जिनशासन में मार्ग और मार्गफल इन दो का ही वर्णन किया गया है। इनमें से मार्ग तो रत्नत्रय को कहते हैं और उसका फल मोक्ष है। रत्नत्रय को धारण करने वाले व्यक्ति मोक्ष की साधना करने वाले हैं अत: उन्हें साधु, यति, मुनि, अनगार, ऋषि, संयत और संयमी आदि नामों से जाना जाता है। ये दिगम्बर मुद्रा के धारक होते हैं।
अट्ठाईस मूलगुण
रत्नत्रय की साधना के लिये इनके अट्ठाईस मूलगुण होना जरुरी है। जिस प्रकार बिना मूल — जड़ के वृक्ष नहीं ठहर सकता है वैसे ही बिना मूलगुणों के अन्य कोई भी गुण उनमें अवकाश नहीं प्राप्त कर सकते हैं। क्योंकि ये मूलगुण प्रधान अनुष्ठान रूप हैं और उत्तरगुणों के लिए आधारभूत हैं।’’
ये मूलगुण २८ हैं—५ महाव्रत, ५ समिति, ५ इन्द्रियनिरोध, ६ आवश्यक, केशलोंच, आचेलक्य, अस्नान, क्षितिशयन, अदंतधावन, स्थितिभोजन और एकभुक्त।
सम्पूर्ण पाप योग से दूर होना और मोक्षप्राप्ति के लिए आचरण करना इनमें व्रत शब्द का प्रयोग होता है, तीर्थंकर—चक्रवर्ती आदि महापुरुषों के द्वारा जिनका अनुष्ठान किया जाता है और जो स्वयं ही मोक्ष को प्राप्त करने वाले होने से महान् हैं अथवा अपने धारण करने वालों को महान् — पूज्य बना देते हैं उन्हें भी महाव्रत कहते हैं— मन, वचन, काय, कृत, कारित, अनुमोदना से स्थावर और त्रस जीवों की हिंसा का त्याग करना अहिंसा महाव्रत है। रागद्वेष आदि से असत्य वचन नहीं बोलना और प्राणियों का विघातक ऐसा सत्य भी नहीं बोलना सत्य महाव्रत है। बिना दी हुई किसी की कोई भी वस्तु या बिना दिये अन्य आचार्य के शिष्य, पुस्तक आदि ग्रहण नहीं करना अचौर्य महाव्रत है। बालिका, युवति, वृद्धा में पुत्री, बहन, माता के सदृश भाव रखकर सम्पूर्ण स्त्रीमात्र का त्याग कर देना त्रैलोक्य पूज्य ब्रह्मचर्यव्रत है। धन, धान्य आदि दश प्रकार के बाह्य और मिथ्यात्व आदि १४ अंतरंग परिग्रहों का त्याग कर देना परिग्रह त्याग महाव्रत है। आगम के अनुसार गमनागमन, भाषण, भोजन आदि में सम्यक् ‘‘इति— समीचीन प्रवृत्ति’’ करना समिति है। ये व्रतों की रक्षा करने में बाड़ के समान है।
निर्जन्तुक मार्ग से सूर्योदय होने पर चार हाथ आगे देखकर तीर्थयात्रा, गुरुवन्दना आदि के लिए गमन करना ईर्यासमिति है।
चुगली, निन्दा आदि रहित हित-मत, असंदिग्ध वचन बोलना भाषा समिति है।
छयालीस दोष, बत्तीस अंतराय रहित, नवकोटि से शुद्ध, श्रावक द्वारा दिया गया प्रासुक आहार लेना एषणासमिति है।
पुस्तक, कमंडलु आदि को रखते — उठाते समय कोमल मयूरपिच्छी से परिमार्जित करके रखना — उठाना आदान निक्षेपण समिति है।
हरी घास, जीव—जन्तु आदि से रहित, एकान्त स्थान में मलमूत्रादि विसर्जित करना उत्सर्ग समिति है। स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण इन पाँचों इन्द्रियों के अच्छे—बुरे विषयों में राग—द्बेष नहीं करना इन्द्रिय निरोध है। कोमल स्पर्श या वंâकरीली भूमि आदि में हर्ष—ाqवषाद नहीं करना, सरस, मधुर या नीरस आदि भोजन में प्रीति—अप्रीति नहीं करना, सुगन्ध—दुर्गंध में रागद्वेष नहीं करना, स्त्रियों के सुन्दर रूप या विकृत वेष आदि में रति — अरति नहीं करना, सुन्दर गीत, असुन्दर शब्द आदि में समभाव धारण करना ये पाँच इन्द्रियों के निरोधरूप पाँच व्रत हैं। इन्द्रियों को शुभ ध्यान में लगाना उनका निरोध है। अवश— जितेन्द्रिय मुनियों का जो कर्तव्य है वह आवश्यक है। जीवन—मरण आदि में संमताभाव रखना और विधिवत् त्रिकाल देव वंदना करना समता या सामायिक आवश्यक है । वृषभ आदि तीर्थंकरों की स्तुति करना स्तव आवश्यक है। अर्हंत, सिद्ध आदि और उनकी प्रतिमाओं को कृतिकर्म विधि पूर्वक नमस्कार करना वन्दना है। व्रतों के अतिचार आदि को दूर करने के लिए निन्दा—गर्हा पूर्वक ऐर्यापथिक, रात्रिक—दैवसिक आदि क्रिया करना प्रतिक्रमण है। भविष्य के दोषों का त्याग करना, आहार के अनन्तर पुन: आहार ग्रहण करने तक चतुराहार का त्याग करना प्रत्याख्यान है।
दैवसिक, रात्रिक आदि क्रियाओं में १०८, ५४, २७, २५ आदि उच्छ्वासों से महामंत्र का ध्यान करना कायोत्सर्ग आवश्यक है। दो, तीन या चार महीने में हाथों से शिर, दाढ़ी, मूँछ के केशों का लुंचन करना ये उत्तम, मध्यम और जघन्यरूप से केशलोंच नाम का मूलगुण है। सभी प्रकार के वस्त्र—आभूषण का त्याग करके नग्न मुद्रा धारण करना आचेलक्य मूलगुण है। स्नान, उबटन आदि छोड़कर व्रतों से पवित्र रहना अस्नानमूलगुण है। कदाचित् रजस्वला स्त्री, चाण्डाल, हड्डी, विष्ठा आदि के छू जाने से दण्डस्नान करके प्रायश्चित लेना होता है। निर्जन्तुक भूमि में, घास, पाटा, चटाई या शिला पर एक पार्शव आदि से सोना क्षितिशयन व्रत है। दांतोन आदि से दन्तघर्षण नहीं करना अदंतधावनव्रत है। पाँवों में चार अंगुल अन्तर रखकर एक स्थान में खड़े होकर आहार लेना स्थिति भोजन है और सूर्योदय के अनन्तर तीन घड़ी के बाद से लेकर सूर्यास्त के तीन घड़ी पहले तक दिन में एक बार आहर लेना एकभुक्त मूलगुण है। इस प्रकार ये २८ मूलगुण होते हैं।
चरण— करण
तेरह प्रकार के चरण और तेरह प्रकार के कारण भी बतलाये हैं। ५ महाव्रत, ५ समिति और ३ गुप्ति ये तेरह चरण या चारित्र हैं। पंच परमेष्ठी को नमस्कार, ६ आवश्यक क्रिया और असही, नि:सही ये तेरह प्रकार के कारण अथवा क्रियायें हैं। ये सभी इन २८ मूलगुणों में गर्भित हैं। मन्दिर, गुफा, वसतिका, वन आदि से निकलते समय ‘‘असही’’ शब्द के द्वारा वहाँ के स्थित व्यन्तर आदि को कहकर निकलना सो असही है और प्रवेश के समय ‘‘नि:सही’’ शब्द के द्वारा उनसे पूछकर वहाँ रहना नि:सही क्रिया है। मुनि के बाह्य चिह्न— आचेलक्य— वस्त्र आदि का त्याग, लोंच, शरीर संस्कारहीनता—स्नान, शृं्रगार आदि का अभाव और मयूरपिच्छिका धारण करना ये चार बाह्य चिह्न दिगम्बर मुनियों के होते हैं। दीक्षा के समय आचार्य शिष्यों को मयूर पिच्छी देते हैं जो कि सूक्ष्म से सूक्ष्म जीव रक्षा के लिए है अत: वह संयम का उपकरण है। यह पिच्छी धूलि को ग्रहण नहीं करती, पसीने से मलिन नहीं होती, अतिमृदु है, सुकुमार है और हल्की है । ये पाँच गुण इसमें होते हैं। ये चार चिह्न मुनियों के माने गये हैं। इसी प्रकार से मलमूत्रादि विसर्जन के समय शुद्धि के लिए काठ का कमंडलु देते हैं जिसमें गर्म जल भरा जाता है यह शौचोपकरण है, ज्ञान की वृद्धि के लिए शास्त्र देते हैं यह ज्ञानोपकरण है। इसके अतिरिक्त पाटे, चटाई, तृण—घास को सोने—बैठने के लिए प्रयोग में लेते हैं। शेष सभी गृहस्थ के योग्य और अपने संयम के लिए अयोग्य वस्तुओं का उपयोग नहीं करते हैं।
समाचारी विधि
‘‘समाचार’’ शब्द के मूलाचार में अनेक अर्थ किए हैं किन्तु यहाँ मुख्यरूप से दो अर्थ विवक्षित हैं। सम् — सम्यक्— ाqनरतिचार मूलगुणों का अनुष्ठान आचार सो समाचार है। अथवा सभी में पूज्य या अभिप्रेत जो आचार है वह समाचार है। इसके दो भेद हैं — औघिक, पदविभागिक। सामान्य आचार को औघिक समाचार कहते हैं इसके दश भेद हैं और पद—विभागी के अनेक भेद हैं।
औघिक समाचार
औघिक के दश भेद— इच्छाकार, मिथ्याकार, तथाकार, आसिका, निषेधिका, आपृच्छा, प्रतिपृच्छा, छन्दन, सनिमंत्रणा और उपसम्पत। सम्यग्दर्शन आदि इष्ट को हर्ष से स्वीकार करना इच्छाकार है। व्रतादि में अतिचारों के होने पर ‘‘मेरा दुष्कृत मिथ्या होवे’’ ऐसा कहकर उनसे दूर होना मिथ्याकार है। गुरु के मुख से सूत्रार्थ सुनकर ‘‘यही ठीक है’’ ऐसा अनुराग व्यक्त करना तथाकार है। जिनमंदिर, वसतिका आदि से निकलते समय ‘‘असही’’ शब्द से वहाँ के व्यंतर आदि से पूछकर जाना असिका है। जिनमंदिर, वसतिका आदि में प्रवेश के समय ‘‘ नि:सही’’ शब्द से वहाँ के व्यंतर आदि को पूछकर प्रवेश करना निषेधिका है। गुरु आदि से वंदनापूर्वक प्रश्न करना, आहार आदि के लिए जाते समय पूछना आपृच्छा है। किसी बड़े कार्य आदि के समय गुरु से बार—बार पूछना प्रतिपृच्छा है। उपकरण आदि के ग्रहण करने में या वन्दना आदि क्रियाओं में आचार्य के अनुवूâल प्रवृत्ति रखना छन्दन है। गुरु से विनय पूर्वक पुस्तक आदि की याचना करना सनिमंत्रणा है। और गुरुजनों के लिये ‘‘ मैं आपका ही हूँ’’ ऐसा आत्मसमर्पण करना उपसम्पत है। इस अन्तिम उपसम्पत् के ५ भेद होते हैं—वनयोपसम्पत, क्षेत्रोपसम्पत् , मार्गोपसम्पत् , सुखदु:खोपसम्पत् और सूत्रोपसम्पत् । अन्य संघ से बिहार करते हुए आये मुनि को अतिथि कहते हैं। उनकी विनय करना, आसन आदि देना, उनके अंग मर्दन करना , प्रियवचन बोलना, आप किन आचार्य के शिष्य हैं ? किस मार्ग से बिहार करते हुए आये हैं ? ऐसा प्रश्न करना। उन्हें तृणसंस्तर, फलकसंस्तर, पुस्तक, पिच्छिका आदि देना, उनके अनुवूâल आचरण करना, उन्हें संघ में स्वीकार करना विनय उपसम्पत् है। जिस क्षेत्र में संयम, गुण, शील, यम, — नियम आदि वृद्धिगत होते हैं उस देश में निवास करना क्षेत्र उपसम्पत् है। आगंतुक मुनि से मार्ग विषयक कुशल पूछना, अर्थात् आपका अमुक तीर्थक्षेत्र या ग्राम से सुखपूर्वक आगमन हुआ है न ? मार्ग में आपके संयम, ज्ञान तप आदि में निर्विघ्नता थी न ? इत्यादि सुख दु:ख के प्रश्न आपस में पूछना मार्ग उपसम्पत् है। आपस में वसतिका, आहार, औषधि आदि से जो उपकार करना है वह सुख—दु:खोपसम्पत् है । अर्थात् जो आंगतुक मुनि आहार, वसतिका आदि से सुखी हैं, उनके साथ शिष्य आदि हैं तो उन्हें कमण्डलु आदि देना, रोग पीड़ित मुनियों का आसन, औषधि, आहार, वैयावृत्ति आदि से उपचार करना और ‘‘मैं आपका ही हूँ’’ ऐसा बोलना यह सब ‘‘ सुख—दु:ख उपसम्पत् ’’ है। साधु साधुओं के लिये आहार की व्यवस्था कराते हैं, वसतिका की व्यव्स्था कराते हैं, औषधि की व्यवस्था कराते हैं और जो स्वयं शक्य है ऐसे पुस्तक आदि देना, शरीर मर्दन आदि करना वह सब करते हैं यही उनका ‘‘ सुख—दु:ख उपसम्पत् ’’ समाचार है। सूत्र के पढ़ने में प्रयत्न करना सूत्रोपसम्पत् है।इस प्रकार से औघिक— संक्षिप्त या सामान्य समाचार दश भेदरूप होता है।
पदविभागिक समाचार
कोई धैर्य, वीर्य, उत्साह आदि गुणों से युक्त मुनि अपने गुरु के पास उपलब्ध सम्पूर्ण शास्त्रों को पढ़कर अन्य आचार्य के पास यदि और विशेष अध्ययन के लिये जाना चाहता है तो वह अपने गुरु के पास विनय से अन्यत्र जाने हेतु बार—बार प्रश्न करता है। अवसर देखकर तीन, पाँच या छह बार प्रश्न करता है। पुन: दीक्षागुरु और शिक्षागुरु से आज्ञा लेकर अपने साथ एक, दो या तीन मुनियों को लेकर जाता है, क्योंकि हीन संहनन वाले सामान्य मुनियों के लिए जिनागम में एकलविहारी की आज्ञा नहीं है। जो साधु द्वादशविध तप को करने में समर्थ हैं, द्वादशांग या तात्त्विक अनेक शास्त्रों के ज्ञाता हैं, प्रायश्चित ग्रन्थ के वेत्ता हैं, शरीर की हड्डी आदि बल से सम्पन्न हैं, उत्तम तीन संहननों में से किसी एक संहनन के धारी हैं, एकत्व भावना में तत्पर हैं, परीषहों को जीतने में समर्थ हैं, बहुत दिनों से दीक्षित हैं, और आचार शास्त्र के पारंगत हैं ऐसे महामुनि ही एकलविहारी हो सकते हैं अन्य नहीं। ‘‘जो साधु स्वच्छंद गमनागमन करता है।’’ स्वच्छंदता पूर्वक उठता, बैठता, सोता है, स्वच्छन्दता पूर्वक बोलना—चलना आदि क्रियायें करता है ऐसा स्वच्छन्द प्रवृत्ति करने वाला कोई भी मुनि मेरा शत्रु भी क्यों न हो तो भी वह एकाकी विचरण न करेमूलाचार गाथा १५०।।’’ ऐसा श्री कुन्दकुन्ददेव का वाक्य है क्योंकि स्वेच्छाचारी मुनि के एकाकी विहार करने से गुरु की निन्दा, श्रुताध्यान का विच्छेद, तीर्थ की मलिनता, जड़ता, मूर्खता, आकुलता, कुशीलता और पाश्र्वस्थता आदि दोष आ जाते हैं। ऐसे साधु के जिनेन्द्रदेव की आज्ञा का लोप, अनवस्था (देखा—देखी वैसा ही अन्य भी करने लगें), मिथ्यात्व की आराधना, आत्म गुणों का नाश और संयम की विराधना इन पाँच निकाचित दोषों का प्रसंग आ जाता है।मूलाचार गाथा १५४।
आर्यिकाओं की चर्या
ये मूलगुण और समाचारी विधि जो मुनियों के लिए हैं वे ही आर्यिकाओं के लिये मानी हैं गाथा में जो ‘‘जहाजोग्गं’’ पद है उससे टीकाकार ने ऐसा अर्थ लिया है, कि वे आर्यिकायें वृक्षमूल आदि योग नहीं कर सकती हैं बाकी सब अहोरात्र की चर्या मुनियों वे सदृश है।’’ जो विशेषता है वह यही है कि वे परस्पर में अनुवूâल रहती है, गणिनी की आज्ञा बगैर कहीं नहीं जाती हैं और एकाकी नहीं रहती हैं। गुरु के पास वन्दना या प्रायश्चित्त के समय भी अपनी गुर्वानी के साथ जाती हैं। वे दो साड़ी ग्रहण करती हैं और बैठकर आहार करती हैं। स्त्रीपर्याय के निमित्त से उनके लिये ऐसी ही आज्ञा है। आर्यिकाओं का आचार्यत्व (नेतृत्व) कौन करते हैं ? जो आचार्य गम्भीर हैं, स्थिरचित्त हैं , मितवादी हैं, अल्पकुतूहली हैं, चिरकाल से दीक्षित हैं, आचार ग्रन्थ, प्रायश्चित आदि ग्रन्थों में कुशल हैं, पापभीरु हैं, वे ही आर्यिकाओं का नेतृत्व करते हैं अन्य नहीं। यदि इन गुणों से व्यतिरिक्त कोई आर्यिकाओं का आचार्यत्व करते हैं तो वे गणपोषण, आत्मसंस्कार, सल्लेखना और उत्तमार्थ इन चार की विराधना कर लेते हैं और लोक में स्वयं की, संघ की अथवा धर्म की निन्दा कराते हैं।मूलाचार गाथा १८३, १८४, १८५। अहोरात्र के कृतिकर्म— ‘‘जिन अक्षरों से या जिन परिणामों से अथवा जिस क्रिया से आठ प्रकार के कर्मों को काटा जाता है— छेदा जाता है वह कृतिकर्म है २ ।’’ ये कृतिकर्म २८ होते हैं। दैवसिक रात्रिक प्रतिक्रमण के ४—४, तीन काल देववंदना के दो—दो ऐसे ६, चार काल के स्वाध्याय के तीन—तीन ऐसे १२, और रात्रि योग ग्रहण विसर्जन के एक—एक ये सब ४±४±६±१२±२·२८ कृतिकर्म होते हैं। मूलाचार में कहा है कि ‘‘ प्रतिक्रमण के ४, स्वाध्याय के ३ ऐसे पूर्वाण्ह के ७ और इसी तरह अपराण्ह के ७ मिलकर १४ कृतिकर्म होते हैं।’’ टीका में स्पष्टीकरण है कि ‘‘पश्चिम रात्रि के प्रतिक्रमण के ४, स्वाध्याय के ३ और वन्दना के २, सूर्योदय के बाद स्वाध्याय के ३, मध्यान्ह वन्दना के २ ये पूर्वाण्ह के १४ कृतिकर्म हुए। इस तरह कुल मिलाकर अहोरात्र के २८ कृतिकर्म होते हैं३. मूलाचार गाथा, ६०२।। अनगार धर्मामृत में इन्हें कायोत्सर्गअनगार धर्मामृत । नाम से कहा है। त्रिकाल देववन्दना में चैत्यभक्ति और पंचगुरुभक्ति सम्बन्धी दो—दो, र्२े३ ·६, दैवसिक—रात्रिक प्रतिक्रमण में सिद्ध , प्रतिक्रमण, निष्ठितकरणवीर और चतुर्विंशतितीर्थंकर इन चार भक्ति सम्बन्धी चार—चार र्४े२·८, पूर्वाण्ह, अपराण्ह, पूर्वरात्रिक, अपररात्रिक इन चारकालिक स्वाध्याय में अर्थात् स्वाध्याय के प्रारम्भ में श्रुतभक्ति, आचार्यभक्ति एवं समाप्ति में श्रुतभक्ति ऐसे तीन—तीनभक्ति सम्बन्धी तीन—तीन, र्४े३ ·१२, रात्रियोग प्रतिष्ठापन में योग भक्ति सम्बन्धी और रात्रियोग निष्ठापन में योग भक्ति सम्बन्धी— ऐसे २, कुल मिलकार २८ होते हैं।
कृतिकर्म का लक्षण
यथाजात मुद्राधारी मुनि मन वचन काय की शुद्धि करके दो प्रणाम, बारह आवर्त और चार शिरोनति पूर्वक कृतिकर्म का प्रयोग करें। अर्थात् सामायिकस्तव पूर्वक कायोत्सर्ग करके चतुर्विंशति स्तव पर्यंत जो क्रिया की जाती है वह कृतिकर्म है। जिसका खुलासा इस प्रकार है जैसे पौर्वाण्हिक स्वाध्याय करना है उनका प्रयोग— ‘‘ अथ पौर्वाण्हिकस्वाध्यायप्रारम्भक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावन्दनास्तवसमेतं श्रुतभक्ति कायोत्सर्गं करोम्यहम् ।’’ ऐसी प्रतिज्ञा करके पंचांग नमस्कार किया जाता है। पुन: तीन आवर्त एक शिरोनति करके ‘‘ णमो अरिहंताणं से लेकर तावकालं पावकम्मं दुच्चरियं वोस्सरामि’’ यहाँ तक पाठ करके तीन आवर्त, एक शिरोनति की जाती है। पुन: कायोत्सर्ग करके पंचांग नमस्कार किया जाता है। अनन्तर तीन आवर्त एक शिरोनति करके ‘‘ थोस्सामि हं जिणवरे’’ यह थोस्सामि पाठ पढ़कर तीन आवर्त एक शिरोनति होती है। तदनन्तर श्रुतभक्ति पढ़ी जाती है। इस प्रकार एक कृतिकर्म या कायोत्सर्ग में दो नमस्कार, बारह आवर्त और चार शिरोनति हो जाती हैं। इन २८ कृतिकर्मों में साधुओं की अहोरात्र की चर्या विभाजित हो जाती है। इसी प्रकार से त्रिकाल में गुरु की वन्दना में लघु सिद्धाक्ति, आचार्यभक्ति की जाती है। यह सब तो नित्य क्रियायें हैं। नैमित्तिक क्रियायें— चतुर्दशी के दिन त्रिकाल देववन्दना में चैत्यभक्ति के अनंतर श्रुतभक्ति करके पंचगुरुभक्ति करें। अथवा सिद्ध , चैत्य, श्रुत, पंचगुरु और शांतिभक्ति इन पाँच भक्तियों को करें। अष्टमी के दिन सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति, सालोचना चारित्र भक्ति अर्थात् चारित्र भक्ति पढ़कर ‘‘ इच्छामि भंते अट्ठमियम्मि’’ इत्यादि प्रतिक्रमण दंडकों का उच्चारण करके शांति भक्ति पढ़ें। नन्दीश्वर पर्व में पूर्वाण्ह स्वाध्याय के अनन्तर सभी साधु मिलकर सिद्धभक्ति, नंदीश्वरभक्ति, पंचगुरुभक्ति और शांतिभक्ति करें। वीरनिर्वाण क्रिया के समय सिद्ध, निर्वाण, पंचगुरु और शांतिभक्ति की जाती है। वर्षा काल के प्रारम्भ में आषाढ़ शुक्ला त्रयोदशी के दिन मध्यान्ह में मंगलगोचर मध्यान्ह देववन्दना में सिद्ध, चैत्य, पंचगुरु और शांतिभक्ति करके गुरु वन्दना करें। आहार ग्रहण करने के अनंतर गुरु के पास वृहत् सिद्ध भक्ति, योगभक्ति पढ़कर प्रत्याख्यान (उपवास) ग्रहण कर आचार्य भक्ति और शांति भक्ति करें। आषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी की पूर्वरात्रि में सिद्ध, योग भक्ति करके चारों दिशाओं में चार बार स्वयंभू स्तोत्र के दो—दो स्तोत्र सहित चैत्यभक्ति की जाती है पुन: पंचगुरु और शांतिभक्ति करके वर्षायोग ग्रहण किया जाता है। ऐसे ही कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की पिछली रात्रि में इसी विधि से वर्षा योग समापन क्रिया की जाती है। पाक्षिक प्रतिक्रमण तो मुद्रित है उसी से पूरा विधिवत् किया जाता है। ऐसे ही तीर्थंकरों के कल्याणक और साधुओं की संन्यास क्रिया एवं निषद्या वन्दना में भक्तियों का विधान है। विशेष आचारसार आदि ग्रन्थों से समझना चाहिये।
उपर्युक्त सारी क्रियायें साधु के मूलगुण के अन्तर्गत हैं।
साधुओं के लिए १२ तप और २२ परीषह ऐसे ३४ उत्तरगुण होते हैं। इससे अतिरिक्त चौरासी लाख भी उत्तरगुण होते हैं।
१२ तप— अनशन, अवमौदर्य, वृत्तपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त—शय्यासन और कायोत्सर्ग ये ६ बाह्य तप हैं। प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान ये ६ अंतरंग तप हैं।
अनशन—उपवास करना।
अवमौदर्य—भूख से कम खाना।
वृत्त—परिसंख्यान—घरों का या अन्य कुछ भी अटपटा नियम लेकर आहार को जाना।
रसपरित्याग— दूध, दही आदि में से कोई रस या सब रस छोड़ना ।
विविक्त शय्यासन—एकान्त स्थान में बैठना, सोना,
कायक्लेश—एक आसन से बैठना, सोना, या शीत, उष्ण आदि बाधाओं को सहन करना।
प्रायश्चित — व्रतों में दोष लग जाने पर गुरु से प्रायश्चित लेना। विनय—ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और इनके धारकों की विनय करना।
वैयावृत्य— रोगी, थके आदि साधुओं की सेवा, शुश्रूषा आदि करना।
स्वाध्याय—ग्रन्थों का पढ़ना—पढ़ाना।
व्युत्सर्ग — अंतरंग — बहिरंग परिग्रहों का त्याग करना और ध्यान — धर्मध्यान आदि करना।
ऐसे ही क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नाग्न्य, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृण—स्पर्श, मल, सत्कार—पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन ये २२ परीषह होते हैं। इनको जीतने वाले मुनि परीषहजयी कहलाते हैं। इस प्रकार से पूर्व में कहे गये २८ मूलगुण होते हैं और ये ३४ उत्तरगुण होते हैं । आज के मुनियों में मूलगुण पाये जाते हैं उत्तरगुण भी कुछ रहते हैं। प्रत्येक तीर्थंकरों के तीर्थ में भी पाँच प्रकार के मुनि होते हैं उसी को कहते हैं—
पुलाक आदि मुनि— मुनियों के पाँच भेद होते हैं— पुलाक, वकुश, कुशील, निग्रंथ और स्नातक।
पुलाक— जो उत्तरगुणों से हीन हैं और व्रतों में कदाचित् दोष लगा देते हैं वे बिना धुले हुये धान्य सदृश (किंचित् लालिमा सहित) होने से पुलाक कहलाते हैं।
वकुश — जो मूलगुणों को तो पूर्णतया पालते हैं , किन्तु शरीर के संस्कार, ऋद्धि, सुख, यश और विभूति के इच्छुक हैं, वे वकुश हैं।
कुशील—कुशील मुनि के दो भेद हैं — प्रतिसेवना कुशील और कषाय कुशील। जो परिग्रह की भावना सहित हैं, मूलगुण और उत्तरगुणों में परिपूर्ण हैं, किंतु कभी—कभी उत्तर गुणों की विराधना करने वाले हैं वे प्रतिसेवना कुशील हैं। ग्रीष्मकाल में जो जंघा प्रक्षालन आदि का सेवन करते हैं, संज्वलन मात्र कषाय के वशीभूत हैं वे कषायकुशील हैं।
निग्रंथ— जल में खींची हुई रेखा के समान जिनके कर्मों का उदय अनभिव्यक्त है और जिनको अंतर्मुहूर्त में ही केवल ज्ञान उत्पन्न होने वाला है वे निर्गंथ हैं। ये बारहवें गुणस्थानवर्ती मुनि हैं।
स्नातक— केवली भगवान् स्नातक हैं। यह बात विशेष है कि जिनके मूलगुणों में कदाचित् विराधना हो जाती है वे ही पुलाकमुनि होते हैं। तत्त्वार्थराजवार्तिक में इन सभी मुनियों को भावलिंगी पूज्य प्रामाणिक कहा है । इसी दृष्टि से आज भी इस पंचमकाल में सच्चे भावलिंगी मुनि होते हैं और होते ही रहेंगे। श्री कुन्दकुन्ददेव के भी वाक्य यही हैं—
भरहे दुस्समकाले धम्मज्झाणं हवेइ साहुस्स।
तं अप्पसहावठिदे णहु मण्णइ सोवि अण्णाणि।।७६।।
अज्जवि तिरयणसुद्धा अप्पा झाएवि लहइ इन्दत्तं।
लोयंत्तिय देवत्तं तत्ध चुदा णिव्वुदिं जंति।।७७।।
इस भरतक्षेत्र में दु:षमकाल में मुनि को आत्मस्वभाव में स्थित होने पर धर्मध्यान होता है, जो ऐसा नहीं मानता है वह अज्ञानी है। आज भी इस पंचमकाल में रत्नत्रय से शुद्ध आत्मा— मुनि आत्मा का ध्यान करके इन्द्रत्व और लौकांतिक देव के पद को प्राप्त कर लेते हैं और वहाँ से च्युत होकर अर्थात् मनुष्य होकर दीक्षा लेकर निर्वाण को प्राप्त कर लेते हैं इसलिये आज जितने भी मुनि हैं वे २८ मूलगुण के धारी होने से पूज्य हैं।