हिन्दी के प्रसिद्ध कवि मैथिलीशरण गुप्त ने एक कविता में लिखा है—
अंधकार है वहाँ जहाँ आदित्य नहीं है।
निर्बल है वह देश जहाँ साहित्य नहीं है।।
अर्थात् किसी भी देश का गौरव वहाँ के साहित्य भण्डार से आंका जाता है यह बात कवि की पंक्तियों से स्पष्ट हो रही है। हमारा भारत देश सदा—सदा से साहित्य का प्रमुख समृद्ध केन्द्र रहा है।
यहाँ के ऋषि—मुनियों ने प्राणीमात्र के हित को दृष्टि में रखते हुए समय—समय पर सारगर्भित एवं सर्वजन सुलभ साहित्य की रचना की है। सत् साहित्य को पढ़ने से ज्ञान की प्राप्ति होती है और ज्ञान को मनीषियों ने सच्चे प्रकाश की उपमा देकर अज्ञानता को महान् अंधकार के रूप में बताया है। कन्फ्यूशियस ने भी एक जगह लिखा है—
“Ignorance is night of the mind, but a night without moon and stars.”
अर्थात्
‘‘अज्ञानता मन की वह अंधेरी रात है, जिसमें न चाँद हैं न तारे’’
ऐसी अंधेरी दुनिया में महापुरुषों द्वारा बताई या लिखी गई बातें ही हमारे लिए प्रकाश देने का कार्य करती हैं। उनके द्वारा लिखी गई एक—एक पंक्ति कभी—कभी महान जीवनदायिनी बन जाती है।
जैसे कि एक प्रसिद्ध कवि भारवि की जीवन्त काव्य रचना के विषय में घटना सुनी जाती है कि—बिहार के धनपुर पट्टी नामक गाँव में एक झोपड़ी में रहने वाले भारवि कवि कविता आदि का लेखन किया करते थे। एक दिन उनकी पत्नी बहुत नाराज हुर्इं और उनसे बोलीं कि—आपके इस लेखन से हमें क्या लाभ है ?
इधर हमारे परिवार में भोजन का ठिकाना नहीं है, और आप हैं कि हर समय लिखने में लगे रहते हैं। अरे ! कुछ और काम—धन्धा करो, जिससे परिवार का पालन हो। कवि भारवि पत्नी की बात सुनकर पहले तो कुछ चिन्ता में डूब गए पुन: चिन्तन करके उन्होंने पत्नी को एक ताड़पत्र पर श्लोक लिखकर दिया और उससे कहा—देवी! तुम बाजार में जाकर इसे बेचकर पैसे ले आओ।
कवि की पत्नी ने बाजार में जाकर उस श्लोक को एक सुनार के हाथों बेच दिया। सुनार ने वे पंक्तियाँ अपने घर में टांग दिया। वे पंक्तियाँ इस प्रकार थीं—
बिना विचारे जो करे, सो पाछे पछताय।
काम बिगाड़े आपनो, जग में होत हंसाय।।
पुन: एक बार वह सुनार विदेश में धन कमाने चला गया, उसकी पत्नी को उस समय तीन मास का गर्भ था। उसने ९ माह बाद पुत्र को जन्म दिया और उसका लालन—पालन करके बड़ा किया। लगभग १५—१६ वर्ष बाद जब सुनार वापस अपने घर लौटा तो अपनी पत्नी के पास पलंग पर एक नौजवान को सोता देखकर क्रोध में आगबबूला हो गया और पत्नी तथा नौजवान को जान से मारने के लिए उसने तलवार निकाल ली किन्तु तुरन्त उसकी दृष्टि कमरे में टंगे दोहे की पंक्ति पर पड़ी अत: पत्नी को जगाकर उससे पूछा कि यह नौजवान कौन है ? कहाँ से आया है ? कब से तेरे पास रहता है ? आदि।
पत्नी ने कहा—स्वामी! यह तो आपका पुत्र है। क्या आपको याद नहीं है कि आप मुझे गर्भवती अवस्था में छोड़कर गये थे ? अब तो देखो, यह बेटा जवानी की ओर बढ़ रहा है। पुत्र ने तुरन्त अपने पिता के चरण स्पर्श किये और परिवार का मिलन हो गया। सुनार को अपने पर बड़ा पश्चाताप हुआ।
तब उस सुनार को कवि की अमूल्य पंक्तियों पर बहुत श्रद्धा हो गई। उसने पत्नी और पुत्र से कहा कि—आज भारवि कवि की इन पंक्तियों ने हमारे परिवार की रक्षा कर दी अन्यथा गलतफहमी का शिकार बनकर मेरे हाथ से आज आप दोनों की हत्या हो जाती और हमारा परिवार नष्ट—भ्रष्ट हो जाता अर्थात् भारवि कवि की वे पंक्तियाँ सार्थक होकर जीवन निर्माण के लिए उपयोगी हो गर्इं।
आगे चलकर उस सुनार ने भारतीय लेखकों के साहित्य का खूब प्रचार—प्रसार किया है। साहित्य का यह चमत्कार प्रत्येक व्यक्ति के जीवन को चमत्कृत कर सकता है इसलिए सत्साहित्य का स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए। इसे इस तरह भी समझा जा सकता है—
“Which can not be seen by the physical eyes, can be seen by the literary eyes.
अर्थात् ‘‘जो चीज भौतिक आँखे नहीं देख पाती हैं, उसे भी साहित्य की आँखों से देखा जा सकता है। भारतीय साहित्य में प्राचीनकाल से ही जैन साहित्य का भी बड़ा विशाल योगदान रहा है। हमारे अनेक लोकोपकारी जैनाचार्यों ने अपने जीवन का बहुभाग सर्वजनहितकारक साहित्य की रचना में व्यतीत किया है।
जैनधर्म में बड़े–बड़े प्रकाण्ड जैनाचार्य हो गए हैं जो प्रबल तार्किक, वैयाकरण, कवि और दार्शनिक थे। उन्होंने जैनधर्म के साथ-साथ भारतीय साहित्य के अन्य क्षेत्रों में भी अपनी लेखनी के जौहर दिखलाये हैं। दर्शन, न्याय, व्याकरण, काव्य, नाटक, कथा, शिल्प, मन्त्र—तन्त्र, वास्तु, वैद्यक आदि-आदि अनेक विषयों पर काफी मात्रा में प्राचीन जैन साहित्य आज भी उपलब्ध है जबकि बहुत सारा साहित्य धार्मिक द्वेष, लापरवाही तथा अज्ञानता के कारण नष्ट हो चुका है।
भारत की अनेक भाषाओं में जैन साहित्य लिखा हुआ है, जिनमें प्राकृत और संस्कृत भाषा का नाम विशेष उल्लेखनीय है। जैनधर्म ने प्रारम्भ से ही अपने प्रचार के लिए लोकभाषाओं को अपनाया अत: अपने-अपने समय की लोकभाषा में भी जैन साहित्य की रचनाएँ पायी जाती हैं।
इसी से जर्मन विद्वान् डॉक्टर विंटरनीट्ज ने अपने भारतीय साहित्य के इतिहास में लिखा है—‘भारतीय भाषाओं की दृष्टि से भी जैन साहित्य बहुत महत्त्वपूर्ण है; क्योंकि जैन सदा इस बात की विशेष परवाह रखते थे कि उनका साहित्य अधिक से अधिक जनता के परिचय में आये। इसी से आगमिक साहित्य तथा प्राचीनतम टीकाएँ प्राकृत में लिखी गयीं।
दिगम्बरों ने पहले संस्कृत में रचनाएँ करना आरम्भ किया। बाद में १० वीं से १२ वीं शती तक अपभ्रंश भाषा में, जो उस समय की जन भाषा थी, रचनाएँ की गयीं और आजकल के जैन बहुत—सी आधुनिक भारतीय भाषाओं का उपयोग करते हैं तथा उन्होंने हिन्दी, गुजराती साहित्य को तथा दक्षिण में तमिल और कन्नड़ साहित्य को विशेष रूप से समृद्ध किया है।
[`A History of Indian Literature’ Ve. II P. 427-428]
आज जो जैन साहित्य उपलब्ध है वह सब भगवान् महावीर की उपदेश परम्पराओं से सम्बद्ध है। भगवान् महावीर के प्रधान गणधर गौतम स्वामी थे। इनका मूल नाम इन्द्रभूति था, ये जाति से ब्राह्मण थे और वेद-वेदांग में पारंगत थे। जब केवलज्ञान हो जाने पर भी भगवान् महावीर की वाणी नहीं खिरी तो इन्द्र को चिन्ता हुई।
इसका कारण जानकर वह इन्द्रभूति ब्राह्मण विद्वान के पास गया और युक्ति से उन्हें भगवान् महावीर के समवसरण में ले आया। समवसरण में पहुँचते ही इन्द्रभूति ने जैन दीक्षा ले ली और भगवान् के प्रधान गणधर हुए। भगवान का उपदेश सुनकर इन्होंने द्वादशांग श्रुत की रचना की। उन्होंने भगवान् महावीर के उपदेशों को अवधारण करके बारह अंग और चौदह पूर्व के रूप में निबद्ध किया। जो इन अंगों और पूर्वों का पारगामी होता है जैनधर्म में उसे श्रुतकेवली कहा जाता है।
जैन परम्परा में ज्ञानियों में दो ही पद सबसे महान गिने जाते हैं— प्रत्यक्ष ज्ञानियों में केवलज्ञानी का और परोक्षज्ञानियों में श्रुतकेवली का। जैसे केवलज्ञानी भगवान समस्त चराचर जगत को प्रत्यक्ष जानते और देखते हैं वैसे ही श्रुतकेवली महामुनि शास्त्र में वर्णित प्रत्येक विषय को स्पष्ट जानते हैं। जब कार्तिक कृष्णा अमावस्या को प्रात: भगवान महावीर का निर्वाण हुआ उसी दिन सायंकाल में गौतम स्वामी को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। उसके १२ वर्ष पश्चात् गौतम स्वामी को भी निर्वाणपद प्राप्त हुआ।
दिगम्बर जैन साहित्य
भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् तीन केवलज्ञानी (गौतमगणधर, सुधर्माचार्य और जम्बूस्वामी) हुए और उनके पश्चात् पाँच श्रुतकेवली हुए जिनमें से अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु थे। इनके समय में मगध में बारह वर्ष का भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा। तब ये अपने संघ के साथ दक्षिण की ओर चले गये और फिर लौटकर नहीं आये अत: दुर्भिक्ष के पश्चात् पाटलीपुत्र में भद्रबाहु स्वामी की अनुपस्थिति में जो अंग साहित्य संकलित किया गया वह एकपक्षीय था।
मूल या दूसरे पक्ष ने उसे स्वीकार नहीं किया, क्योंकि दुर्भिक्ष के समय जो साधु मगध में ही रहे थे, सामायिक कठिनाइयों के कारण वे अपने आचार में शिथिल हो गये थे। यहीं से जैन संघ में श्वेताम्बर सम्प्रदाय का जन्म हुआ और जिनधर्म (दिगम्बर) को भी सम्प्रदाय कहा गया और दोनों सम्प्रदायों का साहित्य भी पृथक्—पृथक् हो गया। श्रुतकेवली भद्रबाहु इस युग के अंतिम श्रुतकेवली माने गये हैं जो सम्पूर्ण द्वादशांग के ज्ञाता थे।
उनके पश्चात् ग्यारह अंग और दस पूर्वों के ज्ञाता आचार्य हुए। फिर पाँच आचार्य केवल ग्यारह अंग के ज्ञाता हुए। पूर्वों का ज्ञान एक तरह से नष्ट ही हो गया और छुट—पुट ज्ञान बाकी रह गया। फिर चार आचार्य केवल प्रथम आचारांग के ही ज्ञाता हुए और अंग ज्ञान भी समाप्तप्राय हो गया।
इस तरह कालक्रम के विच्छिन्न होते—होते वीर निर्वाण से ६८३ वर्ष बीतने पर जब अंगों और पूर्वों के शेष बचे ज्ञान के भी लुप्त होने का प्रसंग उपस्थित हुआ तब गिरनार पर्वत पर स्थित आचार्य श्री धरसेन मुनिवर ने पुष्पदन्त और भूतबली नाम के दो सर्वोत्तम साधुओं को अपना शिष्य बनाया जिन्होंने षट्खण्डागम नाम के सूत्र ग्रंथ की रचना प्राकृत भाषा में की।
श्रुतधर—शास्त्रों को लिखने
श्रुतधर—शास्त्रों को लिखने वाले आचार्यों की परम्परा में सर्वप्रथम लेखक आचार्य कौन हैं ? ऐसा प्रश्न होने पर इतिहासकारों ने बड़े आदर से महान आचार्यश्री ‘‘गुणधर देव’’ का नाम लिया है।
श्रीगुणधर और धरसेन ये दोनों आचार्य श्रुत के प्रतिष्ठापक रूप से प्रसिद्ध हुए हैं फिर भी गुणधरदेव, धरसेनाचार्य की अपेक्षा अधिक ज्ञानी थे और लगभग उनके दो सौ वर्ष पूर्व हो चुके हैं ऐसा विद्वानों का अभिमत है अतएव आचार्य गुणधर को दिगम्बर परम्परा में लिखित रूप से प्राप्त श्रुत का प्रथम श्रुतकार माना जा सकता है।
धरसेनाचार्य ने किसी ग्रंथ की रचना नहीं की जबकि गुणधराचार्य ने ‘‘पेज्जदोसपाहुड’’ ग्रंथ की रचना की है। ये गुणधराचार्य किनके शिष्य थे इत्यादि रूप से इनका परिचय यद्यपि आज उपलब्ध नहीं है तो भी उनकी महान कृति से ही उनकी महानता जानी जाती है। यथा—
गुणधरधरसेनान्वयगुर्वो: पूर्वापरकमोऽस्माभि:।
न ज्ञायते तदन्वयकथकागममुनिजनाभावात् ।।५१।।
(इन्द्रंदिकृत श्रुतावतार) गुणधर और धरसेन की पूर्वापर गुरु परम्परा हमें ज्ञात नहीं है क्योंकि इसका वृत्तांत न तो हमें किसी आगम में मिला और न किसी मुनि ने ही बतलाया। इससे स्पष्ट हो जाता है कि इन्द्रनंदि आचार्य के समय तक आचार्य गुणधर और धरसेन का गुरु शिष्य परम्परा का अस्तित्व स्मृति के गर्भ में विलीन हो चुका था फिर भी इतना स्पष्ट है कि श्री अर्हद्बलि आचार्य द्वारा स्थापित संघों में ‘‘गुणधर संघ’’ का नाम आया है।
नंदिसंघ की प्राकृत पट्टावली में अर्हद्बलि का समय वीर नि. सं. ५५६ अथवा वि. सं. ९५ है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि गुणधर देव अर्हद्बलि के पूर्ववर्ती हैं पर कितने पूर्ववर्तीं हैं, यह निर्णयात्मक रूप से नहीं कहा जा सकता। यदि गुणधर की परम्परा को ख्याति प्राप्त करने में सौ वर्ष का समय मान लिया जाए तो षट्खंडागम के प्रवचनकर्ता धरसेनाचार्य से ‘‘कसायपाहुड’’ के प्रणेता गुणधराचार्य का समय लगभग दो सौ वर्ष पूर्व सिद्ध हो जाता है।
इस प्रकार आचार्य गुणधर का समय विक्रम पूर्व प्रथम शताब्दी सिद्ध होता है। श्रीगुणधराचार्य को पाँचवें ज्ञानप्रवाद पूर्व की दशवीं वस्तु के तीसरे पेज्जदोसपाहुड़ का परिपूर्ण ज्ञान प्राप्त था जबकि षट्खण्डागम आदि ग्रंथों के प्रणेताओं को उक्त ग्रंथों की उत्पत्ति के आधारभूत ‘‘महाकम्मपयडिपाहड़’’ का आंशिक ही ज्ञान प्राप्त हुआ था। इस प्रकार से गुणधराचार्य ने ‘‘कसायपाहुड़’’ जिसका अपरनाम ‘‘पेज्जदोसपाहुड़’’ भी है, उसकी रचना की है। १६००० पद प्रमाण कसायपाहुड़ के विषय को संक्षेप से एक सौ अस्सी गाथाओं में ही पूर्ण कर दिया है।
पेज्ज नाम प्रेयस् या राग का है
पेज्ज नाम प्रेयस् या राग का है और दोस नाम द्वेष का है। चूँकि क्रोधादि चारों कषायों में माया, लोभ को राग रूप से और क्रोध, मान को द्वेष रूप से, ऐसे ही नव नोकषायों का विभाजन भी राग और द्वेषरूप में किया है अत: प्रस्तुत ग्रंथ का मूल नाम ‘‘पेज्जदोसपाहुड़’’ है और उत्तर नाम ‘‘कसायपाहुड़’’ है।
कषायों की विभिन्न अवस्थाओं का एवं इनसे छूटने का विस्तृत विवेचन इस ग्रंथ में किया गया है अर्थात् किस कषाय के अभाव से सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति होती है, किस कषाय के क्षयोपशम आदि से देशसंयम और सकलसंयम की प्राप्ति होती है, यह बतला करके कषायों की उपशमना और क्षपणा का विधान किया गया है।
तात्पर्य यही है कि इस ग्रंथ में कषायों की विविध जातियां बतला करके उनके दूर करने का मार्ग बतलाया गया है। इस ग्रंथ की रचना गाथासूत्रों में की गई है।
आचार्य गुणधरदेव स्वयं कहते हैं—
‘‘वोच्छामि सुत्तगाहा जपिगाहा जम्मि अत्थम्मि’’
जिस अर्थाधिकार में जितनी—जितनी सूत्र गाथायें प्रतिबद्ध हैं, उन्हें मैं कहूँगा। इस ग्रंथ में कुल २३३ गाथायें हैं, जिन्हें ‘‘कसायपाहुड़’’ सुत्त की प्रस्तावना में पं. हीरालाल जी ने श्रीगुणधराचार्य रचित ही माना है अर्थात् ५३ गाथाओं में विवाद होकर भी गुणधराचार्य रचित ही निर्णय मान्य होता है।
‘‘इस प्रकार के उपसंहृत एवं गाथासूत्र निबद्ध द्वादशांग जैन वाङ्मय के भीतर अनुसंधान करने पर यह ज्ञात हुआ है कि कसायपाहुड़ ही सर्वप्रथम निबद्ध हुआ। इससे प्राचीन अन्य कोई रचना अभी तक उपलब्ध नहीं है।’’ कषायप्राभृत ग्रंथ आचार्य परम्परा से आर्यमंक्षु और नागहस्ति नाम के आचार्यों को प्राप्त हुआ।
उनसे सीखकर यतिवृषभ नामक आचार्य ने उन पर वृत्तिसूत्र रचे, जो प्राकृत में हैं और ६००० श्लोक प्रमाण हैं। यहाँ ध्यान रहे कि ३२ अक्षर के एक अनुष्टुप् छन्द का १ श्लोक कहा है सो उस प्रकार से ६००० श्लोक प्रमाण संख्या कही है अर्थात् ६००० ² ३२ · १,९२००० अक्षर की टीका है। इन दोनों कसायपाहुड़ और षट्खण्डागम नाम से महान् ग्रंथों पर अनेक आचार्यों ने अनेक टीकाएँ रचीं जो आज उपलब्ध नहीं हैं। इनके अन्तिम टीकाकार श्री वीरसेनाचार्य हुए। ये बड़े समर्थ विद्वान् थे।
इन्होंने षट्खण्डागम पर अपनी सुप्रसिद्ध टीका धवला शक सं. ४३८ में (आज से ११९६ वर्ष पूर्व) पूरी की। यह टीका ७२ हजार श्लोक प्रमाण है तथा कसायपाहुड़ ग्रंथ पर भी इन्होंने टीका लिखी किन्तु वे उसे बीस हजार श्लोक प्रमाण लिखकर ही स्वर्गवासी हो गये। तब उनके सुयोग्य शिष्य जिनसेनाचार्य ने ४० हजार श्लोक प्रमाण और लिखकर शक सं. ७५९ में (आज से ११७५ वर्ष पूर्व) उसे पूरा किया। इस टीका का नाम जयधवला है और वह ६० हजार श्लोक प्रमाण है।
इन दोनों टीकाओं की रचना संस्कृत और प्राकृत के सम्मिश्रण से की गयी है जिसका बहुभाग प्राकृत में है। बीच—बीच में संस्कृत भी आ जाती है, जैसा कि टीकाकार ने उसकी प्रशस्ति में लिखा है—
‘प्राय: प्राकृतभारत्या क्वचित् संस्कृतमिश्रया।
मणिप्रवालन्यायेन प्रोक्तोऽयं ग्रन्थविस्तर:।।
षट्खण्डागम का ही अन्तिम खण्ड
षट्खण्डागम का ही अन्तिम खण्ड महाबंध है जिसकी रचना भूतबलि आचार्य ने की थी, यह भी प्राकृत में है और इसकी टीका ४१ हजार श्लोक प्रमाण है। इन सभी ग्रंथों में जीवतत्त्व एवं कर्मसिद्धान्त का बहुत सूक्ष्म और गहन वर्णन है।
चिरकाल से ये तीनों महान् ग्रंथ मूड़विद्री (दक्षिण कर्नाटक) के जैन भण्डार में ताड़पत्र पर सुरक्षित थे चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागर महाराज की प्रबल प्रेरणा से वहाँ के भट्टारक महोदय तथा पंचों की उदात्त भावना के फलस्वरूप अब इन तीनों का प्रकाशन विद्वानों द्वारा लिखी गई हिन्दी टीका के साथ हो चुका है।
ईसा की प्रथम शताब्दी में कुन्दकुन्द नाम के एक महान् आचार्य हुए हैं। इनके विषय में प्रसिद्ध है कि विदेह क्षेत्र में जाकर सीमंधर स्वामी की दिव्यध्वनि सुनने का सौभाग्य इन्हें प्राप्त हुआ था। इनके प्रवचनसार, नियमसार, रयणसार, पंचास्तिकाय और समयसार नाम के ग्रंथ अति प्रसिद्ध हैं। इनके सिवाय इन्होंने ८४ प्राभृतों की रचना की है जिनमें से अष्टपाहुड़ ग्रंथ में आठ प्राभृत उपलब्ध हैं।
इनके शिष्य उमास्वामी नाम के आचार्य थे, जिन्होंने जैनवाङ्मय को संस्कृत सूत्रों में निबद्ध करके तत्त्वार्थसूत्र नाम के ग्रंथ की रचना की। इस ग्रंथ के दस अध्यायों में जीव आदि सात तत्वों का सुन्दर विवेचन किया गया है। अपने—अपने धर्मों में गीता, कुरान और बाइबिल को जो स्थान प्राप्त है वही स्थान जैनधर्म में तत्त्वार्थ सूत्र ग्रंथ को प्राप्त है। दिगम्बर और श्वेताम्बर भी इसे समान रूप से मानते हैं।
दोनों ही परम्पराओं के आचार्यों ने इसके ऊपर अनेक टीकाएँ रची हैं जिनमें पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि एवं अकलंकदेव का तत्त्वार्थराजवार्तिक और विद्यानन्दि आचार्य का तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक उल्लेखनीय है। दोनों ही वार्तिकग्रंथ संस्कृत में बड़ो ही प्रौढ़ शैली में रचे गये हैं और जैनदर्शन के अपूर्व ग्रंथ हैं।
दर्शन और न्यायशास्त्र में स्वामी समन्तभद्र और सिद्धसेन की रचनाएँ उल्लेखनीय हैं। स्वामी समन्तभद्र ने आप्तमीमांसा नाम का एक ग्रंथ रचा है, जिसमें स्याद्वाद का सुन्दर विवेचन करते हुए इतर दर्शनों की विचारपूर्ण समीक्षा की गयी है। इस आप्त—मीमांसा पर स्वामी अकलंकदेव ने ‘अष्टशती’ नामक ग्रंथ रचा है और अष्टशती को मिला—मिलाकर स्वामी विद्यानन्द आचार्य ने आप्तमीमांसा की कारिकाओं पर अष्टसहस्री नाम की टीका रची है।
अष्टसहस्री इतनी गहन है कि इसको समझने में इतने कष्ट का अनुभव होता है कि आचार्यदेव ने स्वयं इसे कष्टसहस्री कहा है। इस अत्यन्त कठिन ग्रंथ का सन् १९६९-७० में पू. गणिनीप्रमुख आर्यिका शिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी ने सरल हिन्दी में अनुवाद करके विद्वत् जगत के मस्तक को गौरवान्वित किया है।
पुराण साहित्य में महापुराण, हरिवंशपुराण, पद्मपुराण
पुराण साहित्य में महापुराण, हरिवंशपुराण, पद्मपुराण आदि ग्रंथों का नाम उल्लेखनीय है। जैन पुराणों का मूल प्रतिपाद्य विषय ६३ शलाका—पुरुषों के चरित्र हैं। इनमें २४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ बलदेव, ९ वासुदेव (नारायण) और ९ प्रतिवासुदेव (प्रतिनारायण) हैं।
जिनमें पुराण पुरुषों का पुण्यचरित्र वर्णन किया गया हो उसे पुराण कहते हैं। हरिवंशपुराण में बाईसवें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ और नवमें नारायण श्रीकृष्ण का वर्णन करते हुए कौरव और पाण्डवों का वर्णन है और पद्मपुराण में आठवें बलभद्र श्रीरामचन्द्र एवं नारायण लक्ष्मण का वर्णन है। इस तरह से ये दोनों ग्रंथ क्रमश: जैन महाभारत और जैन रामायण कहे जाते हैं। इनके सिवाय चरित ग्रंथों का तो जैन साहित्य में भण्डार भरा है।
सकलर्कीित आदि आचार्यों ने अनेक चरित ग्रंथ रचे हैं। आचार्य जटासिंहनन्दि का वरांगचरित एक सुन्दर पौराणिक काव्य है। काव्यसाहित्य भी कम नहीं है। वीरनन्दि का चन्द्रप्रभचरित, हरिचन्द्र का धर्मशर्माभ्युदय, धनंजय कवि का द्विसन्धान और वाग्भट्ट का नेमिनिर्वाण काव्य उच्चकोटि के संस्कृत महाकाव्य हैं।
अपभ्रंश भाषा में तो इन पुराण और चरित ग्रंथों का संस्कृत की अपेक्षा भी बाहुल्य है। अपभ्रंश भाषा में भी जैन कवियों ने खूब रचनाएँ की हैं। जैनधर्म का कथा साहित्य भी विशाल है। आचार्य हरिषेण का कथाकोश बहुत प्राचीन (ई. स. ९३२) है। आराधना कथाकोश, पुण्यास्रव कथाकोश आदि अन्य भी बहुत से कथाकोश हैं जिनमें कथाओं के द्वारा धर्माचरण का शुभ फल और अधर्माचरण का अशुभ फल दिखलाया गया है।
चम्पू काव्य भी जैन साहित्य में बहुत हैं। सोमदेव का यशस्तिलक चम्पू, हरिचन्द्र का जीवन्धर चम्पू और अर्हद्दास का पुरुदेवचम्पू उत्कृष्ट चम्पू काव्य हैं। गद्य ग्रंथों में वादीभसिंह की गद्यचिन्तामणि उल्लेखनीय है। नाटकों में हस्तिमल्ल के विक्रांत कौरव, मैथिलीकल्याण, अंजनापवनंजय आदि दर्शनीय हैं। स्तोत्र साहित्य भी कम नहीं हैं।
आचार्य श्रीमानतुंग का भक्तामर स्तोत्र, महाकवि धनंजय का विषापहार, कुमुदचन्द्र का कल्याण मन्दिर आदि स्तोत्र साहित्य की दृष्टि से भी उत्कृष्ट हैं। स्वामी समन्तभद्र ने स्वयंभू स्तोत्र में तो जैनदर्शन के उच्चकोटि के सिद्धान्तों को कूट–कूट कर भर दिया है। वह एक दार्शनिक स्तवन है। नीति ग्रंथों की भी कमी नहीं है।
वादीभसिंह का क्षत्रचूड़ामणि काव्य एक नीतिपूर्ण काव्य ग्रंथ है। आचार्य अमितगति का सुभाषितरत्नसंदोह, पद्मनन्दि आचार्य की पद्मनन्दि पञ्चविंशतिका और महाराज अमोघवर्ष की प्रश्नोत्तर रत्नमाला भी सुन्दर नीतिग्रंथ हैं। इसके सिवाय ज्योतिष, आयुर्वेद, व्याकरण, कोश, छन्द, अलंकार, गणित और राजनीति आदि विषयों पर भी जैनाचार्यों की अनेक रचनाएँ आज उपलब्ध हैं।
ज्योतिष साहित्य में केवलज्ञान प्रश्न चूड़ामणि और आयुर्वेद में उग्रादित्य आचार्य का कल्याणकारक ग्रंथ आया है। व्याकरण में पूज्यपाद देवनन्दि का जैनेन्द्र व्याकरण और शाकटायन का शाकटायन व्याकरण उल्लेखनीय है। कोष में धनंजय नाममाला और विश्वलोचन कोश, अलंकार में अलंकार चिन्तामणि, गणित में महावीर गणितसार संग्रह और राजनीति में सोमदेव का नीतिवाक्यामृत आदि स्मरणीय हैं।
यहाँ यह बतला देना अनुचित न होगा
यहाँ यह बतला देना अनुचित न होगा कि दक्षिण और कर्नाटक का जितना जैन साहित्य है वह सब ही दिगम्बर जैन विद्वानों की रचना है तथा जिनधर्म के जितने प्रधान—प्रधान आचार्य हैं वे प्राय: सब ही कर्नाटक देश के निवासी थे और वे न केवल संस्कृत और प्राकृत के ही ग्रंथकर्ता थे किन्तु कन्नड़ भाषा के भी प्रसिद्ध ग्रंथकार थे। तमिल भाषा का साहित्य भी प्रारम्भ काल से ही जैनधर्म और जैनसंस्कृति से प्रभावित है।
‘कुरल’ और ‘नालदियार’ नाम के दो महान् ग्रंथ उन जैनाचार्यों की कृति हैं जो तमिल देश में बस गये थे। गुजराती भाषा में भी दिगम्बर जैन कवियों ने अनेक रचनाएँ की हैं, जिनका विवरण ‘जैन गुर्जर कवियों’ से प्राप्त होता है। दिगम्बर जैन साहित्य में हिन्दी ग्रंथों की संख्या भी बहुत है।
इधर लगभग ४०० वर्षों में अधिकांश ग्रंथ हिन्दी में रचे गये हैं। जैन श्रावक के लिए प्रतिदिन स्वाध्याय करना आवश्यक है अत: जन—साधारण की भाषा में जिनवाणी को निबद्ध करने की प्रक्रिया प्रारम्भ से ही होती आयी है। इसी से हिन्दी जैन साहित्य में गद्यग्रंथ बहुतायत से पाए जाते हैं। लगभग सोलहवीं शताब्दी से लेकर हिन्दी गद्य ग्रंथ जैन साहित्य में उपलब्ध हैं और इसलिए हिन्दी भाषा के क्रमिक विकास का अध्ययन करने वालो के लिए वे बड़े काम के हैं। पद्यसाहित्य में पं. दौलतरामजी का छहढाला जैन—सिद्धान्त का अमूल्य रत्न है।
पं. टोडरमलजी, पं. दौलतरामजी, पं. सदासुख, पं. बुधजन, पं. द्यानतराय, भैया भगवतीदास, पं. जयचन्द आदि अनेक विद्वानों ने अपने समय की ढुंढारी हिन्दी भाषा में गद्य अथवा पद्य अथवा दोनों में अपनी रचनाएँ की हैं। विनती, पूजापाठ, धार्मिक भजन आदि भी पर्याप्त हैं। पद्य साहित्य में भी अनेक पुराण और चरित रचे गये हैं।
हिन्दी जैन साहित्य की एक सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसमें शान्तरस और वैराग्यरस की सरिता ही सर्वत्र प्रवाहित दृष्टिगोचर होती है। संस्कृत और प्राकृत के जैन ग्रंथकारों के समान हिन्दी जैन ग्रंथकारों का भी एक ही लक्ष्य रहा है कि मनुष्य किसी तरह सांसारिक विषयों में द्वन्द्व से निकलकर अपने को पहचाने और अपने उत्थान का प्रयत्न करे। इसी लक्ष्य को रखकर सबने अपनी—अपनी रचनाएँ की हैं।
यह तो हुआ भगवान महावीर के शासन में लगभग दो हजार वर्षों के मध्य हुए आचार्य, विद्वान् कवि आदि लेखकों में कतिपय साहित्य रचनाकारों के कृतित्व का संक्षिप्त परिचय। पुनश्च इसी परम्परा का निर्वाह करते हुए बीसवीं—इक्कीसवीं सदी भी जैन साहित्य से अत्यन्त समृद्ध हुई है।
उनमें बीसवीं सदी के प्रथमाचार्य चारित्रचक्रवर्ती श्री शान्तिसागर महाराज के विद्वान् शिष्य आचार्य श्री सुधर्मसागर जी महाराज, आचार्य श्री कुंथुसागर जी महाराज द्वारा सुधर्म श्रावकाचार, चौबीस तीर्थंकर स्तुति आदि प्रौढ़ ग्रंथ रचे गये हैं। आचार्य श्रीपायसागर जी के शिष्य भारतगौरव आचार्य श्री देशभूषण महाराज ने धर्मामृत, णमोकार आदि ग्रंथ लिखे हैं।
आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज ने संस्कृत काव्य साहित्य एवं हिन्दी टीकानुवाद आदि कार्य किये हैं। इसी प्रकार अन्य आचार्य—मुनिराज आदिकों की भी कतिपय साहित्यिक रचनाएँ संस्कृत—हिन्दी—प्राकृत में गद्य—पद्य दोनों तरह की प्राप्त होती हैं।
वर्तमान समय में भी आचार्य
वर्तमान समय में भी आचार्य—उपाध्याय—मुनि—आर्यिका आदि अपनी रत्नत्रय साधना के साथ ज्ञानाराधना के क्षेत्र में वृहत् मात्रा में साहित्य लेखन करते देखे जा रहे हैं। इनमें कुछ अत्याधुनिक जनभाषा में जिनधर्म प्रभावना का साहित्य लिखते हैं तो कुछ प्राचीन आचार्य परम्परा का निर्वाह करते हुए प्रौढ़ भाषा में जनहितकारी स्वाध्याय के ग्रंथ लिखकर प्रदान करते हैं।
आचार्य श्री विद्यानंदिजी, आचार्य श्री विद्यासागर जी, आचार्य श्री कनकनंदी जी, आचार्य श्री पुष्पदंतसागर जी, आचार्य श्री विरागसागर जी आदि कतिपय विशिष्ट आचार्यों की साहित्यिक कृतियाँ भी वर्तमान की उपलब्धि हैं तथा अनेकानेक उपाध्याय—मुनिराजों के भी लेखन समाज में प्रचलित हैं।
इसी शृंखला में दिगम्बर जैन साध्वियों द्वारा साहित्य लेखन का शुभारम्भ किया पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने। इन्होंने समयसार आदि अनेकानेक संस्कृत ग्रंथों की हिन्दी टीकाएँ लिखीं, जैनभारती आदि मौलिक ग्रंथ लिखे, पूजा—विधानों में इन्द्रध्वज और कल्पद्रुम जैसे विधानों ने तो सम्पूर्ण जैन समाज में चमत्कार फैला दिया है।
बालक—युवा, नारी—प्रौढ़—विद्वान् सभी के हित को ध्यान में रखकर ४०० शास्त्र लिखे तथा सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सैद्धान्तिक सूत्रग्रंथ षट्खण्डागम के १६ ग्रंथों की ‘‘सिद्धान्त चिन्तामणि’’ नाम की संस्कृत टीका ३२०० पृष्ठों में लिखकर कीर्तिर्मान स्थापित कर दिया है।
उनका अनुसरण करती हुए अन्य अनेक साध्वियों ने भी ग्रंथ लेखन किये हैं जिनमें आर्यिका श्री जिनमती माताजी, आर्यिका श्री आदिमती माताजी (पू. ज्ञानमती माताजी की शिष्याएँ), गणिनी आर्यिका श्री सुपार्श्वमती माताजी, आर्यिका श्री विशुद्धमती माताजी आदि के नाम प्रमुख हैं। मुझे भी पूज्य माताजी की प्रेरणा से षट्खण्डागम की हिन्दी टीका करने का सौभाग्य मिला तथा कतिपय छोटे—बड़े साहित्य गुरुकृपा से मेरे द्वारा सृजित हुए हैं।
जैन समाज का विद्वतवर्ग तो अपनी लेखनी सदा—सर्वदा की भाँति आज भी चला ही रहा है। प्राचीन विद्वानों में पं. लालाराम जी शास्त्री मुरैना (महापुराण के अनुवादक), पं. खूबचन्द शास्त्री, पं. सुमेरचन्द्र दिवाकर, पं. इन्द्रलाल शास्त्री, पं. मोतीचंदजी कोठारी, पं. कैलाशचन्द सिद्धान्ताचार्य, पं. पन्नालाल साहित्याचार्य, पं. लाल बहादुर शास्त्री, पं. बाबूलाल जमादार, पं. फूलचन्द सिद्धांतशास्त्री, पं. हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री, पं. ए. एन. उपाध्ये, पं. वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं जिन्होंने साहित्य की अपूर्व सेवा की है।
अंत में सम्यक्ज्ञान की ज्योति सभी के हृदय में प्रज्वलित हो इस अभिलाषा के साथ—