रकार से उनके इच्छित फल अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति हो, इस बात की विवेचना करते हैं—
अनुष्टुप् छन्द—
दृषन्नावा समो ज्ञेयो, दानहीनो गृहाश्रम:।
महारूढ़ो भवाम्भोधौ, मज्जत्येव न संशय:।।
अर्थात् जो मनुष्य मोक्षसुख की कामना करते हैं उन्हें मुनि आदि उत्तम पात्रों में दान अवश्य देना चाहिए क्योंकि जिस प्रकार यदि कोई मनुष्य पत्थर से बनी हुई नाव पर चढ़कर समुद्र को तिरना चाहता है तो वह नियम से डूबता है उसी प्रकार जिस गृहस्थाश्रम में यतीश्वरों के लिए दान नहीं दिया जाता उस गृहस्थाश्रम में रहने वाले गृहस्थ कदापि संसार को नाश कर मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकते। इसके विपरीत जो मनुष्य एक समय भी यतीश्वरों को नवधा भक्तिपूर्वक दान देता है उसको परभव में नाना प्रकार के स्वर्गादि सुखों की प्राप्ति होती है अत: समर्थ गृहस्थों को तो अवश्य ही दान देना चाहिए। दान देने से प्राप्त फल को बताते हुए आचार्य श्री समंतभद्र स्वामी ने भी रत्नकरण्ड श्रावकाचार में लिखा है—
अर्थात् जिस प्रकार रुधिर से गंदा हुआ वस्त्र जल से धुलकर स्वच्छ हो जाता है उसी प्रकार अग्नि जलाना आदि पाँच सूना पाप गृहत्यागी संयमी को आहार देने से नष्ट हो जाता है। बन्धुओं ! अभी तक तो आपने कई श्लोक, कथाओं आदि के माध्यम से दान की महिमा को जाना। दान देने से स्वर्ग मोक्ष की प्राप्ति होती है यह जानकारी भी आपको प्रदान की गई, अब मैं एक दृष्टान्त द्वारा आपको यह बताना चाहती हूँ कि जो मनुष्य लालचवश धन इकट्ठा करते रहने की ही भावना करते हैं, दान देने में जिनकी कोई रुचि रहती ही नहीं है ऐसे कृपण मनुष्य को क्या दुष्फल मिलता है— अयोध्या में भवदत्त सेठ के पुत्र का नाम लुब्धदत्त था। एक बार वह व्यापार के लिए विदेश में गया। धन कमाकर वापस लौट रहा था कि मार्ग में उसे चोर—डाकुओं ने लूट लिया। तब वह अति निर्धन हो गया और भटकने लगा। भटकते-भटकते उसने एक जगह पीने के लिए छाछ माँगा। पीने के बाद उसकी मूछों में कुछ मक्खन लगा रह गया। उस मक्खन को निकालकर उसने एक पात्र में रख लिया। ऐसे ही वह प्रतिदिन मूछों में लगा मक्खन निकाल-निकाल कर संचित करता रहा, तभी से उसका नाम श्मश्रुनवनीत हो गया। जब उस मक्खन से एक सेर प्रमाण घी हो गया तब वह उस घी को घड़े में भरकर और उसे पैर के पास रखकर लेट गया। सर्दी का दिन था अत: अग्नि को भी पास में ही रखकर लेटा था और सोच रहा था कि इस घी को बेचकर मैं बहुत-सा धन प्राप्त करूँगा और धीरे-धीरे अच्छा व्यापारी बनकर मंत्री, महामंत्री बन जाउँâगा, सात तल के भवन में शयन करुंगा। मेरी पट्टरानी मेरे पैर दबाएगी। पादमर्दन करना ठीक से नहीं आएगा तो मैं उसे प्रेम से पैर से ताड़ित करूँगा, ऐसा सोचते-सोचते वह लुब्धदत्त दरिद्री अपने आपको चक्रवर्ती समझते हुए पैर ऊपर उठाकर पटक देता है तभी उसका पैर घी के घड़े में लग जाता है। फिर क्या था ! घी उलट गया और पास रखी हुई अग्नि में पड़ गया। उस भभकती अग्नि से वह निकल नहीं सका तब स्वयं भी मर गया और परिग्रह की अति आसक्ति से मरकर दुर्गति में चला गया। अत: भव्यात्माओं ! अब आपको स्वयं यह निर्णय करना है कि आप किस संज्ञा को प्राप्त करना चाहते हैं दानी की या कृपण की। इस प्रकार लुब्धक जैसे कथानकों को पढ़कर आप सभी को अति परिग्रह की वांछा का त्याग करना चाहिए क्योंकि तत्वार्थ सूत्र में भी एक सूत्र आया है—
‘‘बह्वारम्भपरिग्रहत्वं नारकस्यायुष:’’
अर्थात् बहुत आरम्भ और परिग्रह नरकायु के आस्रव के कारण हैं। अतः प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिदिन चारों दानों में से किसी एक प्रकार का दान अवश्य करके अपनी आत्मा को परमात्मा बनाने का पुरूषार्थ करना चाहिए। प्राय: देखा जाता है कि अत्यन्त परिश्रम से कमाया गया धन मनुष्य के लिए अपने पुत्र और जीवन से भी प्यारा होता है किन्तु उस धन के खर्च करने का मार्ग यदि है तो यही है कि वह धन दान के काम में लाया जाए तथा इससे भिन्न उस धन के खर्च करने का कोई भी उत्तम मार्ग नहीं है। आचार्यश्री कहते हैं कि भव्यात्माओं ! ये आज की ही बात नहीं है बल्कि भूतकाल में भी बड़े-बड़े राजाओं ने दान देकर उत्तम-उत्तम पदों को प्राप्त किया है अत: तुम भी इस बात को समझने का प्रयास करो कि धर्मात्मा गृहस्थों को मुनि आदि उत्तम पात्रों में शक्ति के अनुकूल दान देकर अपने गृहस्थपने को सफल करना चाहिए। जैसा कि स्पष्ट है कि—
शार्दूलविक्रीडित छंद—
ये मोक्ष प्रति नोद्यताः सुनृभवे लब्धेऽपि दुर्बुद्धयस्, ते तिष्ठन्ति गृहे न दानमिह चेत्तन्मोहपाशो दृढ़ः।
मत्वेदं गृहिणा यथद्र्धि विविधं दानं सदा दीयतां, तत्संसारसरित्पतिप्रतरणे पोतायते निश्चितम्।।
अर्थात् अत्यन्त दुर्लभ इस मनुष्य भव को पाकर भी जो मनुष्य मोक्ष के लिए उद्यम नहीं करते हैं तथा घर में ही पड़े रहते हैं वे मनुष्य मूढ़बुद्धि हैं और जिस घर में दान नहीं दिया जाता वह घर अत्यन्त कठिन मोह का जाल है ऐसा भली-भाँति समझकर अपने धन के अनुसार भव्यजीवों को नाना प्रकार का दान अवश्य करना चाहिए क्योंकि यह उत्तम आदि पात्रों में दिया गया दान ही संसार रूपी समुद्र से पार करने में जहाज के समान है। इत्यादि अनेक प्रकार के विद्वान् पण्डित दान की महिमा कहते हैं तथा बार-बार भव्य जीवों को यही उपदेश देते हैं कि हे भव्यों !
दान बिना निर्धन दुःखी, तृष्णावश धनवान।
कहूँ न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान।।
अर्थात् जिसके पास धन नहीं है वह तो दुःखी है ही किन्तु उससे ज्यादा दुःखी वह है जिसके पास धन है क्योंकि उसको अधिक धन पाने की लालसा बनी रहती है। जो भव्यात्मा उसी धन में से थोड़ा धन दान आदि पवित्र कार्यों में लगा देते हैं वे ही ‘‘दाता’’ कहलाते हैं। क्योंकि यह बात सत्य है कि जो सज्जन पुरुष होते हैं वे प्रतिदिन मुनि आदि उत्तम पात्रों में दान देकर ही अपने दिन को सार्थक मानते हैं। यह जरूरी नहीं है कि दान ज्यादा मात्रा में ही दिया जाए। अल्पदान से भी महाफल की महिमा का वर्णन आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी ने रत्नकरण्डश्रावकाचार में किया है—
अर्थात् अच्छी उपजाऊ भूमि में बोया गया छोटा भी बड़ का बीज बहुत बड़ा वृक्ष बन जाता है, समय पर बहुत छाया देता है और मिष्ट फल भी देता है। वैसे ही जो विधिवत् उत्तम पात्रों में यदि थोड़ा-सा भी दान देते हैं तो वह समय आने पर बहुत फल देता है और इच्छानुकूल सभी वैभव प्रदान करता है। आगे और भी दान की दृढ़ता के लिए आचार्य श्री पद्मनन्दि स्वामी कहते हैं—
बसन्ततिलका छन्द—
ये धर्मकारण समुल्लसिता विकल्पास्—, त्यागेन ते धनयुतस्य भवन्ति सत्या:।
अर्थात जिस प्रकार किसी मकान में चन्द्रकान्तमणि लगी हुई है लेकिन जब तक उसके साथ चन्द्रमा की किरणों का स्पर्श नहीं होगा तब तक उससे पानी नहीं झरता इसीलिए उसकी कोई प्रशंसा नहीं करता किन्तु जिस समय चन्द्रमा के स्पर्श होने से उससे पानी निकलता है उस समय उसकी बड़ी भारी प्रशंसा होती है उसी प्रकार धनी पुरुष के चित्त में जो जिनमन्दिर बनवाना, तीर्थयात्रा करना आदि धर्म के कारण उत्पन्न होते हैं वे बिना पात्रदान के सत्यभूत नहीं समझे जाते किन्तु पात्रदान से ही वे सच समझे जाते हैं इसीलिए गृहस्थियों को पात्रदान अवश्य देना चाहिए क्योंकि यह सब कत्र्तव्यों में मुख्य है। पुनः कहते हैं कि जो मनुष्य धन के होते हुए भी दान देने में आलस्य करता है तथा अपने को धर्मात्मा कहता है वह मनुष्य मायाचारी है और मायाचारी मनुष्यों को कौन-सी गति प्राप्त होती है यह तो आप तत्त्वार्थ सूत्र में पढ़ते ही हैं—‘‘माया तैर्यग्योनस्य’’ अर्थात् मायाचारी से तिर्यंच गति की प्राप्ति होती है और उस तिर्यंचगति में नाना प्रकार के भूख-प्यास सम्बन्धी दुःख भोगने पड़ते हैं अत: मनुष्य को कदापि मायाचारी नहीं करनी चाहिए। जहाँ तक हो सके अपने द्रव्य, ज्ञान, वसतिका आदि में यथासमय दान देकर उसका सदुपयोग करना चाहिए। जो व्यक्ति दान आदि पवित्र कार्यों में अपने धन का उपयोग नहीं करते हैं उनको ‘कृपण’ संज्ञा दी है। अब आचार्य कृपण की निन्दा करते हैं—
तस्माद्वरं बलिभुगुन्नतभूरिवाग्भिव्र्याहूत काककुल एव बिंल स भुङ्त्ते।।
अर्थात् कहीं पर यदि थोड़ा-सा भी भोजन किसी पुरुष द्वारा डाला हुआ देख लेवे तो कौवा उँचे शब्द से और दूसरे बहुत से कौवों को बुलाकर भोजन करता है किन्तु लोभी पुरुष योग्य धन पाकर भी न तो स्वयं खाता है न दूसरे को खिलाता है और न उस धन को दान में ही व्यय करता है इसीलिए लोभी मनुष्य की अपेक्षा कौवा ही उत्तम है तथा उस लोभी पुरुष का होना न होना संसार में समान है इसलिए जो मनुष्य अपने जीवन को सार्थक बनाना चाहता है उसे अवश्य उत्तम आदि पात्रों में दान देना चाहिए। आचार्यों ने तो दान की महिमा का वर्णन करते हुए यहाँ तक कहा है कि दान देने वाला ही नहीं दान की अनुमोदना मात्र करने वाला भी अनन्त सुखों का भागी होता है। चाहे वह पशु ही क्यों न हो ? इसका एक बहुत ही सुन्दर उदाहरण आदिपुराण ग्रन्थ में पढ़ने को मिलता है— एक बार (जब भगवान ऋषभदेव आठ भव पूर्व राजा वङ्काजंघ की पर्याय में थे) राजा वङ्काजंघ वन में चारणऋद्धिधारी मुनियों को नवधाभक्तिपूर्वक आहारदान दे रहे थे। उस समय उनके मतिवर नाम के मन्त्री, अकंपन नाम के सेनापति, आनन्द नाम के पुरोहित और धनमित्र नाम के सेठ, ये चारों भी प्रसन्नमना होकर आहार देख रहे थे। उसी समय अचानक कहीं से नेवला, िंसह, वानर और सूकर ये चार पशु भी आकर बड़े ही भक्तिभाव से मुनिराज का आहार देखने लगे। इन चारों पशुओं ने भी आहारदान की अनुमोदना से महान् पुण्य बाँध लिया था। आयु के अन्त में वे चारों ही मरकर भोगभूमि में आर्य हो गये। भव्यात्माओं ! दान की महिमा तो देखिए ! इतना ही नहीं आठ भवों के बाद वे चारों जीव भगवान ऋषभदेव के पुत्र हुए हैं और उसी भव से तपस्या करके मोक्ष भी गये हैं। इतनी महिमा जानने के बाद आप भी यही इच्छा करें कि मैं भी आहारदान आदि देकर अपने कर्मों को हल्का करूँ। कहने का तात्पर्य यही है कि दुर्लभ मनुष्य पर्याय को प्राप्त करने के बाद अधिक से अधिक पुण्य कार्य करके अपने नरभव को सफल करना चाहिए।
संकल्पमात्रमपि दानविधौ च पुण्यं, कुर्यादसत्यपि हि पात्रजने प्रमोदात्।।’’
अर्थात् संसार में कामभोग के लिए, धन के लिए अथवा यश के लिए किया हुआ प्रयत्न यद्यपि दैवयोग से किसी समय निष्फल हो जाता है परन्तु ‘‘उत्तम आदि पात्रों के नहीं होते भी हर्षपूर्वक दान देवेंगे’’ ऐसा दान का संकल्प ही पुण्य का करने वाला होता है इसलिए ऐसे उत्तम दान का मनुष्यों को अवश्य ध्यान रखना चाहिए। आचार्यश्री पद्मनन्दिस्वामी ने कितनी सुन्दर बात कही है कि मुनि आदि पात्रों के नहीं होने पर भी यदि मनुष्य मात्र दान की भावना ही कर लेते हैं तो भी महान पुण्य का संचय हो जाता है। कहा भी गया है—‘‘भावना भवनाशिनी होती है।’’ जो धन दान आदि कार्यों में व्यय होने के कारण तथा अपने काम में व्यय होने के कारण इस भव में तथा परभव में र्कीित तथा सुख का देने वाला हो वह धन तो अपना समझना चाहिए किन्तु जो इससे भिन्न होवे उसको दूसरे का ही समझना चाहिए। इस बात को आचार्यश्री श्लोक द्वारा समझाते हैं—
‘‘चैत्यालये च जिनसूरिबुधार्चने च।
दाने च संयतजनस्य सुदुःखिते च।।
यच्चात्मनि स्वमुपयोगि तदेव नून।
मात्मीयमन्यदिह कस्यचिदन्यपुंस:।।
अर्थात् जो धन जिनमंदिर के काम में लाया जाता है तथा जिसका उपयोग जिनेन्द्र भगवान की पूजा में, आचार्यों की पूजा में, संयमीजनों के आहारदान आदि में खर्च किया जाता है तथा जो धन दु:खितों को दिया जाता है और जो धन अपने उपयोग में लाया जाता है वह धन तो अपना समझना चाहिए किन्तु जिस धन का उपयोग ऊपर कहे हुए कार्यों में न होवे उस धन को किसी और मनुष्य का समझना चाहिए क्योंकि चिन्तकों ने कहा भी है कि धन की तीन ही गति होती हैं—दान, भोग और नाश। इनमें से सम्पत्ति को या तो दान में खर्च किया जाए या अपने भोगोपभोग में उपयोग किया जाए अन्यथा वह नाश को प्राप्त हो जाता है। संसार में उत्तम पात्र कहे जाने वाले मुनि-र्आियका नवधाभक्तिपूर्वक ही आहार ग्रहण करते हैं। नवधाभक्तिपूर्वक आहार देने से क्या फल मिलता है। इसी बात को आचार्य श्री समन्तभद्रस्वामी ने कहा है—
उच्चैर्गोत्रं प्रणते, भोगो दानादुपासनात्पूजां।
भत्ते: सुन्दर रूपं, स्तवनात्र्कीितस्तपोनिधिषु।।
तात्पर्य यह है कि तपोनिधि मुनियों को नमस्कार करने से उच्च गोत्र मिलता है, उनको दान देने से सांसारिक भोग मिलते हैं, उनकी उपासना करने से पूजा होती है, उनकी भक्ति करने से सुन्दर रूप मिलता है और उनकी स्तुति करने से र्कीित बढ़ती है। इस तरह गुरू की उपासना से सब सुख सम्पत्तियाँ प्राप्त होती हैं। प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव के ऐतिहासिक जीवन चरित्र पर दृष्टिपात करने से ज्ञात होता है कि तीर्थंकर अवस्था से आठवें भव पूर्व राजा वङ्काजंघ की पर्याय में उन्होंने मुनियों को आहारदान देकर भोगभूमि को प्राप्त किया था। उसका संक्षिप्त कथानक इस प्रकार है— राजा वङ्काजंघ ने अपनी रानी श्रीमती के साथ एक बार वन में श्रीदमधर और सागरसेन नामक चारणऋद्धिधारी मुनियों को आहारदान दिया, पुन: एक दिन वे दोनों शयनकक्ष में सो रहे थे वहाँ सुगन्धित धूप किये जाने के बाद सेवक दरवाजा खोलना भूल गए थे इसीलिए दम घुट जाने से दोनों मर गए और आहारदान के प्रभाव से भोगभूमि में आर्य-आर्या के रूप में उत्पन्न हो गये। उस भोगभूमि में मद्यांग, वादित्रांग, भूषणांग, दीपांग, ज्योतिरंग, गृहांग, भोजनांग, भाजनांग और वस्त्रांग नाम के दश प्रकार के कल्पवृक्ष होते हैं जिनसे वहाँ स्त्री-पुरुष दिव्य सुखों का उपभोग करते हैं। माता के गर्भ से एक साथ बालक-बालिका का युगल (जोड़ा) उत्पन्न होता है, उनके उत्पन्न होते ही माता—पिता को छींक और जम्भाई आकर मृत्यु हो जाती है। पुन: ४९ दिनों में ही वे बालक-बालिका युवावस्था को प्राप्त होकर पति-पत्नी के रूप में जीवन व्यतीत करने लगते हैं। वहाँ जीवन में एक बार ही माता गर्भ धारण करती है, कई बार नहीं। आर्य वङ्काजंघ और श्रीमती आर्या वहाँ दाम्पत्य का उपभोग करते हुए एक दिन कल्पवृक्षों की शोभा निहार रहे थे तभी आकाश में देवविमान जाते देखकर उन दोनों को पूर्वभव का जातिस्मरण हो गया, उसी समय स्वयंबुद्ध मंत्री का जीव जो मरकर सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ था पुन: विदेहक्षेत्र में मनुष्य पर्याय पाकर प्रीतिंकर मुनि बन गये थे, उन्होंने अपने छोटे भाई मुनि प्रीतिदेव के साथ चारणऋद्धि के बल से भोगभूमि में पहुँचकर उन आर्य-आर्या को सम्बोधन प्रदान किया कि हे आर्य! तुम लोगों ने बिना सम्यग्दर्शन के पूर्व भव में आहारदान दिया था जिससे भोगभूमि में आए हो। पुन: सम्यक्त्व की महिमा बताकर उन्हें सम्यग्दर्शन ग्रहण कराया। जिसके प्रभाव से आर्य वङ्काजंघ एवं आर्या श्रीमती ने भगवान जिनेन्द्र की भक्ति करते-करते तीन पल्य की आयु भोगने के पश्चात् जीवन के अन्त में समाधिमरणपूर्वक ईशान स्वर्ग में श्रीधर एवं स्वयंप्रभ नामक देवपद को प्राप्त कर लिया। अर्थात् आचार्यों का यह भी कहना है कि दान देने में भावों की निर्मलता भी अत्यधिक आवश्यक है, दुर्भावों से दिया गया दान किस प्रकार के फलों को देने वाला होता है इस बात को कहते हैं—
अन्यादृशेऽथ हृदये तदपि स्वभावा, दुच्चावचं भवति कि बहुभिर्वचोभि:।।
अर्थात् निर्मल भाव से उत्तम आदि पात्रों के लिए दिया हुआ दान मनुष्यों को उत्तम आदि फल का देने वाला होता है तथा जो दान मायाचार अथवा दुष्ट परिणामों से दिया जाता है वह भी नीचे—उँचे फल का देने वाला होता है। यहाँ विशेष बात यह है कि सम्यग्दृष्टि जीव यदि उत्तम पात्र को दान देता है तो उसे स्वर्ग मोक्ष आदि की प्राप्ति होती है तथा मिथ्यादृष्टि जीव यदि वही दान देता है तो उसे भोगभूमि के सुखों की प्राप्ति होती है। कुपात्र में दिया गया दान कुभोगभूमि के फल का देने वाला है अैर अपात्र में दिया गया दान व्यर्थ चला जाता है। इस प्रकार दान कुछ-न-कुछ फल अवश्य देता है इसलिए भव्य जीवों को अपने आत्महित के लिए उत्तम आदि पात्रों में निर्मल भावों से दान देकर अपने द्रव्य का सदुपयोग करना श्रेयस्कर है।