श्री नाभिराजा के पुत्र भगवान् ऋषभदेव जिनेन्द्र जयवंत होवें जो महान् आत्मा होने से महात्मा हैं, कायोत्सर्ग मुद्रा से शरीर को लंबायमान करके स्थिर खड़े हुए हैं। जिनके ऊपर आया हुआ मध्याह्न का तेजस्वी सूर्य ऐसा चमक रहा है मानों कर्मरूपी ईधन को जलाने वाली उदासीनता-वीतरागतारूप वायु के निमित्त से स्फुरायमान समीचीन ध्यानरूपी अग्नि का निकला हुआ देदीप्यमान एक स्फुलिंगा ही हो। भगवान ऋषभदेव दीक्षा लेकर छह माह का योग लेकर ध्यान में खड़े हुए थे। मध्यान्ह में जब उनके मस्तक के ऊपर भाग मेें सूर्य आ जाता था तब ऐसा मालूम पड़ता था कि भगवान जो ध्यान कर रहे हैं वह अग्नि के समान है क्योंकि वह ध्यान ही सर्वकर्मों को जलाने वाला है। भगवान के ध्यान अग्नि का एक स्फुलिंगा ही मानो ऊपर उछलकर चला गया है जो कि सूर्यरूप में प्रकाश फैला रहा है। इससे यह प्रगट होता है कि भगवान के ध्यान का तेज सूर्य से अनंतगुणा ज्योतिस्वरूप है उस ध्यान की एक किरण अर्थात् तिलंगा ही सूर्य जैसा तेजोमय होता है। इस अवसर्पिणी काल के तीसरे सुषमादु:षमा नाम के काल में चौरासी लाख पूर्व तीन वर्ष, आठ मास और एक पक्ष शेष रहने पर आषाढ़ कृष्णा द्वितीया के दिन सर्वार्थसिद्धि से च्युत होकर एक अहमिंद्र देव राजा नाभिराय की रानी मरुदेवी के गर्भ में आ गए। इस गर्भावतार से छह माह पूर्व ही सौधर्म इंद्र की आज्ञा से कुबेर ने माता के आंगन में रत्नों की वर्षा शुरू कर दी थी जो कि भगवान के जन्म होने तक पंद्रह मास तक हुई थी। चैत्र कृष्णा नवमी के दिन भगवान का जन्म हुआ था, इंद्रों ने उसी क्षण बालक तीर्थंकर को महावैभव से सुमेरु पर ले जाकर १००८ कलशों से महाअभिषेक महोत्सव मनाया था। युवावस्था में अंतिम कुलकर पिता श्री नाभिराय ने भगवान की स्वीकृति लेकर इंद्र की अनुमति से राजा कच्छ, सुकच्छ की बहनें यशस्वती और सुनंदा के साथ श्री वृषभदेव का विवाह कर दिया था। प्रथम रानी से भरत आदि सौ पुत्र और ब्राह्मी पुत्री का जन्म हुआ तथा सुनंदा रानी से बाहुबली एवं सुंदरी पुत्री का जन्म हुआ था। श्री ऋषभदेव ने दोनों पुत्रियों को लिपि एवं अंक विद्या से लेकर सर्व शास्त्र विद्या पढ़ाई थी पुत्रों को भी सर्व विद्याओं में पारंगत किया था। प्रजा को असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन षट्कर्मों का उपदेश देकर जीने की कला सिखाई थी। ये प्रथम जिनेन्द्र सुवर्ण वर्ण के थे, पांच सौ धनुष (२००० हाथ) की इनकी ऊँचाई थी। चौरासी लाख वर्ष पूर्व की इनकी आयु थी। उसमें बीस हजार वर्ष पूर्व तो प्रभु के कुमारकाल में व्यतीत हो गये। इसके बाद नीलांजना के नृत्य के समय उसकी अकस्मात् मृत्यु देखकर भगवान विरक्त हुए तब चैत्र वदी नवमी के दिन जैनेश्वरी दीक्षा लेकर प्रभु ध्यान में छह माह के लिए स्थिर खड़े हो गए थे। उस समय के ध्यान को लक्ष्य में लेकर आचार्यश्री ने भगवान के ध्यान को अग्नि की उपमा दी है। यह मात्र कर्मों को नष्ट करने-जलाने की अपेक्षा ही है। वैसे ध्यान में आत्मा का महान् आनंद आता है जैसा कि समाधिशतक में कहा है-
आत्मदेहान्तरज्ञानजनिताल्हादनिर्वृत:।
तपसा दुष्कृतं घोरं भुंजानोऽपि न खिद्यते।।
आत्मा और शरीर के भिन्नतारूप भेद विज्ञान से उत्पन्न हुए आल्हाद से तृप्त हुए मुनि तपश्चर्या से घोर कष्टों को भोगते हुए भी खेदखिन्न नहीं होते हैं। प्रत्युत उनका जो आनंद है वह-
आनंदो निर्दहत्युद्धं कर्मेन्धनमनारतं।
न चासौ खिद्यते योगी बहिर्दु:खेष्वचेतन:।।
यह शुद्धात्मा के ध्यान से उत्पन्न हुआ आनंद संपूर्ण कर्मों को जला देता है, इससे महायोगी बाह्य उपसर्ग, परीषह आदि दु:खों के समय अचेतन-अनुभवहीन होता हुआ खेद को नहीं प्राप्त होता है। यह तो सामान्य योगियों की बात है पुन: आदिनाथ तीर्थंकर जैसे महायोगी के बारे में कुछ सोच पाना या कह पाना ही अशक्य है। यहां मंगलाचरण में ‘जयति’ क्रिया से आशीर्वादात्मक नमस्कार है ‘जय हो, जयवंत हो’ इत्यादिपूर्वक कथन भी नमस्कार ही है।
निश्चल ध्यान क्यों करते हैं ?
नो किञ्चित्करकार्यमस्ति गमनप्राप्यं न किञ्चिद्दृशोर्दृश्यं यस्य न कर्णयो: किमपि हि श्रोतव्यमप्यस्ति न।
हाथों से करने योग्य कोई-कुछ भी कार्य शेष न रहने से जिन्होंने अपने दोनों हाथ नीचे लटका रखे हैं, चलकर प्राप्त करने योग्य कुछ भी कार्य शेष न रहने से जो गमन से रहित हो चुके हैं, नेत्रों से देखने योग्य कोई भी वस्तु शेष न रहने से जो अपनी दृष्टि को नासा के अग्रभाग पर लगाये हुए हैं तथा कानों से सुनने योग्य कुछ भी शेष न रहने से जो आकुलता से रहित होकर एकांत स्थान में खड़े हुए हैं ऐसे वे ध्यान में एकाग्रचित्त हुए जिनेन्द्र भगवान जयवंत होवें। जब भगवान ध्यान में स्थिर खड़े होते हैं तब दोनों हाथ नीचे लटकते रहते हैं, पैर भी अचल रहते हैं, नेत्रों को नासा के अग्रभाग पर टिका रखते हैं और एकांत में निराकुल खड़े रहते हैं। इससे आचार्यश्री ने कल्पना की है कि ऐसे क्यों खड़े हैं ? अब इन्हें संसार में कुछ करने की इच्छा नहीं है, कहीं जाने-आने की इच्छा नहीं है तथा कुछ देखने और सुनने की इच्छायें समाप्त हो चुकी हैं। भगवान बाहुबली के चरित में उनके ध्यान का वर्णन करते हुए मैंने इसी भाव को पद्य में खींचा है-
करना नहीं रहा कुछ भी, कृतकृत्य प्रभो भुज लंबित हैं।
नहीं भ्रमण करना जग में अब, अत: चरणयुग अचलित हैं।।
देख चुके सब जग की लीला, अंतरंग अब देख रहे।
सुन सुन करके शांति न पाई, अत: विजन में खड़े हुए।।९४।।
दीक्षा लेकर मुनि या आर्यिका के कत्र्तव्यों का पालन करते हुए स्वाध्याय के बल से ध्यान का अभ्यास करना चाहिए क्योंकि ऐसा अचल ध्यान हुए बगैर मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती है। श्रावक को भी जिनपूजा आदि कर-करके परिणामों की विशुद्धि बढ़ाकर कुछ न कुछ रूप में पदस्थ ध्यान ‘ह्रीं’ ‘ऊँ ’ आदि बीजपदों के ध्यान का अभ्यास करना चाहिए। इससे वर्तमान में अशुभ कर्मों की निर्जरा, पुण्यकर्मों का बंध और ध्यान का अभ्यास होता है। कभी न कभी इतने उत्कृष्ट महान ध्यान की भी क्षमता प्राप्त होगी।
अर्हन्त भगवान कैसे हैं ?
रागो यस्य न विद्यते चिदपि प्रध्वस्तमोहग्रहादस्त्रादे:
परिवर्जनान्न च बुधैद्र्वेषोऽपि सम्भाव्यते।
तस्मात्साम्यमथात्मबोधनमतो जात: क्षय:
कर्मणामानन्दादिगुणाश्रयस्तु नियतं सोऽर्हन् सदा पातु व:।।३।।
सर्व परिग्रह रूपी पिशाच के दूर हो जाने से जिन्हें किसी भी विषय में राग नहीं है। गदा, त्रिशूल, चक्र आदि अस्त्रों से रहित होने के कारण विद्वानों ने जिनमें द्वेष का भी लेश संभव नहीं कहा है इसीलिए उनके समता भाव और आत्मा का बोध प्रगट हो गया है। इन साम्यभाव और आत्मज्ञान के निमित्त से उनके कर्मों का क्षय हो गया है। इसी हेतु से आनंद-अनंत सुख आदि गुण प्रगट हो चुके हैं, ऐसे वे अर्हन्त भगवान आप लोगों की सदा रक्षा करें। सर्व धन, धान्य, स्त्री, पुत्र, मित्र आदि परिग्रह को छोड़कर निर्मम हो जाने से मुनियों को कर्मबंध नहीं होता है। कहा भी है-
बद्ध्यते मुच्यते जीव: सममो निर्मम: क्रमात्।
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन निर्ममत्वं विचिंतयेत्।।
जो जीव ममता सहित हैं वे कर्मों से बंधते हैं और जो निर्मम हो जाते हैं वे कर्मों से छूट जाते हैं इसलिए सर्व प्रयत्नपूर्वक निर्मम होने के लिए चिंतन करना चाहिए। इस प्रकार ममत्व से रहित साधु घातियाँ कर्मों का नाश करके वीतरागी बन जाते हैं तब किसी भी वस्तु पर उनका अनुराग या प्रेम नहीं रहता है और राग के अभाव में किसी के प्रति उन्हें द्वेष भावना भी नहीं रहती है तब वे अस्त्र-शस्त्र भला क्यों रखेंगे। ऐसे वीतरागी जिनेन्द्रदेव परम समताभाव से परिणत होकर पूर्ण केवलज्ञान प्राप्त करके परमानंद आदि अनंत गुणों के सागर हो जाते हैं उनके गुणों का स्मरण ही संसार के दु:खों से सबकी रक्षा करता है।
नमस्कार करते हुए इन्द्र के मुकुट के अग्रभाग में जड़े हुए रत्नोंरूपी सूर्य की प्रभा से जिनके चरणयुगल कुछ-कुछ श्वेतवर्ण के साथ लाल-लाल वर्ण वाले हो रहे हैं उनकी नख पंक्तियों में इन्द्र के नेत्रों के प्रतिबिंब पड़ते हैं वे भ्रमरों के समान मालूम पड़ते हैं, जो लक्ष्मी के स्थान हैं। भगवान के चरणयुगल लक्ष्मी के स्थान हैं, कमल की सदृशता को धारण कर रहे हैं फिर भी रज-धूलि से रहित हैं, जड़ता को हरने वाले हैं। वे चरण युगल नमस्कार करते हुए इंद्र के मुकुट के अग्रभाग में लगे हुए रत्नरूपी सूर्य की कांति से सुंदर किंचित् लाल वर्ण वाले हो रहे हैं। उन चरणों की नख पंक्तियों में इंद्र के नेत्रों के प्रतिबिंब पड़ते हैं, वे भ्रमरों की शंका उत्पन्न करते हैं। ऐसे जिनेन्द्रदेव के चरणयुगल हमारे चित्त में विराजमान होकर मोक्षसुख के लिए होवें। यहाँ जिनेन्द्र भगवान के चरणों को कमल की उपमा दी है। जिस प्रकार कमल पाटल किंचित् सपेâदी के साथ लाल होता है उसी प्रकार भगवान के चरणों में जब इंद्र नमस्कार करता है तब उसके मुकुट में जड़े हुए रत्नों की प्रभा उन पर पड़ती है इसलिए वे कमल के समान लाल हो जाते हैं। कमलों पर भ्रमर आते हैं वैसे ही भगवान के चरण नखों में नमस्कार करते हुए इन्द्र के नेत्रों का प्रतिबिंब पड़ता है व भ्रमरों के समान दिखता है। कमल श्री-लक्ष्मी का आलय है तो भगवान के चरण श्री-उत्कृष्ट शोभा के स्थान हैं। कमल रज-पराग से सहित और जड़ता-अचेतनता से सहित होता है किन्तु भगवान के चरणकमल रज-कर्मरज से रहित और जड़ता-अज्ञानता को हरने वाले हैं, ऐसे चरणयुगल मेरे हृदय में विराजमान होवें और मुझे सर्वसुख प्रदान करें।
हे भगवन्! आपके चरणयुगल मेरे हृदय में लीन हो जावें, कीलित जैसे हो जावें, गड़े हुए के समान स्थिर हो जावें, प्रतिबिंबित के समान हो जावें। हे नाथ! आपके चरणयुगल मेरे हृदय के अंधकार को दूर करते हुए दीपक के समान प्रकाश करने वाले हो जावें। इस प्रकार भगवान के चरणों को हृदय में स्थापित करने से पापों का समूह पलायमान हो जाता है, मोह अंधकार दूर होता है और ज्ञान का प्रकाश प्रगट होता है, जिससे मोक्षसुख नजदीक होता है।
शांतिनाथ की वंदना
जयति जगदधीश: शान्तिनाथो यदीयं स्मृतमपि हि जानानां पापतापोपशान्त्यै।
शांतिनाथ भगवान् जयशील होवें, जो जगत् के स्वामी हैं, जिनके चरणकमल का स्मरण मात्र भी जीवों के पापरूपी संताप को शांत करने वाला है। इन शांतिनाथ के चरणकमल देवसमूह के मुकुटों में लगे हुए चमकशाली नीलरत्नों की प्रभारूपी चंचल भ्रमरों की पंक्ति से स्पर्शित हैं। देवों के मुकुटों में लगे हुए नीलमणि रत्न, उनकी कांति भ्रमरों के समान काली होती है। भगवान शांतिनाथ के चरणकमलों में जब देवों का समूह नमस्कार करता है तब उनके मुकुटों के रत्नों की कांति भ्रमरों की शंका उत्पन्न करती है। ऐसे शांतिनाथ भगवान तीनों जगत के स्वामी हैं। इन शांतिनाथ भगवान का नाम स्मरण भी भव्यों के संपूर्ण पाप संताप को शांत कर देता है। यही कारण है कि आज सभी साधुवर्ग प्रत्येक क्रिया के अंत में शांतिभक्ति का पाठ करते हैं और श्रावक भी पूजन के अंत में शांतिपाठ करते हैं।
जिनेन्द्रदेव कथित धर्म ही परमधर्म है।
स जयति जिनदेवो सर्वविद्विश्वनाथोऽवितथवचनहेतुक्रोधलोभाद्विमुक्त:।
वे जिनेन्द्रदेव जयवंत होवें , जो सर्वज्ञ हैं, सर्व विश्व के स्वामी हैं, असत्य वचन में कारणभूत जो क्रोध, लोभ आदि कषायें हैं उनसे रहित हैं तथा जिन्होंने मोक्षपुरी के मार्ग में चलते हुए पथिकजनों के लिए पाथेय-कलेवा स्वरूप उत्तम सुख को उत्पन्न करने वाले ऐसे धर्म का उपदेश दिया है। ‘‘कर्मारातीन् जयतीति जिन:’’ जो कर्मशत्रुओं को जीतते हैं वे जिन कहलाते हैं। ‘‘जिनानां इन्द्र: जिनेन्द्र:’’ और जो जिनों में भी इंद्र-श्रेष्ठ हैं वे जिनेन्द्रदेव तीर्थंकर भगवान हैं उन्होंने जिस धर्म का उपदेश दिया है वह धर्म मोक्ष को प्राप्त करने वाले मुनि तथा श्रावक ऐसे भव्यों के लिए मार्ग में अल्पाहार का काम करता है क्योंकि भूखे रहकर कोई भी मनुष्य लंबा मार्ग नहीं तय कर सकता है वैसे ही मोक्ष को प्राप्त करने के लिए कई भवों तक बीच में यह धर्म ही स्वर्ग सुख और मनुष्यों के अनेक अभ्युदय आदि सुख देता रहता है।
धर्म के भेद
धर्मो जीवदया गृहस्थशमिनोर्भेदाद्द्विधा च त्रयं रत्नानां परमं तथा दशविधोत्कृष्टक्षमादिस्तत:।
जीवदया धर्म है, यह श्रावक और मुनि के भेद से दो प्रकार का है। वही धर्म उत्कृष्ट रत्नत्रय के भेद से तीन प्रकार का है तथा उत्तम क्षमा, मार्दव आदि के भेद से दश प्रकार का है फिर भी मोह के निमित्त उत्पन्न हुए मानसिक विकल्प से रहित, वचन एवं शरीर के संसर्ग से भी रहित जो शुद्ध आनंद रूप आत्मा की परिणति है उसे ही ‘धर्म’ इस नाम से कहा जाता है। ‘उत्तमे सुखे धरतीति धर्म:’ जो उत्तम सुख में पहुँचाता है वह धर्म है। वह मुख्य रूप से तो जीवदया रूप ही है पुन: अणुव्रत, महाव्रत, रत्नत्रय और दशधर्म रूप जो भी धर्म हैं वे सब इस जीवदया के ही विस्तार हैं। पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में श्रीअमृतचंद्रसूरि ने असत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन सबको अहिंसा की रक्षा के लिए ही बतलाया है। जैसे कि-
आत्मा के परिणामों की हिंसा में कारण होने से सभी अन्य पाप हिंसारूप ही हैं। जो झूठ, चोरी आदि पाप कहे हैं वे केवल शिष्यों को समझाने के लिए उदाहरणरूप में कहे गये हैं। अत: यह ‘दयाधर्म’ गृहस्थ के अष्टमूलगुण या अणुव्रत से लेकर मुनियों के महाव्रत, रत्नत्रय और दशधर्म तक व्याप्त है और इससे भी आगे स्वदयारूप से निश्चयधर्म में भी व्याप्त है। व्यवहारनय की अपेक्षा से जीवदया आदि धर्म माने गये हैं। निश्चयनय की अपेक्षा से शुद्ध आत्मा की परिणतिरूप शुद्धोपयोग ही धर्म है, यह निर्विकल्प ध्यानस्वरूप है और शुद्धानंदमय है। आगे यही परमानंदमय बन जाता है और गौतमस्वामी ने भी कहा है-
अहिंसा, संयम और तपरूप जो धर्म है वह मंगलमय है। जिसका मन सदा धर्म में लगा हुआ है देवगण भी उसे नमस्कार करते हैं। यह धर्म ही संसार में सर्व सुख देकर मोक्षसुख को प्राप्त कराता है। तब उन धर्म से परिणत महापुरुष को देव भी नमस्कार करते हैं वह तीन लोक का स्वामी बन जाता है।
कार्या सद्भिरिहाङ्गिषु प्रथमतो नित्यं दया धार्मिके: धिङ्नामाऽप्यदयस्य तस्य च परं सर्वत्र शून्या दिश:।।८।।
वस्तु के एक-एक अंश को कहने वाला नय है। इसके मुख्य दो भेद हैं-निश्चयनय और व्यवहारनय। जो वस्तु के स्वभाव या शक्ति को बतलाता है वह निश्चयनय है। जैसे जल शीतल है भले ही वह अग्नि के संयोग से खूब गरम हो रहा है फिर भी स्वभावदृष्टि से-निश्चयनय से वह शीतल ही है। ऐसे ही बीज में वृक्ष है, दूध में घी है, यह शक्ति की अपेक्षा है, बीज शक्तिरूप में वृक्ष है। इसी प्रकार यह निश्चयनय आत्मा को स्वभाव दृष्टि से अनंत ज्ञान, दर्शनस्वरूप कहता है। संसारी जीवों को शक्तिरूप से भगवान आत्मा-सिद्ध परमात्मा कहता है। व्यवहारनय वस्तु के विभाव को कहता है और प्रगट अवस्था का निरूपण करता है। जैसे जल गरम है-खौलते हुए जल को गरम ही कहता है। ऐसे ही बीज को बीज और वृक्ष को वृक्ष कहता है। वैसे ही संसारी जीवों को कर्मसहित नर नरकादि कहता है, संसारी जीव को संसारी और कर्म के बंधन से मुक्त को ही मुक्त-सिद्ध परमात्मा कहता है। जीवदया धर्म पहले गुणस्थान से लेकर छठे गुणस्थान तक व्यवहार क्रियारूप से है। आगे निश्चयनय से आत्मा की दयारूप धर्म या रागादि भाव हिंसा के अभावरूप धर्म बारहवें गुणस्थान तक भी है। गृहस्थ का धर्म एकदेश रत्नत्रय है, मुनियों में ही पूर्ण रत्नत्रय होता है। उत्तम क्षमादि धर्म एकदेशरूप में गृहस्थ के हो सकते हैं और मुनियों के वे पूर्णरूप से होते हैं। जो सबसे प्रथम धर्म जीवदया है वह समीचीन व्रतों की, सर्व सुखों की और उत्तम संपदाओं की जननी है-उत्पन्न करने वाली है। धर्मरूपी वृक्ष की जड़ है तथा अविनश्वर-मोक्षमहल पर चढ़ने के लिए अपूर्व सीढ़ी का काम करती है इसलिए धर्मात्मा सत्पुरुषों को सबसे पहले सर्व प्राणियों में नित्य ही दया करनी चाहिए। देखो, निर्दय का नाम भी धिक्कार रूप-निंदाजनक है, उसके लिए सर्वत्र दिशायें शून्य जैसी हैं। एक जीवदया ही ऐसा धर्म है कि जो उत्तम-उत्तम व्रतों को उत्पन्न करने में माता के समान है, सभी सुखों और नवनिधि, चौदह रत्न आदि संपत्तियों को प्रदान करने वाला है। यह धर्म की जड़ है जैसे जड़ के बिना वृक्ष नहीं हो सकता है वैसे ही बिना दया के धर्म की बात ही नहीं हो सकती है। यह दया धर्म की ही परम्परा से मोक्ष को प्राप्त कराने वाला है। उस जीवदया धर्म से अव्रती सम्यग्दृष्टि आदि अपने-अपने पद के अनुकूल व्रतों का पालन करते हुए क्रम से कर्मों को नष्ट कर मुक्तिपद को भी प्राप्त कर लेते हैं।
संसारे भ्रमतश्चिरं तनुभृत: के के न पित्रादयो जातास्तद्वधमाश्रितेन खलु ते सर्वे भवन्त्याहता:।
इस संसार में अनंत-चिरकाल से भ्रमण करने वाले जीवों के कौन-कौन से जीव पिता, माता, भाई, बहन आदि नहीं हुए हैं ? अतएव उन-उन जीवों के घात में प्रवृत्त हुआ जीव निश्चित ही उन सबको मारता है। आश्चर्य तो इस बात का है कि वह अपनी आत्मा का ही घात कर लेता है। इस भव में जो दूसरे के द्वारा मारा जाता है वह निश्चित ही भवान्तरों में क्रोध के संस्कार से अपने उस मारने वाले का बहुत बार घात करता है। यह बहुत बड़े आश्चर्य की अथवा खेद की बात है। अनादिकाल से आज तक प्रत्येक जीव संसार में जन्म-मरण करते हुए भ्रमण कर रहे हैं। चारों गतियों में घूमते हुए नाना भवों में प्राय: सभी जीव एक दूसरे के माता-पिता आदि कुटुम्बीजन बन चुके हैं अत: जो प्राणी निर्दय होकर किसी को भी मारते हैं समझिये कि उन्होंने अपने माता-पिता आदि परिवारजनों का ही घात किया है। इस निमित्त से वह अपना ही घात कर लेता है अथवा वह क्रोध से कभी-कभी अपना आत्मघात ही कर लेता है। यह क्रोध के संस्कार ऐसे होते हैं कि इस जन्म में जिसे किसी ने एक बार मारा है वह आगे भवों में अपने मारने वाले को अनेकों बार मारता है इसलिए क्रोध के निमित्त से किसी का घात करना बुरा है ही है, किसी भी निमित्त से किसी का घात नहीं करना चाहिए।
जीवन देना सबसे महान है
त्रैलोक्यप्रभुभावतोऽपि सहजोऽप्येकं निजं जीवितं प्रेयस्तेन विना स कस्य भवितेत्याकांक्षत: प्राणिन:।
रोगी मनुष्य को भी तीनों लोकों की प्रभुता की अपेक्षा एकमात्र अपना जीवन प्रिय होता है। चूंकि वह सोचता है कि जीवन के नष्ट हो जाने पर तीन लोक की प्रभुता भला किसको प्राप्त होगी ? निश्चय से यह जीवन समस्त व्रत, शील एवं अन्य निर्मल गुणों का आधार है अत: संसार में जीव के जीवनदान की अपेक्षा अन्य समस्त संपत्ति आदि का दान भी तुच्छ माना जाता है। यदि कोई किसी को कहे कि मैं आपके प्राणों को हरकर-आपको मारकर तीन लोक का ऐश्वर्य दिए देता हूँ तो वह यही कहेगा भाई! मैं जब मर जाऊँगा तब तुम्हारे तीन लोक के ऐश्वर्य से भला क्या प्रयोजन सिद्ध होगा ? अत: मुझे तीन लोक की संपत्ति के बजाय प्राण ही प्यारे हैं। इससे मालूम होता है कि किसी एक जीव को जीवनदान देना सर्वसंपत्ति को देने की अपेक्षा भी अधिक श्रेष्ठ है। दूसरी बात यह है कि किसी को मारने से उसके शरीर का घात होता है, जीवित मनुष्य का शरीर संपूर्ण व्रत, शील, संयम आदि गुणों का आश्रय है शरीर से ही रत्नत्रय की साधना होती है अत: जीववध करने वाले उसके अनेक गुणों को भी नष्ट कर देते हैं इसलिए संसार में सर्वश्रेष्ठ-तीनों लोकों के वैभव की अपेक्षा भी महान जीवनदान है। यही कारण है कि ‘जीवदया’ सभी धर्मों में प्रधान है और सभी धर्मों का मूल आधार है।–
तद्दानं बहु दीयतां तपसि वा चेत: स्थिरं धीयतां ध्यानञ्च क्रियतां जना न सफलं किञ्जिद्दयावर्जितम्।।११।।
यदि कोई अव्रती है फिर भी उसका चित्त यदि दया से भीगा हुआ है तो उसकी वह एकमात्र सर्वप्राणि दया ही स्वर्ग प्राप्ति के लिए निमित्त है, सर्व कल्याणों को देने वाली है। इससे अतिरिक्त जीवदया से रहित मनुष्य तपश्चर्या करते हुए भी पापी है। इसलिए हे भव्यजीवों! आप चाहे बहुत सा दान दीजिए, चाहे चिरकाल तक खूब तपश्चरण कीजिए अथवा चाहे ध्यान भी कीजिए किन्तु दया धर्म के बिना वह सब कुछ भी सफल नहीं है। जो कोई मनुष्य अणुव्रत, महाव्रत आदि नहीं लेकर भी अव्रती हैं फिर भी यदि वे जीवों पर दया करते हुए हिंसा से दूर रहते हैं तो उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति भी सुलभ है, अनेक कल्याणकारी संपदायें प्राप्त होती रहती हैं किन्तु इससे विपरीत यदि कोई मनुष्य पंचाग्नि आदि खूब तपश्चरण करे या बहुत सा सुवर्ण, भूमि, भोजन आदि दान देवे अथवा ध्यान भी करे किन्तु यदि प्राणियों की हिंसा में प्रवृत्त है, जीवदया धर्म से रहित है तो यह सब पुण्य कार्य भी उसे स्वर्ग मोक्ष के सुख तो क्या संसार के भी कुटुम्ब, धन, संपत्ति, शांति आदि सुख नहीं दे सकते हैं अत: जीवदया ही सर्वोत्तम धर्म है।
सर्व सुरेन्द्र और असुरेन्द्रों से पूजित मुक्ति के लिए श्रेष्ठ कारण ऐसा जो रत्नत्रय धर्म है वह तीनों लोकों को प्रकाशित करने वाला है, ऐसे इस रत्नत्रय को साधुजन इस शरीर के रहने पर ही धारण करते हैं उनके शरीर की स्थिति भी उत्कृष्ट भक्ति से दिये गये गृहस्थों के अन्न से ही होती है अत: उन गुणवान् सद्गृहस्थों का धर्म भला किसे प्रिय नहीं होगा ? अर्थात् सभी को प्रिय होगा। तात्पर्य यह है कि रत्नत्रय धर्म मोक्ष के लिए कारण है, वह शरीर से ही साधा जाता है और शरीर की स्थिति अन्न पर अवलंबित है। मुनिगण रत्नत्रय को धारण कर इस शरीर की रक्षा के लिए उसे एक बार श्रावकों के द्वारा दिये आहार से पोषते हैं। मुनियों को श्रावक आदि आहारदान न देवें तो वे अपने शरीर की रक्षा नहीं कर सकते चूंकि जैन मुनि अपने पास सुई मात्र भी परिग्रह नहीं रखते हैं। नग्न दिगंबर होकर मात्र पिच्छी, कमंडलु और शास्त्र ही रखते हैं। उनको आहार देकर श्रावक अपने गृह में रहते हुए भी गृहस्थधर्म का पालन करते हैं तभी वह गृहस्थाश्रम सफल माना जाता है अत: गृहस्थ धर्म अथवा श्रावकधर्म भी मान्य है, बुद्धिमानों को प्रिय है, इष्ट है और ऐसा न होता तो भला तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि महापुरुष भी गृहस्थाश्रम मेंं क्यों प्रवेश करते ?
कौन सा गृहस्थधर्म मान्य है ?
स्रग्धरा- आराध्यन्ते जिनेन्द्रा गुरुषु च विनतिर्धार्मिवै: प्रीतिरुच्चै:
जिस गृहस्थाश्रम में जिनेन्द्रदेवों की आराधना की जाती है, निग्र्रन्थ दिगम्बर गुरुओं की विनय-भक्ति की जाती है, धर्मात्मा पुरुषों के साथ प्रेम व्यवहार किया जाता है, पात्रों के लिए दान दिया जाता है, आपत्ति से ग्रस्त जनों को भी करुणा बुद्धि से दान दिया जाता है, तत्त्वों का अभ्यास किया जाता है, अपने श्रावक के व्रतों में अनुराग होता है और निर्दोष सम्यग्दर्शन धारण किया जाता है वह गृहस्थाश्रम विद्वानों के लिए पूज्य-मान्य है, श्रेष्ठ है। इससे विपरीत गृहस्थाश्रम यहां लोक में दु:खदायक मोह का पाश ही है। जो गृह में रहते हैं वे गृहस्थ हैं उनका जो आश्रम-निवास-रहना है वही गृहस्थाश्रम है। उस आश्रम में अपने कत्र्तव्यों का पालन आवश्यक है। वह आवश्यक देवपूजा आदि छह क्रियारूप है जिसे नाम मात्र से यहां बताया जाता है। देवपूजा, गुरुपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान। इनके सिवाय भी छह क्रियायें मानी हैं उनके नाम हैं-इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप। इज्या का अर्थ पूजा है इसके पाँच भेद हैं-नित्यमह, चतुर्मुख, कल्पद्रुम, आष्टाह्निक और ऐन्द्रध्वज। नित्यपूजा-प्रतिदिन घर से जल, चंदन, अक्षत आदि ले जाकर मंदिर में भगवान अर्हन्तदेव की पूजा करना नित्यपूजा है। इसी प्रकार मंदिर निर्माण कराना, जिनप्रतिमा बनवाना, मुनियों को आहारदान देना, पूजा करना आदि नित्यपूजा में शामिल है। ‘मुकुटबद्ध राजाओं के द्वारा जो जिनेन्द्रदेव की पूजा की जाती है उसे चतुर्मुख, सर्वतोभद्र या महाभद्र कहते हैं। समस्त याचकों को किमिच्छक-इच्छानुसार दान देते हुए जो चक्रवर्ती के द्वारा जिनेन्द्रदेव की पूजा की जाती है उसे कल्पदु्रम कहते हैं। नंदीश्वर पर्व में की जाने वाली पूजा नंदीश्वर पूजा है और इंद्र, प्रतीन्द्र आदि के द्वारा की जाने वाली पूजा ऐन्द्रध्वज पूजा कहलाती है। वार्ता-असि-तलवार आदि शस्त्र, मषि-लिखने का काम, कृषि-खेती, वाणिज्य-व्यापार, विद्या-पढ़ाकर आजीविका और शिल्प-कला, कौशल आदि से आजीविका करना-धन उपार्जन वार्ता है। दत्ति-दान देने को दत्ति कहते हैं, इसके चार भेद हैं-दयादत्ति, पात्रदत्ति, समदत्ति और सकलदत्ति। दु:खी प्राणियों को दयापूर्वक अभयदान देना दयादत्ति है। रत्नत्रयधारक मुनियों को नवधाभक्तिपूर्वक आहार देना तथा ज्ञान, संयम के शास्त्र, पिच्छी, कमंडलु आदि उपकरण देना, औषधि दान देना और वसतिका देना पात्रदत्ति है। अपने समान आचरण वाले गृहस्थों के लिए कन्या, भूमि, सुवर्ण आदि देना समदत्ति है। अपने निज की संतान परंपरा को कायम रखने के लिए अपने पुत्र को या दत्तक पुत्र को धन और धर्म समर्पण कर देना सकलदत्ति है इसे अन्वयदत्ति कहते हैं। स्वाध्याय-तत्त्वज्ञान को पढ़ना, पढ़ाना, स्मरण करना स्वाध्याय है। संयम-पांच अणुव्रतों में अपनी प्रवृत्ति करना संयम है। तप-उपवास आदि बारह प्रकार का तपश्चरण करना तप है। आर्यों के इन षट्कर्म में तत्पर रहने वाले गृहस्थ कहलाते हैं। इस प्रकार जो गृहस्थ भगवान की पूजा करते हैं, गुरुओं की भक्ति, विनय करते हुए आहारदान देते हैं, करुणादान आदि देते हैं। धर्मात्माओं में प्रेम करते हैं और तत्त्वों का अभ्यास करने के लिए स्वाध्याय करते हैं, उनका गृृहस्थाश्रम सफल है, वे मोक्षमार्गी हैं। इनसे अतिरिक्त जो गृहस्थ धर्म से शून्य हैं, खाने-पीने में और धन कमाने में ही लगे रहते हैं वे दु:खदायी मोह जाल में फंसे हुए हैं, संसार समुद्र में ही डूब रहे हैं।
गृहस्थ के व्रतों का वर्णन
आदौ दर्शनमुन्नतं व्रतमित: सामायिकं प्रोषधस्त्यागश्चैव सचित्तवस्तुनि दिवाभक्तं तथा ब्रह्म च।
नारम्भो न परिग्रहोऽननुमतिर्नोद्दिष्टमेकादशस्थानानीति गृहिव्रते व्यसनितात्यागस्तदाद्य: स्मृत:।।१४।।
आदि में उन्नति को प्राप्त दर्शन, इसके बाद व्रत अर्थात् १. दर्शन, २. व्रत, ३. सामायिक, ४. प्रोषध, ५. सचित्त त्याग, ६. दिवाभुक्ति, ७. ब्रह्मचर्य, ८. आरंभत्याग, ९. परिग्रह त्याग, १०. अनुमति त्याग और ११. उद्दिष्ट त्याग ये ग्यारह स्थान गृहस्थ व्रत के हैं। इसी प्रकार उन सबके आदि में जुआ आदि दुव्र्यसनों का त्याग कहा गया है। इन सब प्रतिमाओं में आगे-आगे बढ़ने पर पूर्व-पूर्व की प्रतिमाओं के व्रत होना आवश्यक हैं। श्रावकों के लिए ग्यारह प्रतिमायें मानी गई हैं। उन सबके पहले जुआ आदि सात व्यसनों को त्याग करना आवश्यक है। यहाँ संक्षेप से इन ग्यारह प्रतिमाओं का लक्षण बताते हैं- दर्शन प्रतिमा-विशुद्ध सम्यग्दर्शन धारण कर संसार, शरीर और इंद्रिय विषयों से विरक्त होना, पाक्षिक श्रावक के आचार के अभिमुख होना दर्शन प्रतिमा है। व्रत प्रतिमा-पांच अणुव्रत एवं सप्त शीलव्रतों का निरतिचार पालन करना। माया, मिथ्या और निदान इन शल्यों को छोड़ना यह व्रत प्रतिमा है। सामायिक प्रतिमा-तीनों संध्या कालों में देववंदना विधि से सामायिक करना, कम से कम अड़तालीस मिनट तक सामायिक करते हुए अनित्य, अशरण आदि भावनाओं का चिंतवन करना सामायिक प्रतिमा है। प्रोषध प्रतिमा-प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशी के दिन चतुर्विध भोजन का त्याग करना या एक बार शुद्ध भोजन करके एकाशन करना प्रोषध प्रतिमा है। इसके उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य भेद से तीन प्रकार हैं। उत्कृष्ट में सप्तमी और नवमी को एकाशन करके अष्टमी को उपवास करना होता है। जघन्य में मात्र अष्टमी और चतुर्दशी को एकाशन करना होता है। इसके बीच में तीन एकाशन या जल लेकर उपवास आदि मध्यम के अनेक भेद हैं। प्रोषध शब्द का अर्थ एकाशन और उपवास का अर्थ चार प्रकार के आहार का पूर्णतया त्याग है। इस प्रतिमाधारी को व्रत के आरंभ आदि पाप और शरीर, श्रृंगार आदि का भी त्याग कर देना चाहिए तभी उत्कृष्ट प्रोषधोपवास होता है। सचित्तत्याग-सचित्त जल, वनस्पति आदि का त्याग करना, जल को प्रासुक या गरम करके वैसे ही हरित वनस्पति को भी प्रासुक करके ग्रहण करना चाहिए। दिवाभुक्त-दिन में मैथुन का त्याग करना दिवाभुक्ति नाम की छठी प्रतिमा है। इसे रात्रिभोजन त्याग के नाम से भी आचार्यों ने माना है उसका अर्थ है रात्रि में चार प्रकार के आहार का त्याग करना अर्थात् दिन में ही भोजन करना अत: इस अर्थ से भी दिवाभुक्ति अर्थात् दिन में भोजन करना, रात्रि में नहीं करना ऐसा सिद्ध हो जाता है। ब्रह्मचर्य-स्त्रीमात्र से विरक्त होना पूर्ण ब्रह्मचर्यव्रत पालन करना ब्रह्मचर्य प्रतिमा है। आरंभत्याग-कृषि, व्यापार आदि आरंभ का त्याग करना आरंभ त्याग प्रतिमा है। परिग्रह त्याग-धन, धान्य आदि परिग्रह में ममत्व बुद्धि छोड़कर संतोषवृत्ति धारण करना परिग्रह त्याग प्रतिमा है। अनुमति त्याग-आरंभ, परिग्रह आदि लौकिक कार्यों में अनुमति नहीं देना अनुमतित्याग प्रतिमा है। उद्दिष्ट त्याग-गृहवास छोड़कर भिक्षावृत्ति से भोजन करना। अपने निमित्त से बनाये हुए भोजन का त्याग करना उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा है। इस ग्यारहवीं प्रतिमा के दो भेद हैं-क्षु¼क और ऐलक। वसुनंदि श्रावकाचार में इन दोनों का अच्छा वर्णन है। ग्यारहवीं प्रतिमाधारी के दो भेद हैं-क्षु¼क, ऐलक। क्षु¼क एकवस्त्र (दुपट्टा) और कौपीन दो वस्त्रों को धारण करते हैं किन्तु ऐलक कौपीन मात्र को धारण करते हैं। क्षु¼क अपने केशों को वैंâची या उस्तरा से बनवा सकते हैं, सावधान होकर उपकरण-पिच्छी से स्थान आदि का शोधन करते हैं, पाणिपात्र या थाली आदि पात्र में एक बार बैठकर आहार लेते हैं। चारों पर्वों में उपवास करते हैं, आंगन में ठहर कर ‘धर्मलाभ’ कहकर स्वयं भिक्षा मांगते हैं, भिक्षा के लाभ-अलाभ में अदीनमुख वहां से शीघ्र ही निकलकर दूसरे घर में जाते हैं, मौन से अपने शरीर को दिखलाते हैं, यदि मार्ग में ही कोई श्रावक कहे कि भोजन कर लीजिए तो पूर्वघर से प्राप्त अपनी भिक्षा को खाकर शेष वहां के भोजन को लेकर जीमकर आ जाते हैं। यदि कोई भोजन के लिए न कहे तो अपने पेट के पूरण करने प्रमाण भिक्षा प्राप्त कर अंत में एक घर में बैठकर शोधकर भोजन करके पात्र प्रक्षालन कर गुरु के पास आ जाते हैं। यदि किसी को इस विधि से गोचरी करना न रुचे तो वह मुनियों के गोचरी कर जाने के पश्चात् चर्या के लिए प्रवेश करे अर्थात् एक भिक्षा के नियम वाला उत्कृष्ट श्रावक चर्या के लिए किसी श्रावक के घर में जावे, यदि इस प्रकार भिक्षा न मिले तो फिर किसी के घर न जाकर उपवास कर लेवे, अनंतर गुरु के समीप जाकर विधिपूर्वक प्रत्याख्यान ग्रहण कर गोचार दोषों की आलोचना करे। ऐलक भी उत्कृष्ट श्रावक हैं उन्हें नियम से केशों का लोच करना चाहिए, पिच्छी रखना चाहिए और पाणिपात्र में आहार लेना चाहिए।१ वैसे वर्तमान में आचार्य संघों में रहकर ही ये विधि समझनी चाहिए। आजकल क्षु¼क, ऐलक संघों में रहते हैं। मुनि, आर्यिका के बाद आहार को निकलते हैं और पड़गाहन विधि से किसी के भी घर में आहार के लिए जाते हैं। वहाँ नवधाभक्ति के बाद थाली में या कटोरी में आहार ग्रहण करते हैं। इनकी नवधाभक्ति में अष्टद्रव्य से पूजन न होकर अघ्र्य मात्र चढ़ाया जाता है, यही अंतर है। ये आर्यिकाओं को वंदामि करते हैं चूंकि आर्यिकायें उपचार से महाव्रती हैं। कहा भी है-
अहो आश्चर्य है कि ऐलक लंगोटी में ममत्व परिणाम होने से उपचार से भी महाव्रती नहीं हो सकता है किन्तु आर्यिका साड़ी धारण करने पर भी ममत्व परिणाम रहित होने से उपचार से महाव्रतिनी कहलाती हैं अर्थात् ऐलक लंगोटी का त्याग कर दिगंबर मुनि बन सकता है फिर भी ममत्व आदि कारणों से धारण किए है किन्तु आर्यिका तो साड़ी को त्याग करने में समर्थ नहीं है। इन क्षुक और ऐलक के हाथ में मयूरपंख की पिच्छिका रहती है जैसा कि पद्मपुराण में सिद्धार्थ क्षुक का वर्णन इस प्रकार है- अनंतर पुण्ययोग से ‘सिद्धार्थ’ नाम के एक प्रसिद्ध, शुद्ध हृदय क्षु¼क राजा वज्रजंघ के घर आये, वे क्षुक महाविद्याओं के द्वारा इतने पराक्रमी थे कि प्रतिदिन प्रात:, मध्यान्ह और सायं इन तीनों संध्याओं में मेरुपर्वत पर जाकर वहां के मंदिरों में विराजमान जिनप्रतिमाओं की वंदना कर क्षण भर में अपने स्थान पर आ जाते थे। वे प्रशांत मुख थे, धीर वीर थे, केशलोंच करने से उनका मस्तक मुंडित था। उनका चित्त शुद्ध-उत्तम भावनाओं से युक्त था। वे वस्त्र मात्र परिग्रह के धारक उत्तम अणुव्रती थे, अनेक गुणरूपी अलंकारों से अलंकृत थे, जिनशासन के रहस्य को जानने वाले थे, कलारूपी समुद्र के पारगामी थे, धारण करते हुए सपेâद चंचलवस्त्र (दुपट्टे) से ऐसे जान पड़ते थे मानों मृणालों के समूह से वेष्ठित मंद-मंद चलने वाला गजराज ही हो। जो ‘पिच्छी’ को प्रिय सखी के समान बगल में धारणकर अमृत के स्वाद के समान मनोहर ‘धर्मवृद्धि’ शब्द का उच्चारण कर रहे थे और घर-घर भिक्षा लेते हुए धीरे-धीरे चल रहे थे, इस तरह भ्रमण करते हुए संयोगवश उस उत्तम घर में पहुँचे, जहाँ सीता बैठी थी। जिनशासन देवी के समान मनोहर भावना को धारण करने वाली सीता ने ज्यों ही क्षु¼क को देखा त्यों ही वह संभ्रम के साथ नौखंडा महल से उतरकर नीचे आ गई, पास में जाकर हाथ जोड़कर उसने ‘इच्छाकार’ आदि से नमस्कार कर विधिवत् पूजा करके आहार कराया। चूंकि वह सीता जिनशासन में आसक्त पुरुषों को अपना बंधु समझती थी१। इस प्रकार यहाँ ग्यारह प्रतिमा का संक्षेप में वर्णन किया गया है। ये श्रावक की ग्यारह प्रतिमायें अनादिकाल से उपासकाध्ययन सूत्रों में कही गई हैं। श्रीगौतमस्वामी ने भी प्रतिक्रमणसूत्र में कहा है-
दंसण-वय सामायिय पोसह सचित्त राइभत्ते य।
बंभारंभ परिग्गह अणुमणमुद्दिट्ठ देसविरदो य।।
महुमंसमज्जजूआ वेसादिविवज्जणासीलो।
पंचाणुव्वयजुत्तो सत्तेहिं सिक्खावएहिं संपुण्णो।।
२दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्तत्याग, रात्रिभोजनत्याग, ब्रह्मचर्य, आरंभत्याग, परिग्रहत्याग, अनुमतित्याग और उद्दिष्टत्याग ये ग्यारह प्रतिमायें देशविरत श्रावक के लिए हैं तथा मधु, मांस, मद्य, जुआ, वेश्यासेवन आदि व्यसन को त्याग करने वाले श्रावक का पांच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रतों से सहित धर्म होता है। इन ग्यारह प्रतिमाओं में पहली प्रतिमा से लेकर छठी प्रतिमा तक के पालन करने वाले जघन्य श्रावक हैं, ये घर में भी रहते हैं। इसके बाद सप्तम प्रतिमा से लेकर नवमीं प्रतिमा के व्रतों को धारण करने वाले श्रावक मध्यम श्रावक हैं। सप्तम प्रतिमा वाले ब्रह्मचारी गृहविरत भी होते हैं, घर में भी रहते हैं। इसके बाद दसवीं और ग्यारहवीं प्रतिमा के धारक उत्कृष्ट श्रावक कहलाते हैं। इसमें से छठी प्रतिमा तक के श्रावक घर में रहकर असि, मषि आदि क्रियाओं, व्यापार आदि कार्यों को करते हुए देवपूजा, आहारदान, तीर्थयात्रा आदि के द्वारा अपने गार्हस्थ्य जीवन को सफल कर लेते हैं। पद्मपुराण में इस गृहस्थधर्म को मुनिधर्म का छोटा भाई कहा है- ‘‘अयोध्या में जिनमंदिर में स्व और पर शास्त्रों के पारगामी तथा अनेक मुनियों का संघ जिनकी निरंतर सेवा करता था, ऐसे ‘द्युति’ नाम के दिगम्बर आचार्य रहते थे।’’ उनके पास जाकर भरत ने प्रतिज्ञा की कि ‘मैं राम के दर्शन मात्र से मुनिव्रत धारण करूँगा।’ तब अपनी गंभीर वाणी में भगवान द्युति भट्टारक ने भरत को संबोधित करते हुए कहा- हे भव्य! राम जब तक वापस आयेंगे तब तक तुम गृहस्थ धर्म के द्वारा अभ्यास कर लो। महात्मा निर्ग्रन्थ मुनियों की चर्या अत्यन्त कठिन है पर जो अभ्यास के द्वारा परिपक्व होते हैं उन्हें उसका साधन करना सरल हो जाता है। ‘‘मैं आगे तप करूँगा’’ ऐसा कहने वाले अनेक अज्ञानी मनुष्य मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं पर दीक्षा नहीं ले पाते हैं। ‘निग्र्रन्थ मुनियों का धर्म अमूल्य रत्न के समान है’ ऐसा कहना भी अशक्य है फिर उसकी अन्य उपमा तो भला क्या हो सकती है ?
कनीयांस्तस्य धर्मोऽयमुक्तोऽयं गृहिणां जिनै:।
अप्रमादी भवेत्तस्मिन्निरतो बोधदायिनि।।१४६।।
यथा रत्नाकरद्वीपं मानव: कश्चिदागत:।
रत्न यत्किंचिदादत्ते यात्यस्य तदनर्घताम्।।१४७।।
तथास्मिन्नियमद्वीपे शासने धर्मचक्रिणाम्।
य एव नियम: कश्चिद् ग्रहीतो यात्यनर्घताम्।।१४८।।
गृहस्थों के धर्म को जिनेन्द्रदेव ने मुनिधर्म का छोटाभाई कहा है सो बोधि को प्रदान करने वाले इस धर्म में भी प्रमाद रहित होकर लीन रहना चाहिए। जैसे कोई मनुष्य रत्नद्वीप में गया, वहां वह जिस किसी भी रत्न को उठाता है वही उसके लिए अमूल्य हो जाता है। उसी प्रकार धर्मचक्र की प्रवृत्ति करने वाले जिनेन्द्र भगवान के शासन में जो कोई इस नियमरूपी द्वीप में आकर जिस किसी भी नियम को ग्रहण करता है वही उसके लिए अमूल्य हो जाता है। जो अत्यन्त श्रेष्ठ अहिंसारूपी धर्मरत्न को लेकर भक्तिपूर्वक जिनेन्द्रदेव की पूजा करता है वह स्वर्ग में परम वृद्धि को प्राप्त करता है। जो सत्यव्रत का धारी होकर मालाओं से भगवान की अर्चा करता है उसके वचनों को सब ग्रहण करते हैं तथा उज्ज्वल कीर्ति से वह समस्त संसार को व्याप्त करता है। जो चोरी का त्याग कर जिनेन्द्र भगवान की पूजा करता है वह रत्नों से परिपूर्ण निधियों का स्वामी होता है। जो जिनेन्द्रदेव की पूजा करता हुआ श्रावक परस्त्रियों में प्रेम नहीं करता है वह सबके नेत्रों को हरण करने वाला परम सौभाग्य को प्राप्त होता है। जो परिग्रह का परिमाण कर भक्तिपूर्वक जिनेन्द्र भगवान की अर्चा करता है वह अतिशय विस्तृत लाभों को प्राप्त होता है तथा सब लोग उसकी पूजा करते हैं। इस प्रकार पांच अणुव्रत श्रावक के धर्म हैं, ऐसे ही आहारदान, गुरुभक्ति, विधिवत् भगवान का अभिषेक आदि का वर्णन करके उनके फलों को बतलाया है पुन: जिनमंदिर निर्माण, जिनप्रतिमा की प्रतिष्ठा कराना तथा जिनबिंब के दर्शन का फल सुंदर कहा है। यथा- जो मनुष्य जिनमंदिर बनवाते हैं उन सुचेता के भोगों का वर्णन कौन कर सकते हैं ? जो मनुष्य जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमा बनवाते हैं वे शीघ्र ही सुर तथा असुरों के उत्तम सुख प्राप्त कर परम पद को प्राप्त कर लेते हैं, तीनों लोकों और तीनों कालों में व्रत, ज्ञान, तप और दान के द्वारा मनुष्य के जो पुण्यकर्म संचित होते हैं वे भावपूर्वक एक जिनप्रतिमा बनवाने से उत्पन्न हुए पुण्य की बराबरी नहीं कर सकते हैं। इस कहे हुए फल को जीव स्वर्ग में प्राप्त कर जब मनुष्य पर्याय में उत्पन्न होते हैं तब चक्रवर्ती आदि के पद पाकर वहाँ भी सुखों का उपभोग करते हैं। जो कोई मनुष्य इस विधि से धर्म का सेवन करते हैं वे संसार सागर से पार होकर तीन लोक के शिखर पर विराजमान हो जाते हैं। अब जिनप्रतिमा के दर्शन करने का फल बतलाते हैं-
जो मनुष्य जिनप्रतिमा का दर्शन करने के लिए चिंतवन करते हैं, मन में मात्र सोचते हैं कि भगवान के दर्शन करने जाना है वे बेला-दो उपवास का, जो उद्यम की अभिलाषा करते हैं वे तीन उपवास का, जो जाने का आरंभ करते हैं वे चार उपवास का, जो जाने लगते हैं वे पांच उपवास का, कुछ दूर पहुँच जाने पर बारह उपवास का, बीच मार्ग में पहुँच जाने पर पंद्रह उपवास का, मंदिर का दर्शन हो जाने पर एक मास के उपवास का, मंदिर के आंगन में प्रवेश करने पर छह मास के उपवास का, मंदिर के द्वार में प्रवेश करने पर एक वर्ष के उपवास का, प्रदक्षिणा देने पर सौ वर्ष के उपवास का, जिनेन्द्रदेव के मुखकमल का दर्शन करने पर हजार वर्ष के उपवास और भक्ति से गद्गद् हो स्वभाव से भगवान की स्तुति करने पर अनंत उपवास के फल को प्राप्त कर लेता है। यथार्थ में जिनभक्ति से बढ़कर उत्तम पुण्य नहीं है। इस प्रकार आचार्य द्युति कहते हैं-हे भरत! जिनेन्द्रदेव की भक्ति से कर्म क्षय को प्राप्त हो जाते हैं और जिनके कर्म नष्ट हो जाते हैं वे अनुपम सुख से संपन्न परमपद को प्राप्त कर लेते हैं। इसलिए यहाँ पर गृहस्थधर्म को भी परंपरा से मोक्ष का कारण समझकर उसे यथाशक्ति धारण करना चाहिए। मुनिधर्म अट्ठाईस मूलगुण रूप है। कोई भी महापुरुष गुरू के पास निग्र्रंथ दिगम्बर मुनिदीक्षा लेकर हाथ में मयूरपंख की पिच्छी, कमंडलु धारण करते हैं और २८ मूलगुणों को पालते हैं। पांच महाव्रत, पांच समिति, पांच इंद्रियनिरोध, छह आवश्यक क्रिया, केशलोंच, आचेलक्य, अस्नान, भूमिशयन, अदंतधावन, स्थितिभोजन और एकभक्त ये २८ मूलगुण हैं। इनका विस्तार मूलाचार आदि से समझना चाहिए। इस प्रकार गृहस्थधर्म पांच अणुव्रत से लेकर ग्यारह प्रतिमा तक है और मुनिधर्म अट्ठाईस मूलगुण रूप है। पूर्व-पूर्व की प्रतिमाएँ आगे-आगे आवश्यक हैं ?
तत्रापि व्यसनोज्झनं यदि तदप्यासूत्र्यतेऽत्रैवयत्तन्मूल: सकल: सतां व्रतविधिर्याति प्रतिष्ठां पराम्।।१५।।
इन प्रतिमाओं से जिन गृहस्थ-श्रावक के व्रतों को यहां आचार्यों ने कहा है, उन सबको विस्तार से समझने के इच्छुक जनों को उपासकाध्ययन से जानना चाहिए। उस अंग में जो व्यसनों का त्याग कहा गया है उसको यहाँ भी ले रहे हैं क्योंकि सत्पुरुषों की समस्त व्रत आदि क्रियायें इन व्यसनों के त्याग पर ही निर्भर हैं। ग्यारह अंगों में सातवां उपासकाध्ययन नाम का अंग है। इसमें उपासक-श्रावकों के समस्त व्रतों एवं क्रियाओं का वर्णन है। पहली प्रतिमाधारी से लेकर ग्यारहवीं प्रतिमाधारी तक के लिए उपासक शब्द का प्रयोग है। श्रीअमृतचंद्रसूरि ने कहा है-
हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह इन पांच पापों का संपूर्ण त्याग और एकदेश त्याग ऐसे चारित्र के दो भेद हो जाते हैं। जो पूर्ण रूप से इन पांचों पापों का त्याग करने वाले हैं वे यति ‘समयसार’ रूप हैं और जो एकदेश त्याग करने वाले हैं वे उपासक कहलाते हैं। ये उपासक पांच महाव्रतों की अथवा पांच महाव्रतधारी की उपासना करने वाले हैं इसीलिए इनका उपासक यह नाम सार्थक है। इन उपासकों की चर्या का जहां वर्णन है उस अंग का नाम ही उपासकाध्ययन है।