समस्त जैन सम्प्रदाय तथा जैनशास्त्र इस विषय में एकमत हैं कि जैनधर्म के आद्य प्रवर्तक भगवान ऋषभदेव और अंतिम प्रवर्तक भगवान महावीर थे।
जैनों की इस मान्यता के समर्थक जहाँ हिन्दू पुराण साहित्य हैं वहीं ऐतिहासिक अभिलेख भी इसके प्रत्यक्ष साक्षी हैं अत: यहाँ उनकी ऐतिहासिकता के परिज्ञान हेतु जैन ग्रंथानुसार भगवान ऋषभदेव का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया जा रहा है— कालचक्र की शृंखला में अवसर्पिणी युग का तृतीय काल चल रहा था, जब धरती का मानव भोगप्रधान जीवन जी रहा था एवं कल्पवृक्षों से समापन की बेला प्रारंभ होने वाली थी, उस समय अयोध्या के महाराज नाभिराज की महारानी मरुदेवी ने चैत्र कृष्णा नवमी के दिन प्रथम तीर्थंकर भगवान के रूप में ‘‘ऋषभदेव’’ नामक पुत्र को जन्म दिया।
उन्होंने अनेक दिव्य विभूतियों को प्राप्त करके कुमार अवस्था में प्रजा के लिए कर्मभूमि की व्यवस्था बतलाते हुए असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन छह क्रियाओं के द्वारा जीवन जीने की कला सिखाई।
पुन: ऋषभदेव ने यशस्वती-सुनंदा नामक दो कन्याओं के साथ विवाह करके धरती पर विवाह परम्परा का दिग्दर्शन कराया एवं प्रथम राजा के रूप में उन्होंने धर्मनीतिपूर्वक राज्य का संचालन कर बावन देशों में अलग-अलग राजाओं को विभक्त करके उन्हें कुशल राजनीति का उपदेश दिया।
सृष्टि की व्यवस्थाओं को प्राथमिक रूप से बतलाने के कारण उन्हें आद्रिब्रह्मा, आदिनाथ, पुरुदेव, वृषभदेव, प्रजापति आदि नामों से भी जाना जाता है। संसार परम्परा की व्यवस्थानुसार उनकी दोनों रानियों से भरत-बाहुबली आदि एक सौ एक पुत्र एवं ब्राह्मी-सुंदरी नामक दो पुत्रियों का जन्म हुआ। इनमें से प्रथम पुत्र भरत जी चक्रवर्ती सम्राट बने और उनके नाम पर ही इस देश का नाम ‘‘भारतवर्ष’’ पड़ा।
श्री जिनसेनाचार्य रचित आदिपुराण ग्रंथ के अनुसार
श्री जिनसेनाचार्य रचित आदिपुराण ग्रंथ के अनुसार तिरासी लाख पूर्व वर्षों तक राजा ऋषभदेव ने राजसुख का उपभोग किया पुन: एक दिन वे राजसिंहासन पर आसीन थे और उस राजसभा में नीलांजना नामक देवअप्सरा नृत्य करते-करते मृत्यु को प्राप्त हो गई पुन: वहाँ उसी समय दूसरी अप्सरा उपस्थित होकर नृत्य करने लगी।
इस रहस्य को कोई सभासद तो जान नहीं सके किन्तु दिव्य अवधिज्ञानी राजा ऋषभदेव संसार की क्षणभुंगरता ज्ञातकर वैराग्यभाव को प्राप्त हो गये और उन्होंने चैत्र कृष्णा नवमी को प्रयाग के सिद्धार्थ वन में जाकर वटवृक्ष के नीचे जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली पुन: एक वर्ष उनतालिस दिन के उपवास के पश्चात् वैशाख शुक्ला तृतीया के दिन उनका प्रथम आहार हस्तिनापुर के राजा श्रेयांस के महल में हुआ था तभी से वह दिवस ‘‘अक्षय तृतीया’’ पर्व के रूप में जाना जाता है।
दीक्षा के पश्चात् भगवान ऋषभदेव एक हजार वर्ष तप करके ‘‘पुरिमतालपुर’’ नगर के उद्यान में फाल्गुन कृष्णा एकादशी के दिन केवलज्ञान को प्राप्त कर पृथ्वी से बीस हजार हाथ ऊपर अधर आकाश में पहुँच गये थे, जहाँ धनकुबेर ने समवसरण की रचना कर दी और उस नगर के राजा ‘‘वृषभसेन’’ ने भगवान के पास पहुँचकर दीक्षा ग्रहण कर प्रथम गणधर का पद प्राप्त कर लिया।
ऋषभदेव ने समवसरण में असंख्य भव्य प्राणियों को उपदेश प्रदान कर नब्बे हजार पूर्व वर्ष का काल व्यतीत कर ‘‘माघ कृष्णा चतुर्दशी’’ के दिन कैलाशपर्वत से मोक्ष प्राप्त कर लिया। उसके पश्चात् इस धरती पर भगवान अजितनाथ से लेकर महावीर तक तेईस तीर्थंकरों ने जन्म लेकर इस तीर्थंकर परम्परा का प्रद्योतन किया अर्थात् जैनधर्म के चौबीस तीर्थंकरों में से प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव हुए एवं अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी हुए, जिनके वर्तमान शासन में हम सभी जीवनयापन कर रहे हैं।
प्राचीनकाल से ही भारत देश एक धर्मप्रधान
प्राचीनकाल से ही भारत देश एक धर्मप्रधान देश के रूप में संसार का गुरू माना जाता रहा है क्योंकि उसी ने सदा से दुनिया को धर्म का स्वरूप बतलाया है इसलिए वह महान कहलाता है। धर्म ही भारत की आत्मा है, उसका सम्बल है, धर्म से निरपेक्ष (उदासीन) रहकर यह देश कभी सुखपूर्वक जीवन जी नहीं सकता है।
भारत के संविधान में ‘‘सैक्यूलर’’ शब्द को धर्मनिरपेक्ष के रूप में न लेकर सम्प्रदायनिरपेक्ष लेना चाहिए अर्थात् इस देश का शासन किसी भी सम्प्रदाय के साथ पक्षपात नहीं करेगा। देश में पुष्पवाटिका के समान अनेक सम्प्रदाय हैं और शासन की दृष्टि में सभी समान हैं।
भारत के अति अर्वाचीन वर्तमान इतिहास में यहाँ के सार्वभौम सम्राट के रूप में ‘‘चन्द्रगुप्त मौर्य’’ को स्वीकार किया गया है किन्तु देश के संविधान निर्माताओं में प्रमुख बैरिस्टर चम्पतराय जैन भी रहे हैं उन्होंने सन् १९३५ में अपने द्वारा लिखित पुस्तक RISHABHA DEVA”
The Founder of Jainism के अंदर उल्लेख किया है— The one towering personality at the birth of pre-historic history of the Aryan race is Rishabha Deva. According to the Hindus he flourished 28 great yugas (millions of years) ago. His son was Bharat, the first great Emperor, after whom India came to be known as Bharat Varsha.
अर्थात् आर्य जाति के प्रागैतिहासिक इतिहास के उद्भव काल के एक उन्नत व्यक्तित्व हैं—ऋषभदेव। हिन्दुओं के अनुसार वह २८ महायुगों (दसों लाख वर्ष) पूर्व अवतरित हुए। उनके पुत्र थे भरत, जो प्रथम महान सम्राट हुए तथा जिनके नाम पर भारत को भारतवर्ष के रूप में जाना जाने लगा। महापुरुषों के सिद्धांत सदैव प्रासंगिक होते हैं—
उपर्युक्त चौबीसों तीर्थंकर अपने अमर सिद्धांतों
उपर्युक्त चौबीसों तीर्थंकर अपने अमर सिद्धांतों को छोड़कर निर्वाणधाम को प्राप्त हो गये जो आज भी प्रत्येक प्राणी के लिए उतने ही प्रासंगिक हैं जितने पूर्व में थे।
कुछ नये युग के इतिहासकारों ने जैनधर्म की प्राचीनता का रहस्य ठीक से न जानकर उसे अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी द्वारा संस्थापित मान लिया है जिससे जनमानस में भ्रांति उत्पन्न हुई है।इस भ्रांति के निराकरण हेतु परम पूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ने देश-विदेश तक प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के सर्वोदय सिद्धांतों को पहुँचाने की प्रेरणा प्रदान की।
प्रेरणा की उस श्रृंखला को सक्रिय आयाम मिला ९ अप्रैल सन् १९९८ को महावीर जन्मजयंती के दिन, जब भारत के प्रधानमंत्री श्री अटलबिहारी वाजपेयी ने राजधानी दिल्ली से ‘‘भगवान ऋषभदेव समवसरण श्रीविहार’’ रथ को देश भर में भ्रमण हेतु प्रवर्तित किया था। जिसने अद्यावधि पूरे देश में भगवान ऋषभदेव के सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह एवं विश्वमैत्री आदि सर्वोदयी सिद्धांतों का प्रचार-प्रसार किया।
पुन: अक्टूबर सन् १९९८ में आयोजित ‘‘भगवान ऋषभदेव राष्ट्रीय कुलपति सम्मेलन’’ के द्वारा शिक्षाजगत् के सर्वोच्च वर्ग तक जैनधर्म की प्राचीनता का संदेश पहुँचाया गया और ४ फरवरी सन् २००० को दिल्ली के लालकिला मैदान से ‘‘भगवान ऋषभदेव-अंतर्राष्ट्रीय निर्वाण महामहोत्सव’’ का प्रधानमंत्री द्वारा उद्घाटन हुआ, जो एक वर्ष की घोषणा के साथ देश-विदेश में धार्मिक एवं शैक्षणिक गतिविधियों के साथ मनाया गया।
इन कार्यक्रमों को आयोजित करने का प्रमुख उद्देश्य रहा कि जैनधर्म की अनादिनिधनता व सार्वभौमिकता से संसार को परिचित कराना तथा उस संबंध में व्याप्त भ्रान्त धारणाओं को निर्मूल कर नये इतिहास का निर्माण करना। इस प्रकार दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान द्वारा भगवान ऋषभदेव का खूब प्रचार-प्रसार किया गया, जिससे जैनधर्म की अनादिनिधन तीर्थंकर परम्परा से जन-जन परिचित हो सका और भगवान ऋषभदेव का इस भारतीय संस्कृति के लिए महनीय अवदान भी समस्त समाज के सामने लाया जा सका। ऐसे तीर्थंकरऋषभदेव के श्रीचरणों में कोटि-कोटि वंदन।