मंजुला-त्रिशला! आर्यिका श्रीज्ञानमती माताजी ने एक बार उपदेश में कहा था कि न्यायशास्त्र कसौटी के पत्थर हैं। सो मेरी समझ में नहीं आया अत: तुम्हीं बताओ क्योंकि तुम भी तो आजकल न्यायसार का स्वाध्याय कर रही थीं।
त्रिशला-हाँ सुनो! मंजुला, मैं तुमको बताती हूँ। जैसे भैय्या दुकान पर कसौटी के पत्थर पर सोने को घिसकर असली-नकली की परीक्षा किया करते हैं वैसे ही न्याय कसौटी का पत्थर है। इस पर प्रमाण, नय, वस्तु, तत्त्व आदि को कसकर समझा जाता है। अरे और तो क्या, देखो! श्री समन्तभद्र स्वामी ने तो साक्षात् आप्त-सर्वज्ञ भगवान की ही परीक्षा कर डाली थी और सच्चे आप्त की परीक्षा करके उन्हें नमस्कार किया जिसका ‘अष्टसहस्री ग्रन्थराज’ में सुन्दर विवेचन है।
मंजुला-मैं इतने ऊँचे ग्रन्थ को तो समझ नहीं सकती अत: हमारे पढ़ने योग्य छोटे-छोटे ग्रन्थों के नाम बताओ। पहले मैंने ‘न्यायदीपिका’ और ‘परीक्षामुख’ पढ़ा था, मुझे तो कुछ समझ में आया नहीं। अब ऐसा कुछ उपाय बताओ जिससे मुझे भी इन विषयों में रुचि जागृत हो।
त्रिशला-हाँ सुनो, सबसे पहले तुम अब ‘देवागम स्तोत्र’ पढ़ो और साथ ही ‘न्यायसार’ हिन्दी का स्वाध्याय भी कर लो, तुम्हारी रुचि बढ़ जायेगी।
मंजुला-त्रिशला, हमें कुछ अपने अनुभव की खास-खास बातें समझा दो तो और रुचि बढ़ जायेगी।
त्रिशला-सुनो! तुम्हें मजेदार बात सुनाएँ। बौद्ध असत्कार्यवादी है। वह कहता है कि कारण का जड़मूल से विनाश होकर ही कार्य बनता है जैसे घड़ा बनाने के लिये कुम्हार ने मिट्टी को चाक पर चढ़ाया और जब घड़ा बनने वाला था तब मृिंत्पड का जड़मूल से समूल-चूल नाश हो गया और घड़ा बन गया। ऐसे ही बीज का जड़मूल से नाश होकर अंकुर होता है। सूत के धागों का जड़मूल से नाश होकर वस्त्र बनता है। चावल का जड़मूल से सर्वनाश होकर भात बनता है और यहाँ तक कि तुम रोटी बनाती हो तो उसमें आटे का पूर्णतया सत्यानाश होकर रोटी बनती है। कहो, क्या तुम्हें यह बात जँचती है?
मंजुला-नहीं, बिल्कुल नहीं जँचती है। मैं तो यह समझ रही हूँ कि यह मिट्टी की घटरूप परिणति हुई। ऐसे ही धागे ही मिलकर वस्त्र बने हैं, बीज का ही अंकुर हुआ है तथा चावल ही पककर भात बना है और आटे की ही रोटी तैयार हुई है।
त्रिशला-इसलिये आचार्यों ने उस सिद्धान्त का खण्डन किया है।
मंजुला-क्या किसी के मत का खण्डन करना आचार्यों का कत्र्तव्य है। अरे! किसी से द्वेष क्यों करना? वे बेचारे अपनी दृष्टि से मान रहे हैं, ठीक है।
त्रिशला-मंजुला, ऐसी बात नहीं है। आचार्यों के प्रति अपने को ऐसा सोचना ही नहीं चाहिये। यह तो छोटे मुँह बड़ी बात वाली कहावत है, क्योंकि आचार्य महान पापभीरू, सर्वप्राणियों के सच्चे हितैषी और भावलिंगी,महाव्रती, सच्चे साधु थे। दूसरी बात यह है कि मिथ्या धारणा का खण्डन करना धर्म ही नहीं परम धर्म है अन्यथा लोग भटकते ही रहेंगे। क्या यदि कोई क्रोधादि कषाय से कुए में गिरने वाला हो तो तुम उसे नहीं रोकोगी?
मंजुला-अवश्य रोकूगी। यहाँ तक कि उसका हाथ पकड़कर समझाउँगी।
त्रिशला-वैसे ही अज्ञानी प्राणी मिथ्यात्व कर्म के उदय से और मान कषाय से विपरीत धारणा से संसाररूपी समुद्र में डूब रहे हैं। आचार्यों ने करुणा बुद्धि से उन्हें गलत मान्यता को छोड़ने का उपदेश देकर अनेकों युक्तियों से उन्हें समझाया है। इन युक्तियों का नाम ही न्यायशास्त्र अथवा तर्कशैली है।
मंजुला-अच्छा! तो फिर बौद्धों की मान्यता के बाद औरों ने इस कारण- कार्य की व्यवस्था को कैसे माना है?
त्रिशला-सांख्य सत्कार्यवादी है। वह कहता है कि कारण में कार्य हमेशा ही विद्यमान रहता है। कुम्हार ने चाक पर मिट्टी को चढ़ाया तो क्या किया? वास्तव में उसने घड़े को प्रकट कर दिया। कुम्हार ने घड़े को बनाया नहीं है क्योंकि मिट्टी में घड़ा सदैव विद्यमान ही रहता है। ऐसे ही बीज में अंकुर हमेशा मौजूद रहता है किसान केवल प्रगट कर देता है। चावल में भात पहले से ही मौजूद था तुमने क्या किया? चूल्हे पर चढ़ाकर प्रगट कर दिया।
मंजुला-यह तो बहुत ही विचित्र बात है। यदि पहले ही मिट्टी में घड़ा मौजूद रहता है तो कभी दिखना भी चाहिये। बड़े विचित्र सिद्धान्त हैं। अच्छा अब यह बताओ कि जैनाचार्य क्या कहते हैं?
त्रिशला-हाँ सुनो! जैनाचार्यों ने इनका भी खण्डन बलपूर्वक अकाट्य युक्तियों से किया है। अनन्तर समझाया है कि कारण में कार्य शक्तिरूप में विद्यमान है जैसे कि दूध में घी, संसारी आत्मा में परमात्मा आदि। पुन: निमित्त मिलने से उपादान कारण कार्यरूप परिणत हो जाता है जैसे मिट्टी ही घटरूप परिणत हुए, चावल ही भातरूप परिणत हुए हैं इसलिये कारण का समूलचूल नाश होकर भी कार्य नहीं बनता है और कारण में कार्य सर्वथा विद्यमान भी नहीं रहता है। मिट्टी के पिंडरूप पर्याय का नाश हुआ किन्तु मिट्टीरूप द्रव्य का नाश नहीं हुआ है ऐसे ही मृिंत्पडरूप कारण में घट मिट्टी के द्रव्यरूप में विद्यमान है। घट पर्याय रूप से नहीं है। वास्तव में एक पर्याय का नाश होकर दूसरी पर्याय का उत्पाद होता है और मिट्टीरूप द्रव्य दोनों अवस्थाओं में ध्रौव्य रूप से विद्यमान रहता है।
मंजुला-यह उपादान कारण क्या है?
त्रिशला-कारण के दो मुख्य भेद हैं-एक उपादान कारण, दूसरा निमित्त कारण। जैसे कि घट को बनाने में मिट्टी तो उपादान कारण है तथा कुम्भकार, चाक आदि निमित्त कारण हैं। इन दोनों के बिना भी कार्य नहीं हो सकता है इसलिये उपादान कारण अर्थात् मिट्टी ही कुम्हार के निमित्त से घटरूप बना है। वास्तव में उस मिट्टीरूप कारण में घटरूप बनने की शक्ति मौजूद थी अन्यथा वह घड़ा नहीं बन सकता था। यहाँ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य को समझो। मिट्टीरूप पूर्व पर्याय का विनाश और घटरूप उत्तर पर्याय का उत्पाद तथा दोनों अवस्थाओं में मिट्टी की स्थिति रहना। इसी का नाम उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य है। जैसे-जीव की मनुष्य पर्याय का उत्पाद, देव पर्याय का विनाश और दोनों अवस्थाओं में जीवत्व का ध्रौव्य रहना। इसलिये कथंचित् पर्याय का विनाश अवश्य हुआ है किन्तु मिट्टी द्रव्य का विनाश नहीं हुआ है। ऐसे कथंचित् कारण में कार्य अवश्य है किन्तु वह शक्तिरूप से है, व्यक्त नहीं है। कुम्हार आदि निमित्त कारण घड़े को बनाते हैं न कि प्रगट करते हैं।
मंजुला-आज हमें खूब अच्छा समझ में आया है। ऐसे ही तुम मुझे कभी-कभी कुछ-कुछ खास बातें बतला दिया करो तो बहुत ही अच्छा होगा।
त्रिशला-ठीक है, तुम स्वयं भी पढ़ो। जब शंका हो, समझने की कोशिश करो और हम लोगों से प्रश्न करो तो और भी अच्छा रहेगा।