माता-बेटी सुधा, देवियों के सामने बलि देने की प्रथा कब से चली? सो मैं तुझे सुनाती हूँ।
सुधा-हाँ माँ, सुनाओ मैं भी ध्यान से सुनूँगी।
माता–किसी समय आर्यिकाओं का संघ भगवान की जन्म, दीक्षा और निर्वाण कल्याणक भूमियों में विहार कर रहा था। उसमें से एक आर्यिका अपनी सहधर्मियों के साथ विन्ध्याचल के विशाल वन में जा पहँुची। रात्रि के समय एक आर्यिका निर्विकल्पचित्त हो प्रतिमायोग से ध्यान में लीन हो गई। उसी समय किसी बहुत बड़े धनी संघ पर आक्रमण करने के लिए रात्रि के समान काले भीलों की बहुत बड़ी सेना वहाँ आयी। उस आर्यिका को देखकर यहाँ कोई वन देवी विराजमान हैं। ऐसा समझकर सैकड़ों भीलों ने उसे नमस्कार कर यह वरदान माँगा कि हे देवी! आपके प्रसाद से यदि निरुपद्रव रहकर हम लोगों को बहुत सा धन मिलेगा तो हम आपके पहले दास होंगे।
इस प्रकार मनोरथ बाँधकर वे भील लोग चले गये और बहुत बड़े एक यात्रियों के संघ पर धावा बोल दिया। उन्हें मार-पीटकर, लूटकर वे बहुत-सा धन संग्रह करके कृतार्थ होते हुए वहाँ आये।
इधर यह घटना घटी थी कि जब भील लोग आर्यिका के दर्शन कर चले गये तब वहाँ एक सिंह आया और ध्यान में स्थित उस आर्यिका पर घोर उपसर्ग शुरू कर दिया। उपसर्ग देख आर्यिका ने बड़ी शान्ति से समाधि धारण कर ली और शरीर से निर्मम होकर मरणपर्यन्त के लिये चतुराहार का त्याग कर दिया। तदनन्तर प्रतिमायोग से ही मरण कर वे स्वर्ग चली गर्इं। निरन्तर धर्म का उपार्जन करने वाली एवं समाधि में स्थिर रहने वाली उस आर्यिका का शरीर सिंह ने अपने नख-मुख और दाँतों से विदीर्ण कर डाला था। तथापि उसके हाथ की वहाँ तीन अँगुलियाँ शेष बच रही थीं।
भीलों ने वहाँ आकर उस देवी के स्थान पर चारों तरफ उसे ढूँढना शुरू किया। तब वहाँ खून से लिप्त भूमि को देखा। उन्हें वह देवी (आर्यिका) नहीं दिखी तथा वे शेष बची तीन अंगुलियाँ दिखाई दीं। तब अन्त में उन भीलों ने यह निर्णय किया कि हमें वरदान देने वाली वह देवी रुधिर से ही संतुष्ट होती है। इसलिये उन व्रूर भीलों ने शेष तीन अंगुलियों को वहीं देवतारूप में विराजमान कर दिया और बड़े-बड़े जंगली भैंसों को मारकर खून एवं माँस की बलि चढ़ाना शुरू कर दिया। इस बलिदान से वहाँ मक्खियाँ और मच्छर भिनभिनाने लगे। वह स्थान आँखों के लिए भयंकर हो गया तथा अत्यन्त दुर्गन्धि चारों तरफ पैâल गई। यद्यपि वह आर्यिका परम दयालु थी, उपचार से महाव्रतों का पालन करने वाली निष्पाप थी और तप के प्रभाव से उत्तम गति को प्राप्त हुई थी। फिर भी पापी धूर्त उसको निमित्त बनाकर भैंसा आदि निरपराध पशुओं की बलि चढ़ाने लगे और आज तक भी उन भीलों द्वारा प्रदर्शित बलि प्रथा चली आ रही है।
सुधा-हे माँ! आज लोग तो पुत्र या धन आदि की प्राप्ति के लिये या मनोरथ सिद्धि के लिये बलि करते हैं।
माता–बेटा, यह कल्पना वैसे ही पापपूर्ण है कि जैसे कोई जीवित रहने की इच्छा से हालाहल विष पी ले या तलवार से अपनी गर्दन काट ले। क्या कहीं जीव िंहसा से भी आज तक कोई सुखी या सम्पन्न हुए हैं?
सुधा-माँ, जब अपने सच्चे मुनि या आर्यिका आदि के निमित्त से लोग पापकर्म उपार्जित कर लेते हैं तो क्या उन मुनि आदि को भी दोष लगता है?
माता–नहीं बेटा, उन्हें क्यों दोष लगेगा? देखो! भगवान आदिनाथ के समय चार हजार राजा दीक्षित होकर भ्रष्ट हुए थे। राजा श्रेणिक ने मुनिराज के गले में मरा सर्प डालकर नरक आयु बाँध ली थी। इन सभी बातों से तुम यही समझो कि जो जैसा करता है, उसको वैसा ही फल मिलता है।