महान दार्शनिक एवं योग्य शिक्षक सर्वपल्ली राधाकृष्णन
—डा. कपिल अग्रवाल
सर्वपल्ली राधाकृष्णन एक महान् दार्शनिक, योग्य, शिक्षक, कुशल वक्ता, श्रेष्ठ रचनाकार और भारत वर्ष के सफलतम् राष्ट्रपति रहे हैं। उन्हें दर्शनशास्त्र के उच्च कोटि के शिक्षक के रूप में जाना जाता है। वे प्रथम भारतीय थे जिन्होंने अपने प्रभावशाली भाषणों एवं गं्रथों के लेखन से भारतीय दर्शन शास्त्र को पूरे विश्व के लोगों को समझने का अवसर प्रदान किया। उन्होंने तीन हजार साल की अवधि मेें विकसित भारतीय दार्शनिक विचारधारा को सरल रूप में लोगों के समक्ष प्रस्तुत किया। यूरोप व अमेरिकी देशों में राधाकृष्णन जी को व्याख्यान का निमन्त्रण देने की होड़ सी लग गयी थी। वे सन् १९०९ से १९५६ मे ४७ वर्ष शिक्षा जगत् से जुड़े रहे। उनका जन्मदिन भारत में शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। डाँ.राधाकृष्णन का जन्म ५ सितम्बर सन् १८८८ ई. को तमिलनाडू के चित्तूर जिले के तिरुतानी नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम सर्वपल्ली वीरस्वामी एवं माता का नाम सीतम्मा था। राधाकृष्णन के पूर्वज आंध्र प्रदेश के सर्वपल्ली नामक ग्राम से तमिलनाडु आकर बस गये थे, इसी कारण इनके नाम से पहले सर्वपल्ली लगाया जता है। राधाकृष्णन का विवाह उन दिनों की रूढ़िवाद परम्परा के अनुसार अल्पायु में कही कर दिया गया। उस वक्त उनकी आयु मात्र १६ वर्ष व उनकी पत्नी की आयु १० वर्ष की थी। सन् १९०९ में दर्शनशास्त्र में एम.ए. की उपधि प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करते ही राधाकृष्णन २१ वर्ष की अल्पायु में ही मद्रास प्रेसीडेंसी कॉलेज में दर्शन विभाग का शिक्षक नियुक्त कर लिया गया। इसके उपरान्त आप मैसूर विश्वविद्यालय, आन्ध्र विश्वविद्यालय, बनारस हिन्दू विश् वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय मास्को विश्वविद्यालय व विश्व प्रसिद्ध ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय जैसे प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थानों मे प्रोफेसर, उपकुलपति व चांसलर इत्यादि पदों को सुशोभित करते रहे। १९४८ में उन्हें विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। राधाकृष्णन ने भारतीय चिन्तन पर लिखे गये प्रमुख ग्रंथों उपनिषद्, भगवद् गीता, जैन एवं बौद्ध धर्म के मूल गं्रथ, शंकर—भाष्य, रामानुज एवं माधव की टीका ब्रह्मसूत्र इत्यादि का गहन अध्ययन किया। इसके साथ—साथ उन्होंने पाश् चात्य दर्शन व अंग्रेजी साहित्य का भी पूर्ण अध्ययन किया। एक अनोखे शिक्षक के रूप में मिली प्रसिद्धि के साथ साथ अन्तर्राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में अपने अचारोत्तेजक लेखो से राधाकृष्णन ने अत्याधिक ख्याति अर्जित कर ली। डाँ. राधाकृष्णन ने अनेकों पुस्तकों का लेखन भी किया, जिनमें उनकी सबसे महत्वपूर्ण पुस्तक १९२६ में लिखी गई हिन्दू व्यू ऑफ लाईफ (जीवन के प्रति हिन्दू दृष्टिकोण) है।
डॉ. राधाकृष्णन को सन् १९४९ में सोवियत संघ मेें
भारत का प्रथम राजदूत नियुक्त किया गया। राधाकृष्णन ने अपनी सूझ—बूझ से भारत व सोवियत संघ के बीच एक मजबूत मित्रता की नींव डाली जो पूरे चार दशकों तक दृढ़ता से जारी रही। सन् १९५२ व सन् १९५७ में उन्हें भारत के उपराष्ट्रपति पद पर नियुक्त किया गया। उनके निवास स्थान पर मिलने आने वालों को कभी यह नहीं लगा कि राधाकृष्णन से मिलना कठिन या असम्भव है। सन् १९६२ से १९६७ तक डॉ.राधाकृष्णन भारत के राष्ट्रपति पद को अपनी गरिमा से सुशोभित करते रहे। अपने महान् व्यक्तित्व एवं कृतित्व के कारण डॉ. राधाकृष्णन को देश—विदेश में अनेक उपाधियों से सम्मानित किया गया। सन् १९३७ में ब्रिटिश सरकार ने उन्हें ‘सर’ की उपाधि से सम्मानित किया, परन्तु देशभक्तों के साथ हो रहे दुव्र्यवहार व भारत की स्वतंत्रता के प्रति अंग्रेजी दृष्टिकोण के विरोध में उन्होंने इस उपाधि को त्याग दिया। सन् १९५४ में आपको देश के सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया। अमेरिका में एक ८८३ पृष्ठों का संग्रह ‘द फिलॉसफी आपॅâ सर्वपल्ली राधाकृष्णन’ प्रकाशित कर उन्हें सम्मानित किया गया। यह अद्भुत दार्शनिक जो भारत का राष्ट्रपति बनकर उपलब्धियों के शिखर पर पहँुच गया था, १७ अप्रैल १९७५ को इस संसार से विदा हो गया।