सम्यग्दर्शन किसको, कब और कैसे होता है ? ये तीन बातें ही मुख्यतया ज्ञातव्य हैं। वह भव्य जीव के ही होता है, अभव्य को नहीं। काललब्धि आदि के मिलने पर ही होता है, उसके बिना नहीं और अन्तरंग तथा बहिरंग कारणों से ही होता है बिना कारण के नहीं! हम और आप भव्य हैं या अभव्य ? काललब्धि आई है या नहीं ? इसका निर्णय तो सर्वज्ञ के सिवाय अन्य कोई नहीं कर सकता क्योंकि कोई अभव्य जीव ग्यारह अंग का ज्ञानी और निर्दोष, निरतिचार चारित्र का पालन करने वाला महातपस्वी मुनि होकर ही नवमें ग्रैवेयक में जा सकता है, हम और आप जैसे आज के साधारण जन नहीं। उसमें किस रूप से मिथ्यात्व रहता है उसका निर्णय साधारण जन नहीं कर सकते। वह तो सर्वज्ञगम्य ही है। हां, काललब्धि आदि कारणों को आगम से जान लेने की जिज्ञासा अवश्य होनी चाहिए। अब सर्वप्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति के कारणों पर प्रकाश डाला जा रहा है। सम्यक्त्व की उत्पत्ति के कारण-सम्यक्त्व की प्राप्ति के उपाय, साधन या हेतु को कारण कहते हैं। आजकल यह ‘कारण’ ही विसंवाद का मूल कारण हो रहा है। जिसके होने पर कार्य हो जावे अथवा नहीं भी होवे किन्तु जिसके बिना नहीं होवे वह कारण है। जैसे मुनि मुद्रा के होने पर मोक्ष होवे अथवा नहीं भी होवे किन्तु उसके बिना नहीं हो सकता तथा जिसके होने पर नियम से कार्य हो जावे वह कारण, कारण न कहला कर ‘करण’ कहलाता है और वह साधकतम माना जाता है। जैसे कि अधःकरण आदि तीन करणरूप करण लब्धि के होने पर नियम से सम्यक्त्व रूप कार्य प्रकट हो जाता है। कुछ लोग कारणों को अत्यन्त हेय अथवा उपेक्षा बुद्धि से देखते हैं। इन्हीं बातों को इसमें सप्रमाण बताया गया है। यहां एक बात यह भी समझ लेने की है कि जिस प्रकार से हमें श्रीकुन्दकुन्द आचार्य के वचन प्रमाण हैं उसी प्रकार से श्री गुणधर आचार्य, श्री पुष्पदंत और श्री भूतबलि आचार्य के वचन भी प्रमाण होने चाहिए क्योंकि श्री गुणधर आचार्य का ‘कषायपाहुड़’ नामक सिद्धांत ग्रंथ तो द्वादशांग का अंश है जैसा कि उन्होंने स्वयं कहा है कि-
पुव्वम्मि पंचमम्मि दु दसमे, वत्थुम्मि पाहुडे तदिये।
पेज्जं पाहुडम्मि दु हवदि, कसायाणं पाहुडं णाम१।।१।।
पांचवे (ज्ञानप्रवाद) पूर्व की दसवीं वस्तु में ‘पेज्जपाहुड़’ नामक तीसरा अधिकार है उससे यह ‘कषायपाहुड़’ उत्पन्न हुआ है। ऐसे ही ‘षट्खण्डागम’ सिद्धांत ग्रंथ भी द्वितीय अग्रायणीय पूर्व के चयनलब्धि नामक पांचवे अर्थाधिकार के चौथे प्राभृत से निकला हुआ है। इसका नाम ‘कर्मप्रकृति महाप्राभृत है।’ इन दोनों ग्रंथों की धवला, जयधवला नाम की टीका श्री वीरसेनाचार्य कृत है। वर्तमान में ये धवल, जयधवल ग्रन्थ सर्वोपरि होने से सर्वमान्य हैं। इसी तरह से उमास्वामी आचार्यकृत तत्त्वार्थसूत्र भी महाशास्त्र के नाम से ही सर्वमान्य है। ऐसे ही और भी अनेक प्रमुख ग्रन्थों के विषय में समझ लेना चाहिए। यहां सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति यह कार्य है, उसके लिए गुरु उपदेश आदि बहिरंग कारण हैं तथा दर्शनमोहनीय आदि का उपशम, क्षयोपशम या क्षय होना सो अंतरंग कारण या करण है। अनादि मिथ्यादृष्टि भव्य जीव संज्ञी, पंचेन्द्रिय और पर्याप्त हो तो वह चारों गतियों में भी प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्रगट कर सकता है। धवला की छठी पुस्तक में सम्यक्त्व के कारणों का बहुत ही सुन्दर विवेचन है उसी को यहां देखिए- नारकी मिथ्यादृष्टि जीव तीन कारणों से प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करते हैं।
शंका-यह प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति रूप कार्य तीन कारणों से किस प्रकार उत्पन्न हो सकता है ?
समाधान-ऐसा नहीं कहना, क्योंकि मुद्गर, लकड़ी, दंड, स्तम्भ, शिला, भूमि व घटरूप विरोध रहित कारणों से खप्पड़ों की उत्पत्ति रूप कार्य देखा जाता है, ऐसा ही यहां समझना।
शंका-वे तीन कारण कौन से हैं ?
समाधान-कितने ही जीव जातिस्मरण से, कितने ही धर्मोपदेश सुनकर और कितने ही वेदना से अभिभूत होकर सम्यक्त्व को उत्पन्न करते हैं।
शंका-धर्मोपदेश सुनकर सम्यक्त्व हो जावे सो ठीक किन्तु जातिस्मरण कारण समझ में नहीं आया। चूंकि सभी नारकी जीव विभंग ज्ञान के द्वारा एक, दो या तीन आदि भवों को जानते हैं इसलिए सभी के जातिस्मरण होता है पुनः सभी के सम्यक्त्व प्रगट हो जाना चाहिए ?
समाधान-ऐसी बात नहीं है, सामान्यरूप से भवस्मरण के द्वारा सम्यक्त्व की उत्पत्ति नहीं होती किन्तु यदि किसी ने पूर्व भव में धर्मबुद्धि से कुछ अनुष्ठान किए थे और वे वास्तविक धर्मरूप न होने से उनका फल नहीं मिल सका, ऐसा जानकर ही कदाचित् किसी को सम्यक्त्व उत्पन्न हो गया हो तो वह जातिस्मरण निमित्तक कहलाता है और इस प्रकार की बुद्धि सब नारकी जीवों के होती नहीं है क्योंकि तीव्र मिथ्यात्व के उदय के वशीभूत नारकी जीवों के पूर्व भवों का स्मरण होते हुए भी उक्त प्रकार के उपयोग का अभाव है अतः इस प्रकार जातिस्मरण प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति का कारण है।
शंका-नारकी जीवों के धर्मश्रवण किस प्रकार संभव है क्योंकि वहां तो ऋषियों के गमन का अभाव है ?
समाधान-कोई-कोई सम्यग्दृष्टि देव किसी नारकी को अपने पूर्वभव का सम्बन्धी जान लेते हैं और यदि उसको धर्म में लगाना चाहते हैं तो वे वहां नरकों में जाकर धर्मोपदेश देकर सम्यक्त्व ग्रहण करा देते हैं।
शंका-वेदना का अनुभवन सम्यक्त्व की उत्पत्ति में कारण नहीं हो सकता क्योंकि वह अनुभवन तो सब नारकियों के साधारण होता है, यदि वह अनुभव कारण हो तो सभी नारकी जीव सम्यग्दृष्टि हो जावेंगे ?
समाधान-वेदना सामान्य तो सम्यक्त्व उत्पत्ति का कारण नहीं है किन्तु जिन जीवों के ऐसा उपयोग होता है कि अमुक वेदना अमुक मिथ्यात्व के कारण या अमुक असंयम से उत्पन्न हुई है, उन्हीं जीवों की वेदना सम्यक्त्वोत्पत्ति का कारण होती है अर्थात् पूर्वभव में मैंने अमुक पाप किया, जिसके फलस्वरूप मुझे आज यहां इस नरक में घोर वेदना मिल रही है ऐसा प्रगट हो जाने से उस पाप और मिथ्यात्व से भय उत्पन्न होता है पुनः सम्यक्त्व प्रगट हो जाता है परन्तु अन्य जीवों की वेदना वहां सम्यक्त्व का कारण नहीं बनती है। ऊपर की तीन पृथिवियों के नारकी जीवों के लिए तीन कारण होते हैं किन्तु नीचे की चार पृथिवियों में कितने ही जीव जातिस्मरण से और कितने ही वेदना से अभिभूत होकर सम्यक्त्व उत्पत्ति करते हैं चूंकि वहां देवों के गमन का अभाव होने से धर्मश्रवण कारण असंभव है।
शंका-वहां के सम्यग्दृष्टि नारकी जीव ही अन्य दूसरों को धर्मश्रवण क्यों नहीं करा देते ?
समाधान-भव सम्बन्ध से या पूर्व वैर के सम्बन्ध से परस्पर विरोधी हुए नारकी जीवों के अनुगृह्य-अनुग्राहक भाव उत्पन्न होना असंभव है अर्थात नारकी परस्पर में एक-दूसरे के प्रति उपकार का भाव नहीं कर पाते हैं ऐसा उस नरक पर्याय का ही प्रभाव है। तिर्यंचों में एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय इनके सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता है तथा संमूच्र्छन तिर्यंचों के भी प्रथम उपशम सम्यक्त्व प्राप्त करने की योग्यता नहीं है अत: गर्भ से जन्म लेने वाले पर्याप्तक संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच ही इस सम्यक्त्व को उत्पन्न करते हैं ? वे बहुत से दिवस पृथक्त्व के व्यतीत हो जाने पर तीन कारणों से सम्यक्त्व प्राप्त कर सकते हैं। कितने ही जाति स्मरण से, कितने ही धर्मोपदेश सुनकर और कितने ही जिनबिंबों के दर्शन करके।
शंका-जिनबिंब का दर्शन प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति में कारण किस प्रकार से है ?
समाधान-जिनबिंब के दर्शन से निधत्त और निकाचित रूप भी मिथ्यात्व आदि कर्मसमूह का क्षय देखा जाता है, जिससे जिनबिंब का दर्शन प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति का कारण होता है।१ कहा भी है-
दर्शनेन जिनेन्द्राणां पापसंघातकुंजरम्।
शतधा भेदमायाति गिरिर्वज्रहतो यथा।।
जिनेन्द्रों के दर्शन से पाप संघात रूपी कुन्जर के सौ टुकड़े हो जाते हैं, जिस प्रकार कि वज्र के आघात से पर्वत के सौ टुकड़े हो जाते हैं। मनुष्यों में गर्भज, पर्याप्तक, मिथ्यादृष्टि मनुष्य ही इस प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करते हैं, सम्मूच्र्छन और अपर्याप्तक नहीं। ये मनुष्य आठ वर्ष की उम्र से लेकर किसी भी काल में तीन कारणों से सम्यक्त्व को प्राप्त कर सकते हैं, उसके नीचे के काल में नहीं। कितने ही मनुष्य जाति स्मरण से, कितने ही धर्मोपदेश सुनकर और कितने ही जिनबिंब के दर्शन करके।
शंका-जिनमहिमा को देखकर भी कितने ही मनुष्य प्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त करते हैं, इसलिए चार कारण कहना चाहिए ?
समाधान-जिनमहिमादर्शन का जिनबिंब दर्शन में अन्तर्भाव हो जाता है अथवा मिथ्यादृष्टि मनुष्यों के आकाश में गमन करने की शक्ति न होने से उनके चतुर्विध देवनिकायों के द्वारा किये जाने वाले नंदीश्वर द्वीपवर्ती जिनेन्द्र प्रतिमाओं के महामहोत्सवों का देखना संभव नहीं है इसलिए उनके जिनमहिमादर्शन रूप कारण का अभाव है किन्तु मेरुपर्वत पर किये जाने वाले जिनेन्द्र महोत्सवों को विद्याधर मिथ्यादृष्टि देखते हैं इसलिए उपर्युक्त अर्थ नहीं कहना चाहिए ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। अतएव पूर्वोक्त अर्थ ही ग्रहण करना योग्य है।
शंका-लब्धिसंपन्न ऋषियों का दर्शन भी तो प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति में कारण होता है पुन: इस कारण को यहाँ पृथक रूप से क्यों नहीं कहा ?
समाधान-नहीं, क्योंकि लब्धिसंपन्न ऋषियों के दर्शन का भी जिनबिंब दर्शन में ही अन्तर्भाव हो जाता है। ऊर्जयंत पर्वत तथा चंपापुर व पावापुर आदि के दर्शन को भी जिनबिंब दर्शन के भीतर ही ग्रहण कर लेना चाहिए। क्यों ? क्योंकि उक्त प्रदेशवर्ती जिनबिंबों के दर्शन तथा जिन भगवान के मोक्षगमन के कथन के बिना प्रथम सम्यक्त्व का ग्रहण नहीं हो सकता। तत्त्वार्थसूत्र में नैसर्गिक प्रथम सम्यक्त्व का भी कथन किया गया है, उसका भी पूर्वोक्त कारणों से उत्पन्न हुए सम्यक्त्व में ही अन्तर्भाव कर लेना चाहिए क्योंकि जातिस्मरण और जिनबिंबदर्शन के बिना उत्पन्न होने वाला निसर्गज नामक प्रथम सम्यक्त्व असंभव है। भावार्थ-निसर्गज सम्यक्त्व के लिए भी जातिस्मरण अथवा जिनबिंबदर्शन निमित्त होना ही चाहिए अन्यथा यह सम्यक्त्व भी प्रगट नहीं हो सकता। हाँ, इसमें धर्मोपदेश की अपेक्षा नहीं है। धर्मोपदेश निमित्त से हुआ सम्यक्त्व अधिगमज कहलायेगा। देवों में पर्याप्तक मिथ्यादृष्टि देव अन्तर्मुहूर्त काल से ऊपर कभी भी प्रथम सम्यक्त्व प्राप्त कर सकते हैं, अन्तर्मुहूर्त से पहले नहीं। देव चार कारणों से सम्यक्त्व उत्पन्न करते हैं-कितने ही जातिस्मरण से, कितने ही धर्मोपदेश सुनकर, कितने ही जिनमहिमा देखकर और कितने ही देवों की ऋद्धि देखकर।
शंका-यहाँ जिनबिंबदर्शन को कारण रूप से क्यों नहीं कहा ?
समाधान-क्योंकि जिनबिंबदर्शन का जिनमहिमा दर्शन में ही अन्तर्भाव हो जाता है। कारण कि जिनबिंब के बिना जिनमहिमा की उपपत्ति (व्यवस्था) बनती नहीं है।
शंका-स्वर्गावतरण, जन्माभिषेक और परिनिष्क्रमणरूप जिनमहिमायें जिनबिंब के बिना की गई देखी जाती हैं इसलिए जिनमहिमा दर्शन में जिनबिंबदर्शन का अविनाभाव नहीं है।
समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि स्वर्गावतरण, जन्माभिषेक और परिनिष्क्रमण रूप जिनमहिमाओं में भी भावी जिनबिंब का दर्शन निमित्तक नहीं है किन्तु जिनगुणश्रवण निमित्तक है।
शंका-देवद्र्धिदर्शन का जातिस्मरण में समावेश क्यों नहीं होता ?
समाधान-नहीं होता, क्योंकि अपनी अणिमादिक ऋद्धियों को देखकर जब यह विचार उत्पन्न होता है कि ये ऋद्धियाँ जिनभगवान उपदिष्ट धर्म के अनुष्ठान से उत्पन्न हुई हैं, तब प्रथम सम्यक्त्व की प्राप्ति जातिस्मरण निमित्तिक होती है किन्तु जब सौधर्मेन्द्र आदिक देवों की महाऋद्धियों को देखकर यह ज्ञान उत्पन्न होता है कि ये ऋद्धियाँ सम्यग्दर्शन से संयुक्त संयम पालन करने के फल से प्राप्त हुई हैं किन्तु मैं सम्यक्त्व से रहित द्रव्य संयम के फल से इन वाहन आदि नीच देवों में उत्पन्न हुआ हूँ तब प्रथम सम्यक्त्व का ग्रहण देवद्र्धिदर्शन निमित्तिक होता है। इससे जातिस्मरण और देवद्र्धिदर्शन ये दोनों कारण एक नहीं हो सकते तथा जातिस्मरण वहां पर उत्पन्न होने के प्रथम समय से लगाकर अन्तर्मुहूर्त काल के पश्चात् ही होता है इसलिए भी उन दोनों कारणों में एकत्व नहीं है। सम्यक्त्व प्राप्ति के लिए पांच लब्धि सबसे पहले अनादि मिथ्यादृष्टि जीव को उपशम सम्यक्त्व ही उत्पन्न होता है। कषायपाहुड़ नामक परमागम में कहते हैं- ‘‘दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम करने वाला जीव चारों ही गतियों में जानना चाहिए। वह जीव नियम से पंचेन्द्रिय, संज्ञी और पर्याप्तक होता है। इन्द्रक, श्रेणीबद्ध आदि सर्व नरकों में, सर्व प्रकार के भवनवासी देवों में, सर्वद्वीप और समुद्रों में, व्यंतर देवों में, समस्त ज्योतिष देवों में, सौधर्म स्वर्ग से लेकर नव ग्रैवेयक तक के सर्व विमानवासी देवों में, आभियोग्य अर्थात् वाहन आदि कुत्सित कर्म में नियुक्त वाहन देवों में, उनसे भिन्न किल्विषक आदि अनुत्तम तथा पारिषद आदि उत्तम देवों में दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम होता है।
भावार्थ-सर्वद्वीप और समुद्रों में’ इस वाक्य से ऐसा समझना कि ढाई द्वीपवर्ती संख्यात या असंख्यात वर्ष की आयु वाले गर्भज मनुष्य और तिर्यंचों के प्रथमोपशम सम्यक्त्व उत्पन्न करने की योग्यता है किन्तु आगे द्वीप, समुद्रों में यदि यहां के तिर्यंचों को कोई पूर्वभव का वैरी देव उठाकर डाल देवे तो उन जीवों के सम्यक्त्व ग्रहण की योग्यता होती है। धवलाकार सम्यक्त्व के लिए पांच प्रकार की लब्धियों का निरूपण करते हैं- ‘क्षयोपशम लब्धि, विशुद्धि लब्धि, देशना लब्धि, प्रायोग्य लब्धि और करण लब्धि ये पांच लब्धियां होती हैं। इनमें से पहली चार तो सामान्य हैं अर्थात् भव्य और अभव्य दोनों प्रकार के जीवों के होती हैं किन्तु करणलब्धि सम्यक्त्व होने के समय ही होती है।२’ क्षयोपशमलब्धि- पूर्व संचित कर्मों के मलरूप पटल के अनुभाग स्पर्धक जिस समय विशुद्धि के द्वारा प्रतिसमय अनंत गुणहीन होते हुए उदीरणा को प्राप्त किए जाते हैं, उस समय क्षयोपशम लब्धि होती है। भावार्थ- कर्मों के मैलरूप जो ज्ञानावरणादि समूह उनका अनुभाग जिस काल में समय-समय अनंतगुणा क्रम से घटता हुआ उदय को प्राप्त होता है उस काल में क्षयोपशम लब्धि होती है। विश्ुाद्धि लब्धि- प्रतिसमय अनंत गुणितहीन क्रम से उदीरित अनुभाग स्पर्धकों से उत्पन्न हुआ साता आदि शुभ कर्मों के बंध का निमित्तभूत और असाता आदि कर्मों के बंध का विरोधी जो जीव का परिणाम है उसे विशुद्धि कहते हैं। उसकी प्राप्ति का नाम विशुद्धि लब्धि है। भावार्थ- पहली क्षयोपशम लब्धि से उत्पन्न हुआ जो जीव के साता आदि शुभ प्रकृतियों के बंधने का कारणरूप शुभ परिणाम उसकी जो प्राप्ति है वह विशुद्धि लब्धि है क्योंकि अशुभ कर्म का अनुभाग घटने से संक्लेश की हानि और उसके विपक्षी विशुद्धि की वृद्धि होना स्वाभाविक ही है। देशनालब्धि- छह द्रव्य और नव पदार्थों के उपदेश का नाम देशना है। उस देशना से परिणत आचार्य आदि की उपलब्धि को और उपदिष्ट अर्थ के ग्रहण, धारण तथा विचारण की शक्ति के समागम को देशनालब्धि कहते
विशेषार्थ- लब्धिसार में कहते हैं कि-‘‘छह द्रव्य और नव पदार्थों का उपदेश देने वाले आचार्य का लाभ मिलना देशनालब्धि है अथवा उनके द्वारा उपदेशित पदार्थों के धारण करने का लाभ होना यह तृतीय लब्धि है। आचार्य, उपाध्याय आदि छह द्रव्यादि का उपदेश करने वाले हैं उनका जो मिलना है वही देशना की प्राप्ति है अथवा चिर अतीत काल में उपदेशित पदार्थ को धारण करने का लाभ होना वह देशना लब्धि होती है। गाथा में ‘तु’ शब्द है उससे यह अर्थ समझना कि उपदेश करने वालों से रहित नरक आदि पर्यायों में पूर्वभव में सुनकर धारण किया हुआ जो तत्त्वों का अर्थ है उसके संस्कार के बल से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। ऐसा यहां सूचित किया गया है।’’१ प्रायोग्य लब्धि-सर्व कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट अनुभाग को घात करके अंत:कोड़ाकोड़ी स्थिति में और द्विस्थानीय अनुभाग में अवस्थान करने को प्रायोग्य लब्धि कहते हैं क्योंकि इन अवस्थाओं के होने पर करण अर्थात् पांचवीं करणलब्धि के योग्य भाव पाये जाते हैं। विशेषार्थ-यहां पर अनुभाग को घात करके द्विस्थानीय अवस्थान करना, ऐसा कहा है। उसका अभिप्राय यह है कि घातिया कर्मों की अनुभाग शक्ति लता, दारु, अस्थि और शैल सदृश चार प्रकार की होती है। अघातिया कर्मों में दो विभाग हैं-पुण्य प्रकृतिरूप और पापप्रकृतिरूप। पुण्य प्रकृतियों की अनुभाग शक्ति गुड़, खांड, शक्कर और अमृत के समान होती है और पाप रूप अघातिया कर्मों की अनुभाग शक्ति नीम, कांजीर, विष और हालाहल के समान हीनाधिकता को लिए हुए होती है। प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख जीव प्रायोग्य लब्धि के द्वारा घातिया कर्मों के अनुभाग को घटा कर लता और दारु इन दो स्थानों में तथा अघातिया कर्मों की पाप रूप प्रकृतियों के अनुभाग को नीम और कांजीर इन दो स्थानों में अवस्थित करता है, इसी को द्विस्थानीय अनुभाग में अवस्थान कहते हैं। लब्धिसार में कहते हैं कि पूर्वोक्त तीन लब्धि से संयुक्त जीव प्रतिसमय विशुद्धि को बढ़ाता हुआ आयु के बिना सात कर्मों की अंत:कोड़ाकोड़ी मात्र स्थिति अवशेष कर देता है। पूर्व में अनुभाग था, उसमें अनंत का भाग देने से बहुत भागमात्र अनुभाग को छेद कर अवशेष रहे अनुभाग में प्राप्त करा देते हैं। इस कार्य को करने की योग्यता की प्राप्ति ही प्रायोग्यलब्धि है। विशुद्ध्या प्रशस्तप्रकृतीनामनुभागखंडनं नास्ति। चूंकि विशुद्धि से शुभ प्रकृतियों का अनुभाग खंडन नहीं होता है। संक्लेश परिणाम वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव के जिस समय कर्मों का उत्कृष्ट स्थितिबंध हो रहा है और उत्कृष्ट स्थिति अनुभाग प्रदेश का सत्त्व है उस समय उसके प्रथमोपशम सम्यक्त्व ग्रहण की योग्यता नहीं है। ऐसे जघन्य स्थिति बंध आदि तो क्षपक श्रेणी मेें होते हैं अत: वहाँ तो क्षायिक सम्यक्त्व है पुन: इस सम्यक्त्व का प्रश्न ही नहीं उठता अत: प्रथमोपशम सम्यक्त्व के सम्मुख होता हुआ यह मिथ्यादृष्टि जीव विशुद्धि की वृद्धि करता हुआ प्रायोग्यलब्धि के पहले समय से लेकर पूर्व स्थितिबंध के संख्यातवें भाग ऐसी अंत:कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण आयु के बिना सात कर्मों की स्थिति बांधता है। इस प्रायोग्यलब्धि में बहुत सी प्रक्रियायें होती हैं उन्हें लब्धिसार तथा धवला ग्रन्थ आदि से विस्तारपूर्वक समझना चाहिए।
इस प्रकार स्थिति और अनुभागों में कांडक घात को बहुत बार करके ‘गुरु के उपदेश के बल से’४ अथवा उसके बिना भी अभव्य जीवों के योग्य विशुद्धियों को व्यतीत करके भव्य जीवों के योग्य अध:प्रवृत्तकरण संज्ञा वाली विश्ुाद्धि में भव्य जीव परिणत होता है अर्थात् करण नाम परिणामों का है। इस करणलब्धि के तीन भेद हैं-अध:प्रवृत्तकरण, अपूर्णकरण और अनिवृत्तिकरण। अध:करण-जिस भाव में वर्तमान जीवों के उपरितन समयवर्ती परिणाम अधस्तन समयवर्ती जीवों के साथ संख्या और विशुद्धि की अपेक्षा सदृश होते हैं, उन भावों के समुदाय को अध:करण कहते हैं। इस अध:करण का काल अन्तमुर्हूर्त है और परिणाम असंख्यात लोक प्रमाण है। अपूर्वकरण-जिस काल में प्रतिसमय अंनतगुणी विशुद्धि को लिए हुए अपूर्व-अपूर्व परिणाम होते हैं, उन परिणामों को अपूर्वकरण कहते हैं। अपूर्वकरण के विभिन्न समयों में वर्तमान जीवों के परिणाम सदृश नहीं होते किन्तु विसदृश या असमान और अनंतगुणी विशुद्धता से युक्त पाये जाते हैं। अध:प्रवृत्तकरण की अपेक्षा इसका काल अल्प है किन्तु परिणाम उससे असंख्यात लोक गुणित हैं। अनिवृत्तिकरण-इसमें एक समयवर्ती जीव के एक ही परिणाम पाया जाता है और एक समयवर्ती अनेक जीवों के भी एक सदृश ही परिणाम पाये जाते हैं, एक कालवर्ती जीवों के परिणामों में निवृत्ति, भेद या विसदृशता नहीं पाई जाती है इसीलिए उन्हें अनिवृत्तिकरण कहते हैं। इसके परिणामों की संख्या इसके काल के समयों के समान ही है क्योंकि इस अनिवृत्तिकरण काल में समय-समय में एक-एक परिणाम ही होते हैं। अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण में गुण श्रेणी निर्जरा आदि कार्य होते हैं, अंतिम अनिवृत्तिकरण काल के समाप्त होते ही अनादि मिथ्यादृष्टि के दर्शनमोहनीय की मिथ्यात्व प्रकृति और अनंतानुबंधी चतुष्क इन पांच प्रकृतियों का उपशम होकर प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्रकट हो जाता है पुन: उसके प्रथम समय में ही मिथ्यात्व के तीन टुकड़े हो जाते हैं।
यथा– यन्त्र अर्थात् घरटी चक्की से दले हुए कोदों की तरह प्रथमोपशम सम्यक्त्व परिणम रूप यन्त्र से मिथ्यात्व रूप कर्मद्रव्य द्रव्यप्रमाण क्रम से असंख्यातगुणा, असंख्यातगुणा कम होकर तीन प्रकार का हो जाता है। भावार्थ-जैसे-कोदों-धान्य विशेष दलने पर तंदुल, कण और भूसी ऐसे तीन रूप हो जाते हैं, उसी तरह मिथ्यात्वरूप कर्मद्रव्य भी उपशम सम्यक्त्व रूपी यन्त्र के द्वारा मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व इन तीन स्वरूप परिणमन करता है। इस कारण एक मिथ्यात्व रूप दर्शनमोहनीय कर्म के ही तीन भेद कहे हैं। ‘‘सम्यक्त्व की प्रथम बार प्राप्ति के अनंतर और पश्चात् मिथ्यात्व का उदय होता है किन्तु अप्रथम बार सम्यक्त्व की प्राप्ति के पश्चात् वह भवितव्य है२।।१०५।।’’ अनादि मिथ्यादृष्टि जीव के जो प्रथम ही उपशम सम्यक्त्व का लाभ होता है, उसके अंतर्मुहूर्त काल के बाद नियम से मिथ्यात्व का उदय आ जाने से वह मिथ्यादृष्टि हो जाता है किन्तु सादि मिथ्यादृष्टि के प्रथमोपशम सम्यक्त्व होने के बाद कोई नियम नहीं है। सम्यक्त्व का काल समाप्त होने पर यदि मिथ्यात्व का उदय आवेगा तो वह मिथ्यात्व में जायेगा, यदि मिश्र प्रकृति का उदय आ जावे तो तृतीय गुणस्थान में जायेगा और यदि सम्यक्त्व प्रकृति का उदय आ जावे तो वेदक सम्यग्दृष्टि हो जायेगा। कदाचित् सम्यक्त्व के काल में ही अनंतानुबंधी में से किसी का उदय आ जाने से सासादन भी हो जावेगा।
उपशम सम्यक्त्व का जघन्य व उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त ही है।
यह सम्यक्त्व एक बार उत्पन्न होकर अंतर्मुहूर्त बाद समाप्त होकर पुन: संख्यात वर्ष की आयु वाले कर्मभूमियाँ मनुष्य या तिर्यंचों में उसी भव में नहीं हो सकता है चूंकि इसका ‘अंतराल पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की उत्पत्ति के कारण-अनंतानुबंधी कषाय, मिथ्यात्व और सम्यक्मिथ्यात्व इन छह प्रकृतियों के उदयाभावी क्षय और इन्हीं के सदवस्थारूप उपशम होने से तथा देशघाती सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से जो सम्यक्त्व प्रकट होता है उसे क्षायोपशमिक या वेदक सम्यक्त्व कहते हैं। इसमें भी पूर्वोक्त पांच लब्धियां कारण ही हैं किन्तु सम्यक्त्व प्रकृति का उदय होना यह मुख्य कारण है। इस सम्यक्त्व की उत्पत्ति में भी अध:प्रवृत्त आदि तीन करण होते हैं अथवा अनिवृत्तिकरण को छोड़कर दो करण भी होते हैं। कदाचित् बिना करण के भी हो जाता है। जातिस्मरण आदि बाह्य कारण तो सभी के लिए होते ही हैं। क्षायिक सम्यक्त्व के कारण-‘‘दर्शनमोहनीय का क्षपण करने के लिए आरम्भ करता हुआ यह जीव कहां पर आरंभ करता है ? अढ़ाई द्वीप समुद्रों में स्थित पंद्रह कर्मभूमियों में जहां जिस काल में जिन, केवली और तीर्थंकर होते हैं वहां उस काल में आरम्भ करता है१।।११।।’’ कर्मभूमि में उत्पन्न हुआ मनुष्य केवली, श्रुतकेवली या तीर्थंकर के पादमूल में दर्शनमोहनीय का क्षय करना प्रारंभ करता है किन्तु उसकी पूर्ति चारों गतियों में से किसी में भी हो सकती है। धवला टीकाकार ने सूत्र के ‘जिन’ शब्द से चतुर्दश पूर्वधारियों को अर्थात् श्रुतकेवलियों को लिया है। ‘केवली’ पद से तीर्थंकर नामकर्म के उदय से रहित सामान्य केवलियों को लिया है और ‘तीर्थंकर’ पद से साक्षात् तीर्थंकर को लिया है। इनमें से किसी के पादमूल में मनुष्य क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त कर सकता है। जिस प्रकार से प्रथमोपशम सम्यक्त्व में अध:प्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण से तीन करण आदि क्रियायें होती हैं उसी प्रकार से सर्वप्रथम यह जीव अध:प्रवृत्तकरण आदि तीन करणों को करके अनन्तानुबंधी का विसंयोजन करता है। अनन्तर अन्तर्मुहूर्त काल के व्यतीत होने पर पुन: इन तीन करणों द्वारा दर्शनमोहनीय का क्षपण करता है। ‘दर्शनमोहनीय के तीन भेदों में सम्यक्त्व प्रकृति के क्षय में कुछ कार्य शेष रहने पर यह कृतकृत्य वेदक कहलाता है। उस समय कदाचित् आयु के पूर्ण होने से मरण को प्राप्त हो जाता है तो वह पूर्व में बद्ध हुई आयु के अनुसार किसी भी गति में जाकर वहां उस क्षायिक सम्यक्त्व को पूर्ण कर लेता है।२’
शंका-केवली, श्रुतकेवली और तीर्थंकर का सान्निध्य सम्यक्त्व प्राप्ति के लिए बाह्य निमित्त है या अंतरंग ?
समाधान-यह बाह्य निमित्त है। अन्तरंग निमित्त तो सात प्रकृतियों का क्षय होना है।
शंका-क्या बाह्य निमित्त इतना बलशाली है कि इसके बिना दर्शनमोह का क्षय न हो सके ?
समाधान-आगम श्रद्धालु के लिए तो यह स्पष्ट ही है। केवली आदि के पादमूल के निकट ही दर्शनमोह और अनंतानुबंधी के नाश करने की योग्यता आ सकती है अन्यथा नहीं।
शंका-तो इनके दर्शन करने वाले सभी को क्षायिक सम्यक्त्व हो जाना चाहिए ?
समाधान-ऐसी बात नहीं, क्योंकि पहले ही सूत्रकार श्री पुष्पदंत महर्षि ने कह दिया है कि पंद्रह कर्मभूमियों में किसी भी कर्मभूमि में जन्मा हुआ मनुष्य होना चाहिए। इससे देव, तिर्यंच, नारकी, भोगभूमिज मनुष्य तथा कर्मभूमिज महिलाओं का भी निषेध हो जाता है।
शंका-पुन: सभी पुरुषों को तो होना चाहिए ?
समाधान-यह भी बात नहीं है क्योंकि ये केवली आदि का सान्निध्य कारण है, करण नहीं है। कारण होने पर कार्य होवे ही यह नियम नहीं है फिर भी इन कारणों के बिना कार्य का होना सर्वथा असंभव है। श्री उमास्वामी आचार्य सम्यक्त्वोत्पत्ति के कारण को कहते हैं। उत्थानिका-जीवादि पदार्थों को विषय करने वाला यह सम्यग्दर्शनकैसे उत्पन्न होता है ? सो ही बताते हैं- निसर्गज और अधिगमज सम्यक्त्व तन्निसर्गादधिगमाद्वा।।३।।
प्रश्न-सम्यग्दर्शन में दो प्रकार की कल्पना नहीं बन सकती क्योंकि तत्त्वों का ज्ञान हुए बिना उनका श्रद्धानकैसे हो सकता है ? जैसे कि जब तक रसायन का ज्ञान न हो तब तक उसका श्रद्धान असम्भव है। अत: निसर्गज सम्यग्दर्शन नहीं हो सकता है ?
उत्तर-दोनों सम्यग्दर्शनों में अंतरंग कारण दर्शनमोह का उपशम, क्षय या क्षयोपशम समान है। इसके होने पर जो बाह्योपदेश के बिना प्रगट होता है वह निसर्गज कहलाता है तथा जो परोपदेश से होता है वह अधिगमज है। लोक में भी शेर, भेड़िया, चीता आदि में शूरता, व्रूâरता आदि परोपदेश के बिना होने से नैसर्गिक कहे जाते हैं। यद्यपि इनमें कर्मोदय की अपेक्षा है फिर भी परोपदेश की अपेक्षा न होने से ही यह स्वाभाविक हैं। वैसे ही यहां पर भी सम्यग्दर्शन में परोपदेश की अपेक्षा न होने से ही निसर्गज स्वीकार की गई है।
प्रश्न-भव्य जीव अपने समय के अनुसार ही मोक्ष जायेगा। यदि अधिगम सम्यक्त्व के बल से समय से पहले मोक्ष प्राप्ति की सम्भावना हो तभी अधिगम सम्यक्त्व की सार्थकता है अत: एक निसर्गज सम्यक्त्व ही मानना चाहिए ?
उत्तर-यदि केवल निसर्गज या अधिगमज सम्यक्त्व से मोक्ष माना गया होता तो यह प्रश्न उचित था पर मोक्ष तो ज्ञान व चारित्र सहित स्वीकार किया गया है। यहां विचार का विषय तो यह है कि वह सम्यग्दर्शन किन कारणों से उत्पन्न होता है उसमें जो बाह्य उपदेश को प्राप्त करके प्रकट हो वह अधिगमज है अत: यहां मोक्ष का प्रश्न ही नहीं है। फिर भव्यों की कर्मनिर्जरा का कोई समय निश्चित नहीं है और न मोक्ष का ही। कोई भव्य संख्यात काल में सिद्ध होंगे, कोई असंख्यात में और कोई अनंतकाल में। कुछ ऐसे भी हैं जो अनंतानंत काल में भी सिद्ध होंगे अत: भव्य के मोक्ष के काल नियम की बात उचित नहीं है। जो व्यक्ति मात्र ज्ञान से या चारित्र से या दो से या तीन कारणों से मोक्ष मानते हैं उनके यहां ‘कालानुसार मोक्ष होगा’ यह प्रश्न ही नहीं होता। यदि सबका काल ही कारण मान लिया जाय तो बाह्य और आभ्यंतर कारण सामग्री का ही लोप हो जायेगा। इस पंक्ति में उन लोगों को अपनी धारण सुधार लेनी चाहिए जो ऐसा कहते हैं कि ‘जब सम्यग्दर्शन प्राप्त होगा या मोक्ष जाना होगा तो निमित्त अपने आप उपस्थित हो जावेगा अथवा निमित्त कारण क्या कर सकता है ? इत्यादि। क्योंकि न काल ही मोक्ष कारण है और न निमित्त ही स्वत: आते हैं किन्तु निमित्तों को जुटाने का पुरुषार्थ करना पड़ता है।’ इन दोनों सम्यग्दर्शनों में भी पांचों लब्धियों को अंतर्गर्भित समझना चाहिए।
प्रश्न-निसर्गज सम्यक्त्व में बाह्य उपदेश की अपेक्षा न होने से उसमें देशनालब्धि कैसे घटित होगी ?
उत्तर-इसमें भी गुरुओं का लाभ होना अथवा पूर्व के कुछ काल पहले के उपदेश का निमित्त रहना या पूर्व भव के उपदेश के संस्कार का निमित्त रहना ही देशनालब्धि है अथवा तत्त्वार्थवृत्तिकार कहते हैं कि-
‘‘नैसर्गिकमपि सम्यग्दर्शनं गुरोरक्लेशकारित्वात् स्वाभाविकमुच्यते न तु गुरुपदेशं बिना प्रायेण तदपि जायते।’’
नैसर्गिक सम्यग्दर्शन भी गुरु को क्लेश करने वाला न होने से अर्थात् गुरु को अधिक परिश्रम कराने वाला न होने से स्वाभाविक कहलाता है किन्तु गुरु उपदेश के बिना प्राय: वह नहीं होता है। इस कथन से तो इस निसर्गज सम्यक्त्व में भी गुरु उपदेश विवक्षित है, मात्र इतना ही है कि वह गुरु के किंचित् उपदेश मात्र से हो जाता है। गुरु को उसे समझाने के लिए अधिक उपदेश नहीं करना पड़ता है। इस प्रकार से सभी सम्यग्दर्शनों में बाह्य कारणों की कुछ न कुछ अपेक्षा रहती ही है यह बात स्पष्ट हो जाती है अत: यह समझना चाहिए कि इन दोनों सम्यक्त्व में अंतरंग कारण समान होते हुए भी बाह्य कारणों के भेद से ही ये दो भेद हो गए हैं। पूर्वकथित जातिस्मरण आदि कारण इन पांच लब्धियों में गर्भित हैं-इन पाँच लब्धियों में से किसी एक के बिना सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं हो सकती है। इनमें से पूर्व की चार लब्धियां तो कारण हैं और अंतिम लब्धि तो कारण है ही है। पूर्व की चार लब्धियों के होने पर सम्यक्त्व होवे ही यह नियम नहीं है किन्तु उनके बिना कभी भी सम्यक्त्व नहीं हो सकता है।
प्रश्न-चौथे नरक से लेकर सातवें नरक तक धर्मोपदेश का अभाव होने से तीसरी देशनालब्धि उनमें नहीं पाई जाती है ?
उत्तर-ऐसा नहीं समझना, क्योंकि लब्धिसार में स्पष्ट कहा है कि ‘तु’ शब्दोपदेशकरहितेषु नारकादिभवेषु पूर्वभवश्रुतधारिततत्त्वार्थस्य संस्कारबलात् सम्यग्दर्शनप्राप्तिर्भवति, इति सूच्यते। गाथा में आये हुए ‘तु’ शब्द से ऐसा समझना है कि जहां उपदेश करने वाले नहीं जा सकते ऐसे नारक आदि भवों में जीवों ने पूर्वभव में शास्त्र को सुनकर जो तत्त्वों का अर्थ अवधारण किया था उसके संस्कार के बल से सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है ऐसा सूचित किया गया है। अत: उन चारों नरकों के नारकियों को पूर्वभव में सुने गये गुरु उपदेश का संस्कार ‘देशनालब्धि’ रूप से काम में आता है।
प्रश्न-पूर्व में जो ‘जातिस्मरण, वेदनानुभव, धर्मश्रवण, जिनबिम्बदर्शन, जिनमहिमादर्शन और देवद्र्धि निरीक्षण कारण बताए गए हैं, वे इन पांच लब्धियों से रहित ही सम्यक्त्व की उत्पत्ति में कारण बन जाते हैं क्या ?’
उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि जातिस्मरण, वेदना अनुभवन, जिनबिम्बदर्शन, जिनमहिमादर्शन और देवद्र्धिदर्शन इनमें से किसी एक कारण के होने पर धर्म में अनुराग रूप परिणाम होते हैं उस समय असाता आदि अशुभ प्रकृतियों का अनुभाग घटेगा ही घटेगा और साता आदि शुभ प्रकृतियों का अनुभाग अनंतगुणे रूप से बढ़ेगा ही बढ़ेगा तथा इस प्रक्रिया के होने पर कर्र्मों की स्थिति का अंत:कोड़ाकोड़ी सागर में हो जाना एवं चौंतीस बंधापसरणों के द्वारा तमाम प्रकृतियों का बंध से रुक जाना भी हो जावेगा अत: इन उपर्युक्त पांच कारणों में से किसी एक के होने पर क्षयोपशम, विशुद्धि और प्रायोग्य ये तीन लब्धियां स्वभावत: हो जावेंगी और देशनालब्धि के लिए तो ऊपर कथित प्रकार से ही समझ लेना चाहिए अर्थात् यदि ‘धर्मश्रवण’ कारण मिला है तब तो देशनालब्धि स्पष्ट ही है यदि नहीं मिला है तो पूर्वभव में गुरुओं के उपदेश का संस्कार इस भव में इस लब्धि रूप से हो जाता है अथवा तत्त्वों के उपदेष्टा आचार्य, उपाध्याय आदि का मिल जाना भी देशना लब्धि है या बहुत काल पूर्व में यदि उनका उपदेश सुना था और उस उपदेश में कथित पदार्थों के अर्थ का अवधारण किया था तो वह भी उस समय देशनालब्धि रूप माना गया है यही बात तो लब्धिसार की टीका में आई हुई है।
यथा– ‘तेषामुपदेशकर: आचार्योपाध्यायादय: तेषां लाभो यस्तद्देशनाप्राप्ति: चिरातीतकाले उपदेशितपदार्थधारण लाभो वा सदेशनालब्धिर्भवति।’
इस कथन से उनके देशनालब्धि घटित हो जाती है, पुन: उसी समय करण लब्धि रूप परिणाम जो कि कर्मों को उपशम आदि रूप अंतरंग हेतु हैं उसके होने पर सम्यक्त्व प्रगट हो जाता है।
प्रश्न-यदि किसी मनुष्य या तिर्यंच को जिनबिम्ब का दर्शन करते ही परिणाम गद्गद् हुए या मुनिदर्शन करके अथवा उनका उपदेश सुनकर या जातिस्मरण कारण से धर्म में अनुराग उत्पन्न होकर श्रद्धा उत्पन्न हो गई तो उतने अल्पकाल में इन पांचों लब्धियों का होनाकैसे सम्भव है ?
उत्तर-इन लब्धियों का अंतर्मुहूर्त मात्र काल में ही हो जाना असंभव नहीं है। यदि सबके पृथक-पृथक काल भी अंतर्मुहूर्त होवें तो भी सबका मिलकर भी अन्तर्मुहूर्त मात्र काल हो सकता है। इसमें कोई बाधा नहीं है क्योंकि अन्तर्मुहूर्त के असंख्यातों भेद होते हैं।
इसलिए सम्यक्त्व के पूर्वाेक्त कारणों से जो अनादि मिथ्यादृष्टि के प्रथमोपशम सम्यक्त्व होना माना है सो उसमें पांचों लब्धियों को अन्तर्गभित मानना चाहिए।
शंका-क्या काललब्धि के बिना सम्यक्त्व हो सकता है ?
समाधान-नहीं, देखिये-प्रश्न होता है कि ‘अनादि मिथ्यादृष्टि भव्य जीव के कर्मोदय से प्राप्त कलुषता के रहते हुए इनका (सात प्रकृतियों का) उपशमकैसे होता है ? तो श्री पूज्यपाद स्वामी उत्तर देते हुए कहते हैं कि ‘‘काललब्ध्यादिनिमित्तत्वात्’’ काललब्धि आदि के निमित्त से इनका उपशम होता है।
शंका-काललब्धि किसे कहते हैं ?
समाधान-कर्म से सहित कोई भी भव्य आत्मा अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाणकाल के शेष रहने पर प्रथम सम्यक्त्व के ग्रहण करने योग्य होता है। इससे अधिक काल के शेष रहने पर नहीं होता यह एक काललब्धि है। दूसरी काललब्धि का संबंध कर्म स्थिति से है। उत्कृष्ट स्थिति वाले कर्मों के शेष रहने पर या जघन्य स्थिति वाले कर्मों के हो जाने पर प्रथम सम्यक्त्व की योग्यता नहीं होती है किन्तु जब बंधने वाले कर्मों की स्थित अंतःकोड़ाकोड़ी सागर पड़ती है और विशुद्ध परिणामों के वश से सत्ता में स्थिति कर्मों की स्थिति संख्यात हजार सागर कम अंत: कोड़ाकोड़ी सागर प्राप्त होती है तब यह जीव प्रथम सम्यक्त्व के योग्य होता है। एक काललब्धि भव की अपेक्षा होती है। जो भव्य जीव है, संज्ञी है, पर्याप्तक है और सर्वविशुद्ध है वह प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करता है। आदि शब्द से जातिस्मरण आदि को ग्रहण करना चाहिए१। काललब्धि में पूर्वोक्त पांचों लब्धियां गर्भित हैं
शंका-जब काललब्धि के बिना सम्यक्त्व नहीं होता है तो पुन: पूर्व में कही गई पांच लब्धियों की क्या आवश्यकता है ?
समाधान-ऐसा नहीं कहना, क्योंकि वे लब्धियां आवश्यक हैं ही हैं। हां, जब काललब्धि मात्र कही जाती है तब उसमें ये लब्धियां अंतर्गर्भित ही समझी जाती हैं। सो ही धवलाकार कहते हैं ।
शंका-सूत्र में एक काललब्धि ही प्ररूपित की गई है, उसमें इन शेष लब्धियों का होनाकैसे संभव है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि प्रतिसमय अनंत गुणहीन अनुभाग की उदीरणा का अनंत गुणित क्रम द्वारा वर्धमान विशुद्धि का और आचार्य के उपदेश की प्राप्ति का उसी एक काललब्धि में होना संभव है अर्थात् उक्त चारों (क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य) लब्धियों की प्राप्ति काललब्धि के आधीन है अत: वे चारों लब्धियां काललब्धि में अंतर्निहित हो जाती हैं। इस प्रकार से इन पांचों लब्धियों के बिना सम्यक्त्व की उत्पत्ति असंभव है।
सम्यग्दर्शन, सद्दर्शन, सद्दृष्टि, सम्यग्दृष्टि, सद्दृक, सम्यग्दृक और सम्यक्त्व ये सब पर्यायवाची नाम हैं। सत् या सम्यक् शब्द प्रशस्त और प्रशंसावाची है। दृशिर् धातु यद्यपि देखने अर्थ में है तो भी मोक्षमार्ग के प्रकरण में उसका ‘श्रद्धान’ अर्थ गाह्य है चूंकि धातुओं के अनेक अर्थ पाये जाते हैं अत: समीचीन श्रद्धा का नाम सम्यग्दर्शन हो जाता है, यह मोक्षमार्ग का मूल है। इसके औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक ऐसे तीन भेद होते हैं। ये भेद अंतरंग में दर्शनमोह और अनंतानुबंधी कषाय के उपशम, क्षयोपशम और क्षय की अपेक्षा से होते हैं अत: इसके अंतरंग कार्य की अपेक्षा से सार्थक हैं। सम्यक्त्व के निसर्गज और अधिगमज ये दो भेद भी माने गये हैं। इन दोनों में अंतरंग कारण उपर्युक्त उपशमादि तीन में से कोई भी हो सकता है किन्तु बाह्य कारणों में अन्तर होने से ही इनके नाम में अन्तर पड़ गया है। ऐसे ही आज्ञा सम्यक्त्व आदि दश भेदों में भी अन्तरंग कारण समान होते हुए भी बाह्य कारणों की अपेक्षा से दश प्रकार हो जाते हैं। सराग और वीतराग अथवा व्यवहार और निश्चय की अपेक्षा भी सम्यक्त्व के दो भेद होते हैं। इनमें अन्तरंग कारण में कथंचित् अन्तर है, कथंचित् नहीं भी है। जब उपशम, क्षयोपशम को सराग कहकर क्षायिक को वीतराग कहा जाता है तब अन्तरंग कारण में अन्तर हो जाता है और जब द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि उपशम श्रेणी में चढ़कर वीतरागता प्राप्त कर वीतराग सम्यग्दृष्टि कहलाता है तब मात्र बाह्य कारणों की अपेक्षा से ही अन्तर माना जाता है। ऐसे व्यवहार और निश्चय में भी समझना चाहिए। चूंकि समयसार टीका में भेदरत्नत्रय को सराग सम्यग्दृष्टि और अभेदरत्नत्रय में वीतराग सम्यग्दृष्टि संज्ञा दी है। इस प्रकार सम्यग्दर्शन के लक्षण को आगमानुसार जानकर आपको स्वयं आगम की तुला से तोलना होगा कि मैं सराग सम्यग्दृष्टि हूँ या वीतराग सम्यग्दृष्टि। आपको अपने सम्यग्दर्शन को आठ अंग सहित बनाना होगा और भी उसके शंका, मद आदि दोषों को दूर कर अन्य-अन्य गुणों को वृद्धिंगत करते हुए वीतराग सम्यक्त्व को प्राप्त करने के लिए भावना भानी होगी।
अनादि मिथ्यादृष्टि जीव को सबसे प्रथम उपशम सम्यग्दर्शन ही होता है अत: वह मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी चतुष्क इन पांच के उपशम से होता है। सादि मिथ्यादृष्टि के सात प्रकृतियों के उपशम से औपशमिक सम्यग्दर्शन होता है। कदाचित् मिश्र और सम्यक्त्व प्रकृति की उद्वेलना हो जाने पर पांच प्रकृतियों के उपशम से भी होता है। इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त ही है। कषायपाहुड़सुत्त में दर्शनमोह की उपशमन विधि के अनन्तर सम्यग्दृष्टि का जो लक्षण किया है सो देखिए-
सम्माइट्ठी जीवो पवयणं णियमसा दु उवइट्ठं।
सद्दहदि असब्भावं अजाणमाणो गुरुणिओगा।।१०७।।
सम्यग्दृष्टि जीव सर्वज्ञ के द्वारा उपदिष्ट प्रवचन का तो नियम से श्रद्धान करता ही है किन्तु कदाचित् अज्ञानवश सद्भूत अर्थ को स्वयं नहीं जानता हुआ गुरु के वियोग से असद्भूत अर्थ का भी श्रद्धान करता है। यह गाथा महान् ऋषिप्रवर श्री गुणधर आचार्य की है। ये आचार्य षट्खंडागम सूत्र के रचयिता ग्रन्थकार श्री पुष्पदंत और भूतबलि आचार्य से भी प्रथम हुए हैं। इन्होंने ‘कषाय पाहुड़’ नाम का जो ग्रन्थ बनाया है उस पर श्री यतिवृषभ आचार्य ने चूर्णीसूत्रों की रचना की है तथा श्री वीरसेनाचार्य ने उन मूल गाथा और चूर्णी सूत्रों पर ‘जयधवला’ नाम से टीका रची है। इस गाथा को यथास्थान बहुत से आचार्यों ने प्रयुक्त किया है। किन्हीं ने ज्यों की त्यों दे दिया है और किन्हीं ने उसी के अभिप्राय रूप किन्तु कुछ परिवर्तित रूप से दिया है।
यथा-धवला की छठी पुस्तक में यह ‘गाथा’ ज्यों की त्यों है। धवला की प्रथम पुस्तक में यह गाथा निम्न रूप से है-
सम्माइट्ठी जीवो उवइट्ठं पवयणं तु सद्दहदि।
सद्दहदि असब्भावं अजाणमाणो गुरुणियोगा।।११०।।
भगवती आराधना में यह गाथा ज्यों की त्यों है। पुनः आगे कहते हैं- सुत्तादो तं सम्मं दरसिज्जंतं जदा ण सद्दहदि। सो चेव हवइ मिच्छाइट्ठी जीवो तदो पहुदी।।३३।। पुन: सूत्र से सम्यक् अर्थ को दिखाने पर भी जब कोई श्रद्धान नहीं करता है तो वह उसी समय से मिथ्यादृष्टि हो जाता है। शिवकोटि आचार्य की यह भी गाथा ध्यान देने योग्य है-
पदमक्खरं च एक्वंâ पि जोण रोचेदि सुत्तणिद्दिट्ठं।
सेसं रोचंतो विहु मिच्छाइट्ठी मुणेयव्वो१।।३६।।
जो जीव सूत्रनिर्दिष्ट समस्त वाङ्मय का श्रद्धान करता हुआ भी यदि एक पद का श्रद्धान नहीं करता है तो वह समस्त श्रुत की रुचि करता हुआ भी मिथ्यादृष्टि है।
सम्यग्दर्शन गुण को विपरीत करने वाली प्रकृतियों में से देशघाती सम्यक्त्व प्रकृति के उदय होने पर जो आत्मा के परिणाम होते हैं उनको वेदक या क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन कहते हैं। वे परिणाम चल, मलिन या अगाढ़ होते हुए भी नित्य ही अर्थात् जघन्य अंतर्मुहूर्त से लेकर उत्कृष्ट छ्यासठ सागर पर्यन्त कर्मों की निर्जरा के कारण हैं। इस सम्यक्त्व का जघन्य काल अंतर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट छ्यासठ सागर प्रमाण है तथा मध्यम के अनेक भेद हैं। जिस प्रकार एक ही जल अनेक कल्लोलरूप में परिणत होता है, उसी प्रकार से जो सम्यग्दर्शन संपूर्ण तीर्थंकर या अर्हंतों में समान अनंत शक्ति के होने पर भी शांतिनाथ जी शांति के लिए और श्री पाश्र्वनाथ जी रक्षा करने के लिए समर्थ हैं इस तरह नाना विषयों में चलायमान होता है। उसको चल सम्यग्दर्शन कहते हैं। जिस प्रकार शुद्ध सुवर्ण भी मल के निमित्त से मलिन कहा जाता है उस ही तरह सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से जिसमें पूर्ण निर्मलता नहीं है उसको मलिन सम्यग्दर्शन कहते हैं। जिस तरह वृद्ध पुरुष के हाथ मेें ठहरी हुई भी लाठी कांपती है उसी तरह जिस सम्यग्दर्शन के होते हुए भी अपने बनवाए हुए मंदिर आदि में ‘यह मेरा मंदिर है’ और दूसरे के बनवाए हुए मंदिर आदि में ‘यह दूसरे का है’ ऐसा भाव होवे, उसको अगाढ़ सम्यग्दर्शन कहते हैं। लब्धिसार में कहते हैं-
समुदये चलमलिणमगाढं़ सद्दहदि तच्चयं अत्थं।
सद्दहदि असब्भावं अजाणमाणो गुरुणियोगा।।१०५।।
सुत्तादो तं सम्मं दरसिज्जंतं जदा ण सद्दहदि।
सो चेव हवदि मिच्छाइट्ठी जीवो तदो पहुदी।।१०६।।
सम्यक्त्व प्रकृति का उदय होने पर यह जीव चल, मलिन व अगाढ़ रूप से तत्त्वों के अर्थ का श्रद्धान करता है अर्थात् सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से तत्त्वार्थ श्रद्धान रूप सम्यक्त्व में चल, मलिन, अगाढ़ ये तीन दोष लगते रहते हैं। ऐसा यह सम्यग्दृष्टि जीव कदाचित् आप स्वयं विशेष अर्थ को नहीं जानता हुआ गुरु के नियोग से असत् अर्थ का भी श्रद्धान कर लेता है फिर भी वह सम्यग्दृष्टि ही रहता है। पुन: कदाचित् किसी अन्य आचार्य के द्वारा गणधर आदि प्ररूपित सूत्र को दिखाकर सम्यव्â स्वरूप बतलाए जाने पर भी यदि वह अपनी पूर्व मान्यता को हठ बुद्धि से नहीं छोड़ता है तो वह उसी समय से मिथ्यादृष्टि हो जाता है। यहां पर ‘अजाणमाणो गुरुणियोगा’ इस चरण का अर्थ विशेष महत्त्व रखता है।
देखिये टीकाकार के शब्दों में- ‘अयं वेदकसम्यग्दृष्टि: स्वयंविशेषजानानो गुरोर्वचनाकौशल-दुष्टाभिप्रायगृहीतविस्मरणादीनि बंधनान्नियोगादन्यथा व्याख्यानासद्भावं तत्वार्थेष्वसद्रूपमपि श्रद्दधाति तथापि सर्वज्ञाज्ञाश्रद्धाना-त्सम्यष्टरेवासौ।
पुन: कदाचिदाचार्यांतरेण गणधरादि सूत्रं प्रदश्र्य व्याख्यायमानं सम्यग्रूपं यदा न श्रद्धधाति तत: प्रभृति स एव जीवो मिथ्यादृष्टिर्भवति, आप्तसूत्रार्थश्रद्धानात्।१’ यह वेदक सम्यग्दृष्टि स्वयं विशेष को नहीं समझता हुआ गुरु के वचनों की अकुशलता से, उनके दुष्ट अभिप्राय से अथवा उनके गृहीत अर्थ के विस्मरण आदि के निमित्त से विपरीत व्याख्यान किये गये असद्भाव का, तत्वार्थों के असत् स्वरूप का भी श्रद्धान कर लेता है फिर भी सर्वज्ञ देव की आज्ञा का श्रद्धान करने से वह सम्यग्दृष्टि ही है पुन: कदाचित् अन्य आचार्य के द्वारा गणधरादि के सूत्रों को दिखाकर सम्यक् स्वरूप का व्याख्यान किये जाने पर भी यदि वह उस समय उस पर श्रद्धान करता है तो वह उसी समय से मिथ्यादृष्टि हो जाता है क्योंकि आप्तकथित सूत्र के अर्थ का वह श्रद्धान नहीं कर रहा है। इसमें यह समझ लेना चाहिए कि वर्तमान के उपलब्ध जो पूर्वाचार्य प्रणीत ग्रन्थ हैं, जैसे-धवल, जयधवल, महाधवल, समयसार, नियमसार, प्रवचनसार, रयणसार, मूलाचार, तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थराजवार्तिक, श्लोकवार्तिक, तिलोयपण्णत्ति, त्रिलोकसार, गोम्मटसार जीवकांड, गोम्मटसार कर्मकांड, आदिपुराण, पद्मपुराण, उत्तरपुराण, हरिवंशपुराण, भावसंग्रह, वरांगचरित, वसुनंदिश्रावकाचार आदि इन ग्रन्थों के रचयिता आचार्यों को गुरु मानकर उनके रचित ग्रन्थों पर पूर्णतया श्रद्धान रखना चाहिए। यदि उन्होंने गुरूपदेश के विस्मरण से या अज्ञान से अथवा दुष्ट अभिप्राय से भी कुछ कहा होगा तो उस दोष के भागी वे होें न कि हम। हम तो गुरु वाक्यों पर दृढ़ श्रद्धान रखने से सम्यग्दृष्टि ही बने रहेंगे। चूंकि यह गाथा सामान्य आचार्य के मुख से नहीं निकली है किन्तु श्री कुन्दकुन्द देव के भी पहले के एक विशेष महर्षि गुणधर देव के मुखकमल से निकली हुई है। वास्तव में इसमें गुरु का एक विशेष ही महत्त्व झलक रहा है अत: अज्ञायमान गुरु के नियोग से यदि कुछ गलत भी विषय में हमारा श्रद्धान चल रहा है तो वह सही ही है। कब तक ? जब तक कि उसके विरोध में कोई आचार्य प्रणीत सूत्र वाक्य नहीं मिल जाते हैं तभी तक। यदि पुन: उन सूत्र वाक्यों को देखकर भी हम अपनी धारणा नहीं बदलते हैं तो उसी समय से हम मिथ्यादृष्टि हो जाते हैं अत: आगम वाक्य देख लेने के बाद दुराग्रही बनकर अपने सम्यक्त्वरत्न को छोड़ना उचित नहीं है।
दर्शनमोह की मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व और सम्यक्त्व तथा अनंतानुबंधी चतुष्क इन सात प्रकृतियों के सर्वथा क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व होता है। दर्शनमोहनीय कर्म का क्षय हो जाने पर यह जीव उसी भव में या तीसरे अथवा चौथे भव में सिद्ध पद को प्राप्त कर लेता है किन्तु चौथे भव का उल्लंघन नहीं करता है तथा दूसरे सम्यक्त्वों की तरह यह सम्यक्त्व नष्ट भी नहीं होता। क्षायिक सम्यग्दृष्टि बहुतेक उसी भव से मोक्षपद प्राप्त कर लेता है या यहां से देवपर्याय को प्राप्त कर वहां से आकर मोक्ष प्राप्त करने में तृतीय भव हो जाता है। कदाचित् किसी ने सम्यक्त्व होने से पहले नरकायु बांध ली पुन: सम्यक्त्व हुआ तो भी वह नरक जाकर, वहाँ से आकर मनुष्य होकर मोक्ष चला जायेगा। यदि सम्यक्त्व के पहले तिर्यंचायु या मनुष्यायु बांध ली है तो क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त कर भोगभूमियाँ मनुष्य होकर वहां से स्वर्ग जाकर पुन: यहां आकर मोक्ष प्राप्त करेगा, इसमें चौथे भव में मोक्ष की प्राप्ति होती है किन्तु इससे अधिक भव क्षायिक सम्यग्दृष्टि नहीं ले सकता है। यह सम्यक्त्व इतना दृढ़ होता है कि तर्वâ तथा आगम से विरुद्ध श्रद्धान को भ्रष्ट करने वाले वचन या हेतु उसको भ्रष्ट नहीं करता१। इस सम्यक्त्व का जघन्य काल अंतर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ अधिक तेंतीस सागर प्रमाण है।
प्रश्न-स्त्रियों में कौन-कौन सम्यक्त्व होते हैं ?
उत्तर-स्त्रियों में औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होते हैं क्षायिक नहीं।
प्रश्न-पुन: स्त्रीवेद से क्षपक श्रेणी में आरोहण करना, मोक्ष जानाकैसे होगा ?
उत्तर-वह भावभेद की अपेक्षा कथन है अर्थात् कोई पुरुष द्रव्य से तो पुरुषवेदी है और यदि भाव से स्त्रीवेदी अथवा नपुंसकवेदी है तो वह मोक्ष जा सकता है।
यथा-‘‘क्षायिक सम्यक्त्व स्त्रीवेद में भाववेद की अपेक्षा से ही है१।’’
शंका-तो फिर स्त्रियों में