आपके समक्ष एक नया किन्तु आगमानुसार अत्यन्त प्राचीन विषय प्रस्तुत है जिसे आज कुछ अध्यात्मवादी आत्मा से सम्बन्धित विषय न मानकर लोप करने में लगे हुए हैं, वह है—सूतक और पातक।
सूतक क्या है ?
सन्तान का जन्म होने के पश्चात् जो घर वालों को एवं कुटुम्बियों को कुछ कालावधि के लिए देवपूजा, आहारदान आदि कार्य किए जाते हैं उसी का नाम सूतक है। इसे राजस्थान में ‘‘सावड़’’ कहते हैं। महाराष्ट्र में ‘‘वृद्धि’’ कहते हैं तथा उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, हरियाणा आदि में ‘‘सूतक’’ नाम से ही जाना जाता है।
पातक किसे कहते हैं ?
किसी के मरण के बाद परिवार वालों को जो अशौच होता है उसे ‘‘पातक’’ संज्ञा है। यह सूतक-पातक आर्षग्रन्थों से मान्य है। व्यवहार में जन्म-मरण दोनों के अशौच को ‘‘सूतक’’ शब्द से जाना जाता है।
सूतक पातक पालने की विधि—
अपने जातीय बन्धुओं में प्रत्यासन्न और अप्रत्यासन्न ऐसे दो भेद होते हैं। चार पीढ़ी तक के बंधुवर्ग प्रत्यासन्न या समीपस्थ कहलाते हैं, इसके आगे अप्रत्यासन्न कहलाते हैं। जन्म का सूतक चार पीढ़ी वालों तक के लिए १० दिन का है। पाँचवी पीढ़ी वालों को छह दिन का, छठी पीढ़ी वालों को चार दिन का और सातवीं पीढ़ी वालों को तीन दिन का है। इससे आगे वाली पीढ़ी वालों के लिए सूतक नहीं है। इसी प्रकार मरण का सूतक भी चार पीढ़ी वालों के लिए दस दिन का तथा पाँचवी पीढ़ी आदि के लिए जन्म के समान घटता हुआ माना गया है।
सूतक पातक का परस्पर में अन्तर्भाव भी हो जाता है।
जन्म के सूतक के बीच में यदि मरण का पातक आ जावे तो वह जन्म के सूतक के साथ समाप्त हो जाता है, ऐसे ही मरण के पातक के मध्य यदि जन्म का सूतक आ जावे तो वह पातक के साथ ही समाप्त कर दिया जाता है। इसमें यह विशेष ध्यान देने योग्य है कि जन्म का सूतक यदि पाँच, छह दिन का हो चुका है पुनः परिवार में किसी का जन्म हो जाय तो वह सूतक पहले वाले सूतक के साथ ही समाप्त हो जाता है। यदि पहले सूतक के अन्तिम दिन किसी का जन्म आदि होवे तो दो दिन सूतक और मान लेना चाहिए, यदि पहला सूतक समाप्त होने के दूसरे दिन बाद सूतक लगे तो तीन दिन का सूतक और मानना चाहिए।
क्या परदेश में रहने वाले कुटुम्बियों को सूतक लगता है ?
देश के किसी भाग में अथवा विदेश में भी रहने वाले लोगों को उपर्युक्त प्रकार से ही अपने परिवार में किसी का जन्म अथवा मरण का समाचार ज्ञात होते ही शेष दिनों का सूतक अवश्य पालना चाहिए क्योंकि खून के सम्बन्ध सूतक—पातक विधि गृहत्याग करने से पूर्व पालन करना आवश्यक होता है अन्यथा जिनेन्द्राज्ञा का लोप होने से अपने संसार की वृद्धि होती है। संहिताशास्त्रों में यहाँ तक वर्णन आया है कि पूरे देश में रहने वालों को यदि परिवार में १० दिन का सूतक समाप्त होने के पश्चात् उस सूतक का समाचार प्राप्त होता है तो उन्हें तीन दिन का अशौच मानना चाहिए। अगर एक वर्ष बाद मरण समाचार ज्ञात हो तो स्नानमात्र के द्वारा शुद्धि माननी चाहिए।
सूतक पातक शत्रुतावश भी समाप्त नहीं किए जा सकते हैं।
यदि अपने कुटुम्बी परिवारों में किसी कारणवश पारस्परिक वैर हो गया है तो भी उन्हें एक-दूसरे का सूतक-पातक अवश्य पालन करना चाहिए। ऐसा नहीं करने से वे प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। हाँ, इतना अवश्य इस प्रकरण में विशेष ज्ञातव्य है कि परिवार के किसी सदस्य ने यदि कोई धर्मविरुद्ध, जाति विरुद्ध या कुल परम्परा के विरुद्ध महान् अनैतिक कार्य किया है और माता-पिता आदि परिवारीजनों के द्वारा यदि उसका परिवार से बहिष्कार घोषित कर दिया गया है तो उसका सूतक-पातक कुटुम्बीजनों को नहीं मानना चाहिए किन्तु आजकल यह व्यवस्था अपनी कुल परम्परानुसार पालन करना अति आवश्यक है।
आत्मघात करने वालों के परिवार का पातक कैसे समाप्त हो ?
यदि परिवार के किसी सदस्य ने किन्हीं निमित्तों से विष खाकर, नदी—तालाब में कूदकर, जलकर, फाँसी का फन्दा आदि लगाकर आत्महत्या कर ली हो जो उनके परिवारीजनों को १० दिन के पातक के साथ ही छह माह का पातक मानना पड़ता है। इसके विरुद्ध यदि आत्मघात करने वाले के कुटुम्बीजन ऐसा न मानकर दस-बारह दिन के बाद दान-पूजा आदि क्रियाएँ पूर्ववत् करना प्रारम्भ कर देते हैं तो वे प्रायश्चित्त के भी भागी होते हैं तथा जिनमंदिरों में उन्होंने पातक के मध्य अभिषेक-पूजन किया है उन प्रतिमाओं की समाज द्वारा किसी योग्य विद्वान के निर्देशन में शुद्धि की जानी चाहिए। इस विषय में श्री गुणभद्राचार्य का निम्न कथन अनुकरणीय है—
आत्मानं घातयेद्यस्तु, विषशस्त्राग्निना यदि।
वर्षादूध्र्वं भवेत्तस्य प्रायश्चित्तं विधानतः।।
अर्थात् जो विष, शस्त्र, अग्नि आदि के द्वारा आत्मघात कर स्वेच्छा से मरण को प्राप्त होता है वह सीधा नरक को जाता है। ऐसे मनुष्य को देश और काल के भय से दाह संस्कार नहीं कर सकते हों तो राजा आदि की आज्ञा लेकर उनकी दाह क्रिया करना चाहिए। एक वर्ष बाद शांति विधि करके उसका विधिपूर्वक उपवास आदि प्रायश्चित्त ग्रहण करें। प्रायश्चित्त के प्रकरण में वर्तमान में यह भी देखा जा रहा है कि आत्महत्या करने वाले के कुटुम्बीजन दस दिन के पश्चात् प्रायश्चित ग्रंथों के किसी जानकार वरिष्ठ दीक्षित साधु या साध्वी के पास जाकर तत्सम्बन्धी प्रायश्चित्त ग्र्रहण कर लेते हैं तो छह माह का सूतक प्रायश्चित द्वारा पहले भी समाप्त हो जाता है।
‘‘पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी कई बार बताया करती हैं कि गुरुओं के मुख से मैंने कई बार सुना है अत: उन्होंने भी अनेक श्रावक—श्राविकाओं को प्रायश्चित प्रदान किया है।’’ ऐसा मैंने देखा है। यहाँ तात्पर्य यह है कि कर्मभूमि के मनुष्यों को अन्य अनेक सांसारिक क्रियाओं के साथ—साथ सूतक—पातक क्रिया को आगम में कथित जिनेन्द्राज्ञा मानकर पालन करना चाहिए।
सूतक किन्हें नहीं लगता है ?
दिगम्बर मुनि आदि तपस्वियों को जन्म और मरण का सूतक नहीं लगता है और तपस्वियों का मरण होने पर उनके परिवार वालों को भी सूतक नहीं लगता है। राजा के घर में पुत्र जन्म होने पर उनकी स्नान मात्र से शुद्धि हो जाती है। राजाओं को सूतक नहीं लगता है। गर्भ से लेकर मरण पर्यन्त मनुष्यों में सोलह संस्कार करने की शास्त्रोक्त परम्परा है। ‘‘षोडश संस्कार’’ नामक पुस्तक में भी इस सम्बन्ध में उपर्युक्त प्रमाण ही मिलता है। त्रिलोकसार जैसे महान ग्रंथ में भी लिखा है—
दुब्भावअसुइसूदकपुप्फवई जाइसंकरादीहिं।
कयदाणा वि कुवत्ते जीवा कुणरेसु जायंते।।९२४।।
दुर्भाव, अशुचि, सूतक, पुष्पवती स्त्री, जातिसंकर आदि से सहित पुरुष या स्त्री यदि दान देते हैं—आहारदान देते हैं और सही श्रावक भी यदि कुपात्र में दान देते हैं तो वे कुभोगभूमि में उत्पन्न होते हैं। इस प्रकरण से जैसे दान का सूतक वालों के लिए निषेध है वैसे ही देवपूजा का भी निषेध समझना चाहिए। श्री गुणभद्रस्वामी ने भी लिखा है—
अतिदुर्भिक्षशस्त्राग्नि जलपातादिना मृतौ।
प्रायिश्चत्तं तु पुत्रादेस्तदानीमिदमिष्यते।।११८।।
पीड़ा, दुर्भिक्ष, शस्त्र, अग्नि, जल में डूबना आदि से मरने पर उनके पुत्र आदि को प्रायश्चित माना गया है। अत: सूतक—पातक की सम्पूर्ण परम्परा को श्रद्धापूर्वक पालन करके श्रावकों को अपना गार्हस्थ्य जीवन निर्दोष एवं मोक्षमार्गी बनाना चाहिए। सूतक या पातक के दिनों में गन्धोदक भी न तो छूना चाहिए और न दूसरे से लेकर गन्धोदक लगाना चाहिए।