पात्रानुक्रमणिका पाकशासन काशीनरेश धर्मदत्त सेठ का पुत्र यमपाल चांडाल मंगी चांडाल की भार्या कोतवाल सिपाही का सरदार मंत्रीगण कर्मचारीगण सूरसिंह अर्हदत्त सेठ जिनदत्त सेठ नागरिकगण (काशीनगर के राजा ने नन्दीश्वर पर्व में हिंसा न करने का आदेश निकाल दिया। उसी बीच सेठपुत्र धर्मदत्त ने राजा के बगीचे में जाकर चोरी से राजा के ही मेढे को मारकर उसे कच्चा ही खा लिया। माली ने यह घटना रात्रि में अपनी भार्या को सुनाई। गुप्तचर के द्वारा राजा को बात की जानकारी प्राप्त होने पर राजा ने यमपाल चांडाल के द्वारा शूली पर चढ़ाने का हुक्म दिया। चांडाल ने किसी दिन मुनि से चतुर्दशी के दिन हिंसा नहीं करने का नियम ले रखा था अत: उसने इंकार कर दिया, तब राजा ने क्रोधित होकर कोतवाल को आदेश दिया कि धर्मदत्त और यमपाल दोनों को ले जाकर तालाब में डाल दो। तालाब में डालते ही धर्मदत्त को तो मगर ने खा लिया और यमपाल को देवों ने सिंहासन पर बिठाकर उसका अभिषेक करके उसे स्वर्ग के दिव्य वस्त्राभरणों से सम्मानित किया।)
प्रथम दृश्य
समय — मध्याह्न स्थान — चांडाल का घर (यमपाल दूर से ही कर्मचारियों को आते देख अपनी पत्नी से जल्दी-जल्दी वार्तालाप करता है।)
यमपाल — अरे सुन तो कल्लू की माँ, जल्दी सुन (मंगी इधर देखने लगती है) देख ये सिपाही लोग आ रहे हैं, अब मैं अंदर छिप जाता हूँ। तू इनसे कह देना कि मेरे पति आज कहीं बाहर गये हुए हैं।
मंगी — क्यों ? ऐसा क्यों, आज क्या खास बात आ गई जो मुँह छिपाने की सोच रहे हो ?
यमपाल — अरी तुझे क्या मालूम नहीं! एक दिन मैंने सर्वोषधिऋद्धिधारी मुनिराज के द्वारा अहिंसामयी पवित्र जिनधर्म का उपदेश सुनकर उनके पास प्रतिज्ञा ली थी कि ‘‘मैं चतुर्दशी के दिन कभी भी जीव हिंसा नहीं करूँगा’’ और आज चतुर्दशी है ना। तभी तो मैं निश्चिंत बैठा हूँ। (घबराकर अंदर कोठरी में भागते हुए) हाँ तो देख तू इनसे निपट लेना। (कर्मचारी दरवाजे पर आकर अंदर झांकते हुए)
मंगी —अजी, आज ही तो वे बाहर गये हैं, कहिये क्या काम है ?
दूसरा सिपाही — (खेद के साथ) अरे रे, बड़े दु:ख की बात है आज उसे बहुत बड़ा लाभ होने वाला था और वह गायब हो गया।
तीसरा सिपाही — (झुंझलाकर) क्या खूब रही, अरे! भाग्यहीनों की यही दशा होती है। (कर्मचारियों से) हूँ चलो, यह तो बेचारा बड़ा बदनसीब निकला।
मंगी —अरे भाई! तुम लोग आये हो तो जरा ठहरो तो सही, थोड़ा पानी वानी पी लो।
पहला सिपाही —अरी, तू यह तो बता कि यमपाल कुछ देर में आ जाएगा क्या ?
मंगी — (रुआंसी होकर) मैं क्या बताऊँ ? वे तो बड़े कर्महीन हैं जब कुछ माल-वाल मिलने का मौका आया तब टल गए। (कुछ सोचकर) भाई! यह तो बताओ आज किसको मारना था ? सरकार का क्या हुकुम था ?
पहला सिपाही —अरे! तुझे क्या मालूम ही नहीं ?
मंगी — नहीं, नहीं! हमें कैसे मालूम होेता ?
पहला सिपाही —अच्छा, तू सुन। (मंगी बैठ जाती है) इस समय गाँव में महामारी का प्रकोप चल रहा था सो तू जानती ही है।
मंगी — हाँ हाँ, सो तो मालूम है, चारों तरफ त्राहि-त्राहि मच रही है।
सिपाही —सो महाराज साहब ने ‘‘नन्दीश्वर’’ पर्व के दिनों में आजकल आठ दिन तक काशी शहर भर में हिंसा का निषेध करा दिया था। उन्होंने ढिंढोरा पिटवा दिया था कि जो आठ दिन में जीववध करेगा, उसे प्राणदण्ड दिया जायेगा।
मंगी — (उत्सुकता से) फिर क्या हुआ ?
सिपाही —अरे! फिर क्या हुआ, फिर तो जो अपने यहाँ धर्मात्मा धनदत्त सेठ है ना, सेठ।
मंगी — हाँ, हाँ, मैं उन्हें खूब जानती हूँ।
सिपाही — बस बस, उसी सेठ के लड़के ने गजब कर दिया।
मंगी — क्या किया ?
सिपाही — अरी मंगी! वह राजा के बगीचे में आ गया और खास राजा के ही मेढ़े को मारकर कच्चा ही मांस खा गया।
मंगी — अरे, अरे, बेचारे सेठ तो बड़े सज्जन हैं और उनका लड़का ऐसा ? (आश्चर्य प्रकट करती है) अच्छा! तो यह बात खुली कैसे ?
सिपाही — अरी बहन! राजा ने कोतवाल को भेद का पता लगाने के लिए कड़ा आदेश दिया और तब उसने चारों तरफ गुप्तचर भी दौड़ाए और तभी आज एक गुप्तचर ने आकर यह किस्सा सुनाया। उसने बताया कि रात्रि में बागमाली अपनी औरत से सारी आँखों देखी घटना सुना रहा था। लेकिन बेचारा माली वह तो उस सेठपुत्र से भी तो बहुत डरता है। नहीं तो उसी की नौबत आ जाएगी।
मंगी — तो फिर राजा ने क्या कहा है ?
सिपाही — अरी बहन! राजा ने तो आदेश दिया है कि यमपाल चांडाल को बुलाओ, वह उसे ले जाकर शूली पर चढ़ा दे। देख बहन! आज सेठपुत्र धर्मदत्त के इतने बेशकीमती आभूषण, रत्नों के हार, कड़े, कुण्डल और सुन्दन-सुन्दर वस्त्र उसे मिलते। अरे! (दु:ख प्रगट करते हुए) उसकी और तेरी जिंदगी भर की गरीबी खत्म हो जाती।
मंगी — हाय, हाय! (माथा धुनते हुए) मैं बड़े कम्बख्त के पाले पड़ी। मेरे नसीब में िंजदगी पर गरीबी ही देखना है। (घबराती हुई) अरे भाई! वे तो बाहर चले गए। (अंगुली के इशारे से अंदर की ओर संकेत करते हुए) अरे भाई! वे तो आज ही बाहर चले गए, तुम जब आये तभी तो गये ही हैं, बाहर गये हैं बाहर। (सिपाही संकेत समझकर अन्दर घुस जाते हैं और उसे पकड़कर बाहर लाते हैं।)
सिपाही — अरे मूरख! तू ऐसी बेवकूफी क्यों कर रहा है ? चल, चल, जल्दी चल। अच्छा हुआ जो तू यहीं था। अरे भाई! आज तेरी गरीबी समाप्त होने वाली है।
यमपाल — (हाथ छुड़ाते हुए) ना ना ना, मैं नहीं चलूँगा। (घबराते हुए) भाई, तुम मुझे छोड़ दो। मैं आज हिंसा नहीं करूँगा।
सिपाही — (आश्चर्यचकित होकर), ऐ! तू तो बड़ा धर्मात्मा बन गया। (व्यंग्य से) हाँ भाई, अब तो अिंहसा देवी को और कहीं जन्म लेने को मिला ही नहीं, तभी तो वह चांडाल के घर आकर पैदा हुई।
दूसरा सिपाही —हाँ, हाँ, खूब रही, जब जैनियों के लड़के जानवरों का कच्चा माँस खाएंगे, तब तो चांडाल ही अहिंसा व्रत की कुशल मनाएंगे।
तीसरा सिपाही — (व्यंग्य से) नहीं तो बेचारी अिंहसा का क्या होगा ? आखिर उसे भी तो अपना ठिकाना ढूँढना पड़ा।
यमपाल — देखो जी! तुम चाहे जो कुछ कहो मैं तो आज किसी को नहीं मारूंगा ? मेरा व्रत है।
सिपाही — अरे देख तो सही, धर्मदत्त के शरीर पर हीरे, माणिक के गहने लदे हैं। रत्नों का हार, हीरे की अंगूठी। भइया! करोड़ों से भी अधिक कीमती आभूषण उसके तुझे अभी-अभी मिल जाएंगे। चल चल, व्रत व्रत को आले में रख दे। बड़ा बना है धर्मात्मा। चल, नहीं तो मैं तुझे जबरदस्ती बांधकर राजा के पास ले चलूँगा। (सब मिलकर बांध लेते हैं, मंगी खुश होकर नाच उठती है।)
द्वितीय दृश्य
समय — मध्याह्न। स्थान — राजदरबार।
राजा — मंत्री महोदय! क्या बात है ? अभी तक यमपाल चांडाल नहीं आया। बहुत देर हो गई है। ये कर्मचारीगण कहाँ रुक गये ? क्या बात है ?
मंत्री — महाराज! आते ही होंगे। उसमें बहुत होशियार सूरसिंह है। भला वह समय चूकने वाला है। (द्वारपाल आता है।)
द्वारपाल — महाराजाधिराज की जय हो! (साष्टांग दंडवत् करता है, फिर हाथ जोड़कर) हुजूर! सिपाही लोग यमपाल को लेकर आये हैं, अंदर आना चाहते हैं।
मंत्री — भेज दो उन्हें। (सब प्रवेश करके राजा को नमस्कार करके एक तरफ खड़े हो जाते हैं।)
राजा — सूरिंसह! क्या बात है ? कहो, कोतवाल कहाँ है ? (क्रोध में) वे शीघ्र ही इस दुष्ट अधम पापी को यहाँ से ले जाएं, मेरी नजर से इस हिंसक दुरात्मा को जल्दी दूर करें, अरे इस यमपाल को बांध क्यों रखा है ? क्या बात है ?
सिपाही —(हाथ जोड़कर) अन्नदाता! मेरी एक छोटी सी अरदास है, आज्ञा दें तो निवेदन कर दूँ ?
सिपाही — महाराज! इस यमपाल को मैं बड़ी कठिनाई से यहाँ तक लाया हूँ। इसने बड़ी बहानेबाजी की थी। इसकी औरत होशियार थी इसलिए उसने इसे भेजने में संकेत करके मदद किया। यह ‘गांव में चले गये’ का बहाना करके कोठरी में छिप गया था।
राजा — क्यों ? यह तो बहुत बड़ा आज्ञापालक है, इसने ऐसा अपराध क्यों किया ?
सिपाही — महाराज, इसने कहा कि आज चतुर्दशी के दिन मैं जीववध नहीं करूँगा। मैंने नियम ले रखा है।
राजा — (क्रोध में भड़ककर) अरे इस नीच की इतनी हस्ती। क्यों रे, तू इस धर्मदत्त को ले जाकर शूली पर चढ़ाता है कि नहीं ?
यमपाल — (हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाकर) महाराज, मुझे क्षमा कर दें। आज चतुर्दशी के दिन मैं हिंसा नहीं करूँगा। मैंने महामुनि के पास नियम लिया है।
राजा —(कड़ककर) बस-बस। रहने दे तेरे नियम को। मेरी आज्ञा का पालन करता है या नहीं! बोल जल्दी बोल।
यमपाल — अन्नदाता! आज मैं असमर्थ हूँ।
राजा — तो ठीक है। कोतवाल! इधर आओ, तुम जल्दी से इन दोनों को मेरे सामने से ले जाओ। यह दुष्ट पापी धर्मदत्त और यह यमपाल दोनों महानीच हैं, इन्हें मगरमच्छों से भरे हुए तालाब में डालकर आ जाओ।
कोतवाल — (हाथ जोड़कर) जो आज्ञा महाराज की।
मंत्री — (उठकर) अरे यमपाल! देख तू नाहक में अपने प्राण क्यों गँवाता है। (दु:ख के साथ) ओह! बड़े आश्चर्य की बात है। तू देख तो सही तुझे आज धर्मदत्त के कितने बेशकीमती रत्नों के आभूषण मिलेंगे। अरे बेवकूफ! क्या तू भी गोद की छोड़कर पेट की आशा करता है और परोसी थाली को ठोकर मारता है। अरे मूरख! अभी कुछ नहीं बिगड़ा है, महाराज का क्रोध अभी शांत हो जाएगा। तू चल और इसे फाँसी लगा दे।
यमपाल — (दृढ़ता से) मंत्री जी! मेरे प्राण भले ही चले जाएं, मैं अपना नियम नहीं तोडूँगा। आज चतुर्दशी के दिन मैं हिंसा नहीं करूँगा। बस मैं आप सभी बड़े महापुरुषों के सामने अधिक नहीं बोल सकता हूँं।
राजा — बस-बस मंत्री जी! इस मूढ़ को अब आगे शिक्षा मत दो, इसकी होनहार अच्छी नहीं है। इसे इस पापी के साथ ही मरने दो। (कोतवाल से) कोतवाल! जल्दी करो इन दोनों को तो ले जाओ। (कोतवाल दोनों को साथ लेकर जाते हैं।)
तृतीय दृश्य
समय — मध्याह्न के बाद स्थान —तालाब का (देवगण तालाब में सिंहासन पर बैठे हुए यमपाल के चारों तरफ खड़े होकर अहिंसा धर्म की जय-जयकार कर रहे हैं और नागरिक लोग उपस्थित होकर चर्चा कर रहे हैं।)
अर्हद्दास —देखो बंधु! जैनधर्म की महिमा अपरम्पार है। धन्य है, यह चांडाल धन्य है, इसने नीचकुल में जन्म लेकर भी आज देवों के द्वारा पूजा को प्राप्त कर लिया है।
जिनदत्त — हाँ मित्र! देखो तो सही, यह धनदत्त सेठ का लड़का धर्मदत्त जैनी होकर भी इस तालाब में मगर के मुख में चला गया।
अर्हदत्त —ओह! बेचारे की कैसी कुमृत्यु हुई। बेचारे सेठजी तो गाँव में मुँह दिखाने लायक भी नहीं रहे।
जिनदत्त —भाई! सन्तान दुर्व्यसनी हो जाये तो माँ-बाप क्या करें ? अरे भाई! देखो तो सही, प्रत्यक्ष में धर्म का फल कैसा होता है ? और पाप का फल कैसा होता है ? प्रत्यक्ष में देखो। देवगणों ने कितनी भक्ति से यमपाल चांडाल को सिंहासन पर बिठाकर उसका अभिषेक करके उसे कितने सुन्दर स्वर्ग के वस्त्रों और आभूषणों से सुसज्जित किया है। (राजा मंत्रियों और कर्मचारियों के साथ वहाँ आता है)।
राजा — जय हो, अहिंसा धर्म की जय हो। (दु:खी स्वर में) मंत्रिन्! मैंने आज बहुत अन्याय कर डाला। ओह! क्रोध में आकर मैंने कुछ नहीं सोचा। अरे भाई! इस यमपाल ने तो जब मुनि महाराज के पास चतुर्दशी को हिंसा नहीं करने का नियम लिया था तो मैंने व्यर्थ ही बेचारे को सताया। ओह! मेरे द्वारा बड़ा अनर्थ हो गया।
मंत्री — महाराज! अब आप सोच न करें, जो होता है सो अच्छे के लिए होता है। अगर आप इसे तालाब में न डलवाते तो इस समय देवताओं को धर्म के चमत्कार को दिखाने का अवसर कैसे मिलता ? बहुत ही अच्छा हुआ महाराज! आज इस अहिंसा व्रत के प्रभाव को देखकर आपके काशी शहर की कितनी जनता जैनधर्म स्वीकार कर रही है। देखो तो सही महाराज! नागरिकों की भीड़ उमड़ती चली आ रही है। जब एक चांडाल जैसा हिंसक प्राणी भी एक दिन के अिंहसाव्रत से देवों द्वारा पूजा जा सकता है, तब जो हमेशा-हमेशा के लिए हिंसा नहीं करते हैं, मांस नहीं खाते हैं उन्हें कितना उत्तम फल मिलेगा ? (महाराज यमपाल से क्षमायाचना करते हैं।)
राजा — यमपाल! तू पुण्यशाली है मैंने आवेश में तुझे व्यर्थ ही दण्ड दिया सो क्षमा कर।